अतुच्छगुणसम्पातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि तम्।
पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णव:।।
तत्त्वार्थश्लोकर्वाितक, पृ. ६
उपर्युक्त श्लोक में ग्यारहवीं शताब्दी के आचार्य वादिराजसूरि ने गृद्धपिच्छ शब्द लिपिबद्ध किया है। इतना अवश्य है कि इस श्लोक में गृद्धपिच्छ का नाम आया है और उनसे जुड़ी किसी कथा का कुछ संकेत इसमें नहीं है। इन साक्ष्यों के अतिरिक्त जैनधर्म की प्राचीनता एवं प्रामाणिकता के अनगिनत साक्ष्य श्रवणबेलगोला में यत्र—तत्र बहुधा मिलते हैं। ये साक्ष्य वहाँ के मंदिरों एवं पर्वतों पर शिलालेख के रूप में आज भी प्राचीन कन्नड़ भाषा में लिपिबद्ध हैं। इनमें शिलालेख संख्या ४०, ४२, ४३, ४७ और ५० में गृद्धपिच्छाचार्य इस पद का उल्लेख आया है। किन्तु इसी क्रम में शिलालेख संख्या १०५ और १०८ में उमास्वाति नाम भी उत्कीर्ण किया हुआ मिलता है। शिलालेख इस प्रकार है—स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरार्यैजैंनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता।
सर्वार्थसिद्धिरिति सुद्रिरुपात्तनाम, तत्त्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या।।१।।
इस श्लोक में सर्वार्थसिद्धि का अन्य नाम तत्त्वार्थवृत्ति कहा है, जिससे मूल ग्रंथ का नाम तत्त्वार्थ स्पष्ट होता है। परवर्ती आचार्य विद्यानन्द ने ‘मुनिसूत्रेण’ तथा ‘तत्त्वार्थसूत्रकारै:’ पद का क्रमश: तत्त्वार्थश्लोकर्वाितक तथा आप्तपरीक्षा की स्वोपज्ञ टीका में प्रयोग किया है। इसके बाद के आचार्य वीरसेन ने धवला में ‘तच्चत्थसुत्ते’ अर्थात् तत्त्वार्थसूत्र का प्रयोग किया है। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में भी तत्त्वार्थसूत्र शब्द लिखा है। पूर्वापर इस धारा को देखें तो प्राचीतम प्रमाण स्वयं में सर्वार्थसिद्धि है। अत: प्राचीन नाम तो तत्त्वार्थ ही प्रतीत होता है, किन्तु सूत्र शैली में निरूपित होने से पश्चाद्वर्ती काल में सूत्र शब्द तत्त्वार्थ के साथ रूढ़ हो गया होगा, क्योंकि परवर्ती सभी आचार्यो एवं ग्रंथकारों ने तत्त्वार्थसूत्र पद का प्रयोग किया है। इस आलेख का निष्कर्ष यह है कि तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण आचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित है। तत्त्वार्थसूत्र के कत्र्ता का नाम उमास्वाति तथा गृद्धपिच्छ मानना उचित है। सूत्रकार के रूप में आचार्य उमास्वामी की एक मात्र रचना तत्त्वार्थसूत्र ही स्वीकार है। ग्रंथ का नाम तत्त्वार्थ है, किन्तु परवर्ती काल में इसका सूत्र शब्द के साथ प्रयोग रूढ़ हो गया है। इसके बाद अतिरिक्त भी अनेक ऐसे विषय हैं जिन पर अभी पुन: शोध की आवश्यकता है। दोनों परम्पराओं के सूत्रों पर तर्क—संगत तुलनात्मक अध्ययन भी इसी क्रम में अपेक्षित है। डॉ. आनन्दकुमार जैन