क्षतिं मन: शुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलव्रतेर्विलंघनमू ।
प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्ततामू ।
अर्थात् मन के भीतर व्रत सम्बन्धी शुद्धिरूपी बाड़ के उल्लंघन को व्यतिक्रम, विषयों में प्रवृत्ति करने से अतिचार और विषय-सेवन में अति आसक्ति को अनाचार कहा गया है । इसके अनुसार १ से ३३ तक के व्रत भंग को अतिक्रम, ३४ से ६६ तक के व्रत भंग को व्यतिक्रम, ६७ से ९९ तक के वत भंग को अतिचार और शत-प्रतिशत व्रत भंग को ‘अनाचार जानना चाहिये । परन्तु प्रायश्चित-शास्त्रों के प्रणेताओं ने उक्त चार के साथ ‘ आभोग ‘ को बढ़ा करके व्रत भंग के पांच विभाग किये हैं । उनके मत से एक बार व्रत खण्डित करने का नाम अनाचार और व्रत खण्डित होने के बाद शंका रहित होकर उत्कट अभिलाषा के साथ विषय-सेवन का नाम आभोग है । इनके अनुसार १ से २५ तक के व्रत भंग को अतिक्रम, २६ से ५० तक के व्रत भंग को व्यतिक्रम, ५१ से ७५ अंश तक के व्रत भंग को .अतिचार, ७६ से ११ तक व्रतभंग को अनाचार और शत-प्रतिशत व्रत भंग को आभोग समझना चाहिये । इसी विषय को आचार्य एक दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कोई बूढ़ा बैल धान्य के हरे-भरे किसी खेत को देखकर उसकी बाड़ के समीप बैठा हुआ उसे खाने की मन में इच्छा करता है, यह अतिक्रम है । पुन: वह बैठा-बैठा ही बाड़ के किसी छिद्र से भीतर मुख डालकर एक ग्रास धान्य खाने की अभिलाषा करे तो यह व्यतिक्रम है । अपने स्थान से उठकर और खेत की बाड़ तोडकर भीतर घुसने का प्रयत्न करता है, वह अतिचार है । पुन: खेत में घुसकर एक ग्रास धान्य को खाकर वापिस लौट आवे, तो यह अनाचार नामक दोष है । किन्तु जब वह निःशंक होकर खेत के भीतर घुसकर यथेच्छ घास खाता है और खेत के स्वामी द्वारा डण्डों से पीटे जाने पर भी धान्य खाना नहीं छोड़ता है तो आभोग नामक दोष है । श्रावक के जो १२ व्रत बतलाये गये हैं, उनमें से प्रत्येक व्रत के पांच-पांच अतिचार बतलाये हैं, जैसा कि पूज्य आचार्य उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र में लिखते हैं- ‘व्रतशीलेषु पंच पंच यथाक्रमद् ‘ । ।७/२४ । । ऐसी स्थिति में स्वभावत: एक प्रश्न उठता है कि प्रत्येक व्रत के पांच-पांच ही अतिचार क्यों बतलाये गये हैं? तत्त्वार्थसूत्र की उपलब्ध समस्त दिगम्बर और श्वेताम्बर टीकाओं में इस प्रश्न का कोई उत्तर दृष्टिगोचर नहीं होता है । जिन-जिन श्रावकाचारों में अतिचारों का निरूपण किया गया है उनमें और उनकी टीकाओं में भी इस प्रश्न का कोई भी समाधान नहीं मिलता है । इस सम्बन्ध में डॉ. हीरालाल जैन लिखते हैं- ” जीतसारसमुच्चय ” नामक ग्रंथ के अन्त में ‘ हेमनाभा नामका एक प्रकरण है जिसमें भरत चक्रवर्ती के प्रश्नों का उत्तर भगवान् ऋषभदेव के द्वारा दिलाया गया है भरत के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं कि- व्रतों में मानव शुद्धि की हानिरूप अतिक्रम से जो अतिचार लगते हैं, वे अपनी निन्दा करने से दूर हों जाते हैं । व्रतों के स्व-प्रतिपक्ष रूप विषयों की अभिलाषा से जो व्यतिक्रम जनित अतिचार लगते हैं, वे मन के निग्रह करने से शुद्ध हो जाते हैं । व्रतों के आचारण रूप किया में आलस्य करने से अतिचार लगते हैं, उनके त्याग करने से गृहस्थ निर्मल अथवा शुद्ध हो जाता है । व्रतों के अनाचार रूप छन्न भंग को करने से अतिचार लगते हैं, वे तीनों योगों के निग्रह से शुद्ध हो जाते हैं । व्रतों के आभोग जनित व्रत-भंग से जो अतिचार उत्पन्न होते हैं, वे प्रायश्चित-वर्णित नयमार्ग से शुद्ध हो जाते हैं त् इस विवेचन से यह एकदम स्पष्ट हो जाता है कि व्रतभंग के पांच प्रकार हैं, इन्हीं दोषी को ध्यान में रखकर ही यह संभव हो सकता है कि तज्जनित दोष अथवा अतिचार भी पांच ही हो सकते हैं ।