गोम्मटेश्वर के चरणों में ध्यान से प्रगट हुई जम्बूद्वीप रचना
सन् १९६५ की घटना है पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने आर्यिका संघ सहित श्रवणबेलगोला में चातुर्मास किया। उस समय १५ दिनों तक पर्वत पर ही रहकर उन्होंने भगवान बाहुबली के श्रीचरणों में पिण्डस्थ ध्यान किया। एकाग्रतापूर्वक किये गये ध्यान का प्रतिफल यह निकला कि एक दिन ध्यान में माताजी को मध्यलोक की तेरह द्वीप रचना के अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन हुए और एक दिव्य प्रकाश उन्हें दृष्टिगत हुआ। हर्षातिरेक से उन चैत्यालयों का बार-बार स्मरण करते हुए पर्वत से नीचे आकर उन्होंने तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार ग्रंथ निकालकर मध्यलोक के अकृत्रिम चैत्यालयों की गणना देखी और उसमें वैसा ही वर्णन देखकर बहुत खुश हुर्इं, पुन: माताजी ने अपनी शिष्याओं को सारा वृत्तान्त बताकर उन्हें अपने उपदेश द्वारा मध्यलोक के चैत्यालयों के दर्शन करवाए। पुन: जब जनसाधारण के समक्ष माताजी ने इसका वर्णन किया तब लोगों ने इसे पृथ्वी पर साकार करने की प्रार्थना की और सोलापुर, सिद्धवरकूट, महावीरजी, दिल्ली आदि कई स्थानों पर इस रचना को साकार रूप देने की लोगों ने बहुत कोशिश की परन्तु ध्यान का साकार रूप जम्बूद्वीप रचना उसी हस्तिनापुर तीर्थ पर सन् १९७४ में साकार रूप लेने को उद्यत हो उठी, जहाँ करोड़ों वर्ष पूर्व राजा श्रेयांस ने स्वप्न में सुमेरु पर्वत को देखा था और उसके प्रतिफल में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को प्रथम आहार देने का (इक्षुरस का) पुण्य प्राप्त किया था। आज देश-विदेश से हजारों-लाखों पर्यटक आकर इस वंदनीय एवं दर्शनीय स्थल जम्बूद्वीप का आनन्द लेते हैं।
सुदर्शन मेरु के शिलान्यास से प्रारंभ हुआ हस्तिनापुर का उद्धार
ईसवी सन् १९७२ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का विहार राजस्थान से राजधानी दिल्ली की ओर हुआ और पहाड़ी धीरज के उस प्रथम चातुर्मास के मध्य ‘‘दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान’’ की स्थापना की गई। पुन: सन् १९७४ में चातुर्मास से पूर्व माताजी अपने संघ सहित दिल्ली से हस्तिनापुर पधारीं, तब यह तीर्थ उन्हें पसंद आया। यहीं पर संघस्थ ब्र. मोतीचंद जी एवं सहयोगी महानुभावों के सहयोग से एक छोटी सी भूमि का चयन किया गया और माताजी ने वहाँ सुमेरु पर्वत का शिलान्यास कराया। पुन: दिल्ली पहुँचकर मंगल चातुर्मास के अनन्तर दिसम्बर सन् १९७४ में माताजी ने अपने आर्यिका संघ सहित हस्तिनापुर में पुन: पदार्पण किया। पूज्य आचार्यश्री धर्मसागर महाराज भी अपने चतुर्विध संघ सहित हस्तिनापुर पधारे, जहाँ उनके संघस्थ मुनिराज श्री वृषभसागर महाराज ने विधिवत् सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण का सौभाग्य प्राप्त किया। इस प्रकार सन् १९७४ से देखते-देखते ही हस्तिनापुर तीर्थ की काया पलट होने लगी। क्षेत्र पर जहाँ एक २५० वर्ष पुराने मंदिर के अतिरिक्त कुछ नहीं था, वहीं माताजी के पधारने के बाद अनेक जिनमंदिरों के मनोहारी दृश्य उपस्थित हो गये तथा नशिया मार्ग पर क्रय की गई भूमि जहाँ जम्बूद्वीप रचना बननी थी, उस घने जंगल जैसे स्थान पर छोटा सा १२²१२ फुट का कमरा बनाकर भगवान महावीर की अवगाहना प्रमाण ७ हाथ खड्गासन प्रतिमा विराजमान की गई, जिसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा फरवरी सन् १९७५ में पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर महाराज एवं श्री ज्ञानमती माताजी के संघ सानिध्य में सम्पन्न हुई। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के शब्दों में-ये कल्पवृक्ष महावीर स्वामी हैं, इन्हीं प्रभु की कृपा प्रसाद से ही जंगल में मंगल होकर द्रुतगति से सम्पूर्ण रचना मूर्तरूप ले सकी है। छोटे कमरे से बड़े मंदिर रूप में परिवर्तित श्वेत ‘‘कमल मंदिर’’ आज प्रत्येक पर्यटक का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है।
करोड़ों वर्ष पूर्व स्वप्न में देखा हुआ सुमेरुपर्वत साकार हुआ हस्तिनापुर में
कौन जानता था कि जिस हस्तिनापुर नगरी में करोड़ों वर्ष पूर्व राजा श्रेयांस ने स्वप्न में सुमेरु पर्वत देखकर उसके फलस्वरूप भगवान ऋषभदेव को प्रथम पारणा के रूप में इक्षुरस का आहार दिया था, उसी हस्तिनापुरी में करोड़ों वर्ष पश्चात् साक्षात् सुमेरु पर्वत का निर्माण होगा? किन्तु उस स्वप्न को साकार किया पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् १९७४ में संघ सहित पधारकर- जम्बूद्वीप रचना के प्रथम चरण के रूप में बीचों-बीच में सुदर्शन मेरु पर्वत का निर्माण पूर्ण होकर गुलाबी संगमरमर पत्थर लगने तक इसमें लगभग ४ वर्ष लग गये। आखिरकार २९ अप्रैल से ३ अप्रैल १९७९ की वह शुभ घड़ी आ ही गई जब १०१ फुट ऊँचे सुमेरुपर्वत निर्माण की पूर्णता पर ‘‘श्री सुदर्शन मेरु जिनिंबब पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव’’ का भव्य आयोजन संस्थान के द्वारा किया गया। ऐसा अपूर्व आयोजन एवं गजरथ महोत्सव उत्तर प्रांत में प्रथम बार हुआ था। इस सुअवसर पर पूज्य माताजी ससंघ दिल्ली से विहार कर जम्बूद्वीप स्थल पर पधारीं और उसी जंगल जैसे स्थान पर ही महावीर मंदिर के पास बनीं फूस की झोपड़ी में ठहरीं। इस प्रथम प्रतिष्ठा महोत्सव में आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागर जी महाराज संघ सहित पधारे। उत्तरप्रदेश शासन के विद्युत मंत्री श्री रेवती रमण जी ने इस सुमेरु पर्वत का उद्घाटन कर स्वयं को गौरवान्वित किया था। पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी (ज्ञानमती माताजी की जन्मदात्री माँ) अतीव प्रसन्नता के साथ इस सुमेरु पर्वत का दर्शन करके अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना जैसी अनुभूति किया करती थीं। इसी प्रतिष्ठा महोत्सव के मंगल अवसर पर जैन-जैनेतर सभी के आकर्षण के लिए सुन्दर-सुन्दर झाँकियाँ बनवाई गई थीं, जो आज भी ‘‘ज्ञानमती कला मंदिरम्’’ के नाम से आगन्तुक यात्रियों को हस्तिनापुर का इतिहास बताती हैं। उसी समय ‘‘आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ’’ की स्थापना भी की गई थी। उस विद्यापीठ में शिक्षा प्राप्त कर अनेक विद्यार्थी मुनि, भट्टारक, ब्रह्मचारी, प्रतिष्ठाचार्य आदि रूप में देश भर के अन्दर व्यापक धर्मप्रभावना कर रहे हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप स्थल पर यह प्रथम पंचकल्याणक स्वयं में अभूतपूर्व था जिसमें सुमेरु पर्वत में १६ जिनप्रतिमाएं विराजमान की गर्इं। इस पर्वत के दर्शन हेतु लोग १३६ सीढ़ियाँ चढ़ते हैं और खूब प्रसन्न होकर सातिशय पुण्य का संचय करते हैं।
जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ का प्रवर्तन
सन् १९७२ में ही जब जम्बूद्वीप का सामान्य मॉडल बन रहा था उस समय से पूज्य माताजी के मन में यह भावना थी कि इस मॉडल को आकर्षक बनाकर सारे भारत में घुमाकर सबको जैन भूगोल का दिग्दर्शन कराने वाली जम्बूद्वीप रचना से परिचित कराया जाये। अत: उसकी रूपरेखा बनाकर पूज्य माताजी के ही संघ सानिध्य में ४ जून १९८२ को दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किला मैदान से भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ का प्रवर्तन कराया गया। उस समय इन्दिरा जी पूज्य माताजी के पास आकर उनका स्नेहिल आशीर्वाद प्राप्त कर अति प्रसन्न हुर्इं और अनेक प्रकार के धार्मिक – राजनीतिक विषयों की चर्चा करके उन्हें जो सन्तुष्टि प्राप्त हुई वह वास्तव में अनिर्वचनीय थी। उन्होंने ज्योतिरथ पर स्वस्तिक बनाकर प्रवर्तन प्रारंभ करके अपने वक्तव्य में रथभ्रमण की उपयोगिता को बताते हुए सभी देशवासियों को इससे व्यसनमुक्ति की शिक्षा लेने हेतु प्रेरणा प्रदान की। जैनागम में वर्णित भूगोल एवं खगोल के विषय के अध्ययन, अनुसंधान की प्रक्रिया को गतिशील बनाने के उद्देश्य से प्रवर्तित जम्बूद्वीप के इस रथ ने दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, आसाम, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश आदि सम्पूर्ण भारत के कोने-कोने में जाकर विशेष प्रभावनापूर्वक सभी में ज्ञान की ज्योति जलाई पुन: इसी जम्बूद्वीप प्रतिष्ठापना महोत्सव के मध्य २८ अप्रैल १९८५ को अपने १०४५ दिन के भ्रमण के पश्चात् ‘ज्ञानज्योति रथ’ का हस्तिनापुर में मंगल पदार्पण हुआ।
जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति सेमिनार का उद्घाटन किया श्री राजीव गाँधी ने
जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति रथ प्रवर्तन के पश्चात् पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का ससंघ चातुर्मास चूँकि दिल्ली में हुआ था इसलिए शरदपूर्णिमा के शुभ अवसर पर दिल्ली में ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति सेमिनार’’ का एक शैक्षणिक कार्यक्रम राजधानी में आयोजित किया गया, जिसका उद्घाटन दिल्ली के फिक्की ऑडिटोरियम में विशाल समारोह के साथ सम्पन्न हुआ। ३१ अक्टूबर १९८२ को सांसद श्री राजीव गांधी ने पधारकर सेमिनार का उद्घाटन किया तथा पूज्य माताजी से राजसत्ता के उच्चतम पद को प्राप्त करने हेतु आशीर्वाद ग्रहण किया। पुन: अपनी माँ इन्दिरागांधी के पश्चात् भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। जैन भूगोल का ज्ञान कराने वाली यह संगोष्ठी सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई, जिसमें मेरठ विश्वविद्यालय के कुलपति सहित देशभर के उच्चकोटि के अनेक विद्वान् (डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य, डॉ. लालबहादुर शास्त्री आदि) पधारे और अनेक गहन विषयों का ज्ञान पूज्य माताजी से प्राप्त किया।
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी को अभिनंदन ग्रंथ समर्पण
जैन समाज के अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेकर वास्तव में अपनी सूझबूझ का परिचय दिया सन् १९८३ में, जब जम्बूद्वीप की प्रेरणास्रोत पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की जन्मदात्री माँ पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के करकमलों में नवम्बर १९८३ में एक अभिनंदन ग्रंथ भेंट कर देश को उनके त्यागमयी विराट व्यक्तित्व से परिचित कराया। वैसे तो प्रत्येक महापुरुष को जन्म देने वाले माता-पिता का नाम इतिहास के पन्नों पर लिखने योग्य रहता है किन्तु जिस माँ ने ज्ञानमती माताजी जैसी दिव्य विभूति के साथ-साथ १३ संतानों को जन्म देकर गृहस्थधर्म के कर्तव्य निर्वाह के पश्चात् स्वयं भी नारी जीवन की सारभूत आर्यिका दीक्षा को धारण किया, वे तो हम सबके लिए युग-युगों तक परम पूज्य ही बन गर्इं। सन् १९१४ में अवधप्रान्त के महमूदाबाद कस्बे में जन्मी कन्या मोहिनी ने सन् १९३२ में दाम्पत्य जीवन में प्रवेश कर ३८ वर्षों तक गृहस्थ धर्म का पालन कर अपनी ही पुत्री मैना अर्थात् आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से सन् १९७१ में अजमेर (राज.) में परम पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा धारण कर ‘रत्नमती’ नाम प्राप्त किया था। अत्यंत निस्पृह एवं वैरागी व्यक्तित्व की धनी आर्यिका रत्नमती माताजी ने १३ वर्ष तक अपनी निर्दोष आर्यिका चर्या का पालन करते हुए जम्बूद्वीप रचना निर्माण को मूल से चूल तक बनते हुए देखा और वे सुमेरु पर्वत का ध्यान करके परम प्रसन्न होती थीं। हस्तिनापुर के जंगल में भीषण सर्दी-गर्मी को सहन करके भी वे सदैव यही इच्छा प्रगट करती थीं कि भगवान शांतिनाथ की इस पावन जन्मभूमि पर ही मेरी समाधि का संयोग प्राप्त हो। उनकी भावना सफल हुई और पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के चरण सानिध्य में तत्त्व ज्ञान-भेद विज्ञान का सम्बोधन प्राप्त करती हुई उस महान आत्मा ने १५ जनवरी १९८५ को अपने जीवन मंदिर पर स्वर्ण कलश के रूप में उत्तम समाधिमरण को प्राप्त कर परम लक्ष्य की सिद्धि कर ली। जिसने उन रत्नमती माताजी के दर्शन प्रत्यक्ष में किये हैं उन्हें अवश्य उनकी महानता का ज्ञान है। उनकी मन्द मुस्कानयुक्त आकर्षक मुद्रा, विरागी छवि, ख्याति-लाभ-पूजा की भावनाओं से दूर-दूर तक भी अपरिचित रहने वाली उस माता का मौन व्यक्तित्व जम्बूद्वीप के कण-कण में विद्यमान है तथा यही संदेश प्रदान कर रहा है-‘‘सत् नारी का बलिदान सदा, इस युग में याद किया जाता’’।
अकृत्रिम रचना का रूप दिखाती जम्बूद्वीप रचना धरती पर साकार हुई
३१ जनवरी १९८० को जम्बूद्वीप रचना के द्वितीय चरण का शिलान्यास विशाल समारोहपूर्वक किया गया। इस अवसर पर साहू श्री श्रेयांसप्रसाद जी एवं साहू श्री अशोक जी एवं श्रीमती इन्दू जैन ने पधारकर हर्ष का अनुभव किया। उस समय पूज्य माताजी राजधानी दिल्ली में विराजमान थीं। ९ अप्रैल १९८१ को माताजी का संघ सहित मंगल पदार्पण हस्तिनापुर में हुआ और १० मई १९८१ को १०१ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत का द्वितीय प्रतिष्ठापना दिवस मनाया गया। इसके पश्चात् पूज्य माताजी की सतत प्रेरणा से जैन भूगोल का दिग्दर्शन कराने वाली यह रचना धीरे-धीरे साकार रूप लेने लगी अन्तत: वह शुभ दिवस भी आ गया जब २८ अप्रैल से २ मई १९८५, वैशाख शुक्ला ८ से १२ तक ‘‘जम्बूद्वीप जिनिंबब प्रतिष्ठापना महोत्सव’’ का राष्ट्रीय स्तर पर आयोजन किया गया, उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में इसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया गया था अत: पूरे देश से लगभग एक लाख नर-नारी इस प्रतिष्ठा महोत्सव में पधारे थे। इसी प्रतिष्ठा महोत्सव के मध्य त्रिदिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार का भी आयोजन रखा गया। उस समय इस १०१ फुट उत्तुंग, सुमेरु पर्वत के चारों ओर हेलिकॉप्टर द्वारा पुष्पवृष्टि भी हुई। इस प्रतिष्ठा महोत्सव में जहाँ आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के संघस्थ साधुओं व अनेक भट्टारकों ने अपना सानिध्य प्रदान किया, वहीं जम्बूद्वीप का उद्घाटन करने उ.प्र. के मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी एवं समय-समय पर उ.प्र. के आबकारी मंत्री श्री वासुदेव सिंह, राज्यसभा सांसद श्री जे.के. जैन, केन्द्रीय रक्षामंत्री श्री पी.वी. नरसिम्हा राव आदि नेतागण, अनेक कुलाधिपति, प्रोपेâसर एवं कई प्रशासनिक अधिकारियों ने महोत्सव को सक्रियतापूर्वक सम्पन्न करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभूत किया था।
ज्ञानज्योति की अखण्ड स्थापना पी.वी. नरसिम्हाराव ने की हस्तिनापुर में
राजधानी दिल्ली से प्रवर्तित जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति रथ का १०४५ दिन तक भारत भ्रमण के पश्चात् जब २८ अप्रैल १९८५ को हस्तिनापुर में आगमन के साथ प्रवर्तन का समापन हुआ तो पूज्य ज्ञानमती माताजी के संघ सानिध्य में विशाल शोभायात्रा निकाली गई। जम्बूद्वीप जिनिंबब प्रतिष्ठापना महोत्सव के साथ-साथ ज्योति यात्रा समापन के इस अवसर पर केन्द्रीय रक्षामंत्री श्री पी.वी. नरसिम्हाराव ने हस्तिनापुर पधारकर जम्बूद्वीप रचना के ठीक सामने निर्मित किये गये एक कमलाकार भवन में ज्ञानज्योति की अखण्ड स्थापना करके पूज्य माताजी का मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया। इस ज्ञान ज्योति के माध्यम से हस्तिनापुर में आने वाले सभी तीर्थयात्रियों को अपने शहर में किये गये ज्योतिरथ के स्वागत की स्मृतियाँ ताजी हो जाती हैं और वे ज्योति भवन में विराजमान सरस्वती माता के दर्शन कर सम्यग्ज्ञान का लाभ प्राप्त करते हैं।
संस्थान के मंत्री मोतीचंद जी बने मोतीसागर (सन् १९८७)
सन् १९६७ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का ससंघ चातुर्मास सनावद (मध्यप्रदेश) में हुआ। उस समय वहाँ एक श्रावक मोतीचंद जैन सर्राफ के बारे में ज्ञात हुआ कि ये बालब्रह्मचारी हैं। माताजी ने उनकी धार्मिक और सामाजिक कार्यक्षमता देखकर उन्हें संघ में रहने की प्रेरणा प्रदान की। तदनुसार उनकी प्रबल प्रेरणा के आधार पर ब्रह्मचारी मोतीचंद जी संघ में रहकर प्रमुखरूप से जम्बूद्वीप की निर्माण योजना को मूर्तरूप प्रदान करने लगे पुन: हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना निर्माण पूर्ण हो जाने के बाद उन्होंने पूज्य माताजी के समक्ष अपनी दीक्षा का भाव प्रकट किया। मोतीचंद जी की इच्छानुसार पूज्य माताजी ने संघस्थ ब्र. रवीन्द्र जी को परम पूज्य आचार्यश्री विमलसागर महाराज को हस्तिनापुर पधारने का निवेदन करने भेजा और पुण्ययोग से आचार्यश्री ने ससंघ हस्तिनापुर पधारकर ८ मार्च १९८७, फाल्गुन शु. नवमी को भगवान नेमिनाथ-पाश्र्वनाथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के मध्य व्यापक समारोहपूर्वक क्षुल्लक दीक्षा प्रदान कर मोतीचंद जी को ‘‘क्षुल्लक मोतीसागर’’ बनाया। दीक्षा के समय केन्द्रीय रेलमंत्री श्री माधवराव सिंधिया ने पधारकर आपको अभिनंदन पत्र भेंट किया तथा पूज्य माताजी से आशीर्वाद लेकर उन्होंने अपने जीवन को धन्य माना। ज्ञातव्य है कि मोतीसागर महाराज का जन्म सन् १९४० में सनावद के श्रेष्ठी श्री अमोलकचंद जैन की धर्मपत्नी श्रीमती रूपाबाई की कुक्षि से आश्विन कृ. चतुर्दशी को हुआ। सन् १९५८ में ब्रह्मचर्यव्रत लेने के बाद सन् १९६७ से माताजी के संघ में प्रवेश कर गुरु आज्ञा को अपने जीवन में प्राथमिकता देते हुए भावी पीढ़ी के लिए आपने समर्पण का अपूर्व आदर्श प्रस्तुत किया है। २ अगस्त १९८७ को श्रावण शु. सप्तमी के दिन पूज्य माताजी ने आपको जम्बूद्वीप धर्मपीठ के ‘‘पीठाधीश’’ पद पर अभिषिक्त किया। तब से लेकर आज तक मोतीसागर महाराज अपने पद के योग्य संयम का पालन करते हुए संस्थान के समस्त क्रियाकलापों में दिशानिर्देश प्रदान करते हैं।
इसी तीर्थ ने माधुरी को बनाया चन्दनामती (सन् १९८९)
१८ मई १९५८, ज्येष्ठ कृ. अमावस को जन्म लेकर पूर्व जन्मों के पुण्य, माँ से जन्मघूंटी के रूप में प्राप्त धार्मिक संस्कार एवं सन् १९६९ में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के मिले अल्प समय वाले सानिध्य ने मुझे भी इस कठोर त्याग पथ पर चलने हेतु प्रेरित किया, जिसके फलस्वरूप सन् १९७१ में अजमेर (राज.) में भादों शु. दशमी (सुगंध दशमी) के दिन मैंने पूज्य माताजी से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कर गुरुमुख से धार्मिक अध्ययन प्रारंभ कर दिया। १३ वर्ष की लघु उम्र में मुझे अधिक तो कुछ ज्ञात नहीं था, किन्तु विवाह बंधन में न बंध कर गुरुचरणों में जीवन समर्पित कर देना ही मैंने ब्रह्मचर्य व्रत का अभिप्राय समझा था, उसी के फलस्वरूप धीरे-धीरे दो प्रतिमा, सात प्रतिमा आदि व्रतों को लेकर मेरे १८ वर्ष पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं अपनी जन्मदात्री माँ पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की छत्रछाया में ज्ञानार्जन, वैयावृत्ति, संघ व्यवस्था, धर्मप्रभावना एवं त्रिलोक शोध संस्थान के कार्यकलापों में व्यतीत हुए। पुन: १३ अगस्त १९८९, श्रावण शु. एकादशी के दिन हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने मुझे आर्यिका दीक्षा प्रदान कर ‘‘चंदनामती’’ बनाया। नारी जीवन के उत्कृष्ट त्याग को धारण करने के पश्चात् मानो नया जीवन ही प्राप्त हुआ हो, इसीलिए लगभग १६ हजार किमी. की पदयात्रा करके अनेक तीर्थों के दर्शन एवं उनके जीर्णोद्धार विकास में अपने समय का सदुपयोग करके परम प्रसन्नता का अनुभव होता है। सन् १९७४ से प्रारंभ हुए जम्बूद्वीप रचना निर्माण आदि को मैंने स्वयं अपने चर्मचक्षुओं से प्रतिपल देखा है और संस्थान के द्वारा संपादित होने वाले सभी कार्यों में अपने पद के योग्य यथाशक्ति योगदान करके अपने जीवन को धन्य माना है। भविष्य में भी इसी प्रकार रत्नत्रय की साधना करते हुए दीक्षित जीवन के चरमलक्ष्य रूप बोधि समािध की प्राप्ति हो, यही भगवान शांतिनाथ के श्रीचरणों में प्रार्थना है।
जम्बूद्वीप महामहोत्सव-१९९० (प्रथम महोत्सव)
प्रत्येक कार्य के पीछे कारण तो छिपा ही होता है। अपने बोए गए बीज को उद्यान के रूप में फलित देखकर माली की प्रसन्नता का कुछ पार नहीं होता। उसी प्रकार से जम्बूद्वीप रचना जैसे धर्म उद्यान का बीजारोपण गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की सम्प्रेरणा से सन् १९७४ में हुआ जो सन् १९८५ में फलित होकर सामने आया। अब उसे निरन्तर वृद्धिंगत करने हेतु पूज्य माताजी ने प्रति पाँच वर्ष में ‘‘जम्बूद्वीप महामहोत्सव’’ मनाने की प्रेरणा प्रदान की। पिछले १५ वर्ष की इस कालावधि में यह शून्य अटवी नागरिक सुविधाओं से परिपूर्ण एवं जीवन्त हो उठी। उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से जहाँ तीर्थक्षेत्र एवं जंगल में बनी नशिया तक पक्की सड़क बनाई गई, वहीं यातायात साधनों की सुविधा में दिल्ली, मेरठ आदि स्थानों से रोडवेज बसें जम्बूद्वीप तक आने लगीं। यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य एवं अद्वितीय जम्बूद्वीप रचना के बारे में उत्तरप्रदेश के पर्यटन विभाग ने ‘‘धरती का स्वर्ग’’ कहते हुए इसे एक अनुपम कृति की संज्ञा प्रदान की है। वर्तमान में हस्तिनापुर की पहचान जम्बूद्वीप से हो रही हैै। ३ मई से ७ मई १९९० तक आयोजित इस प्रथम पंचवर्षीय जम्बूद्वीप महामहोत्सव में भारतवर्ष के कोने-कोने से प्रत्येक प्रांत के प्रतिनिधियों ने पधारकर जहाँ कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई वहीं राजकीय नेताओं में उ.प्र. के महामहिम राज्यपाल श्री वी. सत्यनारायण रेड्डी व भारत सरकार के केन्द्रीय उद्योग मंत्री श्री अजीत सिंह ने पधारकर पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्राप्त किया। उस समय श्री अजीत सिंह जी ने अष्टमूलगुण प्रदर्शनी का उद्घाटन करके शाकाहार एवं अिंहसा का अपने जीवन में तथा जनता में उद्घोष भी किया था। ७ मई १९९० का दिन इतिहास के स्वर्ण दिवस के रूप में अंकित हो गया जब प्रात: ८ बजे से सुमेरु पर्वत की पांडुकशिला पर १००८ कलशों से प्रथम महामस्तकाभिषेक हुआ।
युगप्रवर्तिका का अभिवंदन (सन् १९९२)
सन् १९९२ में हस्तिनापुर में चातुर्मास के मध्य शरदपूर्णिमा के दिन भारत की सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज एवं मनीषी विद्वानों ने मिलकर एक विशेष आयोजन करके माननीय श्री उत्तम भाई हरजी पटेल (केन्द्रीय मंत्री-भारत सरकार) द्वारा पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के करकमलों में वृहत्काय अभिवंदन ग्रंथ समर्पित कर उनके अनन्य उपकारों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की तथा उसी समय इन्हें ‘‘युगप्रवर्तिका’’ की उपाधि से अलंकृत कर संसार को इनके दीक्षा से लेकर साहित्य सृजन तक के प्रथम कृतित्व से परिचित कराया। इसी शुभ अवसर पर अन्तर्राज्यीय चारित्र निर्माण संगोष्ठी का भी आयोजन किया गया। यद्यपि इस प्रकार के पर्वत से भी ऊँचे, सागर से भी गहरे और नदियों से लम्बे आदर्शों वाले महान व्यक्तियों का व्यक्तित्व शब्दों और ग्रंथों की सीमा में बांधना एक बालक द्वारा समुद्र की विशालता को मापने जैसा हास्यास्पद प्रयास ही कहा जायेगा, किन्तु समय-समय पर इसी प्रकार के कर्तव्यनिर्वाह को युग की उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है अत: इस अभिवंदन ग्रंथ समर्पण को भी दिगम्बर जैन समाज के द्वारा गुरु के प्रति प्रदर्शित उपचार विनय ही मानना चाहिए। सरस्वती माता की सेवा के रूप में समाज को विपुल साहित्य का भण्डार प्रदान करने वाली तथा विलुप्त हो रही सांस्कृतिक धरोहरों को विश्व के समक्ष तीर्थोद्धार के रूप में प्रस्तुत करने वाली ज्ञानमती माताजी को अवध विश्वविद्यालय-फैजाबाद ने ५ फरवरी १९९५ को डी.लिट्. की मानद् उपाधि देकर अपने विश्वविद्यालय को गौरवान्वित किया। इनके साक्षात् दर्शन करके जहाँ मानव इनकी महानता से परिचित होते हैं, वहीं इनके साहित्य का स्वाध्याय करने वाले इनके द्वारा रचित पूजा-विधानों को करने वाले, इनकी प्रेरणा से विकसित तीर्थों का दर्शन करने वाले वास्तव में अपने को कृतकृत्य और धन्य मानते हैं। ऐसी महान विभूति के चरणों में कोटि-कोटि नमन।
जम्बूद्वीप के ध्यान का प्रतिफल शाश्वत तीर्थ अयोध्या का विकास
२३ अक्टूबर १९९२ धनतेरस की प्रात:कालीन मंगल बेला में हस्तिनापुर तीर्थ के जम्बूद्वीप स्थल पर ‘रत्नत्रय निलय’ में सामायिक के अन्तर्गत ध्यान करती हुर्इं पूज्य माताजी को अयोध्या के भगवान ऋषभदेव का दर्शन एवं महामस्तकाभिषेक की अन्तप्र्रेरणा जागृत हुई। प्रात:काल जब उन्होंने यह बात हम लोगों को बताई तब सभी ने माताजी के नाजुक स्वास्थ्य की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया उसके बाद ६ दिसम्बर १९९२ की घटना के कारण अयोध्या विवाद पर भी अनेक लोगों ने चिन्ता व्यक्त की किन्तु दृढ़संकल्प की धनी माताजी ने भगवान की भक्ति में अचिन्त्य शक्ति मान कर ११ फरवरी १९९३ (फाल्गुन कृ. ५) को अयोध्या के लिए विहार करने की तिथि निश्चित कर दी। यह खबर सुन अवध प्रान्त में खुशियों की लहर दौड़ गई, माताजी की पूर्ण स्वीकृति मिलते ही प्रद्युम्न कुमार जी (छोटी शाह जैन) टिकैतनगर, संघपति बन गए। अन्ततोगत्वा पश्चिमी उत्तरप्रदेश के भक्तों द्वारा विहार के लिए मना करने के बाद भी दृढ़संकल्पी माताजी मंगल विहार कर अनेक नगरों में अहिंसा व विश्वशांति का उपदेश देते हुए १६ जून १९९३ को भगवान आदिनाथ के श्रीचरणों में पहुँच गर्इं और वहाँ की जीर्ण-शीर्ण स्थिति देखकर अयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी व अवध की जनता के अतीव आग्रह से १९९३ का चातुर्मास वहीं हुआ फिर तो बीसवीं सदी के इस प्रथम चातुर्मास से परम पिता के चरणों में प्रथम दर्शन की भेंट स्वरूप माताजी ने तीन चौबीसी एवं समवसरण मंदिर प्रदान किया और उसमें विराजमान होने वाली जिनप्रतिमाओं की १९ फरवरी से २३ फरवरी १९९४ तक आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अनंतर २४ फरवरी १९९४ को प्रथम बार ऋषभदेव महामस्तकाभिषेक का आयोजन हुआ फिर तो मात्र रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के विवाद से विख्यात यह तीर्थ ‘ऋषभ जन्मभूमि’ के नाम से भी विश्व के मानसपटल पर आ गया। तीर्थक्षेत्र के जीर्णोद्धार के साथ मार्ग में अनेक तीर्थ भी उनका सानिध्य पाकर पुन: चमक उठे। पुन: सन् १९९४ में माताजी का ४१ वर्षों के पश्चात् ऐतिहासिक चातुर्मास उनकी जन्मभूमि टिकैतनगर में हुआ। २७ माह के विहार के मध्य उ.प्र. के मुख्यमंत्री श्री मुलायम यिंह यादव आदि अनेक राजनेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों ने भी अयोध्या में आकर माताजी का आशीर्वाद प्राप्त किया एवं शासन की ओर से अनेक भेंट अयोध्यावासियों को प्रदान की।
जम्बूद्वीप महामहोत्सव-१९९५ (द्वितीय महोत्सव)
किसी भी कृति का निर्माण करना जितना महत्त्वपूर्ण होता है उससे कहीं अधिक महत्त्व उस कृति का समुचित रूप से संरक्षण एवं संवर्धन करता होता है। जम्बूद्वीप की शास्त्रोक्त रचना जहाँ बालसूर्य की तरह से हस्तिनापुर के क्षितिज पर उदित हुई वहीं दश वर्षों में युवा दिनकर की भाँति सारे विश्व में अपना आलोक फैलाकर उसने अपूर्व ख्याति प्राप्त कर ली। सन् १९९० के पश्चात् अक्टूबर १९९५ में आयोजित द्वितीय जम्बूद्वीप महामहोत्सव मणिकांचन संयोग की भाँति इसलिए और अधिक महिमामंडित हो गया क्योंकि रचना एवं महोत्सव की सम्प्रेरिका गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का जन्म व वैराग्यजयंती मनाने का सुअवसर भी हस्तिनापुर को प्राप्त हुआ था। ४ अक्टूबर से ८ अक्टूबर १९९५ तक आयोजित इस द्वितीय और अद्वितीय महामहोत्सव में जहाँ १०१ फुट उत्तुंग सुमेरु पर्वत की पांडुकशिला पर १००८ कलशों से महाभिषेक हुआ वहीं दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान एवं चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित ‘‘गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती साहित्य संगोष्ठी’’ में भारत के कोने-कोने से लगभग सौ विद्वानों ने पधारकर माताजी द्वारा रचित कतिपय साहित्य रचनाओं पर अपने शोधपूर्ण आलेख प्रस्तुत किए तथा माताजी से अनेक शास्त्रीय-सैद्धान्तिक-तथ्यात्मक विषयों पर दिशानिर्देश प्राप्त किया। इसी अवसर पर अनेक संस्थाओं के अधिवेशन आदि के साथ-साथ पूज्य माताजी की प्रेरणा से जम्बूद्वीप स्थल पर णमोकार मंत्र की जमापूंजी बनाने वाले ‘णमोकार महामंत्र बैंक’ की स्थापना ८ अक्टूबर १९९५, शरदपूर्णिमा के दिन हुई जिसका उद्घाटन केन्द्रीय खाद्यमंत्री श्री अजीत सिंह ने किया। उसी समय से देशभर की जैन समाज के आबाल-वृद्ध अपनी शक्ति अनुसार सवा लाख, इक्यावन हजार या पचीस हजार मंत्र लिखकर इस बैंक में जमा करते हैं जिसके फलस्वरूप प्रतिवर्ष शरदपूर्णिमा के दिन मंत्र लेखकों को हीरक पदक, स्वर्ण पदक, रजत पदक आदि से सम्मानित किया जाता है। आज करोड़ों मंत्र इस बैंक में जमा हैं।
संस्थान द्वारा प्रवर्तित गणिनी ज्ञानमती पुरस्कार
८ अक्टूबर सन् १९९५ को शरदपूर्णिमा के दिन पूज्य ज्ञानमती माताजी की जन्मजयंती के शुभ अवसर पर मेरी लघु प्रेरणा के आधार पर श्री अनिल कुमार जैन-कमल मंदिर, प्रीतविहार-दिल्ली के अर्थ सौजन्य से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने गणिनी ज्ञानमती पुरस्कार प्रारंभ किया। संस्थान की अकादमिक गतिविधियों में अनन्य सहयोगी के रूप में कार्य करने वाले डॉ. अनुपम जैन-इंदौर को इस प्रथम पुरस्कार से ८ अक्टूबर को ही सम्मानित किया गया। ज्ञातव्य है कि इस पुरस्कार में एक लाख रुपये की नगद राशि, रजत प्रशस्ति पत्र, श्रीफल प्रदान कर संस्थान के इस सर्वोच्च पुरस्कार द्वारा किसी विशिष्ट मनीषी कार्यकर्ता को सम्मानित किया जाता है। अक्टूबर सन् २००१ में ‘‘पण्डितप्रवर श्री शिवचरणलाल जैन-मैनपुरी’’ (अध्यक्ष-तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ) को इस पुरस्कार से अलंकृत किया गया और अब १७ अक्टूबर २००५, शरदपूर्णिमा को डॉ. शेखरचंद जैन-अहमदाबाद (अध्यक्ष-तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ) को इस पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है। संस्थान के द्वारा इसी प्रकार से प्रतिवर्ष जम्बूद्वीप पुरस्कार (२५०००/-रु.), कुण्डलपुर पुरस्कार (२५०००/-रु.), नंद्यावर्त पुरस्कार (२५०००/-रु.), आर्यिका रत्नमती पुरस्कार (११०००/-रु.), छोटेलाल जैन स्मृति पुरस्कार (११०००/-रु.) आदि अन्य पुरस्कार भी प्रदान किये जाते हैं।
राजधानी दिल्ली के अन्दर २४ कल्पद्रुम विधान का विहंगम आयोजन
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा पूज्य माताजी की प्रेरणा से भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत विश्व में प्रथम बार राजधानी दिल्ली में विश्व शांति एवं पर्यावरण की शुद्धि हेतु २४ तीर्थंकरों के समवसरण के प्रतीक में २४ कल्पद्रुम महामण्डल विधान का विराट आयोजन ४ अक्टूबर से १३ अक्टूबर १९९७ तक आशातीत सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। ‘न भूतो न भविष्यति’ की सूक्ति को चरितार्थ करने वाले इस महायज्ञ में जहाँ तीन हजार लोगों ने विधान में भाग लेकर भक्ति सरिता में स्नान के साथ सातिशय पुण्य का बंध किया वहीं प्रतिदिन समवसरण के दर्शन करने हेतु लाखों यात्रियों का तांता लगा रहा और वास्तविक समवसरण की भांति अतिशयकारी इस विधान में प्रत्येक आगन्तुक भक्त को किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं हुआ। चक्रवर्तियों के द्वारा किये जाने वाले इस विधान में किमिच्छक दान के प्रतीक रूप आहार, औषधि, ज्ञान और अभय इन चारों दानों का प्रतिदिन वितरण किया गया। जहाँ इस भव्य समारोह का उद्घाटन भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने किया वहीं अन्य राजनेताओं में दिल्ली प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री साहिब सिंह वर्मा, म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय िंसह आदि ने पधारकर भक्ति के अपूर्व दृश्य को देखकर अपने को सौभाग्यशाली माना। भक्ति के इस विहंगम दृश्य को देखकर जैन समाज के शीर्ष नेता साहू अशोक कुमार जैन ने अपने को धन्य मानते हुए अपने भाषण में पूज्य माताजी से सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर ऐसा महान कार्यक्रम आयोजित कराने हेतु निवेदन किया। १२ अक्टूबर को समस्त दि. जैन समाज की ओर से पूर्व न्यायाधीश श्री मिलापचंद जैन ने पूज्य माताजी को ‘गणिनीप्रमुख’ की उपाधि से अलंकृत कर स्वयं को गौरवान्वित किया। समय-समय पर आयोजित अनेक प्रतियोगिताओं एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ विशेष आकर्षण के रूप में १३ अक्टूबर को समापन अवसर पर आयोजित विशाल रथयात्रा थी जिसमें २४ रथ, २४ बग्घियाँ, २४ बैण्ड-बाजे, घोड़े, हाथी, शहनाई, भजन मंडली आदि प्रमुख रहे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से अपनी अविस्मरणीय छाप छोड़ गए।
भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार (सन् १९९८)
कृतयुग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का अस्तित्व जन-जन तक पहुँचाने हेतु पूज्य माताजी के मन में कई वर्षों से लगन लगी थी और कुछ न कुछ प्रभावनात्मक कार्य करने की इच्छा होती थी उसी के फलस्वरूप माताजी ने दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान के कार्यकर्ताओं को ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ के नाम से पूरे भारत में एक रथ घुमाने की प्रेरणा दी। उस रथ के साथ-साथ जन्मकल्याणक के प्रतीक में एक विशाल ऐरावत हाथी का दूसरा रथ भी बनाया गया। इन दोनों रथों का उद्घाटन २२ मार्च १९९८ ऋषभदेव जन्मजयंती के दिन (जन्मजयंती वर्ष के समापन अवसर पर) लाल किला मैदान दिल्ली से केन्द्रीय वित्तराज्यमंत्री श्री वी. धनंजय कुमार जैन की अध्यक्षता में विशाल समारोहपूर्वक हुआ पुन: ९ अप्रैल १९९८ को भगवान महावीर जयंती के पावन दिवस तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत भ्रमण हेतु स्वस्तिक बनाकर इन रथों का प्रवर्तन किया। निरन्तर चार वर्षों तक दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, म.प्र., महाराष्ट्र, गुजरात, आसाम, बंगाल-बिहार आदि भारत के सभी प्रदेशों एवं नगरों में इस समवसरण श्रीविहार के द्वारा जैनधर्म की प्राचीनता, भगवान ऋषभदेव के सिद्धान्तों का एवं व्यसनमुक्ति, सदाचार, अहिंसा-शाकाहार का जो व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ है वह अविस्मरणीय है। २१ अक्टूबर सन् २००२ एवं वह समवसरण प्रयाग-इलाहाबाद में नवनिर्मित ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली’’ तीर्थ पर समवसरण मंदिर में स्थाईरूप से स्थापित किया गया है। इस प्रभावनामयी प्रेरणा के आधार पर आज जगह-जगह भगवान ऋषभदेव की जन्मजयंती, निर्वाण महोत्सव, अक्षयतृतीया आदि पर्व मनाने की परम्परा प्रारंभ हो गई है जो कि भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणास्पद है।
भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन (सन् १९९८)
संस्थान अपने नाम के अनुसार समय-समय पर शोध कार्यों को सम्पन्न कराता है और समय-समय पर अनेक संगोष्ठियाँ होती रहती हैं। इसी संस्थान के अन्तर्गत संचालित आचार्य वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ से पढ़कर अनेक विद्यार्थी मुनि, ब्रह्मचारी, भट्टारक व प्रतिष्ठाचार्य आदि हुए हैं जो नाम के साथ-साथ अपने कार्यकलापों से सर्वत्र यशसुरभि को पैâला रहे हैं। सम्मेलन, संगोष्ठी की शृंखला में पूज्य माताजी की प्रेरणा से उनके ही संघ सानिध्य में दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान एवं चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के संयुक्त तत्त्वावधान में ४ से ६ अक्टूबर १९९८ के मध्य त्रिदिवसीय ‘भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन’ सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन के ६ सत्रों में २० कुलपति, कई पूर्व कुलपति तथा १११ प्रोपेसर विद्वान् सम्मिलित हुए। सम्मेलन के मध्य विभिन्न विश्वविद्यालयों के माननीय कुलपतियों को तथा जैन विद्या के सर्वोच्च मनीषियों को एक साथ बैठकर भगवान ऋषभदेव की शिक्षाओं के संदर्भ में विचार-विमर्श करने का अवसर प्राप्त हुआ। सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में सांसद श्री राजेश पायलट (पूर्व केन्द्रीय मंत्री-भारत सरकार) एवं अध्यक्ष के रूप में सांसद श्री धनंजय जैन (पूर्व केन्द्रीय मंत्री-भारत सरकार) ने पधारकर कार्यक्रम में चार चाँद लगाए। सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य जैनधर्म की शाश्वत सत्ता का प्रकटीकरण, इतिहास के वस्तुनिष्ठ सत्यों की पुनस्र्थापना एवं उनका पुनर्लेखन, भगवान ऋषभदेव एवं उनकी परम्परा में अन्य २३ तीर्थंकरों द्वारा मानवीय कल्याण हेतु दिये गये सर्वोदयी सिद्धान्त, अहिंसा, जीवदया, साम्प्रदायिक सद्भाव, विश्वशांति, पर्यावरण एवं प्राकृतिक संरक्षण सुनिश्चित करना था। सम्मेलन में अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गए और कुलपतियों द्वारा समवेत स्वर में जारी किए गए ‘जम्बूद्वीप घोषणा पत्र १९९८’ के रूप में उनकी अनुशंसाएं यह प्रकट कर रही थीं कि इससे श्रमण परम्परा के वस्तुनिष्ठ सत्यों के उद्भासन में अमूल्य योगदान मिलेगा। जम्बूद्वीप के सुरम्य वातावरण ने सभी आगन्तुकों को बहुत ही मंत्रमुग्ध किया।
भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव (सन् २०००)
जैनधर्म की सार्वभौमिकता एवं प्रासंगिकता पर वर्तमान इतिहास में लगे प्रश्नचिन्ह का समुचित समाधान करता हुआ ‘‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव’’ उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री माननीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ४ फरवरी से १० फरवरी २००० तक दिल्ली के लाल किला मैदान में सम्पन्न हुआ जो नूतन इतिहास के निर्माण की कहानी को प्रारंभ कर गया। सन् १९७४ में केन्द्र सरकार व सम्पूर्ण जैन समाज द्वारा गौरवपूर्वक मनाए गए ‘भगवान महावीर २५००वाँ निर्वाण महोत्सव’ से धर्म की व्यापक प्रभावना व उपलब्धियाँ तो हुर्इं किन्तु कुछ लेखकों ने जैनधर्म को २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर द्वारा संस्थापित धर्म बता दिया जो जनमानस को दिग्भ्रमित करता रहा और जैन समाज इस दिशा में न जाने क्यों निष्क्रिय रहा। २३ अक्टूबर १९९२, धनतेरस का दिन इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ ही था जब माताजी को जम्बूद्वीप के ध्यान में ऋषभ जन्मभूमि अयोध्या के उद्धार का चिन्तन आया, बस उसी दिन से उन्होंने दुनिया में जैनधर्म के प्रति व्याप्त भ्रान्त धारणाओं का निराकरण करने का बीड़ा उठा लिया। सर्वप्रथम ऋषभदेव जन्मजयंती मनाने की प्रेरणा पुनश्च २४ कल्पद्रुम मण्डल विधान, भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार रथ का भारत भ्रमण हेतु प्रवर्तन, राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन आदि कार्यकलापों ने समाज के साथ ही शिक्षाजगत में भी कीर्तिमान स्थापित किया। इसी लक्ष्य को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कुलपति सम्मेलन की उद्घाटन सभा में इस कार्यक्रम की घोषणा करते हुए ऋषभदेव के उपकारों से उच्च शिक्षाविदों को परिचित कराया। फलस्वरूप महती प्रभावना के साथ सम्पन्न इन कार्यक्रमों से लोगों ने ऋषभदेव जन्मजयंती, निर्वाणोत्सव आदि कार्यक्रम आयोजित करने प्रारंभ कर दिये, इस निर्वाणोत्सव की धूम भारत के अलावा विदेशों में भी मची और सर्वत्र इसे मनाया गया। इसी निर्वाणोत्सव वर्ष के अन्तर्गत ११ जून २००० को जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में ‘जैनधर्म की प्राचीनता विषय पर आयोजित इतिहासकार सम्मेलन में Nण्ERऊ के डायरेक्टर व प्रतिनिधि सहित इतिहासज्ञों व विद्वानों के भाग लेने व संसद में उठे प्रश्न के आधार पर अब कतिपय पुस्तकों में संशोधन तो हुआ है जो जैन समाज के लिए गौरव की बात है परन्तु यह कार्य अभी अंश मात्र ही हुआ है अभी इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकी है जिसके लिए जैन समाज को प्रयासरत रहना होगा।
न्यूयार्क के विश्वशांति शिखर सम्मेलन में संस्थान ने प्रतिनिधित्व किया (सन् २०००)
अगस्त सन् २००० में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी स्थापना की आधी सदी के इतिहास में प्रथम बार विश्वशांति के उपायों पर विचार करने के लिए ‘‘विश्वशांति शिखर सम्मेलन’’ का आयोजन किया। इस चार दिवसीय (२८ से ३१ अगस्त २००० तक) सम्मेलन में अनेक देशों से ७५ धर्मों के लगभग १५०० धर्मगुरुओं ने भाग लिया। उन सभी ने विश्व की ८३ प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने अनुभूत विचार प्रस्तुत किये तथा सभी ने मिलकर समवेत स्वर में विश्वशांति के लिए विभिन्न देशों के प्रति पारस्परिक सौहाद्र, प्रेम और अहिंसा अपनाने की नीति पर जोर दिया।श्री बावा जैन के प्रयासों से आयोजित इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्राप्त निमंत्रण के आधार पर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की ओर से भारत की जैन समाज का प्रतिनिधित्व करने हेतु पूज्य माताजी ने कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी को वहाँ भेजा जिससे वहाँ सर्वोदयी जैनधर्म की बात सभी धर्माचार्यों ने सुनी और ‘‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाणमहोत्सव’’ वर्ष के अन्तर्गत हुई यह विदेश यात्रा सदैव के लिए अविस्मरणीय हो गई। इसके साथ ही दशलक्षण पर्व में भी वहाँ रवीन्द्र जी ने श्री महेन्द्र पांड्या (अध्यक्ष-जैना….) के आग्रह पर जैन सेन्टर ऑफ अमेरिका में दश दिनों तक दशधर्म का प्रभावी प्रवचन किया एवं अन्य कई स्थानों पर भी जाकर जैनधर्म के सर्वोदयी सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। इसी प्रकार अक्टूबर सन् २००० में संस्थान के अप्रतिम सहयोग से प्रीतविहार-दिल्ली जैन समाज के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत राजधानी में विशाल कैलाशपर्वत बनाकर एक सप्ताह तक ‘‘कैलाश मानसरोवर यात्रा’’ आयोजित की गई, जिसमें बुल्गारिया के राजदूत सहित देश-विदेश के हजारों-लाखों श्रद्धालुओं ने पर्वतीय यात्रा करके पुण्यलाभ प्राप्त किया।
न्यूयार्क के विश्वशांति शिखर सम्मेलन में संस्थान ने प्रतिनिधित्व किया (सन् २०००)
अगस्त सन् २००० में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी स्थापना की आधी सदी के इतिहास में प्रथम बार विश्वशांति के उपायों पर विचार करने के लिए ‘‘विश्वशांति शिखर सम्मेलन’’ का आयोजन किया। इस चार दिवसीय (२८ से ३१ अगस्त २००० तक) सम्मेलन में अनेक देशों से ७५ धर्मों के लगभग १५०० धर्मगुरुओं ने भाग लिया। उन सभी ने विश्व की ८३ प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने अनुभूत विचार प्रस्तुत किये तथा सभी ने मिलकर समवेत स्वर में विश्वशांति के लिए विभिन्न देशों के प्रति पारस्परिक सौहाद्र, प्रेम और अहिंसा अपनाने की नीति पर जोर दिया। श्री बावा जैन के प्रयासों से आयोजित इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्राप्त निमंत्रण के आधार पर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की ओर से भारत की जैन समाज का प्रतिनिधित्व करने हेतु पूज्य माताजी ने कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी को वहाँ भेजा जिससे वहाँ सर्वोदयी जैनधर्म की बात सभी धर्माचार्यों ने सुनी और ‘‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाणमहोत्सव’’ वर्ष के अन्तर्गत हुई यह विदेश यात्रा सदैव के लिए अविस्मरणीय हो गई। इसके साथ ही दशलक्षण पर्व में भी वहाँ रवीन्द्र जी ने श्री महेन्द्र पांड्या (अध्यक्ष-जैना….) के आग्रह पर जैन सेन्टर ऑफ अमेरिका में दश दिनों तक दशधर्म का प्रभावी प्रवचन किया एवं अन्य कई स्थानों पर भी जाकर जैनधर्म के सर्वोदयी सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। इसी प्रकार अक्टूबर सन् २००० में संस्थान के अप्रतिम सहयोग से प्रीतविहार-दिल्ली जैन समाज के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत राजधानी में विशाल वैâलाशपर्वत बनाकर एक सप्ताह तक ‘‘कैलाश मानसरोवर यात्रा’’ आयोजित की गई, जिसमें बुल्गारिया के राजदूत सहित देश-विदेश के हजारों-लाखों श्रद्धालुओं ने पर्वतीय यात्रा करके पुण्यलाभ प्राप्त करोड़ों वर्ष पुराना प्रयाग तीर्थ साकार होकर जनता के समक्ष आया (सन् २००१) जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने युग की आदि में जिस पावन भूमि पर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मुनि परम्परा को प्रारंभ किया, जहाँ केवलज्ञान होकर प्रथम बार भगवान का समवसरण रचा, ऐसी पावन वसुंधरा प्रयाग तीर्थ को आज लोग इलाहाबाद के नाम से जानते हैं। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने उस वास्तविक प्रयाग तीर्थ को साकार करने का संकल्प ले लिया, यही कारण था कि जब महाकुंभ नगरी के रूप में विख्यात उस नगरी में देश के करोड़ों हिन्दू सन् २००१ में इक्कीसवीं सदी का प्रथम महाकुंभ मना रहे थे उस समय पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा से दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा एक भूमि का क्रय कर ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली प्रयाग तीर्थ’’ का भव्य निर्माण भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष के समापन अवसर पर किया गया। संस्थान द्वारा संचालित इस तीर्थ में दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक के प्रतीक में भव्य रचनाओं के निर्माण के साथ बीचोंबीच में ५० फुट ऊँचे कैलाशपर्वत पर विराजमान १४ फुट विशालकाय भगवान ऋषभदेव की लालवर्णी पद्मासन प्रतिमा दूर से ही तीर्थ का दिग्दर्शन कराती है। मात्र कुछ ही वर्षों में विश्व के क्षितिज पर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ के रूप में विख्यात इलाहाबाद-बनारस हाइवे रोड पर स्थित यह तीर्थ वर्तमान में जनमानस की श्रद्धा का केन्द्र बन चुका है। =
जम्बूद्वीप महामहोत्सव-२००० (तृतीय महोत्सव)
जिस प्रकार भूगर्भ से भूगर्भशास्त्री ही खनिज पदार्थों को निकाल सकता है उसी प्रकार अलौकिक ज्ञान प्रतिभा की धनी ज्ञानमती माताजी ने इस जम्बूद्वीप को इतिहास के पन्नों से निकालकर पृथ्वी पर साकार रूप प्रदान किया है। इस विश्वप्रसिद्ध रचना निर्माण के सन् १९८५ की पूर्णता के पश्चात् प्रति पाँच वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित महामहोत्सवों में जम्बूद्वीप का पंचवर्षीय तृतीय महामहोत्सव १६ अप्रैल चैत्र शु. तेरस (महावीर जयंती) से २३ अप्रैल २००० वैशाख कृ. एकम् तक आयोजित हुआ। इस शुभ अवसर पर फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा १९ से २३ अप्रैल तक सम्पन्न हुई तथा २३ अप्रैल रविवार को १०१ फुट ऊँचे सुमेरुपर्वत की पांडुकशिला पर श्री जी का १००८ कलशों से महाभिषेक किया गया। इस महाभिषेक में भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार रथ प्रवर्तन में बोली लेने वाले हरियाणा, राज., म.प्र. और गुजरात के प्रत्येक नगर के ६ महानुभावों को कलश करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसी महामहोत्सव के अन्तर्गत जम्बूद्वीप परिसर में निर्माणाधीन सहस्रकूट मंदिर का शिलान्यास भी पूज्य माताजी के पावन सानिध्य में किया गया तथा तीन मूर्ति मंदिर के शिखर पर कलशारोहण भी सम्पन्न हुआ। प्रतिष्ठा महोत्सव में २१ अप्रैल को भगवान के दीक्षाकल्याणक के सुअवसर पर केन्द्रीय वित्तराज्यमंत्री श्री वी.धनंजय कुमार जैन ने मुख्य अतिथि के रूप में पधारकर ‘ऋषभदेव निर्वाण महोत्सव’ में घोषित स्थान-स्थान पर बनाये जाने वाले कीर्तिस्तंभों में से एक कीर्तिस्तंभ का शिलान्यास किया तथा इससे पूर्व १६ अप्रैल को महावीर जयंती के सुअवसर पर बुल्गारिया के राजदूत श्री एडविन सुगारेव ने पधारकर पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्रााप्त किया।
करोड़ों वर्ष पुराना प्रयाग तीर्थ साकार होकर जनता के समक्ष आया (सन् २००१)
जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने युग की आदि में जिस पावन भूमि पर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मुनि परम्परा को प्रारंभ किया, जहाँ केवलज्ञान होकर प्रथम बार भगवान का समवसरण रचा, ऐसी पावन वसुंधरा प्रयाग तीर्थ को आज लोग इलाहाबाद के नाम से जानते हैं। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने उस वास्तविक प्रयाग तीर्थ को साकार करने का संकल्प ले लिया, यही कारण था कि जब महाकुंभ नगरी के रूप में विख्यात उस नगरी में देश के करोड़ों हिन्दू सन् २००१ में इक्कीसवीं सदी का प्रथम महावुंâभ मना रहे थे उस समय पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा से दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा एक भूमि का क्रय कर ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली प्रयाग तीर्थ’’ का भव्य निर्माण भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष के समापन अवसर पर किया गया। संस्थान द्वारा संचालित इस तीर्थ में दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक के प्रतीक में भव्य रचनाओं के निर्माण के साथ बीचोंबीच में ५० फुट ऊँचे वैलाशपर्वत पर विराजमान १४ फुट विशालकाय भगवान ऋषभदेव की लालवर्णी पद्मासन प्रतिमा दूर से ही तीर्थ का दिग्दर्शन कराती है। मात्र कुछ ही वर्षों में विश्व के क्षितिज पर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ के रूप में विख्यात इलाहाबाद-बनारस हाइवे रोड पर स्थित यह तीर्थ वर्तमान में जनमानस की श्रद्धा का केन्द्र बन चुका है।
विश्वशांति महावीर विधान के २६ मण्डल एक साथ बने
भगवान महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव के राष्ट्रीय उद्घाटन (६ अप्रैल २००१ को) पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी दिल्ली में उपस्थित नहीं थीं अत: उनके पश्चात् जैन समाज के अतिविशिष्ट कार्यकर्ताओं के विशेष अनुरोध पर माताजी संघ सहित प्रयाग-इलाहाबाद से भीषण गर्मी में विहार करके दिल्ली पहुँची। पुन: दिल्ली में चातुर्मास के मध्य दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी ने संस्थान के कार्यकत्र्ताओं एवं सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज-दिल्ली का सहयोग लेकर अक्टूबर २००१ में जन्मकल्याणक वर्ष का सबसे बड़ा समारोह ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ के नाम से आयोजित किया। दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में ८ दिन तक इस भक्ति महोत्सव में सुमेरु पर्वत के आकार वाले २६ मण्डल विधान एक साथ बने और सभी के सामने अलग-अलग प्रदेश एवं नगरों के १०८-१०८ इन्द्र-इन्द्राणियों ने बैठकर पूजन करते हुए जब मण्डल पर रंग-बिरंगे २६००-२६०० रत्न चढ़ाए तब कल्पवृक्षों के समान उनकी जगमगाहट वास्तव में रत्न चढ़ाकर दर्शन का नियम निभाने वाली कन्या मनोवती का इतिहास स्मरण करा रही थी। महोत्सव को देखने एवं उसमें भाग लेने के साथ सम्पूर्ण जैन समाज के भक्तों ने विश्वशांति मंत्र (ॐ ह्रीं विश्वशांतिकराय श्री महावीरजिनेन्द्राय नम:) की करोड़ों जाप्य की, जिसके फलस्वरूप देश के ऊपर असमय में आये संकट के बादल स्वयमेव छंट गये और संसद भवन पर हुआ आतंकवादियों का हमला नाकामयाब रहा। इस चमत्कारिक भक्ति आयोजन का मनोहारी दृश्य भगवान महावीर २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव की अमिट छाप बन गई।
जम्बूद्वीप की निर्मात्री से आशीर्वाद लिया राष्ट्रपति ने
३० मई २००३ का वह दिन सचमुच राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के लिए बड़ा पुण्यमयी रहा, जब उन्होंने बिहार प्रांत की अपनी यात्रा में भगवान महावीर के कल्याणक तीर्थों के दर्शन कर अपने जीवन को धन्य किया। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ उस समय पावापुरी सिद्धक्षेत्र पर विराजमान थीं। राष्ट्रपति जी ने पावापुरी जलमंदिर के दर्शन करके पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्राप्त किया और बेहद प्रसन्नता के साथ अपने वक्तव्य में उन दुर्लभ क्षणों एवं तीर्थ के प्रति श्रद्धा व्यक्त की। पूज्य माताजी ने उनके शाकाहारी होने हेतु विशेष प्रसन्नता प्रगट कर अपने आशीर्वादात्मक प्रवचन में देश के सर्वोच्च नेता को देश की शांति और सुरक्षा हेतु खुले दिल से आशीर्वाद प्रदान किया। इसी प्रकार समय-समय पर पूज्य माताजी से केन्द्रीय एवं प्रादेशिक राजनेताओं में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री आदि ने हस्तिनापुर, दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि स्थानों पर पधारकर आशीर्वाद प्राप्त किया है। अपनी उदार भावनाओं के कारण माताजी समय-समय पर दिगम्बर-श्वेताम्बर साधु-साध्वियों के साथ ही अन्य धर्म के साधु-संतों से भी भारतीय संस्कृति के संरक्षण एवं शाकाहार-सदाचार के प्रचार-प्रसार हेतु विचारों का आदान-प्रदान करने में सदैव अग्रसर रहती हैं। पावापुरी सिद्धक्षेत्र पर पूज्य माताजी के सानिध्य में भगवान महावीर की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं नवनिर्मित मानस्तंभ में वेदी प्रतिष्ठापूर्वक भगवान विराजमान हुए तथा जनकल्याण हेतु नेत्र चिकित्सा शिविर का आयोजन भी सानंद सम्पन्न हुआ।
कुण्डलपुर के कलात्मक शिखर वाले जिनमंदिर
‘‘नंद्यावर्त महल’’ के नाम से निर्मित कुण्डलपुर के तीर्थ परिसर में १०८ फुट ऊँचा कलात्मक शिखर का भगवान महावीर मंदिर है तथा उसके आजू-बाजू में भगवान ऋषभदेव मंदिर, नवगृहशांति मंदिर बने हैं। महल के ठीक सामने तीन मंजिल ऊंजा विशाल त्रिकाल चौबीसी मंदिर है। इनके अतिरिक्त वहाँ के सुंदर सर्वार्थसिद्धि द्वार में प्रवेश करते ही दार्इं ओर कल्पवृक्ष कार्यालय है और अन्दर जाकर आधुनिक सुविधायुक्त ‘‘गणिनी ज्ञानमती निलय’’ नाम से दो मंजिली धर्मशाला के ३५ फ्लैट्स हैं। सुंदर भोजनशाला, पानी की टंकी, बिजली आदि सभी सुविधाओं से सम्पन्न भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर तीर्थ सभी भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है। पूज्य माताजी के संघ सहित वहाँ दो चातुर्मास (सन् २००३-२००४ में) सम्पन्न हुए। इस मध्य पर्यटन विभाग एवं जन्मभूमि समिति द्वारा ‘कुण्डलपुर महोत्सव’ आयोजित हुए, जिसमें प्रदेश के राज्यपाल सहित कई राजनेता पधारे। सन् २००४ के महोत्सव में दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा सन् २००० में घोषित ‘‘भगवान ऋषभदेव नेशनल एवार्ड’’ से श्री वी.धनंजय कुमार जैन (पूर्व केन्द्रीय मंत्री) को सम्मानित किया गया। पूज्य माताजी के कुण्डलपुर में २२ माह के प्रवास के मध्य भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के जीर्णोद्धार-विकास के साथ-साथ राजगृही में भगवान मुनिसुव्रतनाथ की साढ़े १२ फुट प्रतिमा विराजमान कर मंदिर का निर्माण हुआ, विपुलाचल पर्वत पर ह्रीं की प्रतिमा एवं प्रदर्शनी बनवाई, पर्वत के नीचे उत्तुंग मानस्तंभ का निर्माण कराया, जवाहर नवोदय विद्यालय प्रांगण में भगवान महावीर की पद्मासन प्रतिमा विराजमान हुई। पावापुरी में पाण्डुकशिला परिसर में भगवान महावीर मंदिर निर्माण कर साढ़े १२ फुट प्रतिमा विराजमान कराया, गुणावां में गौतम गणधर स्वामी की प्रतिमा-मंदिर एवं सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर भगवान ऋषभदेव की सवा ९ फुट पद्मासन प्रतिमा एवं मंदिर बनवाकर बिहार एवं झारखंड प्रदेश में नई क्रांति उत्पन्न कर दी।
२६०० वर्ष प्राचीन इतिहास की याद दिलाता नंद्यावर्त महल (सन् २००३-०४)
भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत जहाँ भारत सरकार एवं सम्पूर्ण जैन समाज विविध कार्यक्रमों के माध्यम से ‘भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव’ मना रहा था, वहीं दूरदृर्शी एवं जैनधर्म की शाश्वत सत्ता को सिद्ध करने में सतत संलग्न पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने वर्षों से जनमानस के हृदय-पटल से धूमिल और उपेक्षित शासनपति भगवान महावीर की जन्मभूमि के विकास का शंखनाद किया और २६ फरवरी २००२ को दिल्ली से चलकर १३०० किमी. की यात्रा करते हुए २९ दिसम्बर २००२ को कुण्डलपुर तीर्थ पर मंगल प्रवेश किया, फिर तो देखते ही देखते वह वीरान भूमि चमन हो उठी। इसी बीच प्रयाग तीर्थ पर सन् २००२ का चातुर्मास हुआ। माताजी की सतत प्रेरणा से जहाँ प्राचीन मंदिर में ३६ फुट ऊँचे भव्य कीर्तिस्तंभ का निर्माण हुआ। वहीं प्राचीन मंदिर के निकट नवीन निर्माण हेतु दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर द्वारा लगभग २ एकड़ भूमि का क्रय कर उस पर निर्माण कार्य प्रारंभ किया गया फिर तो जंगल में मंगल की तरह भगवान महावीर जन्मभूमि के नवीन स्वर्णिम पृष्ठ का प्रारंभीकरण हो उठा। २६०० वर्ष पूर्व जिस नंद्यावर्त महल में रत्नों से जटित पलंग पर रानी त्रिशला ने सोलह स्वप्न देखे थे, जहाँ धनकुबेर ने लगातार १५ माह तक रत्नों की वृष्टि की थी, जहाँ प्रभु ने जन्म लिया था, जहाँ वे देवबालकों के संग खेले थे और जहाँ संजय-विजय मुनि की शंका का समाधान हुआ था, उस इन्द्रों द्वारा सजाए गए सात मंजिले नंद्यावर्त महल की भव्य प्रतिकृति का निर्माण उस तीर्थ पर २६०० वर्ष पूर्व के इतिहास का दिग्दर्शन करा रहा है जिसके अन्दर भगावन महावीर के जीवन से संबंधित प्राचीन कलाकृतियाँ व सम्पूर्ण इतिहास समाविष्ट है। महल के सबसे ऊपरी मंजिल में श्री शांतिनाथ जिनालय है।
जम्बूद्वीप का सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक वैभव
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर अपनी स्थापना के समय से ही शोध और अनुसंधान की गतिविधियों में संलग्न रहा है। जैन आगमों में उपलब्ध विवेचनों के आधार पर विश्वप्रसिद्ध जम्बूद्वीप रचना के निर्माण एवं २५० से अधिक सिद्धान्त, भूगोल, खगोल, व्याकरण, गणित, उपन्यास, कथा, नाटक, बालोपयोगी आदि पुस्तकों के लाखों की संख्या में प्रकाशन के साथ ही यह संस्थान विशाल विद्वत् शिक्षण/प्रशिक्षण शिविरों, सेमिनारों, संगोष्ठियों, सम्मेलनों का आयोजन करता रहा है। मेरठ विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित होने वाले इन सम्मेलनों की अकादमिक जगत में भूरि-भूरि प्रशंसा रही है। सम्प्रति शोध गतिविधियों को अधिक समन्वित स्वरूप प्रदान किये जाने हेतु अक्टूबर १९९८ में आगत शताधिक विद्वानों के अनुरोध पर संस्थान के अन्तर्गत ‘गणिनी ज्ञानमती प्राकृत शोधपीठ’ की स्थापना का निर्णय लिया गया। शोधपीठ का शुभारंभ ‘ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन’ के मध्य ४ अक्टूबर १९९८ को गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के ६५वें जन्मदिवस के पुनीत अवसर पर किया गया। शोधपीठ के निदेशक के रूप में विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के पूर्व कुलपति प्रो. आर.आर. नांदगांवकर को एवं निदेशक मंडल में प्रो. सुरेशचन्द्र अग्रवाल, कुलपति-चौधरी चरण सिंह वि.वि., मेरठ तथा डॉ. अनुपम जैन, इंदौर को मनोनीत किया गया। इस शोधपीठ का निदेशक कार्यालय इंदौर में डॉ. अनुपम जैन द्वारा संचालित किया जा रहा है जिसमें शोधार्थी जैनधर्म विषयक शोध करके जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। हस्तिनापुर में लगभग ३५ एकड़ विस्तृत जम्बूद्वीप परिसर में जम्बूद्वीप नामक जैन भूगोल की रचना के साथ-साथ अनेकों जिनमंदिर जहाँ जैनधर्म की कीर्तिपताका को फहरा रहे हैं, वहीं आधुनिक सुविधा सम्पन्न २०० फ्लैट्स, विशाल राजा श्रेयांस भोजनालय, कई सुंदर कोठियां, पानी की बड़ी टंकी, बिजली की सुविधा हेतु जनरेटर आदि सभी कुछ उपलब्धियाँ आने वाले यात्रियों को तीर्थ का आनंद लेने हेतु प्रेरणा प्रदान करती हैं। इसके साथ यहाँ शैक्षणिक गतिविधियाँ संचालित करने हेतु जम्बूद्वीप पुस्तकालय (लगभग १५ हजार ग्रंथों के संग्र्रह वाला), वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला, सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका आदि माध्यम हैं। जनसामान्य के लिए णमोकार महामंत्र बैंक हैं जिसमें लोग करोड़ों मंत्र लिखकर अपनी धार्मिक जमा पूँजी बनाते हैं और संस्था द्वारा प्रतिवर्ष सम्मान प्राप्त करते हैं। बच्चों के लिए झूला, झांकी, नाव, हंसी के गोलगप्पे आदि अनेक मनोरंजन के साधन हैं।
भारत का अद्वितीय ‘ॐ’ मंदिर है जम्बूद्वीप स्थल पर
हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से जहाँ अनेक ऐतिहासिक मंदिरों की रचना हुई है वहीं एक अलौकिक ‘ॐ’ मंदिर का निर्माण हुआ है। फरवरी सन् १९९८ में भारत में प्रथम बार निर्मित इस मंदिर में ५ फुट के लाल ग्रेनाइट पत्थर में बने ‘ॐ’ मंत्र के अंदर पंचपरमेष्ठी भगवान विराजमान हैं, जहाँ अनेक श्रद्धालु भक्त दर्शन पाकर पंचपरमेष्ठी को नमन करते हुए ॐकार का ध्यान करते हैं और पंचपरमेष्ठी विधान के द्वारा अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु को वंदन कर अपनी कर्म निर्जरा के साथ सातिशय पुण्य का बंध करते हैं। यह ‘‘ॐ’’ मंत्र एक परम शक्तिशाली बीजाक्षर महामंत्र है, पंचपरमेष्ठियों की अनन्त शक्ति इस मंत्र में समाविष्ट है इसीलिए इसे णमोकार मंत्र का सबसे लघुरूप एकाक्षरी मंत्र के रूप में स्वीकार किया गया है। जैनशासन के अनुसार ॐ की रचना इस प्रकार हुई है-‘‘णमो अरिहंताणं’ का ‘अ’ ‘णमो सिद्धाणं’ पद में सिद्ध भगवान के अशरीरी होने से ‘अ’ लिया गया अत: अ±अ·आ बना। पुन: ‘‘णमो आइरियाणं’’ का ‘‘आ’ अत: अ±आ·आ हुआ। ‘‘णमो उवज्झायाणं’’ का ‘उ’ तथा ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ का अर्थ समस्त दिगम्बर मुनिराज है अत: मुनि का ‘‘म्’’ लिया गया। इस प्रकार आ±उ±म्·ओम् बना है, इसे दीर्घ ऊकार पर बिंदुसहित अर्धचन्द्राकार के रूप में (ॐ) सभी मंत्रों का आद्य पद माना गया है। जम्बूद्वीप स्थल पर इसी प्रकार भगवान वासुपूज्य मंदिर, शांतिनाथ मंदिर, सहस्रकूट मंदिर, बीस तीर्थंकर मंदिर, आदिनाथ मंदिर आदि आगन्तुक भक्तों को भक्ति का स्वर्णिम अवसर प्रदान कर रहे हैं। अनेकानेक सुन्दर मंदिरों से समन्वित इस जम्बूद्वीप स्थल पर समय – समय पर मुनि – आर्यिकाओं के संघ भी पधारकर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। इसी शृंखला में चारित्रश्रमणी पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी के भी कई चातुर्मास यहाँ सम्पन्न हुए हैं।इनकी प्रेरणा से यहाँ के वासुपूज्य मंदिर में भगवान वासुपूज्य की प्रतिमा सन् १९९५ में विराजमान हुई हैं। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की लघु बहिन आर्यिका श्री अभयमती माताजी का जन्म १९४२ में हुआ। सन् १९६४ में इन्होंने माताजी से क्षुल्लिका दीक्षा एवं सन् १९६९ में आचार्यश्री धर्मसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा धारण कर राजस्थान, बुंदेलखण्ड में विहार किया पुन: उत्तरप्रदेश में आने के बाद वे कभी-कभी जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में भी पधारकर अपनी रत्नत्रयसाधना, लेखन आदि करके आगन्तुक भक्तों को भी धर्मलाभ प्रदान करती रहती हैं।
संस्थान की एक अद्वितीय साहित्यिक रचना ‘भगवान महावीर हिन्दी-अंग्रेजी जैन शब्दकोश
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने साहित्य लेखन की शृँखला में न्यायदर्शन के सर्वोच्च ग्रंथ ‘‘अष्टसहस्री’’ का हिन्दी अनुवाद करके विद्वज्जगत को एक उपहार प्रदान किया, नियमसार ग्रंथ की संस्कृत टीका लिखकर श्री जयसेनाचार्य के समान अध्यात्मप्रेमियों को अनेकान्तिकदृष्टि प्रदान की बड़े-बड़े पूजा-विधान लिखकर श्रद्धालुभक्तों को जिनेन्द्रभक्ति के द्वारा कर्म निर्जरा का अवसर दिया, अनेक प्रकार के छोटे-बड़े साहित्य को रचकर आबालवृद्ध को सरल शिक्षा प्रदान की एवं षट्खण्डागम सूत्र ग्रंथ पर हजारों पृष्ठों की सरल संस्कृत टीका लिखकर सिद्धांत ग्रंथों के स्वाध्यायी जनों का मार्ग प्रशस्त किया है। त्रिलोक शोध संस्थान के अन्तर्गत सन् १९७२ में स्थापित वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला ने ‘‘अष्टसहस्री’’ से प्रारंभ करके सैकड़ों ग्रंथ जहाँ लाखों की संख्या में प्रकाशित किया है, वहीं सन् २००५ में आधुनिक विद्वानों की आवश्यकतापूर्ति हेतु लगभग १५ हजार शब्दों के संग्रह वाला एक ‘‘भगवान महावीर हिन्दी – अंग्रेजी जैन शब्दकोश’’ प्रकाशित कर नया कीर्तिमान स्थापित किया है। तीन वर्ष के अथक परिश्रमपूर्वक तैयार किया गया यह शब्दकोश हिन्दी जैन ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले विद्वानों के लिए विशेष उपयोगी है। शिक्षाजगत की मूर्धन्य हस्तियों द्वारा इसका अत्यधिक मूल्याकंन किया जा रहा है। विश्व प्रसिद्ध आक्सफोर्ड डिक्शनरी के समान उपयोगी यह जैन डिक्शनरी जम्बूद्वीप – हस्तिनापुर में उपलब्ध है।
समस्त योजनाओं को जीवन्त रूप प्रदान करने वाले कर्मयोगी भाई जी
प्रत्येक संस्था की सक्रिय भूमिका के पीछे किसी न किसी सक्रिय कर्मठ व्यक्ति का हाथ अवश्य होता है। इसी बात के साक्षी हैं दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अध्यक्ष कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन। कौन जानता है कि जिस दो वर्ष के भाई बालक रवीन्द्र को अपनी धोती पकड़कर अंगूठा चूसते सोते हुए छोड़कर सन् १९५२ में घर से निकली मैना जीजी ज्ञानमती माताजी बनने हेतु निकल पड़ी थीं, वही भाई आगे चलकर उनके ज्ञानामृत को स्वयं पीते हुए पूरे देश को उसका स्वाद चखाएगा। किन्तु होनहार को कौन टाल सकता है, सन् १९५० में श्रुतपंचमी के पवित्र दिन जन्में रवीन्द्र कुमार अपने पिता छोटेलाल जी एवं माता मोहिनी की नवमीं सन्तान एवं ४ पुत्रों में सबसे छोटे पुत्र हैं। गांव की प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षा प्राप्त कर लखनऊ विश्वविद्यालय से निकले इस प्रथम श्रेणी के स्नातक ने जब १८ वर्ष की अल्प वय में अपनी बहन पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शन कर उनसे जीवन निर्माण हेतु त्यागमयी प्रेरणा प्राप्त की, तब शास्त्री परीक्षा का कोर्स पढ़ते हुए आखिर सन् १९७२ में वे आजन्म ब्रह्मचारी बन ही गये। उसके बाद तो सारा जीवन धर्मग्रंथ के, स्वाध्याय, अध्ययन के साथ-साथ जनकल्याण और धर्मप्रभावना के लिए समर्पित हो गया। वर्तमान में ‘‘भाई जी’’ के नाम से प्रसिद्ध हंसमुख प्रकृति एवं कर्मठ व्यक्तित्व के धनी रवीन्द्र जी विद्वत्समाज द्वारा प्रदत्त अपनी कर्मयोगी उपाधि को पूर्णरूपेण चरितार्थ कर रहे हैं। हस्तिनापुर के विस्तृत कार्यकलापों के साथ-साथ अन्य अनेक संस्थाओं के प्रति सक्रिय मनोयोग तथा पूज्य माताजी द्वारा निर्देशित प्रत्येक निर्माण, धर्मप्रभावना, सम्मेलन आदि बड़े-बड़े समारोह आयोजित करने मे सिद्धहस्त भाई जी का टीमवर्क वास्तव में प्रेरणास्पद होता है। इनके साथ कार्य करने वाले सभी कार्यकर्ता जहाँ कर्म खर्च में ज्यादा कार्य करने की बात सीखते हैं वहीं सभी को संतुष्ट रखने की भी इनमें अपूर्व कला देखकर बड़े खुश होते हैं, यही कारण है कि बड़े-बड़े तीर्थ निर्माण एवं राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय महोत्सव आशातीत सफलता के साथ निर्विघ्न सम्पन्न होते हैं। इसी प्रकार भाई जी सदैव पूज्य माताजी की भावनाओं को साकार करने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते रहें, यही जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है।
तीर्थंकर जन्मभूमियों के विकास में त्रिलोक शोध संस्थान की सक्रिय भूमिका
वर्तमानकालीन २४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियाँ हैं १. अयोध्या २. श्रावस्ती ३. कौशाम्बी ४. बनारस ५. चन्द्रपुरी ६.काकन्दी ७. भद्दिलपुर ८. सिंहपुरी ९. चम्पापुरी १०. कम्पिला जी ११. रत्नपुरी १२. हस्तिनापुर १३. मिथिलापुरी १४. राजगृही १५. शौरीपुर १६. कुण्डलपुर। इन सभी में से लगभग ८-१० जन्मभूमि तीर्थों का जीर्णोद्धार एवं विकास तो पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के सक्रिय सहयोग द्वारा सम्पन्न हुआ है किन्तु अभी कौशाम्बी, काकन्दी, भद्दिलपुर आदि तीर्थों को अविलम्ब विकसित करने की आवश्यकता है। पूज्य माताजी का समस्त दिगम्बर जैन समाज को आह्वान है कि आप सभी लोग मिलकर २४ तीर्थंकरों के महान सर्वोदयी आदर्श एवं उनकी जन्मभूमियों के सुसज्जित स्वरूप को विश्व के समक्ष लावें क्योंकि ये तीर्थ भारतीय संस्कृति की उद्गम स्थली हैं। यद्यपि आज का मानव अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति करने हेतु अतिशय-चमत्कारों की ओर भाग रहा है किन्तु आप चिन्तन कीजिए कि भगवान महावीर ने यदि कुण्डलपुर में जन्म न लिया होता तो उनके नाम का ‘‘महावीर जी’’ अतिशय क्षेत्र कैसे बन पाता, भगवान पदमप्रभु एवं चन्द्रप्रभु के अतिशय क्षेत्र, पदमपुरा और तिजारा में सैकड़ों दीपक जलाते समय क्या कभी चिन्तन किया गया है कि इनकी जन्मभूमि कौशाम्बी एवं चन्द्रपुरी में एक दीपक भी जलता है या नहीं? आदि। अत: सर्वप्रथम तो आप सभी भगवन्तों की जन्मभूमियों के नाम याद करें पुन: उनकी यात्रा, वंदना का कार्यक्रम अवश्य सुनियोजित करें, उसके पश्चात् वहाँ की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से संपर्क करें। पूज्य माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर का यह संस्थान ‘‘तीर्थंकर जन्मभूमि विकास समिति’’ के माध्यम से इन तीर्थों के विकास का कार्य कर रहा है।
जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का सर्वोदयी व्यक्तित्व शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है-२२ अक्टूबर सन् १९३४ को शरदपूर्णिमा के दिन टिकैतनगर (बाराबंकी-उ.प्र.) में श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जैन की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी की कुक्षि से प्रथम संतान के रूप में जन्मी कन्या ने वास्तव में युग का इतिहास बदलकर २०वीं – २१वीं सदी में अपने ऐतिहासिक कार्यकलापों द्वारा नया कीर्तिमान स्थापित किया है। आपने सन् १९५२ में अपनी जन्मतिथि शरदपूर्णिमा के ही दिन पूज्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज से सप्तम प्रतिमारूप आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण कर गृहत्याग किया। सन् १९५३ में चैत्र कृ. एकम को उनसे क्षुल्लिका दीक्षा लेकर वीरमती नाम पाया पुन: बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज के दर्शन करके उनकी प्रेरणा से उनके प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज के करकमलों द्वारा सन् १९५६ में वैशाख कृ. द्वितीया को माधोराजपुरा (राज.) में आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर अपने ‘‘ज्ञानमती’’ नाम को पूर्णरूपेण सार्थक किया। इस युग की प्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका के रूप में प्रख्यात ज्ञानमती माताजी ने अनेक मुनि – आर्यिकाओं को क्लिष्ट ग्रंथों का अध्ययन कराकर त्याग-ज्ञान की ऊँचाईयों को प्राप्त कराया, अपनी लेखनी से विपुल साहित्य की रचना कर कुन्दकुन्द आदि आचार्य एवं ब्राह्मी-सुंदरी, सुलोचना जैसी आर्यिका का स्मरण कराया, अनेक तीर्थों के उद्धार एवं विकास की प्रेरणा देकर स्वामी अकलंक देव, आचार्य समंतभद्र का उदाहरण प्रस्तुत किया तथा संस्थाओं के प्रति निस्पृह भाव अपनाकर आचार्य श्री शांतिसागर – वीरसागर महाराज का त्यागमयी आदर्श प्रस्तुत किया है। इनकी अतिनिकटता में रहकर चर्या देखने वाले भक्त ही इनकी वास्तविक निस्पृहता का अनुमान लगा सकते हैं। ५३ वर्ष की अखण्ड तपस्या एवं सतत ज्ञानाराधना में लीन पूज्य गणिनीप्रमुख, युगप्रवर्तिका, चारित्रचन्द्रिका, आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के श्रीचरणों में शत-शत नमन करते हुए उनके दीर्घ एवं परम स्वस्थ जीवन की मंगल कामना करती हूँ।