तर्ज – मुक्ति पथ का पथिक….
१.
ये यशोगाथा है उनकी तुम जो सुनो।
जिनने छोड़ा है माया को अल्पायु में।।
ले के श्रद्धासुमन मैं करू वन्दना।
हो शतायु हे माता ! यही कामना।।
२.
इनका बचपन था सबमें निराला बहुत।
मानों भेजा गया हो इन्हें विश्व में।।
जैसे कन्या नहीं कोई अवतार हो।
मां से मिथ्यात्व तुमने यूँ छुड़वाए थे।।
३.
मां पिताजी का स्नेह तुमपे बहुत।
पर था होनी को मंजूर कुछ और ही।।
यौवनावस्था आते जो चर्चा छिड़ी।
पर था मन में तुम्हारे तो कुछ और ही।।
४.
आ गए थे तभी देशभूषण गुरु।
और पूरी हुई आस तब आपकी।।
मन की इच्छा बताई थी जब आपने।
घर में कोहराम सबने मचाया तभी।।
५.
मां पिताजी बहुत रोए तब टूटकर
भाई बहनें भी रोई थी तब पूटकर।।
पर नहीं कोई विचलित तुम्हें कर सका।
ऐसा वैराग्य मन में समा था गया।।
६.
कुछ समय घर में रुककर पुन: चल पड़ी।
साथ में छोटे भाई श्री वैलाश को।।
बाराबंकी में आकर के अनशन किए।
तब सभी झुक गए हारकर आपसे।।
७.
सातवीं प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिए।
बन गए देशभूषण गुरु आपके।।
सबको समझा बुझा करे वापस किया।
बोले बेटी! न दीक्षा की जल्दी करो।।
८.
पर ये वैरागी मन न अधिक रुक सका।
जाके महावीर जी में बनी क्षुल्लिका।।
आपके साहसीपन व दृढ़ता को लख।
‘‘वीरमति’’ नाम रखा तब आचार्य ने।।
९.
पर न तृप्ति हुई क्षुल्लिका बन के भी।
आर्यिका पदवी देने की फिर याचना।।
इतनी छोटी सी आयु औ लम्बा सफर।
बोले चल न सकोगी मेरे साथ में।।
१०.
वीर सागर जी महाराज के संघ में।
जाके दीक्षा ग्रहण कर बनी आर्यिका।।
जो कदम बढ़ चले फिर वो बढ़ते गए।
पीछे मुड़कर न देखा कभी आपने।।
११.
आपके गुण नहीं छिप सके उनसे भी।
‘‘ज्ञानमती’’ नाम से फिर सुशोभित किया।।
हे चरम सीमा जो त्याग वैराग्य की।
आपने उस ही क्षण से वो सब पा लिया।।
१२.
गुरु का स्नेह तुमको बहुत ही मिला।
पर वो ज्यादा समय तक न जीवित रहे।।
दो बरस के ही पश्चात् जयपुर नगर।
खानियाजी में उनकी समाधि हुई।।
१३.
उनके पट पे विराजे जो आचार्य थे।
नाम ‘‘शिवसागर’’ था न्यायप्रिय थे बहुत।।
शिष्यों का हर समाधान करते थे वे।
पर पढ़ाने का शुभ काम सौंपा तुम्हें।।
१४.
फिर जो वर्षा करी ज्ञान की आपने।
वो नजारें नहीं देखे होंगे कहीं।।
खुद भी स्वाध्याय इतना गहनतम किया।
न अछूता रहा कोई विषय आपसे।।
१५.
न्याय और व्याकरण से कठिनतम विषय।
आपने थोड़े ही श्रम से सब पढ़ लिए।।
‘‘त्रिशला’’ कहती है माता सरस्वती तुम्हें।
है नहीं अतिशयोक्ति ये सच है प्रिये।।
१६.
ज्ञान के संग—संग जो परोपकार की।
भावना भी थी तुमनें समाई हुई।।
और उसी भावना के वशीभूत हो।
कितनों को है बनाया स्वयं की तरह।।
१७.
फिर अनेकों ही देशों में करके भ्रमण।
जो किए कार्य उनने सुनाऊँ तुम्हें।।
कितनी विधवाएँ और क्वांरी कन्याओं को।
वैसे ग्रह बन्धनों से निकाला उन्हें।।
१८.
कितनी ही बातें लोगों की सुननी पड़े।
पर नहीं कोई परवाह की आपने।।
वैसे इनको मैं निष्णात सबमें करूँ।
बस इसी धुन में हरदम रहीं आप तो।।
१९.
इस तरह से बहुत दिन रहीं संघ में।
फिर तो इच्छा हुई तीर्थ यात्रा करूँ।।
पर गुरु वृद्ध थे कर न सकते भ्रमण।
इसलिए उनकी आज्ञा से चल दी स्वयं।।
२०.
साथ में वे सभी आर्यिका चल पड़ी।
आर्यिका जिनमती आदिमती अभयमती।
श्रेष्ठमति और पद्मावती भी चली।
क्योंकि ये सब भी शिष्यायें सब आपकी।
२१.
सबसे पहले गयीं आप सम्मेदगिरि।
बीस तीर्थकरों की तपोभूमि जो।।
साथ में और कितनी ही यात्रा करी।
फिर भी अध्ययन कराती रही आप तो।।
२२.
उसके पश्चात् जब आगमन था हुआ।
शहर कलकत्ते में धूम सी मच गयी।।
हर तरफ ऐसी चर्चा चली आपकी।
भूल न पाये हैं वे दिवस आज भी।।
२३.
इस तरह से सभी क्षेत्रों में घूमकर।
खूब की तुमने धर्म की परभावना।।
फिर चली प्रान्त दक्षिण की यात्रा पे तुम।
जंह ‘‘श्रेवणवेल गोला’ जो विख्यात है।।
२४.
बाहुबली के निकट खूब तपस्या करी।
ध्यान में बैठकर चितवन जो किया।।
उसकी गाथा सुनों मैं बताऊँ तुम्हें।
अब ये सपना नहीं सच दिखाऊँ तुम्हें।।
२५.
वो तो रचना बनी है सुहानी बड़ी।
जिसको जग जानता है जम्बूद्वीप से।।
ये उसी ध्यान की देन है साथियों।
और माता की भक्ति का फल भाइयों।।
२६.
है नगर हस्तिनापुर भी सार्थक हुआ।
वर्ना ये तो पुराणों में ही वैद था।।
लगता हर साल मेला यहां पर बड़ा।
पर अब देख लो कैसा तीरथ बना।।
२७.
अब अधिक ये बताने से क्या फायदा।
अब तो सारा जगत जानता है इन्हें।।
जो सुनाऊँगी आगे की अब मैं कथा।
वो भी इनसे ही जुड़ती रही सर्वथा।।
२८.
आगे की यात्रा में शिष्य जो है बने।
आज हैं साथ में ‘‘मोतीसागर’’ है जो।।
‘‘शिवमती जी’’ को है लाई श्रवणवेल से।
और भी कितने हैं जो मुनिवेष में।।
२९.
जब वे लौटी थी यात्रा से फिर संघ में।
तब अचानक ही आचार्य श्री चल बसे।।
आप सबने था मिलकर बनाया तभी।
‘‘धर्म सागर जी’’ आचार्य चौथे बने।।
३०.
थी बहुत छोटी मैं पितु का साया उठा।
किया अंतिम क्षणों में तुम्हें स्मरण।।
तब थी पिच्छी लगाई गयी आपकी।
भाइयों ने णमोकार मंतर को पढ़।।
३१.
कुछ दिनों घर में रुककर चली आपके।
दर्शनों को थी मां आई तब टोंक में।।
साथ में मेरे भइया रविन्दर जी थे।
क्या पता तब उन्हें शिष्य इनका है ये।।
३२.
तब थी मैं भी गई दर्शनों के लिए।
र्मुितवत उस समय ध्यान में लीन थी।।
जैसे ताराओं विच शोभता चन्द्रमा।
ठीक वैसा ही देखा नजारा वहाँ।।
३३.
अपने शिष्याओं के मध्य बैठी थी वो।
मैं न पहचानती कौन मेरी बहन।।
मां से तब पूँछकर इनके दर्शन किए।
थे सभी दृश्य कौतुक के मेरे लिए।।
३४.
मां से बोली इसे तो पढ़ाऊँगी मैं।
छोटी सी शास्त्री इसको बनाऊंगी मैं।।
ये था सौभाग्य मेरा कि कुछ पढ़ सके।
इनके चरणों के ही फल से कुछ बन सके।।
३५.
राजस्थानों में देखो खुली सी जगह।
और संग्रहणी भी हो गई थी तुम्हें।।
इतनी ठंडक भरी रातें गर्मी के दिन।
पर नहीं करती विश्राम लेखन के बिन।।
३६.
लेखनी की उठाई थी जबसे कलम।
कोई भी दुख बीमारी न बाधक बनी।।
नजला बहता रहे आप लिखती रहें।
ये तो देखा है मैंने भी नजदीक से।।
३७.
मोहनी मां ने जग को ये दीना रतन।
उनके जितने भी गुण गाये उतने हैं कम।।
आई इक महिला तुमसे ये कहने लगी।
ये तो अच्छा हुआ एक नारी हो तुम।।
३८.
आदि ‘‘म’’ नाम से जितनी बहनें हुई।
सबने धारा है व्रत आपके पास में।।
एक है शोभती ‘‘अभमति’’ नाम से।।
दूजी है ‘‘चंदना’’ जिनको सब जानते।।
३९.
कुछ दिनों बाद अजमेर में हो रहीं।
थी जो दीक्षायें मां आई थीं देखने।।
मां ने भी इनके कहने से दीक्षा धरी।
था वह अजमेर का दृश्य करुणामयी।।
४०.
सबको घुट्टी सदा यह पिलाती थी ये।
घर के बन्धन में पड़ने से क्या फायदा।।
सच्चा सुख तो है आत्मा में इसमें रमों।
जैसे भी हो सके तप को धारण करो।।