‘भोत्तुक: फलोपभोगो हि यथाकालं यदीष्यते । तदा कर्मक्षय: क्वात: कल्पकोटिशतैरपि ।।’
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार १.१.५०, पृ. ३११
अर्थात् यदि भोक्ता के कर्म फल देकर यथाकाल नष्ट होते हैं तो करोड़ों कल्प कालों में भी कर्मों का क्षय होना सम्भव नहीं है, क्योंकि जन्मान्तर में फल देने वाले का इस जन्म में क्षय मानने में विरोध आता है। यदि आप कहें कि तत्त्वज्ञानी के इसी जन्म में फल देने योग पुण्य-पाप रूप कर्म उत्पन्न होतें हैं तो इसमें प्रमाण का अभाव है। सविपाक निर्जरा तो यथाकाल ही फल देती है। इससे सिद्ध है कि उपक्रम विशेष अर्थात् तपश्चरण आदि के द्वारा ही संचित कर्म समय से पूर्व नष्ट हो सकते हैं। इसे ही जैन आगम में अविपाक निर्जरा कहा गया है। यह चारित्र रूप है। अत: ज्ञान के साथ चारित्र को होना चाहिए। ज्ञान और चारित्र सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्पने को प्राप्त नहीं हो पाते हैं। इसीलिए कहा गया है कि रत्नत्रय से मुक्ति होती है, केवल तत्त्वज्ञान से नहीं। उपसंहार के रूप में श्री विद्यानन्द आचार्य ने कहा है –‘सम्यग्ज्ञानं विशिष्टं चेत्समाधि: सा विशिष्टता । तस्य कर्मफलध्वंसशक्तिर्नामान्तरं ननु ।।
मिथ्याभिमाननिर्मुक्तिज्र्ञानस्येष्टं हि दर्शनम् । ज्ञानत्वं चार्थविज्ञप्तिश्चर्यात्वं कर्महन्तृता ।।
शक्तित्रयात्मकादेव सम्यग्ज्ञानाददेहता । सिद्धा रत्नत्रयादेव तेषां नामान्तरोदितात् ।।’
वही, १.१.५३-५५, पृ. ३१३
यदि नैयायिक कहें कि सम्यग्ज्ञान विशिष्ट है और उस ज्ञान के कर्मध्वंस करने के सामथ्र्य की विशिष्टता समाधि है तो समाधि तो चारित्र का ही नामान्तर हुआ। ज्ञान के मिथ्याभिमान की निवृत् का नाम दर्शन है, पदार्थ की ज्ञप्ति ज्ञान है और कर्मनाश करने की शक्ति का नाम चारित्र है। इन तीन शक्ताात्मक ज्ञान र्अािात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप रत्नत्रय से ही मुक्ति सिद्ध होती है। पदार्थ व्यवस्था की दृष्टि से जगत् षड् द्रव्यमय है। परन्तु मुक्ति के लिए जिनके तत्त्वज्ञान की आवश्यकता होती है, वे तत्त्व जैनागम में सात माने गये हैं- ‘जीवाजीवास्रव-बन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।तत्त्वार्थसूत्र, १.४ अर्थात जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इनके ज्ञान न होने पर षड् द्रव्यों का ज्ञान भी मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं हो पाता है। इन सात तत्त्वों में सभी पदार्थों का अन्तर्भाव हो जाता है, किन्तु नैयायिकों द्वारा मान्य सोलह पदार्थों में सर्व तत्त्वों का संग्रहण नहीं हो पाता है। अत: सोलह पदार्थों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ही नहीं। प्रमाण का ग्रहण करने से अप्रमाण रूप अनध्यवसाय और विपर्यय का ग्रहण नहीं हो पाता है, जबकि नैयायिकों ने संशय को पृथक पदार्थ माना है। यदि संशय को अलग पदार्थ कहा है तो फिर अनध्यवसाय और विपर्यस को भी अलग कहना चाहिए था। इसी प्रकार स्मृति, तर्क आदि ज्ञानों का भी संग्रहण नहीं हो पाया है। अत: सोलह पदार्थों की मान्यता युक्तियुक्त नहीं है।तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, भाग २, पृ. ६७-६८-६९ नैयायिकमान्य प्रमाण प्रमेय आदि सोलह पदार्थ वास्तव में मूल पदार्थ ही नहीं हैं, अपितु ये द्रव्य और पर्यायों के भेद-प्रभेद ही हैं। जैन सिद्धान्त में द्रव्य और पर्याय से अन्य तत्वों की व्यवस्था करने वाली दूसरी नीति नहीं है।‘गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ।।’
वही, भाग-३.७१, पृ. ६६
अर्थात् जो ज्ञान ग्रहण किये जा चुके अथवा ग्रहण नहीं किये गये किसी भी प्रकार के स्व एवं पर पदार्थ को निश्चय करता है, तो वह ज्ञान लोक में और शास्त्रों में भी प्रमाणपने को नहीं छोड़ता है, अर्थात् वह उभयत्र प्रमाण है। गृहीतग्राहिता किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है।‘तत्राभ्यासात्प्रमाणत्वं निश्चित: स्वत एव न:। अनभ्यासे तु परत इत्याहु: केचिद्ञ्जसा ।।
तच्च स्याद्ववादिनामेव स्थार्थनिश्चयात् स्थितम् । न तु स्वनिश्चयोन्मुक्तनि:शेषज्ञानवादिनाम् ।।’
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, भाग-३.१२६-१२७ पृ. ७८
अर्थात् अभ्यास दशा में स्वत: प्रमाण का निश्चय हो जाता है, किन्तु अनभ्यास दशा में अन्य कारणों से प्रमाणपना जाना जाता है। यह स्वीकार करना भी स्याद्वादियों के सिद्धान्त के अनुसार ही घटित होता है। क्योंकि उन्होंने स्व और अर्थ का निश्चय करने वाले ज्ञान में प्रमाणपना व्यवस्थित किया है। अपना निश्चय न करने वाले अस्वसंवेदियों के ऐसी व्यवस्था बनना सम्भव नहीं है।‘ज्ञानाश्रयतवतो वेधा नित्यं ज्ञो यदि कथ्यते । तदेव किं कृतं तस्य ततो भेदेपि तत्त्वत: ।।’
वही भाग १.६९, पृ. ९४
अर्थात् यदि नैयायिकों के अनुसार सृष्टि की रचना करने वाला ईश्वर अनादिकाल से ज्ञान का आश्रय होने से नित्य ज्ञाता कहा जाता है तो वास्तव में उस ज्ञान से सर्वथा भिन्न होने पर भी उस ईश्वर के नित्य ज्ञातापना कैसे सिद्ध हो सकता है ? यदि ज्ञान से ईश्वर का भिन्न प्रकार का सम्बन्ध मानोगे तो समवाय भी अनेक प्रकार का सिद्ध होता है।वही भाग १, पृ. ९६ ऐसा मानना आपको भी स्वीकार नहीं होगा।