हैं जीव अजीव इन्हीं दो के, सब भेद विशेष कहे जाते।
वे आस्रव बंध तथा संवर, निर्जरा मोक्ष हैं कहलाते।।
ये सात तत्त्व हो जाते हैं, इनमें जब मिलते पुण्य-पाप।
तब नव पदार्थ होते इनको, संक्षेप विधी से कहूँ आज।।२८।।
जो कर्मों का आना होता, वह द्रव्यास्रव कहलाता है।
आस्रव के कारण समझ जीव, सब आस्रव से छुट जाता है।।२९।।
मिथ्यात्व पाँच अविरती पाँच, पंद्रह प्रमाद त्रय योग कहे।
क्रोधादि कषायें चार कहीं, सब मिलकर बत्तिस भेद लहे।।
आत्मा के इन सब भावों से, कर्मों का आस्रव होता है।
जो इन भावों से बचता है, वह द्रव्यास्रव को खोता है।।३०।।
पाँच मिथ्यात्व, पाँच अविरति, पन्द्रह प्रमाद, तीन योग और चार कषाय ये बत्तीस भेद भावास्रव के हैं। इनका विस्तार यह है कि प्रत्येक संसारी जीव चाहे मनुष्य हो या तिर्यंच, देव हो या नारकी, प्रतिक्षण उसके कुछ न कुछ भाव होते ही रहते हैं। चाहे वो भाव व्यक्त हों या अव्यक्त, स्वयं की जानकारी में हों या न भी हों, फिर भी जो भी परिणाम-भाव होते हैं वे सब भाव इन पाँच प्रत्ययों-कारणों में शामिल हो जाते हैं। इन पाँच के प्रभेद ३२ हैं अथवा मिथ्यात्व ५, अविरति १२, प्रमाद १५, कषाय २५ और योग १५ ऐसे ५±१२±१५±२५±१५·७२ भेद भी होते हैं।
ज्ञानावरणादी कर्मों के, जो योग्य कहे पुद्गल जग में।
वे आते हैं उनको समझो, द्रव्यास्रव वह हो क्षण-क्षण में।।
श्री जिनवर ने द्रव्यास्रव के, हैं भेद अनेकों बतलाए।
वे आठ तथा इस सौ अड़तालिस औ असंख्य भी बतलाए।।३१।।