णमोकार महामंत्र अत्यन्त वैज्ञानिक है एवं इस महामंत्र के जाप से शरीर पर सकारात्म प्रभाव पड़ता है। इस मंत्र से शरीर में संचित ऊर्जा दिव्य शक्तियों की प्रकटीकरण का पथ प्रशस्त करती है एवं अन्तोगत्वा कर्मों की निर्जरा में सहायक होती है।
मन के साथ जिन ध्वनियों का धर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है उन ध्वनियों के समुदाय को मंत्र कहा जाता है, मंत्र और विज्ञान दोनों में अन्तर है, क्योंकि विज्ञान का प्रयोग जहाँ भी किया जाता है, वहाँ फल एक ही होता है, परन्तु मंत्र में यह बात नहीं है, उसकी सफलता साधक और साध्य पर निर्भर करती है। ध्यान के अस्थिर होने से मंत्र असफल हो जाता है , मंत्र तभी सफल होता है, जब श्रद्धा, इच्छा और दृढ़ संकल्प के साथ एकाग्रता—तीनों ही यथावत कार्य करें। सर्वाधिक कठिन होता है एकाग्रचित्त का होना, जो बिना किसी माध्यम के नहीं आती। णमोकार महामंत्र का उच्चारण यदि वर्णों के माध्यम से किया जावे तो चित्त की एकाग्रता तो बढ़ती ही है साथ में वर्ण रूपी ‘लैंस’ मंत्र ध्वनि रूपी तरंगों को केन्द्रीभूत कर लेती हैं, जिससे महामंत्र के उच्चारण से आत्मा में अधिक ऊर्जा का संचय होता है। (जैसे लैंस के माध्यम से सूर्य रश्मियों का अधिक से अधिक केन्द्रीयकरण होने से सूर्य रश्मियाँ अधिक से अधिक ऊष्णता को प्राप्त हो जाती है एवं एक समय ऐसा आता है जब लैंस नीचे स्थित कागज में अग्नि प्रज्जवलित हो जाती है संचित ऊर्जा के प्रभाव में आत्मा में स्थित दिव्य शक्तियाँ अधिक से अधिक उत्पन्न होती है। अन्त में ऐसी भी एक परिस्थिति उत्पन्न होती है, जिससे तीव्र ध्यान रूपी अग्नि से समस्त कर्म बंधन एक—एक कर टूट जाते हैं। सूर्य रश्मियाँ— लैंस— अग्नि— णमोकार महामंत्र मंत्र शास्त्र की दृष्टि से विश्व के समस्त मंत्र में अलौकिक है। इसकी महानता को वे ही समझते हैं जिन्होंने निष्काम भाव से इसकी आराधना कर सिद्धि या फल प्राप्त किया है। संसार की ऐसी कोई ऋद्धि—सिद्धी नहीं है जो इस मंंत्र के द्वारा प्राप्त किया है। संसार की ऐसी कोई ऋद्धि—सिद्धी नहीं है जो इस महामंत्र द्वारा प्राप्त न की जा सके। महामंत्र महत्ता के सन्दर्भ में कहा गया है कि पंच नमस्कार महामंत्र सब पापों का नाश करने वाला और सब मंगलों में पहला मंगल है।
एसो पंच णमोक्कारो सव्वपावप्पणसणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढ़मं हवई मंगलं।।
णमोकार मंत्र का उच्चारण तथा ध्यान वर्णों के माध्यम से करने पर लक्ष्य की दृढ़ता होती है तथ मन एकाग्र होता है जिससे कर्मों की अपरिमेय गुना निर्जरा होती है। वास्तु शास्त्र के ‘मानसार’ नामक ग्रन्थ में पंच परमेष्ठियों को क्रमश: निम्न पाँच वर्णों द्वारा निरूपित किया गया है—
स्फटिकश्वेत रक्तं च पीत श्याम—निभं तथा। एतत्पज्वपरमेष्ठी पज्यवर्ण—यथाक्रमम।।
अर्थात् स्फटिक के समान श्वेत वर्ण, लाल वर्ण पीत वर्ण, हरा वर्ण एवं नीला वर्ण,— ये पाँच वर्ण क्रमश: पंच परमेष्ठी के सूचक हैं। इनमें श्वेत वर्ण अरिहंत परमेष्ठी का सूचक है। स्फटिक निर्मलता की प्रतीक होती है तो अरिहंत भी चार घातिया कर्मों का क्षय करके निर्मल स्वरूप में स्थित हैं। लाल रंग पुरुषार्थ का प्रतीक है। तो सिद्ध परमेष्ठी ने परम पुरुषार्थ से मोक्ष की सिद्धि की है। अत: उन्हें लाल वर्ण से संसूचित किया गया है।पीत वर्ण वात्सल्य को दर्शाता है तो ‘आचार्य’ परमेष्ठी संघ को वात्सल्य भाव से अनुशासित कर सन्मार्ग में मर्यादित रखते हैं। अत: उन्हें पीत वर्ण से संकेतित किया गया है। हरा रंग समृद्धि का द्योतक है। ‘उपाध्याय’ परमेष्ठी संघ को ज्ञान देकर समृद्धि करते हैं अत: हरा रंग उनका सटीक परिचायक हे। गहरा नीला रंग अथवा काला रंग साधु परमेष्ठी के उस वैराग्य का द्योतक है जिस पर कोई रंग नहीं चढ़ सकता। इसी कारण से सूरदास ने लिखा है— सूरदास की काली कामरि चढ़े न दूजो रंग’। कुछ विचारक इन पाँच वर्णों को क्रमश: अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का प्रतीक भी मानते हैं। इसी कारण से पाँचों वर्णों की समानुपातिक पट्टियोंसे जैन महाध्वज निर्मित किया गया है।
१. ‘श्याम’ पद आजकल साँबले या हल्के काले वर्ण का सूचक रूढ़िवसात माने जाना लगा है, किन्तु मूलत: यह हरित वर्ण का ही सूचक है। इसीलिए हरियाली से युक्त पृथ्वी को शस्यश्यामला कहा जाता है।
२. ‘निभं’ शब्द को नभ या आकाश का समानार्थी माना गया है—निभं नभ तथा आकाश के लिये नीलाम्बर शब्द का प्रयोग मिलता है। वस्तुत: रात्रि में जैसे आकाश का वर्ण गहरा नीला होता है, वही गहरा नीला वर्ण यहाँ निभं पद से अभिप्रेरित है। गहरा नीला होने से रात्रि़ में आकाश काला प्रतीत होता है। संभवत: इसीलिये निभं पद को काले वर्ण का सूचक मान लिया गया है, परन्तु आलेख में निभं का अभिप्राय नीला माना गया है। जैसा कि आधुनिक विज्ञान की अवधारणा है कि दृश्य प्रकाश सात रंगों के योग से निर्मित है एवं इन सात रंगों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा निम्न क्रम में होती है— —न्न् बैंगनी ब — घ् कापोल ढ दृश्य प्रकाश जो — नीला ती रंगहीन होता है प्रिज्म — उ हरा हु —भ् पीला ई — ध् नारंगी ऊ — लाल र्जा उच्च ऊर्जा क्षेत्र—— न्न्. घ्. भ्. ध्.
R. न्यून ऊर्जा क्षेत्र बढ़ती हुई ऊर्जा पाठकगण ठीक प्रकार से समझ सकें इस हेतु यह बतलाना भी आवाश्यक है कि जब कोई वस्तु दृश्य प्रकाश में उपस्थित इन सात रंगों का पूर्ण परावर्तन कर देती है तब वह वस्तु श्वेत (स्फटिक) दिखलाई देती है। परन्तु जब इन सात रंगों का वस्तु द्वारा पूर्ण अवशोषण कर लिया जाता है तब वस्तु काली दिखाई देती है। जब हम दृश्य प्रकाश में उपस्थित विभिन् न रंगों के माध्यम से णमोकार महामंत्र का उच्चारण करते हैं तब नीचे चित्र में दर्शाये अनुसार ऊर्जा का संचय करते हैं। संचित ऊर्जा से आत्मा में स्थित दिव्य शक्तियाँ अधिक से अधिक उत्पन्न होती हैं। एक बिन्दु ऐसा आता है जब तीव्र ध्यान रूपी अग्नि (संचित ऊर्जा) से कर्म बंधन तड़—तड़ कर टूटना प्रारम्भ कर देते हैं। विभिन्न रंगों के माध्यम से णमोकार महामंत्र के उच्चारण से ऊर्जा का संचय
ध्याता
जब हम साफ स्वच्छ स्थान परा शुद्ध साफ होकर पूर्ण मनोयोग से आत्मकेन्द्रित होकर श्वेत वर्ण के माण्यम से णमो अरिहंताणा का उच्चारण करते हं तब हमारे भाव निर्मल एवं निर्विकल्प हो जाते हें। इस बिन्दु पर हम अपने आपको एकदम तरोताजा महसूस करते है एवं अगले पदों के उच्चारण द्वारा प्राप्त ऊर्जा को ग्रहण करने हेतु पूर्ण रूप से तैयार हो चुके होते हैं। आगे जैसे ही रक्त वर्ण के माध्यम से महामंत्र का दूसरा पद णमो सिद्धाणं का उच्चारण किया जाता है तब मंत्र ध्वनि तरंगें जैसे ही रक्त वर्ण के माध्यम से होती हुई हमारी आत्मा तक पहुँचती है वैसे ही आत्मा में ऊर्जा का संचार प्रारम्भ हो जाता है। तथा यह ऊर्जा महामंत्र के तीसरे पद णमो आयरियाणं का उच्चारण पीत वर्ण के माध्यम में करने पर और अधिक बढ़ जाती है। इसी प्रकार जब महामंत्र के चौथे पद णमो उवज्झायणं का उच्चारण हरित वर्ण के माध्यम में किया जाता है तब संचित ऊर्जा और अधिक घनीभूत हो जाती है। महामंत्र के अन्तिम पद णमो लोए सव्वसाहूणं का उच्चारण नील वर्ण या काले वर्ण के माध्यम में करने पर संचित ऊर्जा अपने चरम पर होती है। इस प्रकार संचित ऊर्जा का उपयोग हम आत्मा स्थित दिव्य शक्तियों के प्रकट होने में लगा देते हैं जिससे निरन्तर कर्मबंध कटते रहते हैं। उपर्युक्त प्रक्रिया को पुन: पुन: दोहराया जाता है। अधिक उत्तम होगा यदि प्रत्येक पद को लगातार कम से कम नौ बार एक ही वर्ण पर केन्द्रित कर दुहराया जाये । ऐसा करने में णमोकार महामंत्र की एक बार में नौ जाप हो जाती हैं।
अन्त में प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या णमोकार महामंत्र का उच्चारण बगैर माध्यम के करना कारगर नहीं होगा?
उत्तर—निश्चित होगा, परन्तु तब, जब महामंत्र का जाप पूरी एकाग्रता से किया गया हो। वर्णों का माध्यम चित्त की एकाग्रता बढ़ाता है। आलेख को पढ़कर पुन: प्रश्न उठेगा कि क्या साधु परमेष्ठी के नाम का उच्चारण सर्वाधिक ऊर्जा प्रदान करने वाला होता है, मेरी दृष्टि में निश्चित होता होगा क्योंकि कबीर जैसे आध्यमिक चिन्तक के अनुसार—
गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।।
कर्मबन्ध कटने के साथ—साथ जो आगमानुसार है, मेरा स्वयं अनुभव है कि महामंत्र का प्रतिदिन लगभग १ घंटा किया गया जाप उच्च एवं न्यून रक्तचाप को नियंत्रित कर लगभग सामान्य कर देता है। साथ में मेरा यह भी मानना है कि अन्य दूसरी व्याधियों का उपचार भी महामंत्र द्वारा संभव है परन्तु इसके सत्यापन हेतु एक सुसज्जित प्रयोगशाला में अनुसंधान करने की अत्यन्त आवश्यकता है।
सन्दर्भ: १. मानसार, ५५ /४४ २. महाकवि कालिदास, ऋतुसंहारम् २/५१