तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त दृष्टान्त और उनका वैशिष्ट्य
आचार्य उमास्वामीप्रणीत तत्त्वार्थसूत्र जैन-धर्म-दर्शन परम्परा का महनीय एवं सर्वमान्य शास्त्र है। जैन परम्परा में इसे संस्कृत भाषा औडेर सूत्रबद्ध शैली में निबद्ध आद्य ग्रन्थ होने का गौरव भी प्राप्त है। तत्त्वार्थसूत्र पर अनेक यशस्वी तथा महत्वपूर्ण टीकाएँ- महाटीकाएँ भी लिखी गई हैं, जिनसे इस ग्रन्थ का अतिशय महत्त्व सिद्ध हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र की रचना एक विशिष्ट पद्धति से हुई है, जिससे उसमें एक विशेष आकर्षण पैदा हो गया है। जहां यह ग्रथ प्राचीनता एवं प्रमाणिता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, वहीं इसमें जैन सिद्धान्त तथा आगमों का सार निचोड़कर रखा गया है, जिससे दर्शनशास्त्रों के प्रमुख प्रतिपाद्य तीनों पक्ष-तत्त्व, ज्ञान और आचार का संक्षिप्त पर महत्त्वपूर्ण विवेचन देखने को मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र में मोक्षमार्ग और इनके प्रयोजनभूत तत्त्वों या पदार्थों का सैद्धान्तिक विवेचन करते हुए सूत्रकार ने कुछ स्थानों पर दृष्टान्तों (उदाहराणों) का सफल एवं सार्थक प्रयोग किया है। यद्यपि धर्म-दश्रन का प्रतिपादक ग्रन्थ होने के कारण यह स्वाभाविक है कि इसमें दृष्टान्तों आदि को कम अवकाश मिले, तथापि प्रकृत प्रसंग को बखूबी स्पष्ट करने के लिए ग्रन्थकार ने जिन दृष्टान्तों/उदाहरणों का प्रयोग किया है, उनसे सम्बद्ध विषय हस्तामलकवत् स्पष्ट हो गये हैं। प्रस्तुत आलेख में तत्त्वार्थसूत्र में आये दृष्टान्तों का संक्षिप्त विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।
दृष्टान्त और दाष्र्टान्त दृष्टान्त का अर्थ हैसंस्कृत-हिन्दी कोश-आप्टे, न्यू भारतीय बुक कार्पोरिशन, २००६, पृ. ४७१ – उदाहरण या निदर्शन। किसी लेखक या ग्रन्थकार द्वारा अपनी सिद्धान्तगत या मुख्य बात को स्पष्ट युक्तिसंगत बनाने के लिए जो उदाहरण दिया जाता है वह दृष्टान्त कहलाता है। इस प्रकार के दृष्टान्त देकर समझाया गया अथवा व्याख्या किया गया विषय दाष्र्टान्त (दृष्टान्त + अण्) कहा जाता है।वही, पृ. ४५६ तत्त्वार्थसूत्र के दशवें अध्याय के सातवें सूत्र की भूमिका बताते हुए पूज्यपाद (देवनन्दि) ने लिखा हैसर्वार्थसिद्धि, मूर्तिदेव ग्रंथमाला, संस्कृत-ग्रंथांक १७, २००९, १०.०६.९३२ एवं तत्त्वार्थवार्तिक भाग २, मूर्तिदेवी जैन ग्रंथमाला : संस्कृत- ग्रंथांक २०, २००९, १०.०६-७ – हेत्वर्थ: पुष्कलोऽपि दृष्टान्तसमर्थनमन्तरेणाभिप्रेतार्थसाधनाय नालमिति अर्थात् बहुत से श्रेष्ठ तथा स्पष्ट हेतुओं के देने पर भी दृष्टान्त के द्वारा बिना समर्थित कथन अभीष्ट अर्थ की सिद्धि करने में समर्थ नहीं होते, पर एक उपयुक्त दृष्टान्त अनेक हेतुओं को स्पष्ट कर देता है। अकलंकदेव का भी यही अभिप्राय है। दृष्टान्त पूर्वक किया गया लेखन शास्त्र का अलंकार होता है, इसीलिए अलंकारशास्त्रों में दृष्टान्त को एक स्वतंत्र अलंकार माना गया है- काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकार: प्रचक्षते के अनुसार दृष्टान्त आदि अलंकार काव्य या शास्त्र की शोभा के प्रतिष्ठायक या उन्नायक होते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि साहित्य लेखन में भाषा, शैली, दृष्टान्त आदि आश्रय रूप बाह्य साधनों का क्या महत्त्व है? इस प्रश्न का समाधान यही दिया जा सकता है कि जिस प्रकार किसी सुन्दर, महत्वपूर्ण या कीमती वस्तु को विशेष प्रकार के आश्रय, अधिकरण या साधन में रखा जाता है, उसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में, भाषा, शैली, उदाहरण, अलंकार, रस, छन्द आदि आधारों या आश्रयों की विशेष महत्ता है, क्योंकि किसी ग्रन्थ का आन्तरिक पक्ष अर्थात् भावपक्ष जितना महत्त्वपूर्ण होता है, उसी तरह ग्रन्थ के आश्रय रूप कलापक्ष का आकर्षक और सुदृढ़ होना जरूरी है। तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्ट रूप से तीन प्रसंगों पर दृष्टान्तों का प्रयोग हुआ है, इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है – पहला दृष्टान्त ज्ञान के पाँच भेदों की चर्चा के प्रसंग (अध्याय १ सूत्र ३२) में आया है। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल, सम्यग्ज्ञान के इन पांच भेदों का विवेचन करते समय ग्रन्थकार ने इनके स्वरूप, भेद-प्रभेद, स्वामी, विषय आदि का विस्तृत प्रतिपादन किया है।
मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से इन्द्रियों और मन के द्वारा अपने-अपने योग्य पदार्थों को ग्रहण करना मति कहलाता है। श्रुतज्ञान के आवरणरूप कर्म का क्षयोपशम होने पर पदार्थ का ज्ञान श्रुत कहा जाता है। जैसे सूर्य पर से बादलों का पर्दा दूर होते ही सूर्य का प्रताप और प्रकाश दोनों एक साथ प्रकट होते हैं उसी तरह दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशन होने से आत्मा सम्यग्दर्शन धारण करता है या कहें कि सम्यग्दर्शन रूप से परिणत होता है, उसी समय इसके मत्यज्ञान तथा श्रुताज्ञान हटकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं – यदास्य दर्शनमोहस्योपशमात्क्षयात्क्षयोपशमाद्वा आत्मा सम्यग्दर्शनपर्यायेणाविर्भवति तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रुताज्ञाननिवृत्तिपूर्वकं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं चाविर्भवति घनपटलविगमे सवितु: प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत्।सर्वार्थसिद्धि १.१.७ अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से सीमित अथवा परिमित विषयवाला ज्ञान अवधि कहलाता है। मन:पर्ययज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त शक्ति से स्वपर (अपने व दूसरे) के मन की अपेक्षा से किया गया व्यवहार मन:पर्यय कहा जाता है। बाह्य और आभ्यन्तर तप रूप संयम के द्वारा प्राप्त होने वाला अथवा असहाय ज्ञान केवल कहलाता है।तत्त्वार्थसूत्र (सर्वार्थसिद्धि के अंतर्गत) १.९, सर्वार्थसिद्धि १.९.१६४ जैनदर्शन के अनुसार वस्तुत: आत्मा केवलज्ञान स्वभाव वाला है और मूल ज्ञान में कोई भेद नहीं है, लेकिन आवरण कर्म के आधार से ज्ञान पांच भागों में विभाजित हो जाता है। ये पांच ज्ञान अपने-अपने साधनों के निमित्त से दो प्रकार के होते हैं- परोक्षज्ञान और प्रत्यक्षज्ञान। ज्ञान के उक्त पांच भेदों में से आदि के दो ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय, मन, प्रकाश, उपदेश आदि बाह्य निमित्तों के अधीन होने से परोक्ष ज्ञान कहलाते हैं।सर्वार्थसिद्धि १.११.१७४ तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय, मन, प्रकाश और उपदेश आदि पर (बाह्य निमित्तों) की सहायता से अक्ष अर्थात् आत्मा को होने वाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। उपमान, आगम आदि अन्य ज्ञानों का भी इन्हीं दो में अन्तर्भाव हो जाता है।
वही १.११.१७४ परन्तु प्रत्यक्ष शब्द में अक्ष शब्द का अर्थ आत्मा है – अक्ष्णोति, व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा। अत: जो ज्ञान इन्द्रिय, मन, प्रकाश, उपदेश आदि बाह्यनिमित्तों की अपेक्षा न रखकर मात्र क्षयोपशमयुक्त या आवरण रहित आत्मा से होता है वह प्रत्यक्षज्ञान कहलाता है।तत्त्वार्थसूत्र १.१२, सार्वार्थसिद्धि १.१२.१७६ प्रत्यक्ष ज्ञान के लक्षण के प्रसंग में एक प्रश्न उपस्थित किया गया है कि जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञान क्षयोपशमयुक्त या आवरण रहित आत्मा से होता है, उसी प्रकार विभंग ज्ञान (कुअवधि-ज्ञान) भी तो आत्मा के प्रति नियत होता है। अत: उसका भी प्रत्यक्ष के अन्तर्गत ग्रहण हो जाता है? इस शंका का समाधान यह है कि सम्यग्ज्ञान का अधिकार होने से विभंगज्ञान का निराकरण हो जाता है, क्योंकि विभंगज्ञान मिथ्यादर्शन के उदय से विपरीत पदार्थ को विषय करता है, इसलिए वह सम्यग्ज्ञान नहीं होता।सर्वार्थसिद्धि १.१२.१७६ तत्त्वार्थसूत्र में मत्यादि पांच सम्यग्ज्ञानों का विवेचन करने के बाद सूत्रकार ने निर्देश दिया है कि मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान सम्यक अर्थात् सच्चे तो होते ही हैं, विपर्यय (उल्टे) भी होते हैं – मतिश्रुतावधयों विपर्ययश्च। विपर्यय शब्द का अर्थ विपरीत, मिथ्या या अज्ञान है। मिथ्यादर्शन के साथ एक आत्मा में इनका समवाय होने से उक्त तीन ज्ञान विपर्यय होते हैं। बात यह है कि मोहनीय कर्म के उदय से मिथ्या श्रद्धान और मोहनीय कर्म के अभाव में सम्यक श्रद्धान होता है। मिथ्याश्रद्धान के साथ जो ज्ञान होता है, वह मिथ्याज्ञान कहलाता है किन्तु सम्यंक श्रद्धान वाले जीव का भी जो क्षायोपशमिक ज्ञान होता है, वह ज्ञानावरणकर्म के द्वारा ढंका होने के कारण, ‘सीप में यह चांदी है’, इत्यादि ज्ञान, अज्ञान शब्द से कहा जाता है।तत्त्वार्थसूत्र १.३१. एवं सर्वार्थसिद्धि १.३१.२३४ मति आदि तीन ज्ञान विपर्यय क्यों होते हैं? इसका उत्तर यह है कि जैसे रज (गूदा) सहित कड़वी तूंबड़ी मे रखा हुआ दूध कड़वा हो जाता है, वैसे ही मिथ्यादर्शन के निमित्त से ये ज्ञान विपर्यय होते हैं। यद्यपि कडवी तूंबड़ी में आधार के दोष (पात्र की अशुद्धि) से दूध का रस मीठे से कड़वा हो जाता है, परन्तु मत्यादि ज्ञानों की विषय के ग्रहण करने में विपरीतता नहीं प्रतीत होती है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि चक्षु आदि इन्द्रिय के द्वारा रूपादिक पदार्थों को ग्रहण करता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी मत्यज्ञान के द्वारा रूपादिक पदार्थों को ग्रहण करता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि श्रुत के द्वारा रूपादिक पदार्थों को जानता है और उनका निरूपण करता है, उसी तरह मिथ्यादृष्टि भी श्रुतज्ञान के द्वारा रूपादिक पदार्थों को जानता है और उनका निरूपण करता है, और जिस तरह समयग्दृष्टि अवधिज्ञान के द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है, उसी तरह मिथ्यादृष्टि भी विभंगज्ञान के द्वारा रूपी पदार्थों को जनता है।
सर्वार्थसिद्धि १.३१.२३४ उक्त प्रश्न के समाधान हेतु एक दृष्टान्त दिया गया है-तत्त्वार्थसूत्र १.३२ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् अर्थात् वास्तविक और अवास्तविक का भेद किये बिना यदृच्छोपलब्धि- (इच्छानुसार) जब जैसा मन में आया वैसा ग्रहण होने के कारण उन्मत्त (पागल-विक्षिप्त) की तरह ज्ञान भी अज्ञान हो जाता है। तात्पर्य यह है कि संसारी व्यक्ति मिथ्यादर्शन के उदय से कभी रूपादिक विद्यमान है तब भी, उन्हें अविद्यमान कहता है और कभी अविद्यमान वस्तु को भी विद्यमान कहता है कभी सत् को सत् और असत् को असत् ही मानता है। जैसे कि पित्त पत्नी के उदय से आकुलित बुद्धिवाला मनुष्य माता को पत्नी और पत्नी को माता मानता है और अपनी इच्छा की लहर के अनुसार माता को माता और पत्नी को पत्नी ही मानता है, तब भी वह ज्ञान सम्यक नहीं है। उसी प्रकार मिथ्यात्व भाव के उदय में जीव का ज्ञान भी सत् को असत् और असत् को सत् अनुभव करता है। कभी-कभी सत् को सत् और असत् को असत् भी अनुभव करता है। तब भी वह मिथ्याज्ञान ही होता है, सम्यग्ज्ञान नहीं।सर्वार्थसिद्धि १.३२.२३६ इस प्रकार मत्यादिक ज्ञानों का भी रूपादिक में विपर्यय होता है। तात्पर्य यह है कि आत्मा में स्थित कोई मिथ्यादर्शन रूप परिणाम रूपादिक की उपलब्धि होने पर भी कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास को पैदा करता रहता है।
१. कारणविपर्यास – जैसे यह मान्यता कि रूपादिक का एक कारण है जो अमूर्त और नितय है। अथवा, यह मान्यता कि पृथ्वी आदि चार भूत हैं और इन भूतों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, ये भौतिक धर्म हैं और इन सबका समुदाय रूप परमाणु या अष्टक कहा जाता है इत्यादि।
२. भेदाभेदविपर्यास – जैसे कारण से कार्य को सर्वथा भिन्न या अभिन्न मानना।
३. स्वरूपविपर्यास –जैसे, रूपादिक निर्विकल्प हैं या रूपादिक हैं ही नहीं। अथवा रूपादिक के आकार रूप से परिणत हुआ विज्ञान ही है। उसका आलम्बनभूत और कोई बाहरी पदार्थ नहीं है। इसी प्रकार मिथ्यादर्शन के उदय से जीव प्रत्यक्ष और अनुमान के विरुद्ध अनेक प्रकार की कल्पनाएँ करता है और उनमें श्रद्धान उत्पन्न करता है, इसलिए उसका यह ज्ञान मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान होता है, परन्तु समयग्दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञान में श्रद्धान उत्पन्न करता है अत: इस प्रकार का ज्ञान मति, श्रुत और अवधि होता है।वही १.३२.२३७-२३६ दूसरा दृष्टान्त तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय में छह द्रव्यों के विवेचन प्रसंग में आता है। यहाँ पर जीव द्रव्य के प्रदेशों का निर्देश करते हुए उसे असंख्यात प्रदेशी बताया गयातत्त्वार्थसूत्र ५.१५ – अंसख्येया: प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम्। तात्पर्य यह है कि लोकाकाश के एक-एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रह सकता है। इसी तरह दो, तीन और चार आदि असंख्यात भागों में एक जीव रह सकता है और पूर्णरूप से फैले तो एक जीव सम्पूर्ण लोक को घेर लेता है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जब एक जीव के प्रदेश लोकाकाश में फैल जाते हैं, तब लोक असंख्यातवें भाग आदि में एक जीव कैसे रह सकता है? उसे जो संपूर्ण लोक में फैलकर ही रहना चाहिए। इसी शंका के समाधान हेतु एक दृष्टान्त का प्रयोग किया गया है- प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्। इस दृष्टान्त में आत्मा के स्वदेह परिमाणत्व का प्रतिपादन किया गया है। जैसे, दीपक अपना प्रकाश छोटा कमरा हो तो छोटा में और बड़ा कमरा हो तो बड़े में फैलाता है, उसी प्रकार जीव के प्रदेशों में संकोच और विस्तार होने के कारण उसे छोटा या बड़ा, जैसा शरीर मिलता है, उसी में अपने प्रदेश संकुचित या फैलाकर रहता है। जब कोई जीव अप्रतिघाती सूक्ष्म निगोदिया का शरीर पाता है तो फैलकर संकुचित होकर उसी में रह जाता है और जब हाथी या महामच्छ का शरीर पाता है तो उतना ही बड़ा हो जाता है। इसका कारण यही है कि जैनदर्शन के अनुासार प्रत्येक आत्मा में संकोच और विस्तार नामक गुण पाया जाता है। इसलिए चींटी जैसे छोटे शरीर में भी संकुचित होकर रहता है।
किन्तु इस क्रिया से आत्मा छोटा या बड़ा नहीं होता, अपितु वह असंख्यात प्रदेशी ही बना रहता है। जैसे लोकपूरण समुद्घात के समय विस्तार गुण के कारण सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। उस अवस्था में भी वह असंख्यात प्रदेशवाला ही रहता है। इसी बात को सुस्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने प्रदीप का दृष्टान्त दिया है।सर्वार्थसिद्धि ५.१६.५५५-५५७ एक अन्य दृष्टान्त दशवें अध्याय में मुक्तजीव के ऊध्र्वगमन आदि का कारण बताते हुए आता है। मोहकर्म का क्षय होने तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का अभाव करके जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है। केवलज्ञान के प्रकट होने पर मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति होती है। यहां पर मोक्ष शब्द का प्रयोग कर्म, नोकर्म (सहायक कर्म) और भावकर्म के वियोग अर्थ में किया गया है। संसारी जीव अनादिकाल से कर्मों से बंधा होता है, इसलिए किसी अपेक्षा से परतन्त्र होता है। कर्म बन्धन के टूट जाने से वह मुक्त होता है अर्थात् वह अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करता है। समस्त कर्मों से मुक्त होने के कारण जीव लोक के अन्त तक ऊपर जाता है।तत्त्वार्थसूत्र १०.१-५, सर्वार्थसिद्धि १०.१-५. ९२८-९३० जीव ऊध्र्वगमन क्यों करता है? इसका कारण यह बताया गया है कि पूर्व प्रयोग से, संग अर्थात् परिग्रह का अभाव होने से, बन्धन के टूटने से और वैसा अर्थात् ऊध्र्वगमन करने का स्वभाव होने के कारण जीव ऊपर की ओर गमन करता है। पूर्व आचार्यों का कथन है – उद्धगामी जीवो, अहोगामी पुग्गला (ऊध्र्वगामी जीव: अधोगामी पुद्गल:) अर्थात् जीव का स्वभाव ऊपर जाना है और पुद्गल का स्वभाव नीचे की ओर जाना है। लेकिन लोक से ऊपर गमन नहीं करता, क्योंकि गमन या गति के कारणभूत धर्मद्रव्य का लोकान्त के ऊपर अभाव पाया जाता है और धर्मास्तिकाय के अभाव में लोक और अलोक का विभाग नहीं बन सकता।
इसी प्रसंग में दृष्टान्त द्वारा समर्थन करते हुए सूत्रकार का कथन है – आबिद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखवच्च। पूर्वसूत्र में कहे गये हेतुओं और इस सूत्र में दिये गये दृष्टान्तों का क्रम से सम्बन्ध होता है।वही, १०.१-४ १. पूर्वप्रयोगाद्- आबिद्धकुलालचक्रवत् – जैसे कुम्हार के द्वारा घड़ा बनाते समय चक्र घुमाने के बाद हाथ, दण्डा आदि हटा लेने पर भी पूर्व प्रयोग के कारण संस्कार क्षय होने तक चक्र लगातार घूमता रहता है, उसी प्रकार संसार में स्थित आत्मा ने मोक्षप्राप्ति के लिए अनेक बार जो प्रयत्न (प्रणिधान) किये हैं, उनके कारण उसका ऊध्र्वगमन होता है।
२. असंगत्वात् – व्यवगतलेपालाबुवत् – जैसे मिट्टी के लेप पर वजनदार बनी तूंबड़ी पानी में डूब जाती है, पर ज्यों ही मिट्टी का लेप गलकर घुलता है, त्यों ही वह पानी की सतह पर ऊपर आ जाती है, उसी प्रकार कर्मभार से दबा हुआ आत्मा कर्माधीन होकर संसार में इधर-उधर भटकता है पर जैसे ही वह कर्मबन्धन से छूटता है वैसे ही उध्र्वगमन करता है।
३. बन्धच्छेदाद्- एरण्डबीजवत् – जैसे ऊपर का छिलका रूप बन्धन हटते ही उरण्ड (अण्डी) का बीज छिटक कर ऊपर जाता है, उसी प्रकार जीव के मनुष्य आदि भवों को प्राप्त कराने वाले गतिमान और जातिमान आदि समस्त कर्मों के बन्धन का छेद होने से उसकी ऊध्र्वगति होती है।
४. तथागतिपरिणामाद्-अग्निशिखावत् – जैसे तिरछी बहने वाली वायु के अभाव में दीपक की शिखा (ज्योति) स्वभाव से ऊपर को जाती है, उसी तरह मुक्त आत्मा नाना गति रूप विकार के कारणभूत कर्मों के अभाव होने पर ऊध्र्व गति स्वभाववाला होने के कारण ऊपर को ही जाता है।वही १०.५-६ इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी महाराज ने एक नहीं, दो नहीं अपितु चार मनोहारी सर्वजनग्राह्य दृष्टान्तों के द्वारा जीव की ऊध्र्वगति रूप हेतु का समर्थन किया है, जिससे पाठक विषय को पूर्णतया हृदयंगम कर लेता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वनामधन्य आचार्य उमास्वामी महाराज ने अपनी यशस्वी रचना तत्त्वार्थसूत्र में कुछ विशेष प्रसंगों पर कथ्य विषय को स्पष्ट करने के लिए व हेतुओं का समर्थन करने के लिए दृष्टान्तों का प्रयोग किया है, जिनसे विवेच्य विषय अधिक स्पष्ट व प्रभावोत्पादक बन गया है। इन दृष्टान्तों के प्रयोग से सम्बद्ध विषय और प्रसंग जहां रोचक एवं हृदयग्राही बना है, वहीं इन दृष्टान्तों को देखकर सूत्रकार की बहुशास्त्रविशारदता के साथ-साथ लोकव्यवहारनिपुणता आदि के दर्शन होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के संक्षिप्त एवं सूत्र ग्रंथ होने के कारण इसमें जो चर्चा अधिक स्थान नहीं ले पायी है, उसे देवनन्दि (पूज्यपादस्वामी) भट्ट अकलंकदेव, महातार्किक विद्यानन्दिस्वामी आदि ने अपनी-अपनी व्याख्याओं में विस्तार एवं ऊचाईयाँ दी हैं। जिससे ये सभी टीकाएं परमतवादियों की समीक्षा एवं स्वमत स्थापना के साथ तत्त्वार्थसूत्ररूप भव्यमन्दिर के शिखर पर विविध कलश रूप सिद्ध हुई हैं।