आचार्य कुन्दकुन्द के प्रमुख शिष्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी का समय वि.सं. ८१ कहा जाता है। प्रथम शता में भारतीय दार्शनिक चिन्तन एक ओर संस्कृत भाषा की संक्षिप्त सूत्रबद्ध शैली की भव्यता लेकर विकसित हो रहा था, वहीं नव्यन्याय की शैली का भी उन्मेष होने लगा था। आचार्य गृद्धपिच्छ ने प्राकृत की गाथात्मक शैली (गाथा सूत्रों) को संस्कृत में ढालकर प्रथम बार ‘तत्त्वार्थसूत्र’ की रचना ईसा की प्रथम शताब्दी में की। जिनागम में ‘तत्त्वार्थसूत्र’ की यह प्रसिद्ध है कि वह ‘‘तत्त्वस्य कोशं निधि:’’ अर्थात् तत्त्व का कोश या निधान है। इससे यह स्पष्ट है कि ‘तत्त्वार्थसूत्र’ तत्त्वज्ञान की रचना है अर्थात् जैन तत्त्वज्ञान का निरूपक है। निम्नलिखित गाथाओं से भी इसकी पुष्टि होती है। यथा –
अर्थात् ‘तत्त्वार्थसूत्र’ के प्रथम चार अध्याय में प्रथम अर्थात् जीवतत्त्व का वर्णन किया गया है। पंचम अध्याय में पुद्गल (अजीवतत्त्व) का वर्णन है। छठे-सातवें अध्याय में आस्रवतत्त्व का निरूपण है। आठवें अध्याय में बन्धतत्त्व का तथा नवम अध्याय में संवर-निर्जरा तत्त्व का एवं दसवें अध्याय में मोक्षतत्त्व का वर्णन किया गया है। इस प्रकार जिनागम के सूत्रों में जिनवर द्वारा प्रज्ञप्त सात तत्त्वों की प्ररूपणा की गई है। ‘तत्त्वार्थसूत्र’ का यह सूत्र प्रसिद्ध है-
जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।
अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये सात तत्त्व हैं। प्रश्न- क्या तत्त्व सात ही हैं ? उत्तर- कि परम तत्त्व एक है और तत्त्व अनन्त हैं, लेकिन यहाँ पर जो सात तत्त्व कहे गए हैं, वे प्रयोजनभूत तत्त्व हैं। प्रयोजनभूत तत्त्व किये कहते हैं ? मोक्षमार्ग में अर्थात् सच्चे सुख की राह में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही प्रयोजनवान् हैं। ये क्यों प्रयोजनवान् हैं ? इन तीनों (रत्नत्रय) में से प्रत्येक से सुख की उपलब्धि होती है, किन्तु तीनों की पूर्णता में ही पूर्ण अर्थात् अनन्त सुख उपलब्ध होता है। अत: इनको ही विषय कर मुख्यरूप से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का वर्णन तत्त्वार्थसूत्र में किया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो मूल विषय-वस्तु तो इन तीनों के विशेष रूप से निरूपण करने में सुनियोजित हो गई है। यथार्थ में तो सम्यग्दर्शन को समझाने के लिए ही तत्त्वों को निरूपण है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का एक साथ ‘दीप के प्रज्वलन तथा प्रकाश की भाँति’ प्रादुर्भाव होता है। इसलिये प्रथम अध्याय में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का विवेचन किया गया है। द्वितीय अध्याय में सम्यग्दर्शन के विषयभूत जीवतत्त्व के असाधारण भाव, लक्षण, इन्द्रियाँ, योनि, जन्म तथा शरीरादि का वर्णन किया गया है। दिगम्बर आगम ग्रन्थों में सर्वत जीव को भावों से विवेचित किया गया है, क्योंकि बिना भाव का कोई जीव नहीं होता। भाव को आचार्य गृद्धपिच्च ने स्वतत्त्व कहा है। प्रश्न यह है कि उक्त विवेचन ही जब मुख्य था, तो लोक-विभाग का वर्णन क्यों किया गया ? इसका उत्तर है कि प्रसंगत: यह बताना भी आवश्यक था कि जीव पाए कहाँ जाते हैं, कहाँ पर किसके आधार से रहते हैं ? क्योंकि यह बताये बिना अन्तरंग तथा बहिरंग अधिकरण का भेद-ज्ञान नहीं करा सकते थे और भेद-ज्ञान हुए बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती। अत: तृतीय अध्याय में जीवों का निवास-स्थान बतलाने के लिए पाताललोक या नरकलोक, और मध्यलोक का, उनकी स्थितिआदि का सम्पूर्ण वर्णन किया गया एवं चतुर्थ अध्याय में ऊध्र्वलोक या स्वर्गलोक का, उसमें निवास करने वाले चार प्रकार के देवों के निवास-स्थान, भेद, आयु, शरीर आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। पाँचवे अध्याय में परमाणु से लेकर पुद्गलों की संघटना, शब्द, बन्ध, सूक्ष्म-स्थूल आदि पुद्गल-पर्यायों तथा कार्मण-वर्गणाओं आदि का वैज्ञानिक विवेचन है। छठे अध्याय में ‘आस्रवपतत्त्व’ का विश्लेषण है। वस्तुत: संसारी जीवों की अधिकतर भूलें आस्रव-विषयक हैं। इन भूलों के कारणभूत कर्म कहे गए हैं, जो भावात्मक ओर द्रव्यात्मक सत्ता रूप से कहे गए हैं। यथार्थ में जैनदर्शन में कर्म सिद्धान्त का विवेचन भी वैज्ञानिक एवं मौलिक है। ”सातवें अध्याय में शुभ आस्रव का वर्णन करते हुए सर्वप्रथम व्रत के सामान्य स्वरूप का निरूपण किया गया है। इसके अनन्तर श्रावकाचार का वर्णन किया गया है। श्रावकाचार तथा महाव्रतों के वर्णन में तत्त्वार्थसूत्रकार ने आचार्य कुन्दकुन्द की सरणि का भी अनुसरण किया है। आठवें अध्याय में ‘बन्धतत्त्व’ का विशद वर्णन है। उसमें बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-चारों प्रकार के भेदों का सम्यक् प्रतिपादन उपलब्ध होता है। नवम अध्याय में संक्षेप में श्रमण व मुनिधर्म एवं ‘संवर-निर्जरातत्त्व’ का सरल व संक्षिप्त वर्णन है। सम्पूर्ण विवेचन दिगम्बर जिन आम्नाय को ध्यान में रख कर किया गया है। दसवें अध्याय में ‘मोक्ष (निर्वाण) तत्त्व’ का स्पष्ट व संक्षिप्त विवेचन है। इस प्रकार रत्नत्रय की समग्रता का वर्णन करने वाला अपने ढंग का निराला ग्रन्थ है। उक्त ग्रन्थ को तत्त्वार्थसूत्र इसलिए कह जाता है कि इसमें यथार्थ वस्तु-स्वरूप का वर्णन है। कहा भी है –
‘‘यथाभूत: अर्थ: तत्त्वार्थ:, स अस्य ज्ञेयभूत: अस्ति, इति तत्त्वार्थविद्’’
अर्थात् यथाभूत अर्थ (पदार्थ) का नाम तत्त्वार्थ है। ऐसा तत्त्वार्थ जिस ज्ञान का ज्ञेय है, उससे युक्त तत्त्वार्थविद् होता है। ‘तत्त्वार्थसूत्र’ का मूलसूत्र है-
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग: ।
‘सम्यग्दर्शन’ की सिद्धि ‘मिथ्यादर्शन’ से है। यदि विपरीत श्रद्धान लोक में न हो, तो उसके सत्प्रतिपक्षभूत ‘सम्यग्दर्शन’ की सिद्धि नहीं हो सकती है। वास्तविकता है कि ‘सत्’ का प्रतिपक्ष ही ‘सत् ’ को सिद्ध करता है। अत: आचार्य विद्यानन्दि कहते हैं –
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता होने पर ही मोक्षमार्ग बनता है। इस प्रथम सूत्र के सामथ्र्य से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान ओर मिथ्याचारित्र- ये तीनों संसार के मार्ग है, यह बिना कहे ही सिद्ध हो जाता है। अत: बाधक प्रमाण के न होने से ही संसार की त्रिविधता सिद्ध है। ‘संसार’ का अर्थ है- राग-द्वेष में संसरण करना। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ओर सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है- ऐसा उल्लेख करने वाले जिनागम में अनेक स्थल हैं। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है-
चाहे गृहस्थ हो या अनगार श्रमण-दोनों का मोक्षमार्ग एक है, भले ही लौकिकता में भिन्न-भिन्न हों, अत: तत्त्वज्ञान दोनों के आत्महित के लिए समानरूप से हितकारी है। यथार्थ में अनेकान्त के बिना जैनदर्शन नहीं हो सकता। तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय में जहाँ प्रमाण, नय, निक्षेप का वर्णन किया गया है, वहीं उसमें अनेकान्त भी समाहित है। कहा भी है-
अर्थात् ‘तत्त्वार्थसूत्र’ के प्रथम अध्याय में ज्ञान और दर्शन को ही सम्यक् रूप से तत्त्व प्ररूपित किया गया है, क्योंकि सम्यग्ज्ञन ही प्रमाण है। नयों के लक्षणों का भी वर्णन किया गया है। नयों के आधार पंर ही वस्तु-स्वरूप को प्रकाशित करने वाले अनेकान्त की उपस्थापना की गई है। जिस प्रकार वस्तु-स्वरूप का कथन करने वाले नय अनन्त हैं, वैसे ही प्रत्येक वस्तु में रहने वाले गुण-धर्म भी अनन्त हैं। उनमें परस्पर विरुद्धता भी है। लेकिन वस्तुत्व को निष्पन्न करने वाली विरोधी गुण-धर्मों में भी अविरोध को प्रकाशित करने वाला अनेकान्त है। अत: जैनदर्शन का दूसरा नाम अनेकान्तदर्शन है। आचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में-
इस प्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ ने ‘तत्त्वार्थसूत्र’ में मूल जिनवरों के द्वारा प्रज्ञप्त तत्त्वज्ञान का वर्णन किया है। तत्त्वज्ञान में सहायक छह द्रव्य, पाँच आस्तिकाय, सात तत्त्वों का निरूपण किया गया है। अत: यह सूत्रबद्ध रचना तत्त्वों की निधि तथा तत्त्वकोश है। इसमें जैन तत्त्वज्ञान की साथ भूगोल, खगोल, जीवविद्या, पदार्थविज्ञान, सृष्टिविद्या, कर्मसिद्धान्त, आचार एवं व्रतरूप चारित्र से आत्मशुद्धि आदि अनेक विषयों का क्रमबद्ध व्यवस्थित विवरण प्रस्तुत कर संस्कृत वाङ्मय में मौलिक, विलक्षण एवं अनुपम निदर्शन प्रस्तुत किया गया है। यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि शास्त्र की विषय-वस्तु रचना-शैली, सिद्धान्त-प्ररूपणा तथा धर्मचार विषयक आराधना-प्रद्धति आदि सभी दिगम्बर आगम ग्रन्थों एवं दिगम्बर-सम्प्रदाय के अनुरूप है। उदाहरण के लिए कतिपय सैद्धान्तिक मान्यताएँ इस प्रकार हैं- काल को रत्नराशि के समान एवं स्वतन्त्र सत्ता-सम्पन्न द्रव्य मानना। दिगम्बर जैन ही प्रत्येक द्रव्य को उसकी अपनी स्वतन्त्रा सत्ता होने से उसे प्रभुता स्वरूप स्वीकार करते हैं। बाईस परीषहों के बिना कोई दिगम्बर साधु नहीं होता। सम्यग्दर्शन के साथ ही षोडशकार भावना, सोलहकारण व्रत, दशलक्षणव्रत एवं रत्नत्रय व्रतों की आराधना आज भी दिगम्बर जैनों में प्रचलित है। श्वेताम्बर बीस भावनाएँ मानते हैं। ‘तत्त्वार्थसूत्र’ षोडसकारण भावनाओं का वर्ण समुपलब्ध है। धर्म के दशलक्षण आज भी भाद्रपद शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक दश दिनों में पर्व के रूप में आराधन कर तत्त्वार्थसूत्र के वाचन, स्वाध्याय के साथ मनाए जाते हैं। इन सब से स्पष्ट है कि ‘तत्त्वार्थसूत्र’ वास्तव में दिगम्बर आचार्य गृद्धपिच्छ की एक प्रमाणिक सूत्रबद्ध रचना है। विशेष जानकारी के लिए सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री कृत ‘सर्वार्थसिद्धि’ की प्रस्तावना एवं पं. माणिकचन्द्र जी न्यायाचार्य कृत ‘तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ की प्रस्तावना पठनीय है।
डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री प्राकृत विद्या जुलाई-सितम्बर १९९५ अंक २