प्रमाणशास्त्र के तलस्पर्शी सूक्ष्म चिंतक, जैन इतिहास और पुरातत्व के ख्यातिलब्ध वेत्ता, न्यायाचार्य डॉ. दरबारी लाल कोठिया का जन्म विक्रम संवत् १९६८ में आषाढ़ कृष्ण द्वितीया के दिन मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में सिद्धक्षेत्र नैनागिरि की पावन भूमि पर हुआ। ‘कार्य के प्रति लगन प्रतिकूल परिस्थितियों को भी पददलित कर देती है।’’ इस तथ्य को चरितार्थ करते हुए उन्होंने श्रमसाध्य, न्यायाचार्य, शास्त्राचार्य, एम.ए., पी—एच.डी. जैसी उपाधियाँ प्राप्त कीं। आज भी उनका अनुसंधित्सु व्यक्तित्व प्राचीन वाङ्गमय के प्रस्फुटीकरण हेतु सन्नद्ध थे। अपनी सरस्वती साधना में उन्होंने एक दर्जन से अधिक मौलिक ग्रंथों का प्रणयन किया, २० से अधिक ग्रंथों का आधुनिक शैली में सम्पादन और अनुवाद किया तथा २०० से अधिक शोध आलेखों का प्रणयन किया। न्यायशास्त्र के विशेषज्ञ डॉ. कोठिया बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में जैन—बौद्ध दर्शन के रीडर के पद से सेवानिवृत हुए थे । वे भारतवर्षीय जैन विद्वत्परिषद् के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर चुके हैं। वीर सेवा मंदिर, वर्णी ग्रन्थमाला आदि संस्थाओं के वे महामंत्री रहे हैं। अनेक पत्र—पत्रिकाओं तथा अभिनन्दन ग्रन्थों के वे यशस्वी प्रधान सम्पादक भी रहे हैं । उनकी साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक सेवाओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने हेतु सन् १९८२ में उनका अखिल भारतीय अभिनन्दन हुआ और लगभग ६०० पृष्ठों का एक विशाल अभिनन्दन ग्रंथ उन्हेें समर्पित किया गया। डॉ. कोठिया अपने विषय के मर्मज्ञ एवं प्रतिभासम्पन्न मनीषी हैं। उन्होंने विषय के प्रामाणिक, विश्लेषणात्मक अध्ययन के साथ प्रत्येक मान्यता के सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है। उनकी प्रतिक्रिया एक ऐसे विद्वान की प्रतिक्रिया है जिसने मूलग्रंथ, भाष्य और टीकाओं के गम्भीर अध्ययन के साथ सूक्ष्मतम समस्याओं का भी अनुचिन्तन किया है। आपका कार्य मुख्य रुप से ऐसे विषयों पर केन्द्रित है, जिन पर आज तक शोधकार्य नहीं किया गया था। यथा:— १. मोक्षमार्गस्य नेत्तारं…… मंगलाचरणको कुछ विद्वान तत्वार्थसूत्र का मंगलाचरण न मानकर आचार्य पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्धि का मंगल श्लोक बतलाते हैं किन्तु डॉ. कोठिया ने अनेक प्रमाणों द्वारा उसे तत्वार्थसूत्र का मंगलाचरण सिद्ध किया। २. समाज में बहुप्रचलित ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ को कुछ विद्वान आचार्य समन्तभद्र की कृति न मानकर ११वीं शती के शिवार्य नाम के विद्वान की रचना मानते थे। डॉ. कोठिया ने प्रमाणपूर्वक उसे आचार्य समन्तभद्र की रचना सिद्ध की। ३. आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार में सम्यदर्शन की उत्पत्ति के कारण जिनसूत्र और जिनसूत्र के ज्ञाता पुरुषों को कहा गया है पर कुछ विद्वानों ने श्रुत के ज्ञाताओं को वाह्य कारण न मानकर अभ्यतंर कारण माना, इस सैद्धांतिक विषय को भी डॉ.कोठिया ने चर्चा का विषय बनाकर गहरी सूझबूझ के साथ मान्यता को स्पष्ट किया और उसे आचार्य कुन्दकुन्द के अभिप्रायानुसार बाह्य कारण सिद्ध किया एवं अन्तरंग कारण का निषेध किया। ऐसे अनेक विषय हैं जिन्हें डॉ. कोठिया ने गवेषणात्मक दृष्टिकोणपरक विवेचन कर स्पष्ट किया।
डॉ कोठिया द्वारा रचित प्रमुख कृतियाँ और उनके प्रकार इस प्रकार हैं
अ. मौलिक रचनाऐं१. जैनदर्शने प्रमाणचिन्तनम् २. जैन प्रमाण मीमांसाया: स्वरूपम् ३. जैनदर्शने करुणाया: स्वरूपम् ४. श्रुतपंचमी: अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित शोध आलेख ५. जम्बूजिनाष्टकम्: अभिनन्दनग्रन्थ में प्रकाशित संस्कृत काव्य ६. आत्मा अस्ति न वा— विषय पर प्रकाशित शोध आलेख ७. द्रव्यसंग्रहस्य संस्कृत टीका ८. न्यायदीपिकाया: प्रकाशाख्यं टिप्पणम् ९. न्यायदीपिकाया: प्रश्नोत्तरावली
ब. मौलिक ग्रन्थ:— १. जैनतर्कशास्त्र में अनुमान विचार २. जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन ३. जैनतत्वज्ञान मीमांसा ४. विभिन्न अभिनन्दन ग्रन्थों, स्मृति ग्रन्थों और शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित २०० से अधिक शोध आलेख ५. जैनदर्शन और न्याय: उद्भव एवं विकास ६. जैनदर्शन और न्याय: एक परिशीलन ७. महावीर का जीवन संदेश स. सम्पादित एवं अनूदित कृतियाँ:— १.न्यायदीपिका २. आप्तपरीक्षा ३.द्रव्यसंग्रह ४. समाधिमरणोत्साह दीपिका: ५.प्रमाण प्रमेय कलिका ६. प्रमाण परीक्षा ७.पत्र—परीक्षा ८. स्याद्वाद—सिद्धि ९.जैन पुराण कोष