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जीव द्रव्य

June 2, 2022विशेष आलेखShreya Jain

१३. वृहद् द्रव्य संग्रह


(एक विशेष अध्ययन)

प्रथम अधिकार

जीव द्रव्य

  • ‘सद्द्रव्यलक्षणम्’ इस सूत्र के अनुसार द्रव्य का लक्षण है ‘सत्’ और सत् का लक्षण है ‘‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुत्तंक सत्’’ उत्पाद व्यय और धौव्य से सहित वस्तु ही सत् कहलाती है।
  • वस्तु की नवीन पर्याय की उत्पत्ति का नाम उत्पाद है। वस्तु की पहली पर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं और दोनों ही अवस्था में द्रव्य की मौजूदगी का नाम ध्रौव्य है। जैसे मनुष्य के मरते ही मनुष्य पर्याय का व्यय, अगली देवपर्याय का उत्पाद और दोनों ही अवस्थाओं में जो जीव द्रव्य विद्यमान है, उसी का नाम है ध्रौव्य। इसी तरह से अचेतन घड़े आदि में भी जाना जाता है। जैसे कि मिट्टी से घट पर्याय का उत्पाद, मृत्पिंड पर्याय का विनाश और दोनों अवस्थाओं में मिट्टी का बने रहना यह ध्रौव्य गुण है। यह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य प्रत्येक द्रव्य में पाया जाता है।
  • द्रव्य का दूसरा लक्षण है-‘‘गुणपर्ययवद्द्रव्यम्’’ गुण और पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है। जैसे जीव द्रव्य में ज्ञान, दर्शन आदि गुण हैं और मनुष्य, देव आदि पर्यायें हैं। इन गुण पर्यायों से अतिरिक्त जीव नाम की कोई चीज नहीं है। सिद्धों में भी शुद्ध ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्व आदि पर्यायें विद्यमान हैं।
    इस प्रकार से द्रव्यों का वर्णन करते हुए श्री नेमिचन्द्राचार्य कहते हैं-

जीवमजीवं दव्वं, जिणवरवसहेण जेण णिद्दिट्ठं।
देविंदविंदवंदं, वंदे तं सव्वदा सिरसा।।१।।
जिनवर में श्रेष्ठ सुतीर्थंकर, जिनने जग को उपदेशा है।
बस जीव अजीव सुद्रव्यों को, विस्तार सहित निर्देशा है।
सौ इन्द्रों से वंदित वे प्रभु, उनको मैं वंदन करता हूँ।
भक्ती से शीश झुका करके, नितप्रति अभिनंदन करता हूँ।।१।।

  • जिणवरवसहेण जेण-जिनवर में प्रधान ऐसे जिन तीर्थंकर देव ने, जीवमजीवं दव्वं-जीव और अजीव द्रव्य को, णिद्दिट्ठं-कहा है। देविंदविंदवंदं-देवेन्द्रों के समूह से वंदना योग्य, तं-ऐसे उन भगवान को मैं सव्वदा-नित्य ही, सिरसा वंदे-शिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
  • यहाँ पर आचार्यश्री ने दो द्रव्यों को कहने की प्रतिज्ञा की है। क्योंकि द्रव्य दो ही हैं-जीव और अजीव। अजीव द्रव्य के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ऐसे पाँच भेद हो जाने से द्रव्य छह हो जाते हैं। इस छोटे से लघुकाय द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में आचार्य महोदय ने छहों द्रव्यों का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है।
  • इस गाथा में जिनेन्द्रदेव को सौ इन्द्रों से वंद्य कहा है। सो वे सौ इन्द्र कौन-कौन से हैं-
  • भवनवासियों के ४०±व्यन्तरों के ३२±कल्पवासियों के २४±ज्योतिषियों के सूर्य-चन्द्र ये २±मनुष्यों में चक्रवर्ती १±और तिर्यंचों में सिंह १·१००, ये सौ इन्द्र हैं।
  • अब सर्वप्रथम जीव द्रव्य का वर्णन करते हैं-

जो जीता है सो जीव कहा, उपयोगमयी वह होता है।
मूर्ती विरहित कर्ता स्वदेह, परिमाण कहा औ भोक्ता है।।
संसारी है औ सिद्ध कहा, स्वाभाविक ऊध्र्वगमनशाली।
इन नव अधिकारों से वर्णित, है जीव द्रव्य गुणमणिमाली।।२।।

  • प्रत्येक प्राणी जीव है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण रहने वाला है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है। ये जीव के नव विशेष लक्षण हैं। इन सबका आगे पृथक्-पृथक् निरूपण करेंगे। उनमें से सर्वप्रथम जीव का लक्षण बताते हैं-

जिसके व्यवहार नयापेक्षा, तीनों कालों में चार प्राण।
इन्द्रिय बल आयू औ चौथा, स्वासोच्छ्वास ये मुख्य जान।।
निश्चयनय से चेतना प्राण, बस जीव वही कहलाता है।
ये दोनों नय से सापेक्षित, होकर पहचाना जाता है।।३।।

  • जिसके व्यवहारनय से तीनों कालों में इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण हैं और निश्चयनय से चेतना प्राण है, वह जीव कहलाता है।
    जीव को जीव क्यों कहते हैं ? यहाँ पर इसी बात को स्पष्ट किया है। निश्चयनय वस्तु की स्वाभाविक अवस्था को प्रगट करता है और व्यवहारनय वस्तु के औपाधिक परसंसर्गजन्य भावों को भी ग्रहण कर लेता है। उदाहरण के लिए ‘जल ठंडा है’ क्योंकि उसका स्वभाव ठंडा ही है किन्तु जब जल अग्नि के ऊपर चढ़ा देने से खूब खौल रहा है, तब गर्म हो गया है। निश्चयनय उस खौलते हुए जल को भी ठंडा ही कहेगा क्योंकि जल का स्वभाव ठंडा है तथा व्यवहारनय उस खौलते हुए जल को गरम कहेगा क्योंकि उस जल को कोई शरीर के ऊपर डाल ले तो जल जायेगा, फफोले उठ जायेंगे। जल का स्वभाव ठंडा होते हुए भी उस समय वह जल अग्नि का काम कर रहा है अत: विचारपूर्वक देखा जाय तो ये दोनों ही नय अपने-अपने विषय को कहने में सत्य हैं, असत्य नहीं हैं। जल अपने स्वभाव से ठंडा है। स्वभाव पर दृष्टि रखने वाला निश्चयनय सही कह रहा है तथा अग्नि के संसर्ग से जल गरम है अत: व्यवहारनय भी झूठा नहीं है। उसे झूठा कहने वाले भला खौलते जल को शरीर पर डालेंगे क्या ? नहीं, अत: यह नय भी सच्चा ही है।
  • उसी प्रकार से निश्चयनय जीव के चेतना प्राण को कहता है। चेतना का अर्थ है ज्ञान-दर्शन, जो कि जीव में किसी न किसी अंश में सतत् पाए ही जाते हैं तथा व्यवहारनय से सदा ही इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण पाए ही जाते हैं। इनके बगैर संसार में जीव का अस्तित्व ही नहीं है।
  • इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। बल तीन हैं-कायबल, वचनबल और मनोबल। आयु एक प्राण है और श्वासोच्छ्वास एक, ऐसे सब मिलकर दश प्राण हो जाते हैं।
  • पंचेन्द्रिय जीवों में देव, नारकी, मनुष्य और पंचेन्द्रिय सैनी तिर्यंचों के दशों प्राण होते हैं। असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के मनोबल से रहित नव प्राण होते हैं। चार इन्द्रिय जीव के प्रारंभ की चार इन्द्रियाँ, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये आठ प्राण होते हैं। तीन इन्द्रिय जीवों के चक्षु से रहित सात प्राण होते हैं। दो इन्द्रिय जीवों के घ्राण से रहित छह प्राण होते हैं और एकेन्द्रिय जीवों के स्पर्शन नामक एक इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण ही होते हैं।
  • संसारी जीवों के ये प्राण पाये जाते हैं। मुक्त जीवों में इन इन्द्रिय आदि दश प्राणों का अभाव होते हुए भी उनमें चेतना यह प्राण विद्यमान रहता है अत: वे जीव ही कहलाते हैं न कि अजीव अथवा तत्त्वार्थराजवार्तिक में श्री अकलंकदेव ने ऐसा कहा है कि भूतपूर्व नैगमनय की अपेक्षा से सिद्धों में भी दश प्राणों की अपेक्षा जीवत्व मानना चाहिए।
    यदि कदाचित् व्यवहारनय को झूठा कह दिया जाए तो संसारी जीवों का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा अथवा हम और आप सभी जीवों के इन्द्रिय, बल, आयु आदि प्राण असत्य ही ठहरेंगे किन्तु ऐसी बात नहीं है अत: व्यवहारनय का कथन सत्य ही है जो कि प्रतीतिसिद्ध जीव के जीवत्व को साध रहा है।

जीव उपयोगमयी है

  • जीव के नव अधिकारों में ‘जीवत्व’ नाम का पहला अधिकार कहा है, अब दूसरे अधिकार ‘उपयोगमयत्व’ को कहते हैं-
  • ‘‘उपयोग दो प्रकार का है-ज्ञान और दर्शन। दर्शन तो निर्विकल्प है और ज्ञान सविकल्प है। दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तथा कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान। इनके प्रत्यक्ष, परोक्ष ऐसे दो भेद भी माने गये हैं। मति, श्रुत तथा कुमति और कुश्रुत ये परोक्ष हैं। अवधि, मन:पर्यय तथा कुअवधि ये एकदेश प्रत्यक्ष हैं एवं केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।’’

उपयोग कहा है दो प्रकार, दर्शन औ ज्ञान उन्हें जानो।
पहले दर्शन के चार भेद, उससे आत्मा को पहचानो।।
चक्षूदर्शन बस नेत्रों से, होता अचक्षुदर्शन सबसे।
अवधीदर्शन केवलदर्शन, ये दोनों आत्मा से प्रगटें।।४।।
ज्ञानोपयोग के आठ भेद, उनमें मति श्रुत और अवधि जान।
मिथ्या सम्यक् के आश्रय से, छह हो जाते ये तीन ज्ञान।।
मनपर्यय केवलज्ञान इन्हीं, में भेद प्रत्यक्ष परोक्ष कहे।
मति श्रुत परोक्ष केवल प्रत्यक्ष, बाकी त्रय देश प्रत्यक्ष कहे।।५।।

  • आत्मा के चैतन्यानुविधायी परिणाम का नाम उपयोग है। श्री उमास्वामी आचार्य ने इस एक उपयोग को ही जीव का लक्षण कहा है। इसके मूल में दो भेद हैं-ज्ञान और दर्शन। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं तथा दर्शनोपयोग के चार भेद हैं। यहाँ पहले उत्पन्न होने की अपेक्षा दर्शनोपयोग को पहले लिया है। संसारी आत्मा जब किसी भी इन्द्रिय से किसी स्पर्श, रस आदि विषय को ग्रहण करता है तो उसके प्रारंभ में जो सत्तामात्र अवभास या झलक होती है, उसी का नाम दर्शनोपयोग है। यह अव्यक्त है, निराकार है-निर्विकल्प है। इसके बाद ही ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप भेद प्रगट हो जाते हैं, जो कि मतिज्ञान के भेद हैं। जैसे कोई व्यक्ति गहरी नींद में सो रहा है, बाहर से किसी ने आवाज दी। वह सोता हुआ व्यक्ति कुछ सचेत होकर सुनने की तरफ उपयुक्त हुआ कि कहीं से आवाज आई है, यह तो हो गया मतिज्ञान का पहला भेद ‘अवग्रह’, पुन:-पुन: आवाज आने से उसने सोचा, भला कौन पुकार रहा है ? यह हो गई ‘ईहा’, पुन: उसने निर्णय कर लिया, मेरे भाई की आवाज है, यह हो गया ‘अवाय’, इसको कालांतर में न भूलकर वह उठ बैठा और उस पुकारने के प्रत्युत्तर में बोला, मैं आ रहा हूँ ’’ यह हो गई धारणा। इन ज्ञानों में अवग्रह ज्ञान के पहले की भी जो झलक है, उसी का नाम दर्शनोपयोग है, जो अचक्षुदर्शन के एक भेदरूप कर्णेन्द्रिय से होने वाला है।
  • चक्षुदर्शन तो केवल चक्षु इन्द्रिय से ही होता है। यह चार इन्द्रिय जीवों से लेकर सम्पूर्ण पंचेन्द्रिय जीवों में पाया जाता है। अचक्षुदर्शन स्पर्शन, रसना, घ्राण, कर्ण और मन इन इन्द्रियों से होता है अत: यह एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी प्राणियों में पाया जाता है। अवधिज्ञान के पहले होने वाला अवधिदर्शन मात्र पंचेन्द्रियोें में ही किन्हीं-किन्हीं के हो सकता है और केवलदर्शन तो केवली भगवान के ही होता है।
  • यद्यपि आत्मा शुद्ध निश्चयनय से सहज, विमल, केवल दर्शन स्वभाव वाला है फिर भी अनादिकाल से कर्मबंधन से बंधा होने के कारण इन चक्षु आदि उपयोगों को धारण कर रहा है।
  • ज्ञान में मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार भेद हैं। पुन: पाँच इन्द्रिय और मन से तथा बहु, बहुविध आदि पदार्थों से गुणा करने से तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं। जिनका विस्तार यहाँ नहीं किया जा रहा है। श्रुतज्ञान के भी अंग और पूर्वरूप से भेद-प्रभेद माने गये हैं। अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि, सर्वावधि की अपेक्षा तीन भेद हैं और भी अनेक भेद होते हैं। मन:पर्ययज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति की अपेक्षा दो भेद हैं और केवलज्ञान एक अकेला ही है।
  • दर्शनावरण के चक्षुदर्शनावरण आदि कर्म के क्षयोपशम से दर्शन प्रगट होता है। ज्ञानावरण के मतिज्ञानावरण आदि कर्मों के क्षयोपशम से मतिज्ञान आदि ज्ञान प्रगट होते हैं तथा दोनों के क्षय से केवलदर्शन और केवलज्ञान हो जाते हैं।
  • इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले मति ज्ञान को परोक्ष कहते हैं। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है अत: वह भी परोक्ष है। अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान आत्मा से प्रगट होते हैं फिर भी कुछ मूर्तिक वस्तुओं को ही ग्रहण करते हैं इसलिए एकदेश प्रत्यक्ष हैं तथा केवलज्ञान कर्मों के क्षय से आत्मा से प्रगट होता है अत: सकल प्रत्यक्ष है।
    प्रत्येक जीव में संसार अवस्था में कम से कम एक दर्शन और दो ज्ञान पाए ही जाते हैं। इन ज्ञानों में जो तीन मिथ्या ज्ञान हैं, उनमें कारण है मिथ्यात्व का उदय अर्थात् ज्ञान कभी भी मिथ्या नहीं हो सकता था किन्तु मिथ्यात्व के निमित्त से वह कु अथवा मिथ्या हो जाता है, जैसे दूध का स्वभाव मधुर है किन्तु यदि उसे कडुवी तूंबड़ी में रख दिया जाए तो वह कडुवा हो जाता है, उसी प्रकार से जब तक जीव में मिथ्यात्व का उदय विद्यमान रहता है तब तक उसके मति, श्रुतज्ञान या अवधिज्ञान मिथ्या रूप होने से कुमति, कुश्रुत और कुअवधि कहलाने लगते हैं।
  • जो जीव सम्यग्दृष्टि हैं उनके ये ही ज्ञान समीचीन होने से मति, श्रुत कहलाते हैं। आजकल हम और आप में मति, श्रुुत ये दो ज्ञान हैं तथा चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन ये दो दर्शन हैं, ऐसा समझना चाहिए किन्तु जो मिथ्यादृष्टि जीव हैं उनके कुमति, कुश्रुत और चक्षु, अचक्षुदर्शन, ऐसे चार उपयोग पाये जाते हैं।
  • ‘‘आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन यह व्यवहारनय से सामान्य रूप से जीव का लक्षण है किन्तु शुद्ध नय से शुद्धज्ञान और शुद्धदर्शन ही जीव का लक्षण है, ऐसा कहा गया है।’’

ये ज्ञान आठ दर्शन चारों, बारह प्रकार उपयोग कहे।
व्यवहार नयाश्रित होता है, सामान्य जीव का लक्षण ये।।
औ शुद्ध नयाश्रित शुद्धज्ञान, दर्शन यह लक्षण कहलाता।
बस उभय नयों के आश्रय से, यह जीव द्रव्य जाना जाता।।६।।

  • यहाँ जो सामान्य शब्द है, उसका अर्थ यह है कि ये बारह प्रकार का उपयोग जीव का लक्षण है। इसमें संसारी और मुक्त सम्पूर्ण जीवराशि आ जाती है क्योंकि एक साथ तो बारह उपयोग कभी किसी जीव में होे ही नहीं सकते हैं। मुक्त जीवों में तो मात्र दो ही उपयोग रहते हैं। यह तो व्यवहारनय की बात है किन्तु निश्चयनय से सभी संसारी जीव में भी मात्र शुद्धज्ञान और शुद्ध दर्शन ही पाए जाते हैं क्योंकि निश्चयनय की अपेक्षा से तो जीव के साथ कर्म का संबंध ही नहीं है पुन: कर्मों के क्षयोपशम से होने वाले ज्ञान दर्शन भी भला कहाँ होंगे ?
  • निश्चयनय से तो निगोदिया जीव को ही क्या अभव्य जीवों में भी शुद्ध ज्ञान, दर्शन विद्यमान है। यह निश्चयनय शक्ति को कहने वाला है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में श्री अकलंकदेव ने कहा है कि शुद्धनय से शक्तिरूप से तो अभव्य जीव में भी मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान विद्यमान है किन्तु उनसे उनको भला क्या लाभ है ? अत: अपने पुरुषार्थ के बल से अपने अंदर में शक्ति रूप से विद्यमान ऐसे शुद्ध ज्ञान, दर्शन को व्यक्त कर लेना ही लाभकारी है, उसी के लिए हमें पुरुषार्थ करना चाहिए।
    प्रत्येक संसारी आत्मा सर्वज्ञानदर्शी है किन्तु कर्मों के आवरण से आछन्न होकर अल्पज्ञानदर्शी हो रहा है, जैसा कि प्रत्यक्ष में अनुभव आ रहा है। इन ज्ञानावरण आदि कर्मों को जैसे बने, वैसे नष्ट करके अपने सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व स्वभाव को प्रगट कर लेना चाहिए। यही सब ग्रंथों के पढ़ने का, दीक्षा आदि लेने का तथा व्रत, जप, तप आदि
  • अनुष्ठान करने का सार है।
  • जीव अमूर्तिक है कर्ता और भोक्ता भी है

रस पाँच वर्ण भी पाँच गंध, द्वय आठ तथा स्पर्श कहे।
निश्चयनय से नहिं जीव में ये, इसलिए अमूर्तिक इसे कहें।।
व्यवहार नयाश्रित कर्मबंध, होने से मूर्तिक भी जानो।
एकांत अमूर्तिक मत समझो, नय द्वय सापेक्ष सदा मानो।।७।।

पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध और आठ स्पर्श, निश्चयनय से ये जीव में नहीं हैं चूँकि ये बीस गुण पुद्गल के हैं अत: जीव अमूर्तिक है तथा जीव के साथ कर्मबंध लग रहा है इसलिए व्यवहारनय से मूर्तिक है।

सपेâद, पीला, नीला, लाल और काला ये पाँच वर्ण हैं, तिक्त, कटु, कषायला, खट्टा और मीठा ये पाँच रस हैं, सुगंध और दुर्गंध ये दो गंध हैं तथा शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, कर्वâश, गुरु और लघु, स्पर्श के ये आठ भेद हैं, ये सब पुद्गल में पाये जाते हैं। शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी होने से शुद्ध हैं अत: शुद्ध निश्चयनय से सभी जीव अमूर्तिक ही हैं अर्थात् सभी संसारी जीव शक्तिरूप से अमूर्तिक हैं तथा सिद्ध जीव व्यक्तरूप से अमूर्तिक हैं।

प्रश्न यह उठता है कि यदि जीव अमूर्तिक है तो उसे कर्मबंध वैâसे होगा ?

तब ग्रन्थकार कहते हैं कि यह जीव व्यवहारनय से मूर्तिक है इसीलिए इसके कर्मबंध होता है अथवा संसारी जीव के कर्मों का संबंध अनादिकाल से ही चला आ रहा है इसलिए संसारी जीव अमूर्तिक न होकर मूर्तिक ही है।

यह कौन सा व्यवहारनय है ?

यह अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। अनन्त ज्ञान आदि की उपलब्धि होना मोक्ष है, इस मोक्ष से विपरीत जो कर्मबंध है, वह अनादिकाल से इस जीव के साथ चला आ रहा है इसीलिए यह संसारी जीव मूर्तिक है, अत: जीव कथंचित् मूर्तिक है, कथंचित् अमूर्तिक है। कहा भी है-

बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो हवदि तस्स भिण्णत्तं।
तम्हा अमुत्तिभावो णेगंतो होदि जीवस्स।।

कर्मबंध के प्रति जीव की एकता है और लक्षण की अपेक्षा उस कर्मबंध से भिन्नता है। इसलिए एकांत से जीव का अमूर्तिक भाव नहीं है अर्थात् कर्मबंध की अपेक्षा जीव मूर्तिक है और लक्षण से अमूर्तिक है क्योंकि जैसे जीव का लक्षण ज्ञान दर्शन है वैसे ही अमूर्तिक भाव भी जीव का लक्षण है। यहाँ टीकाकार कहते हैं-
जिस अमूर्तिक आत्मा की प्राप्ति नहीं होने पर यह जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है, मूर्तिक पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग करके उसी अमूर्तिक स्वभावी अपनी शुद्ध आत्मा का निरंतर ध्यान करना चाहिए।

श्री अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में यह चर्चा उठाई है-‘जीव अमूर्तिक है अत: कर्मों से उसका अभिभव-तिरस्कार नहीं होना चािहए ?’

आचार्य कहते हैं कि एकांत से जीव अमूर्तिक नहीं है चूँकि कर्म के साथ संबंध होने से जीव कथंचित् मूर्तिक है तभी तो कर्मों से उसकी स्वभाव हानि देखी जा रही है। जीव का स्वभाव सर्वज्ञानदर्शी है फिर भी ज्ञानावरण आदि कर्मों के निमित्त से जीव के ज्ञान-दर्शन गुणों पर आवरण आ रहा है इसीलिए जीव का ज्ञान दर्शन पूर्ण न होकर अल्प-अल्प दिख रहा है। जब रत्नत्रय संपत्ति से इन कर्मों का विनाश हो जाता है तब यह जीव अपने ज्ञान-दर्शन, अमूर्तिक आदि गुणों को पूर्णतया प्रगट कर लेता है।
इस प्रकरण से सम्यग्दृष्टि का यह कर्तव्य हो जाता है कि तत्त्वदृष्टि से आत्मा को अमूर्तिक समझकर सतत उसके स्वभाव का चिंतवन करता रहे। आगे-आगे के गुणस्थानों में चारित्र के निमित्त से परिणामों की निर्मलता बढ़ जाने से यही अध्यात्म भावना धीरे-धीरे ध्यान का रूप ले लेती है। आगे प्रश्न होता है कि जीव निष्क्रिय है, अमूर्तिक है, टांकी से उकेरे हुए के समान ज्ञायक एक स्वभाव वाला है तब तो वह कर्मों का कर्ता भी नहीं हो सकता है ?

इस पर आचार्य उत्तर देते हैं-

‘यह आत्मा व्यवहारनय से पुद्गल कर्मादि का कर्ता है, निश्चयनय से चेतन कर्मों का कर्ता है और शुद्धनय से शुद्धभावों का कर्ता है।’

व्यवहार नयाश्रित जीव कहा, पुद्गल कर्मादिक का कर्ता।
होता अशुद्ध निश्चयनय से, रागादिक भावों का कर्ता।।
है कहा शुद्ध निश्चयनय से, निज शुद्धभाव का ही कर्ता।
जब नय के भेद मिटा देता, तब होता भव दुख का हर्ता।।८।।

यह जीव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है तथा औदारिक, वैक्रियिक, आहारक ये तीन शरीर और छह पर्याप्ति इनके योग्य पुद्गल पिंडरूप नोकर्मों का कर्ता है। उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से बाह्य पदार्थ जो घट-पट आदि हैं उनका कर्ता है।

  • अशुद्ध निश्चयनय से रागद्वेष, मोह आदि भाव कर्मों का कर्ता है। विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से छद्मस्थ अवस्था में भावनारूप से अनंतज्ञान, सुख आदि शुद्ध भावों का कर्ता है तथा मुक्त अवस्था में शुद्धनय से अनंतज्ञानादि शुद्ध भावों का कर्ता है।
  • यहाँ शुद्ध-अशुद्ध भावों का जो परिणमन है, उसी परिणमन का नाम कर्तृत्व है। हाथ आदि के व्यापारों का कर्तृत्व विवक्षित नहीं है।
  • यहाँ तात्पर्य यही समझना कि प्रत्येक आत्मा संसार अवस्था में ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों का कर्ता है अशुद्ध निश्चयनय से राग द्वेष आदि भावकर्मों का कर्ता है और शुद्ध निश्चयनय से संसारी आत्मा ही अपने शुद्ध भावों का कर्ता है क्योंकि शुद्धनय से आत्मा सदा शुद्ध ही है कर्मों का संबंध उसके है ही नहीं।
  • उसी प्रकार से यह जीव कर्मों के फल का भोक्ता भी है-

आत्मा व्यवहारनयाश्रय से, पुद्गल कर्मों के फल नाना।
सुख-दु:खों को भोगा करता, निज सुख को विंâचित् नहिं जाना।।
निश्चयनय से निज आत्मा के, चेतन भावों का भोक्ता है।
निज शुद्ध ज्ञान दर्शन सहजिक, उनका ही तो अनुभोक्ता है।।९।।

  • यह आत्मा व्यवहारनय से पौद्गलिक कर्मों के फल ऐसे सुख और दु:खों को भोगता है तथा निश्चयनय से अपनी आत्मा के शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप चैतन्य भावों का ही भोक्ता है।
  • यह आत्मा उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से इष्ट और अनिष्ट जो पंचेन्द्रियों के विषय सुख या दु:ख हैं उनका भोक्ता है-उनका अनुभव करने वाला है। उसी प्रकार से अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से अभ्यंतर में सुख-दु:ख को उत्पन्न करने वाले ऐसे द्रव्यकर्मरूप साता-असाता के उदय का भोक्ता है और अशुद्ध निश्चयनय से हर्ष-विषाद रूप जो परिणाम हैं उन रूप ही सुख-दु:खों का भोक्ता है। शुद्ध निश्चयनय से सहजानंद परमात्मस्वरूप के सुखामृत का ही भोक्ता है।
  • यह आत्मा जिस स्वाभाविक सुखामृत का अनुभव करने से इन्द्रिय सुख का अनुभव करता हुआ संसार में घूम रहा है वह अतीन्द्रिय सुख ही प्राप्त करने योग्य है। वह अतीन्द्रिय सुख परमात्म अवस्था में ही प्रगट होता है अत: आत्मा से उत्पन्न सहज सुख की उपलब्धि के लिए सतत ही निश्चयनय का अवलंबन लेकर अपनी आत्मा का ध्यान करना चाहिए। इस अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति तभी हो सकती है जब कि यह जीव पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर उनका त्याग कर देता है। मात्र संयम की साधना के लिए इस पौद्गलिक शरीर का आगम की आज्ञा के अनुरूप संरक्षण करता है। युक्त आहार-विहार के द्वारा इसको आहार आदि उपलब्ध कराते हुए तपश्चरण में आनंद का अनुभव करता है। हमेशा यही सोचता रहता है कि अनादिकाल से लेकर आज तक हमने कौन से पदार्थ का भक्षण नहीं किया है ? कौन से शब्द ऐसे हैं जिनको नहीं सुना है और कौन से सुन्दर-असुन्दर स्पर्श ऐसे हैं जिनका हमने स्पर्श नहीं किया है ?-

भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गला:।
उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा।।

  • मैंने बार-बार सभी पुद्गलों को भोगा है और छोड़ा है अत: वे सभी पुद्गल आज मेरे लिए उच्छिष्ट के समान हैं अत: उनमें मुझ ज्ञानी को आज कुछ भी इच्छा नहीं है। इस प्रकार की वैराग्य भावना से तन्मय होकर जब इन्द्रिय सुखों का त्याग कर दिया जाता है तभी अतीन्द्रिय सुख के लिए पुरुषार्थ जाग्रत होता है।
    जीव स्वशरीर प्रमाण है
  • यह जीव निश्चयनय से लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशी होते हुए भी व्यवहार से अपने शरीर प्रमाण है-

यह आत्मा व्यवहारिक नय से, छोटे या बड़े स्वतनु में ही।
संकोच विसर्पण के कारण, रहता उस देह प्रमाण सही।।
हो समुद्घात में तनु बाहर, अतएव अपेक्षा नहिं उसकी।
निश्चयनय से होते प्रदेश, हैं संख्यातीत लोक सम ही।।१०।।

  • समुद्घात के अतिरिक्त यह जीव व्यवहारनय से संकोच तथा विस्तार से अपने छोटे और बड़े शरीर के प्रमाण रहता है और निश्चयनय से असंख्यात प्रदेशी है।
    निश्चयनय से यह जीव पौद्गलिक शरीर से भिन्न है, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्य आदि अनंत गुणों का पिंड है फिर भी व्यवहारनय से अनादिकाल से कर्मबंधन बद्ध हो रहा है अत: शरीर नामकर्म के उदय से नाना प्रकार के शरीर को ग्रहण करता रहता है। कभी सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के सूक्ष्म शरीर को ग्रहण करता है, तो कभी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक के शरीर को ग्रहण करता है, उनकी अवगाहना भी बहुत छोटी पाई जाती है। कभी वुंâथु, लट, शंख, वेंâचुआ, चिंवटी, खटमल, बिच्छू, पतंग, कीट, मच्छर, मक्खी आदि के शरीर को ग्रहण करता है तो कभी हाथी, बैल, शेर, चीता, मत्स्य, महामत्स्य आदि के शरीर में निवास करता है। कभी नारकी के शरीर को धारण करता है, तो कभी देवों के उत्तम शरीर में निवास करता है, तो कभी मनुष्य पर्याय में एक हाथ के शरीर से लेकर तीन कोश तक का भी शरीर प्राप्त कर लेता है। इसे जब जैसा छोटा या बड़ा शरीर मिल जाता है उसी में यह अपने असंख्यात प्रदेशों को संकुचित करके रह जाता है। अत्यर्थ छोटे शरीर में भी जीव के प्रदेश उतने ही हैं कि जितने एक हजार योजन (८००० मील) की अवगाहना वाले महामत्स्य के शरीर में हैं।

प्रश्न होता है-ऐसा वैâसे ?

तो उत्तर देते हैं-जीव में संकोच और विस्तार धर्म पाया जाता है। यह धर्म शरीर नामकर्म के उदय से होता है। जैसे दीपक किसी छोटे से पात्र में रख दिया जाता है, तो उसका प्रकाश उसी में रह जाता है और जब उसे बड़े कमरे में रख दिया जाता है तो उसका प्रकाश बड़े कमरे तक पैâल जाता है।

प्रश्न-जीव इन नाना प्रकार के शरीर को क्यों ग्रहण करता है ?

उत्तर-शरीर नामकर्म के उदय से।

प्रश्न-यह नामकर्म क्यों बांधता है ?

उत्तर-अनादिकाल से शरीर को आत्मा समझकर उसमें ममत्व परिणाम रखने से शरीर आदि कर्मों का बंध होता है। शरीर में ममत्व बुद्धि होने से यह जीव निरंतर आहार, भय, मैैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं के आश्रित रहता है तथा इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष आदि करते रहने से नये-नये शरीर को ग्रहण करता है।

प्रश्न-समुद्घात को छोड़कर यह आत्मा अपने शरीर प्रमाण रहता है। सो समुद्घात क्या है ?

उत्तर-अपने मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेश देह से बाहर निकलकर उत्तर देह के प्रति जाते हैं, उसको समुद्घात कहते हैं।

प्रश्न-समुद्घात के कितने भेद हैं ?

उत्तर-सात हैं-वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणांतिक, तैजस, आहारक और केवली।

  • वेदनासमुद्घात-तीव्र पीड़ा के अनुभव से मूल शरीर को न छोड़ते हुए जो आत्मा के कुछ प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना है, उसे वेदना समुद्घात कहते हैं।
  • कषायसमुद्घात-किसी के प्रति तीव्र कषाय के होने से अपने मूल शरीर को न छोड़कर उसके घात के लिए जो आत्मा के प्रदेश बाहर निकलते हैं, उसे कषाय समुद्घात कहते हैं।
  • विक्रियासमुद्घात-किसी प्रकार की विक्रिया को करने के लिए अपने शरीर को छोटा या बड़ा बनाने के लिए अथवा अपने से अन्य कोई शरीर बनाने के लिए जो मूल शरीर को बिना छोड़े हुए आत्मा के प्रदेशों का बाहर जाना है वह विक्रिया समुद्घात है।
  • मारणान्तिकसमुद्घात-मरण के समय में (एक अंतर्मुहूर्त पहले) मूल शरीर को न छोड़कर जहाँ इस जीव ने आगामी आयु बांधी है, उसको छूने के लिए जो आत्मा के प्रदेशों का बाहर निकलना है, सो मारणान्तिक समुद्घात है।
  • तैजससमुद्घात-संयम के निधान ऐसे मुनि को कदाचित् क्वचित्, जब कोई मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले ऐसे किसी कारण विशेष मिल जाने से क्रोध उत्पन्न हो जाता है, उस आकस्मिक उत्पन्न हुए अत्यधिक क्रोध से उन महामुनि के बाएं कंधे से सिंदूर की सी ढेर जैसी कांति वाला एक पुतला निकलता है, यह पुतला बारह योजन लंबा है और नव योजन विस्तृत काहल (बिलाव) के आकार वाला होता है। इसका मूल विस्तार सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण ही रहता है। ऐसे आकार वाला पुतला निकलकर बायीं प्रदक्षिणा देकर मुनि जिस पर व्रुâधित हुए हों, उस विरुद्ध पदार्थ को भस्म करके और उसी मुनि के साथ आप भी भस्म हो जाता है। जैसे-द्वीपायन मुनि के शरीर से पुतला निकलकर द्वारिका नगरी को भस्म करने के बाद उसी ने द्वीपायन मुनि को भस्म कर दिया और वह पुतला आप भी भस्म हो गया। यह अशुभ तैजस है।
    इससे विपरीत शुभ तैजस भी होता है। परम संयम के निधान महाऋषि जो कि अतीव कृपालु हैं, उनके यदि तैजस ऋद्धि हो चुकी है तो वे मुनि के कदाचित् क्वचित् जगत को रोग, दुर्भिक्ष आदि से दु:खित देखकर अतीव करुणा उत्पन्न होते ही मूल शरीर को न त्यागकर पूर्वोक्त शरीर के प्रमाण, सौम्य आकृति का धारक पुरुषाकार पुतला दाहिने वंâधे से निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा करके दुर्भिक्ष आदि को दूरकर फिर अपने स्थान में आकर प्रवेश कर जाता है, इसे शुभ तैजस समुद्घात कहते हैं।
  • आहारक समुद्घात-कोई संयमी महामुनि जिनके सातवें या आठवें गुणस्थान में यदि आहारक शरीर का बंध हो गया है, ऐसे मुनि को कदाचित् क्वचित् किसी पद या पदार्थ में कुछ सूक्ष्म शंका उत्पन्न हो जाने पर उन आहारक ऋद्धि के धारक महर्षि के मस्तक से मूल शरीर को न छोड़कर निर्मल, स्फटिक के रंग का एक हाथ का पुतला निकलता है। वह पुतला अंतर्मुहूर्त काल के भीतर ही जहाँ कहीं भी केवली हों उनके पास तक चला जाता है। वह पुतला केवली का दर्शन करके वापस आकर मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है तभी मुनि की शंका दूर हो जाती है। इसका नाम आहारक समुद्घात है।
  • केवली समुद्घात-केवली के जो दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण क्रिया में शरीर से बाहर आत्मा के प्रदेश पैâल जाते हैं वह केवली समुद्घात कहलाता है। केवली भगवान के जब आयु मात्र अंतर्मुहूर्त की रह जाती है और नाम तथा गोत्र की स्थिति अधिक रहती है तभी केवली समुद्घात क्रिया होती है। इस प्रकार इन सातों समुद्घातों का संक्षिप्त लक्षण बताया है।
  • नयों की अपेक्षा इसी विषय को स्पष्ट करते हैं-अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह जीव अपने शरीर के बराबर है।
  • निश्चयनय से लोकाकाश प्रमाण जो असंख्य प्रदेश हैं, उन प्रमाण असंख्यात प्रदेशों का धारक यह आत्मा है। यही आत्मा केवलज्ञान की अपेक्षा व्यवहारनय से लोक-अलोक व्यापक है किन्तु नैयायिक, सांख्य, मीमांसक मत के अनुयायी जिस तरह आत्मा को प्रदेशों की अपेक्षा व्यापक मानते हैं, वैसा नहीं है।
  • कोई-कोई आत्मा को अणुमात्र मानते हैं, सो जब यह आत्मा उत्सेध घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण लब्ध्यपर्याप्तक सूक्ष्म निगोद शरीर को ग्रहण करता है तभी उतने शरीर मात्र में रहने से इसे अणुमात्र प्रमाण वाला भले ही कह दो किन्तु वहाँ पर भी यह असंख्यात प्रदेशी है और अणु से अधिक आकाश स्थान को व्याप्त करके रहता है।
    यहाँ गाथा के पद्यानुवाद में जो बड़ा (गुरु) शरीर का जो ग्रहण है वह महामत्स्य के शरीर की अपेक्षा है। महामत्स्य के शरीर की अवगाहना एक हजार योजन है, इसे चार कोश (आठ मील) से गुणा करने पर आठ हजार मील प्रमाण हो जाता है। इससे बड़ा शरीर संसार में किसी का नहीं होता है। मध्यम अवगाहना में निगोदिया शरीर से लेकर महामत्स्य के मध्य के जितने भी शरीरों का प्रमाण है, सभी आ जाता है।
  • इस प्रकरण को समझने का तात्पर्य यही है कि जिस देह में ममत्व करने से नाना प्रकार के शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं उस देह के ममत्व को छोड़कर उस देह से तपश्चरण आदि करते हुए निर्मम बुद्धि से अपने संयम की रक्षा करनी चाहिए। यदि संयम नहीं ग्रहण किया है तो शरीर को आत्मसिद्धि का साधन समझकर कुछ न कुछ संयम अवश्य ग्रहण करना चाहिए। यही इस मनुष्य शरीर को पाने का सार है।

संसारी जीव

  • पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन भेदों से नाना प्रकार के स्थावर जीव हैैं, ये सब एक स्पर्शन इन्द्रिय के ही धारक हैं तथा शंख आदि दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियों के धारक त्रस जीव होते हैं।

पृथ्वी, जल, अग्नी, वायुकाय, औ वनस्पतिकायिक जानो।
एकेन्द्रिय स्थावर पाँच कहे, इनके सब भेद विविध मानो।।
दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, औ पंचेन्द्रिय त्रस माने हैं।
जो शंख, पिपील, भ्रमर, मानव, आदिक से जाते जाने हैं।।११।।

  • स्थावर जीव-स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर, एकेन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से एक पहली स्पर्शन इन्द्रिय से सहित स्थावर एकेन्द्रिय जीव होते हैं। इनके पाँच भेद माने गये हैं-पृथ्वी, जल आदि। पृथ्वीकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं, जलकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं, अग्निकायिक जीव असंख्यातसंख्यात हैं, वायुकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं तथा वनस्पतिकायिक जीव अनंतानंत हैं। इन स्थावर जीवों से यह तीनों लोक ठसाठस भरा हुआ है। इन एकेन्द्रिय स्थावर जीवों के बादर और सूक्ष्म की अपेक्षा से दो भेद भी होते हैं। बादर नामकर्म के उदय से जीव बादर होते हैं और सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जीव सूक्ष्म होते हैं। बादर जीव आधार से ही रहते हैं किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सर्वत्र लोक में निराधार हैं। इन सूक्ष्म जीवों को न किसी से बाधा होती है और न इनसे ही किन्हीं जीवों को बाधा संभव है। इन जीवों का अस्तित्व मात्र सर्वज्ञ के द्वारा प्ररूपित आगम से ही गम्य है बादर जीवों का अस्तित्व तो आज वैज्ञानिक लोग भी मानने लगे हैं एवं पेड़-पौधों से जीव को सिद्ध करने लगे हैं।
  • जैन सिद्धान्त के अनुसार इन एकेन्द्रिय जीवों में भी आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चारों संज्ञाएं पाई जाती हैं। ज्ञान और दर्शनमयी चेतना प्राण भी इनमें हैं अन्यथा जैनत्व का ही अभाव हो जावेगा, उसी प्रकार से इन एकेन्द्रिय जीवों में स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं। जब तक इन जीवों की पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं तब तक इन जीवों के श्वासोच्छ्वास से अतिरिक्त तीन प्राण ही होते हैं। बहुत से जीव ऐसे होते हैं जो बिना पर्याप्ति पूर्ण किये ही मर जाते हैं उन्हें अपर्याप्तक कहते हैं किन्तु जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण होने वाली हैं उनके पर्याप्त नामकर्म का उदय होता है।
  • पर्याप्ति के छह भेद हैं-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन। इनमें से आदि की चार पर्याप्तियाँ ही स्थावर जीवों में होती हैं। अपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर और इन्द्रिय ये तीन पर्याप्तियाँ ही होती हैं। आहार पर्याप्ति से यहाँ कर्मवर्गणाओं को समझना चाहिए।
  • त्रस जीव-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को त्रस कहते हैं। त्रस नामकर्म के उदय से जीव त्रस कहलाते हैं। जिनके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं वे द्वीन्द्रिय त्रस हैं, जिनके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ हैं वे त्रीन्द्रिय त्रस जीव हैं, जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ हैं वे चतुरिन्द्रिय त्रस जीव हैं और जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा कर्ण ये पाँचों इन्द्रियाँ पाई जाती हैं वे पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं। दो इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, तीन इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, चार इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं और पंचेन्द्रिय जीव भी असंख्यातासंख्यात हैं।
  • शंख, सीप, कृमि-जोंक, वेंâचुआ, लट आदि दो इन्द्रिय जीव हैं। वुंâथु, चींटा, चींटी, जूँ, खटमल, बिच्छू आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। डांस, मच्छर, मक्खी, भौंरा, बर्र, ततैया आदि उड़ने वाले जीव चतुरिन्द्रिय जीव हैं। हाथी, घोड़े, कबूतर, मछली आदि तिर्यंच, मनुष्य, देव तथा नारकी ये सब पंचेन्द्रिय जीव हैं।
  • एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये तिर्यंच ही होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के जलचर, स्थलचर और नभचर ऐसे तीन भेद होते हैं। जल में रहने वाले मेंढक, मछली, मगरमच्छ आदि जलचर हैं, पृथ्वी पर चलने वाले हाथी, घोड़ा, सिंह, व्याघ्र आदि थलचर हैं और आकाश में उड़ने वाले कबूतर, चिड़ियाँ आदि नभचर हैं।
    ऐसे ही नारकी और देवों में भी अनेक भेद माने गये हैं। मनुष्यों में स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेद की अपेक्षा तीन भेद होते हैं। आर्य-म्लेच्छ की अपेक्षा दो भेद होते हैं एवं कर्मभूमि, भोगभूमि की अपेक्षा भी भेद हो जाते हैं। ये सब भेद-प्रभेद गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रंथ से ज्ञातव्य हैं।
  • संसारी छद्मस्थ जीव अतीन्द्रिय, अमूर्तिक, निज शुद्ध, परमात्म स्वभाव की अनुभूति से उत्पन्न हुए अमृतरसमयी स्वात्मसुख को नहीं प्राप्त कर पाते हैं अतएव वे तुच्छ इन्द्रिय सुख की अभिलाषा करते हैं। उस इन्द्रियसुख में आसक्त होते हुए एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि त्रस-स्थावर जीवों का घात करते रहते हैं। इसी असंयम पाप से त्रस, स्थावर योनियों में पुन: पुन: जन्म-मरण करते रहते हैं। जो भव्यजीव इन त्रस, स्थावर पर्यायों में जन्म नहीं लेना चाहते हैं, वे ही महापुरुष त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा का सर्वथा त्याग करके महामुनि होकर निज परमात्मतत्व की भावना करते हैं, तब वे ही महामुनि क्रम से संसार परम्परा का अंत कर निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं। जो मुनि नहीं बन सकते हैं, उनका भी कर्तव्य है कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए त्रस जीवों के वध का तो त्याग ही कर दें, जिससे वे भी अणुव्रती श्रावक होते हुए परम्परा से मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं। ऐसा समझकर आपका कर्तव्य है कि जब तक मुनि और आर्यिका के व्रत न ग्रहण कर सवेंâ तब तक उनके चरणों की भक्ति करते हुए यह नियम कर लें कि हम कभी भी संयमी मुनि, आर्यिकाओं की निन्दा न करेंगे और न सुनेंगे ही, तभी आप सम्यग्दृृष्टि रह सवेंâगे।

पंचेन्द्रिय संज्ञि-असंज्ञी दो, इनसे अतिरिक्त सभी प्राणी।
होते मन रहित असंज्ञी ही, विकलेन्द्रिय तीन भेद प्राणी।।
एकेन्द्रिय बादर-सूक्ष्म कहे, ये सात भेद हो जाते हैं।
पर्याप्त-अपर्याप्तक दो से, ये चौदह भेद कहाते हैं।।१२।।

  • पंचेन्द्रिय जीव सैनी-असैनी ऐसे दो प्रकार के होते हैं, शेष सब जीव असैनी ही हैं। एकेन्द्रिय जीव बादर-सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं। ये सभी जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं अत: चौदह जीव समास हो जाते हैं। इनका खुलासा इस प्रकार है कि-
  • पंचेन्द्रिय सैनी, पंचेन्द्रिय असैनी, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय ये सात हैं, इन सातों के पर्याप्त-अपर्याप्त भेद कर देने से चौदह भेद हो जाते हैं। इन्हें ही चौदह जीवसमास कहते हैं।
  • प्रत्येक सैनी जीव के हृदय में आठ पांखुड़ी के कमल के आकार का द्रव्य मन होता है और उस द्रव्य मन के आधार से शिक्षा, वचन, उपदेश आदि क्रिया का ग्राहक भावमन होता है। ये द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के मन जिनके पाये जाते हैं, वे सैनी जीव कहलाते हैं और जिनके मन का अभाव है, वे सब असैनी जीव हैं। देव, नारकी और मनुष्य तो सैनी ही होते हैं। तिर्यंचों में पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के दो भेद हो जाते हैं-सैनी और असैनी तथा एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक सब जीव असैनी ही होते हैं। सैनी, समनस्क और संज्ञी पर्यायवाची नाम हैं, वैसे ही असैनी, अमनस्क और असंज्ञी पर्यायवाची हैं।
  • पर्याप्तियाँ ६ होती हैं-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन। इनमें से एकेन्द्रिय जीवों के आदि की चार पर्याप्तियाँ होती हैं। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय जीवों के मन रहित पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं तथा पंचेन्द्रिय सैनी जीवों के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। जिन जीवों के यह पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं और नियम से ही मर जाते हैं, वे अपर्याप्तक कहलाते हैं और जिनके ये पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्तक हैं।
  • इन पर्याप्तियों का प्रारंभ एक साथ हो जाता है और पूर्णता क्रम-क्रम से होती है। इनकी पूर्णता में अंतर्मुहूर्त से अधिक समय नहीं लगता है अत: गर्भ में बालक के आते ही यद्यपि उसके शरीर का आकार नहीं बना है फिर भी उसमें शरीर के इन्द्रिय आदि आकारों को बनाने की शक्ति की पूर्णता का हो जाना ही पर्याप्ति की पूर्णता है अत: गर्भ में आते ही बालक के अन्तर्मुहूर्त में सभी पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं। जो गर्भ में ही २-३ आदि महीने के बालक का मरण हो जाता है, उसमें भी पर्याप्तक का ही मरण है न कि अपर्याप्तक का क्योंकि गर्भज मनुष्य अपर्याप्तक नहीं होते हैं, ऐसा नियम है।
  • ५ इन्द्रिय, ३ बल, १ आयु और १ श्वासोच्छ्वास, ये १० प्राण होते हैं। पंचेन्द्रिय सैनी में १० प्राण होते हैं, पंचेन्द्रिय असैनी के मन से रहित ९ प्राण होते हैं, चार इन्द्रिय जीवों में मन और कर्णेन्द्रिय से रहित ८ प्राण होते हैं। तीन इन्द्रिय जीवों में चक्षु इन्द्रिय से भी रहित ७ प्राण होते हैं। दो इन्द्रिय जीवों में घ्राण से भी रहित ६ प्राण होते हैं तथा एकेन्द्रिय जीवों में स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ऐसे ४ प्राण होते हैं।
  • इन जीवसमासों को समझकर क्या करना ? नाना प्रकार के विकल्प जालरूप मन को वश में करके आगम के अनुवूâल प्रवृत्ति करते हुए इन जीवों की दया पालना तथा मन को अपनी शुद्ध आत्मा के चिंतवन में लगाना यही इन जीवसमासों को समझने का सार है। आगे कहते हैं-

चौदह मार्गणा तथा चौदह, गुणस्थानों युत यह संसारी।
औ चौदह जीवसमासों युत, जग में संसरण करे भारी।।
यह कथन अशुद्ध नयापेक्षा, इस नय से ही संसारी हैं।
फिर भी सब जीव शुद्ध नय से, नित शुद्ध अवस्थाधारी हैं१।।१३।।

  • अशुद्ध नय की अपेक्षा से चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान और चौदह जीवसमासों के द्वारा ये जीव संसारी है और शुद्धनय से सभी जीव शुद्ध हैं, ऐसा समझना।
  • अभिप्राय यह है कि जो सिद्धान्त ग्रंथों में १४ मार्गणा, १४ गुणस्थान और १४ जीवसमासों के द्वारा जीवों का वर्णन किया जाता है वह सब संसारी जीवों का वर्णन है। नयों की विवक्षा से अशुद्ध नय से ही संसार है और इस अशुद्ध नय से ही जीवों की ये मार्गणा, गुणस्थान आदि अवस्थाएं होती हैं। शुद्धनय से विचार किया जाता है तब तो सभी संसारी जीव शुद्ध हैं, सिद्ध समान हैं। मार्गणा और गुणस्थानों के भेदों से रहित मात्र दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य इन चतुष्टयस्वरूप हैं।
  • इस शुद्धनय की अपेक्षा से निगोदिया जीव तो क्या अभव्यजीव भी शुद्ध हैं, सिद्ध समान हैं परन्तु वर्तमान में तो वे दु:खों को भोग ही रहे हैं तथा अभव्य जीव तो कभी भी मोक्ष प्राप्त कर ही नहीं सकेंगे अत: यह शुद्धनय मात्र जीव की शक्ति को ही बतलाता है। अभव्य जीवों में केवलज्ञान आदि शक्तिरूप से विद्यमान हैं परन्तु वे कभी भी प्रगट नहीं होवेंगे तथा भव्यों में भी किन्हीं दूरानुदूर भव्यों के अतिरिक्त शेष भव्य मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। जब जीव अपने गुणों को प्रगट कर लेगा, कर्मों का नाश कर देगा, तभी वह अनंत सुखी बन सकेगा, उसके पहले नहीं, अत: शुद्धनय से अपनी शक्ति को पहचान कर उसे व्यक्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए, यही अभिप्राय है।

चौदह गुणस्थान

  • मोह और योग के निमित्त से होने वाले आत्मा के परिणामों को गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान के १४ भेद हैं-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली।
  • इन गुणस्थानों का संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार है-

(१) जो जीव मिथ्यात्व के उदय से जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित वचनों पर श्रद्धान नहीं करता है, वह जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है।

(२) जो उपशम सम्यक्त्वी अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों में से किसी एक का उदय आ जाने से सम्यक्त्व से तो गिर जाता है और मिथ्यात्व में नहीं पहुँचा है, उस अल्पकालीन मध्य के स्थान का नाम सासादन गुणस्थान है।

(३) जो अपने आत्मा आदि तत्वों को वीतराग सर्वज्ञ के कहे अनुसार मानता है और अन्य मत के अनुसार भी मानता है, वह दही और गुड़ मिले हुए मिश्रित स्वाद के समान मिश्र गुणस्थान वाला है।

शंका-‘‘चाहे जिससे हो मुझे तो कोई एक देव से मतलब है अथवा सभी देव वंदनीय हैं। निंदा किसी भी देव की नहीं करनी चाहिए।’’ इस प्रकार वैनयिक और सांशयिक मिथ्यादृष्टि मानते हैं, तब उनमें तथा मिश्रगुणस्थानवर्ती में क्या अन्तर है ?

समाधान-वैनयिक मिथ्यादृष्टि तो सभी देवों, शास्त्रों, गुरुओं में भक्ति, विनय करने से या इनमें से किसी की भी विनय करने से मुझे पुण्य होगा, ऐसा मानते हैं। फिर भी संशय रूप से ही भक्ति करते हैं, उन्हें किसी एक देव में निश्चय नहीं है और मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव दोनों में ही निश्चय कर लेता है, बस यही अन्तर है।

(४) जो अनंत गुणों के आधारभूत निज परमात्म द्रव्य को उपादेय तथा इन्द्रिय सुखों को त्याज्य मानता है फिर भी प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से इन्द्रिय सुख का अनुभव करता है, उसे छोड़ नहीं पाता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि है।

(५) जो सम्यग्दृष्टि प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इनके एकदेश त्यागरूप अणुव्रतों और दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग इन ग्यारह प्रतिमाओं में से किसी एक को भी धारण किए हुए है, वह पंचम गुणस्थानवर्ती देशविरत श्रावक कहलाता है।

(६) यही सम्यग्दृष्टि जीव जब सम्पूर्ण रूप से हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह का त्याग करके महाव्रती हो जाता है और निश्चयनय के अवलम्बन से अन्तरंग में रागादि उपाधि रहित निज शुद्ध आत्मा के सुखरूपी अमृत का अनुभव करता रहता है, वह छठा गुणस्थानी है। इस गुणस्थान में दु:स्वप्न आदि के निमित्त से प्रगट अथवा अप्रगट प्रमाद पाया जाता है इसलिए इसे प्रमत्तविरत कहते हैं। यह गुणस्थान दिगम्बर मुनियों के ही होता है।

(७) जिनके संज्वलन कषाय का भी उदय मंद हो गया है ऐसे व्यक्त-अव्यक्त प्रमादों से रहित शुद्ध आत्मा का अनुभव करने वाले मुनि सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयत कहलाते हैं।

(८) वे ही मुनि जब श्रेणी में आरोहण कर शुक्लध्यान में स्थित हो जाते हैं, तब वे अपूर्व परम आल्हाद सुख का अनुभव करते हैं। उस समय वे अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनि होते हैं।

(९) देखे, सुने तथा अनुभव किए हुए भोगों की वांछादि रूप सम्पूर्ण संकल्प-विकल्प रहित अपने निश्चल परमात्मस्वरूप के एकाग्र ध्यान के परिणाम से जिन मुनियों के एक समय में परस्पर अन्तर नहीं होता वे शरीर, संस्थान आदि से भेद होने पर भी अनिवृत्तिकरण नामक नवमें गुणस्थानवर्ती होते हैं। यहाँ पर मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का क्षय या उपशम करने की सामथ्र्य प्रगट हो जाती है।

(१०) सूक्ष्म परमात्मतत्व की भावना के बल से जिनके मात्र सूक्ष्म लोभ कषाय ही शेष रही है वे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान वाले होते हैं।

(११) परम उपशम मूर्ति, निज आत्म स्वभाव के अनुभव के बल से सम्पूर्ण मोह को उपशम करने वाले उपशांत मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती वीतरागी मुनि होते हैं।

(१२) क्षपक श्रेणी के मार्ग से कषायरहित शुद्ध आत्मा की भावना के बल से जिनके समस्त कषाय नष्ट हो चुकी हैं और जो शेष तीन घातिया कर्मों को भी नष्ट करने वाले हैं, वे क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती परम वीतरागी निर्र्ग्रन्थ मुनि होते हैं।

आठवें, नवमें और दशवें इन तीन गुणस्थानों में दो प्रकार की श्रेणी होती है। एक उपशम श्रेणी, द्वितीय क्षपक श्रेणी। उपशम श्रेणी में आरोहण करते हुए मुनि मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम करते हुए ग्यारहवें तक चले जाते हैं, फिर नियम से ग्यारहवें गुणस्थान में किसी कषाय का उदय आ जाने से या तो गिरकर नीचे आ जाते हैं या उसी गुणस्थान में मरण को प्राप्त होकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो जाते हैं।

इनसे अतिरिक्त क्षपक श्रेणी में आरोहण करने वाले मुनि नियम से मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का क्षय करते हुए दशवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्मलोभ का नाश कर मोहनीय कर्म को सर्वथा जड़मूल से नष्ट कर एकदम बारहवें गुणस्थान में चले जाते हैं। वहाँ पर भी अन्तर्मुहूर्त काल में ही निज शुद्ध आत्मानुभवरूप एकत्ववितर्वâ अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान में स्थिर होकर अन्त समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों को एक साथ सर्वथा निर्मूल नाश कर देते हैं।

(१३) पुन: वे ही महामुनि मेघपटल से निकले हुए सूर्य के समान निर्मल केवलज्ञान किरणों से सम्पूर्ण लोक-अलोक के प्रकाशक जिनभास्कर हो जाते हैं। इन्हें तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगिकेवली कहते हैं क्योंकि यहाँ पर मन, वचन, कायवर्गणा के अवलम्बन से कर्मों के ग्रहण करने में कारण आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदरूप योग मौजूद है। यद्यपि इस योग से वहाँ पर अर्हन्त केवली भगवान के कर्मों का आस्रव हो रहा है तो भी यह ईर्यापथ आस्रव है, आता है, चला जाता है, रुकता नहीं है।
केवली भगवान के स्वभाव से ही गमनागमन रूप विहार, दिव्यध्वनि खिरना आदि क्रियाएँ मौजूद हैं। ये योग के निमित्त से होती हैं फिर भी मोहनीय कर्म का नाश हो जाने से उनके कर्मों का स्थिति अनुभाग बंध नहीं होता है, ऐसा समझना।

(१४) आत्मप्रदेश परिस्पंदरूप योग का निरोध करके चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली होते हैं।
इसके अनन्तर परम यथाख्यात चारित्र जो कि निश्चय रत्नत्रय स्वरूप कारण समयसार है, उस चारित्र के बल से शेष अघातिया कर्मों का भी नाश करके चौदह गुणस्थानों से परे कार्यसमयसार रूप सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं। ये सिद्ध ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से रहित और सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से अंंतर्भूत ऐसे निर्नाम, निर्गोत्र आदि अनन्त गुणों से युक्त होते हैं।

प्रश्न-केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर मोक्ष के लिए कारणभूत रत्नत्रय की परिपूर्णता हो जाती है तब पुन: उसी क्षण में ही मोक्ष हो जाना चाहिए और ऐसा होने पर तो सयोगकेवली-अयोगकेवली ये दो गुणस्थान नहीं बनेंगे ?

उत्तर-केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर भी यथाख्यात चारित्र ही हुआ है किन्तु परम यथाख्यात नहीं हुआ है। जैसे कि चोरी कार्य के छोड़ देने पर भी कोई पुरुष चोरों का संसर्ग कर रहा है तो उनका संसर्ग दोष को उत्पन्न करता ही है, उसी प्रकार से चारित्रविनाशक चारित्र मोह कर्म का नाश हो जाने पर भी सयोगकेवलियों के मन-वचन-काय रूप तीनों योगों का व्यापार होता रहता है जो कि निष्क्रिय शुद्धात्मा के आचरण से विलक्षण है, वो ही चारित्र मल को उत्पन्न करता है और तीनों योगों के नष्ट हो जाने पर अयोगकेवली के भी अंतिम समय को छोड़कर शेष अघातिया कर्मों का तीव्र उदय है, वह भी चारित्रमल को उत्पन्न करता है। उन्हीं अयोगकेवलियों के अंतिम समय में इन अघातिया कर्मों का उदय मंद हो जाने से चारित्र मल का अभाव हो जाता है, उसी क्षण यह जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार से चौदह गुणस्थानों का अति संक्षेप से कथन किया गया है। इनमें से मिथ्यात्व गुणस्थान से निकलकर यह जीव जब सम्यग्दृष्टि हो जाता है तब पुरुषार्थ के बल से अणुव्रत, महाव्रतों को ग्रहण कर उस भव से या दो चार भवों से आगे के गुणस्थानों में आरोहण करते हुए सिद्ध पद प्राप्त कर लेता है। जहाँ फिर अनंत-अनंत काल के लिए सुखी हो जाता है, ऐसा समझकर प्रत्येक गृहस्थ को अणुव्रती-महाव्रती बनने का पुरुषार्थ करते रहना चाहिए।
जिनमें या जिनके द्वारा जीवों का अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणा कहते हैं। ये मार्गणाएँ अपने-अपने कर्मों के उदय से होती हैं। इनके १४ भेद हैं-

गइ इंदिए य काये, जोगे वेदे कसाय णाणे य।
संजम दंसण लेस्सा, भविया सम्मत्त सण्णि आहारे।।

गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारक ये चौदह मार्गणाएँ हैं। इनमें से प्रत्येक के भेद होने से अवान्तर भेद अनेक हैं-

  1.  गति-स्वात्मा की उपलब्धि रूप जो सिद्धगति है, उससे विलक्षण ‘नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव’ ये चार गति होती हैं।
  2.  इन्द्रिय-अतीन्द्रिय शुद्ध आत्मतत्व से विपरीत ‘एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय’ ये पाँच जातियाँ होती हैं।
  3.  काय-अशरीरी आत्मतत्त्व के विसदृश पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये छह काय हैं।
  4.  योग-निव्र्यापार शुद्ध आत्मतत्त्व से विलक्षण ‘मन, वचन, काय’ के भेद से योग तीन प्रकार है। अथवा विस्तार से-
    सत्य, असत्य, उभय और अनुभय ये चार मनोयोग, सत्य, असत्य, उभय और अनुभय ये चार वचन योग, औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण ये सात विध काययोग, ऐसे योग के पन्द्रह भेद होते हैं।
  5.  वेद-वेद के उदय से उत्पन्न जो रागादि विकार भाव हैं, उनसे रहित जो परमात्म द्रव्य है, उससे भिन्न ‘स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद’ ये तीन वेद हैं।
  6.  कषाय-कषायरहित शुद्ध आत्मा से प्रतिवूâल ‘क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से चार कषाय हैं अथवा विस्तार से अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इनके क्रोध आदि ४- ४ भेद से १६ कषाय तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये ९ कषाय मिलकर कषाय के २५ भेद हैं।
  7.  ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि ये तीन अज्ञान ऐसे ज्ञान मार्गणा के ८ भेद हैं।
  8.  संयम-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये पाँच संयम तथा संयमासंयम और असंयम, ऐसे संयममार्गणा के ७ भेद हैं।
  9.  दर्शन-चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शन ये चार दर्शन हैं।
  10.  लेश्या-कषायों के उदय से अनुरंजित जो मन-वचन-काय की प्रवृत्ति है, वह लेश्या है।उसके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ऐसे छह भेद हैं।
  11.  भव्यत्व-भव्य और अभव्य, ऐसे दो भेदरूप हैं।

प्रश्न-‘शुद्ध पारिणामिक परमभाव रूप, शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा सभी जीव, गुणस्थान और मार्गणाओं से रहित हैं’ ऐसा आपने कहा था और अब यहाँ भव्य-अभव्य मार्गणाओं को भी पारिणामिक भाव रूप लेते हो, सो यह पूर्वापर विरोध आता है ?

उत्तर-पूर्व में जो परम पारिणामिक भाव रूप निश्चयनय है, वह शुद्ध पारिणामिक भाव है। उस शुद्ध पारिणामिक भाव की अपेक्षा से प्रत्येक जीव गुणस्थान, मार्गणा आदि भावों से रहित शुद्ध ही है और यहाँ पर जो भव्यत्व मार्गणा के भेद हैं, वे अशुद्ध पारिणामिक भावरूप हैं।

प्रश्न-पारिणामिक भाव शुद्ध-अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का नहीं हो सकता है ?

उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि यद्यपि सामान्य रूप से पारिणामिक भाव शुद्ध है, ऐसा कहा जाता है फिर भी अपवाद व्याख्यान से अशुद्ध पारिणामिक भाव भी होता है। इसी कारण ‘जीव भव्याभव्यत्वानि च’ तत्त्वार्थसूत्र के इस सूत्र में जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ऐसे पारिणामिक भाव के तीन भेद किये हैं। उनमें से शुद्ध चैतन्यरूप से जो जीवत्व भाव है वह अविनश्वर होने के कारण शुद्ध द्रव्य के आश्रित होने से शुद्ध द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा शुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है तथा जो कर्म से उत्पन्न दश प्रकार के प्राणों रूप जीवत्व है वह अशुद्ध जीवत्व भाव है। इस तरह दश प्राण रूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीनों भाव विनाशशील होने के कारण पर्याय के आश्रित होने से पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अशुद्ध पारिणामिक भाव कहे जाते हैं।

(१२) सम्यक्त्व-औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ये तीन सम्यक्त्व हैं तथा इनसे विपरीत मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र हैं। ये तीनों मिलकर सम्यक्त्व मार्गणा के ६ भेद होते हैं।

(१३) संज्ञित्व-संज्ञी-असंज्ञी के भेद से यह मार्गणा दो प्रकार की है।

(१४) आहारक-आहारक और अनाहारक के भेद से दो भेद रूप है।

इस प्रकार से गति ४+इन्द्रिय ५+काय ६+योग १५+वेद ३+कषाय २५+ज्ञान ८+संयम ७+दर्शन ४+लेश्या ६+भव्यत्व २+सम्यक्त्व ६+संज्ञित्व २+आहारक २=·९५ अवान्तर मार्गणाएँ हैं। इस प्रकार मार्गणाओं का संक्षिप्त लक्षण कहा है।

१‘इस प्रकार गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग ये बीस प्ररूपणाएँ आगम ग्रंथों में कही गई हैं।’ यहाँ द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में टीकाकार का कहना है-जो उपर्युक्त बीस प्ररूपणा, गुणस्थान, मार्गणा आदि का कथन किया गया है, वह धवला, जयधवला और महाधवला (टीका सहित षट्खण्डागमसूत्र, कषायपाहुडसूत्र और महाबंध सूत्र) इन तीन सिद्धांत ग्रंथों के बीजपद के समान है तथा ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’ सभी जीव शुद्ध नय से शुद्ध ही हैं। यह गाथा का चतुर्थ पाद शुद्धात्मतत्त्व का प्रतिपादन करने वाला है। यह पाद पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीन प्राभृत (आध्यात्मिक) ग्रंथों के बीजपद रूप है। अभिप्राय यह है कि द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में ११, १२ और १३वीं गाथा में जो अशुद्ध संसारी जीवों का कथन है, वह बहुत ही संक्षिप्त बीजरूप है। इन्हीं संसारी जीवों के इन मार्गणा, समास आदि का विस्तार धवला आदि तीन सिद्धान्त ग्रंथों में वर्णित है। ऐसे ही १३वीं गाथा के अन्तिम चरण में सभी जीवों को शुद्धनय से शुद्ध कहा है सो पंचास्तिकाय आदि अध्यात्म ग्रंथों का संक्षेप है। उन तीन ग्रंथों में शुद्ध जीवों का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है।

यहाँ पर इन मार्गणा आदि को पढ़कर क्या करना ? सो बताते हैं। इन गुणस्थान और मार्गणा आदि मेें केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व और अनाहारक ये शुद्धात्मा के स्वरूप हैं, ये ही साक्षात् उपादेय हैं-ग्रहण करने योग्य हैं। इनको प्राप्त करने के लिए साधनभूत जो सामग्री है वह भी उपादेय है। जैसे कि महल पर चढ़ने के लिए सीढ़ी उपादेय है।

वह क्या है ?

शुद्धात्मा का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में अनुचरण लक्षण चारित्र ये तीनों निश्चय रत्नत्रय हैं, इन्हें ही कारणसमयसार कहते हैं। ये ही केवलज्ञान आदि के लिए साधन हैं अत: उस उपादेयभूत शुद्ध आत्मा के साधक होने से परम्परा से ये भी उपादेय हैं और इस निश्चय रत्नत्रय के लिए साधन व्यवहार रत्नत्रय है जो कि निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिमुद्रा रूप है, वह भी उपादेय ही है तथा जब तक मुनिवेष न धारण किया जाए तब तक उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए एकदेश चारित्र स्वरूप अणुव्रत भी उपादेय है। ऐसा समझकर कारण के कारण का भी मूल्यांकन करते हुए अणुव्रती बनना चाहिए और मुनि, आर्यिका आदि संयमियों की भक्ति, उपासना करते हुए उन्हें आहार आदि देते हुए अपने श्रावक धर्म का पालन करते रहना चाहिए।

सिद्धों का स्वरूप

निष्कर्म जीव सब कर्मरहित, वे सिद्ध अष्ट गुण से युत हैं।
अन्तिम शरीर से विंâचित् कम, उत्पाद और व्यय संयुत हैं।।
स्वाभाविक ऊध्र्वगमन करके, वे नित्य निरंजन परमात्मा।
लोकाग्र शिखर पर स्थित हैं, अनुपम गुणशाली शुद्धात्मा।।१४।।

  • जो ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित हैं और अंतिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हैं, वे सिद्ध आत्मा हैं। ये ऊध्र्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद, व्यय से संयुक्त हैं।
  • अपनी शुद्ध आत्मा के ज्ञान के बल से जिन्होंने ज्ञानावरण आदि समस्त मूलकर्म प्रकृतियों को और उत्तर प्रकृतियों को जड़मूल से नष्ट कर दिया है, ऐसे सिद्ध परमात्मा द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से सर्वथा रहित हो चुके हैं। इनके सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्म, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध गुण प्रगट हो चुके हैं। आठ कर्मों के अभाव से ही ये आठ गुण माने गये हैं। वैसे तो सिद्धों के अनंत गुण कहे गये हैं।
  1.  सम्यक्त्व-केवलज्ञान आदि गुणों का आश्रयभूत निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस प्रकार की रुचि रूप जो निश्चय सम्यक्त्व है, जिसको कि पहले तपश्चरण अवस्था में (मुनि वेष में) भाषित किया था उसके फलस्वरूप समस्त जीव-अजीव आदि तत्त्वों के विषय में विपरीत अभिप्रायरहित परिणामरूप परम क्षायिक नाम का ‘सम्यक्त्व’ गुण सिद्धों में होता है।
  2.  ज्ञान-पहले छद्मस्थ अवस्था में भावना किए हुए निर्विकार स्वानुभवरूप ज्ञान के फलस्वरूप एक ही समय में लोक तथा अलोक के सम्पूर्ण पदार्थों के विशेषों को जानने वाला ‘केवलज्ञान’ गुण होता है।
  3.  दर्शन-समस्त विकल्पों से रहित अपनी शुद्ध आत्मा की सत्ता का अवलोकन रूप जो दर्शन पहले भावित किया था, उसी दर्शन के फलस्वरूप एक काल में लोक-अलोक के सम्पूर्ण पदार्थों के सामान्य को ग्रहण कराने वाला ‘केवलदर्शन’ गुण है।
  4.  वीर्य-आत्मध्यान से विचलित करने वाले किसी अति घोर परिषह तथा उपसर्ग आदि के आ जाने पर जो पहले अपने निरंजन परमात्मा के ध्यान में धैर्य का अवलम्बन किया उसी के फलरूप अनन्त पदार्थों के जानने में खेद के अभावरूप अनंतवीर्य गुण होता है अर्थात् इस गुण से अनंत पदार्थों को जानते समय उन्हें थकान नहीं होती है।
  5.  सूक्ष्म-सूक्ष्म अतीन्द्रिय केवलज्ञान का विषय होने के कारण सिद्धों के स्वरूप को ‘सूक्ष्मत्व’ कहते हैं अर्थात् इस गुण से सिद्धों का स्वरूप इन्द्रियों से नहीं जाना जाता है।
  6.  अवगाहन-एक दीपक के प्रकाश में जैसे अनेक दीपों का प्रकाश समा जाता है उसी तरह एक सिद्ध के क्षेत्र में संकर तथा व्यतिकर दोष से रहित जो अनंत सिद्धों को अवकाश देने की सामथ्र्य है वह ‘अवगाहन’ गुण है। इस गुण से एक सिद्ध के स्थान पर अनंतानंत सिद्ध विराजे हुए हैं।
  7.  अगुरुलघु-यदि सिद्धस्वरूप सर्वथा गुरु (भारी) हो तो लोहे के गोले के समान वह नीचे पड़ा रहेगा और यदि सर्वथा लघु (हल्का) हो तो वायु से प्रेरित आक की रुई की तरह वह इधर-उधर घूमता रहेगा किन्तु सिद्धों का स्वरूप ऐसा नहीं है। इस कारण उनके ‘अगुरुलघु’ गुण कहा जाता है।
  8.  अव्याबाध-स्वाभाविक शुद्ध आत्मस्वरूप के अनुभव से उत्पन्न तथा राग आदि विभावों से रहित ऐसे सुखरूपी अमृत का जो एकदेश अनुभव पहले किया था उसी के फलस्वरूप ‘अव्याबाध’ रूप अनन्तसुख गुण सिद्धों में होता है।

इस प्रकार ये सम्यक्त्व आदि आठ गुण मध्यम रुचि वाले शिष्यों के लिए कहे गये हैं। विस्तार रुचि वाले शिष्यों के प्रति विशेष भेद नय के अवलम्बन से गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितता, योगरहितता, वेदरहितता, कषायरहितता आदि विशेष गुण हैं और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य गुण हैं। इस तरह जैनागम के अनुसार अनन्त गुण ज्ञातव्य हैं और संक्षेप रुचि वाले शिष्यों के लिए विवक्षित अभेद नय की अपेक्षा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्य ये चार गुण अथवा अनन्तज्ञान, दर्शन और सुखरूप तीन गुण अथवा केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो गुण हैं तथा साक्षात् अभेद नय से एक शुद्ध चैतन्य गुण ही सिद्धों का है। यहाँ तक सिद्धों के गुणों का वर्णन है।

ये सिद्ध भगवान चरम-अन्तिम शरीर से कुछ न्यून आकार वाले हैं। वह जो विंâचित् न्यूनता है, सो शरीर अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न नासिका आदि छिद्रों से अपूर्ण (खाली स्थान) होने से ही है। जिस समय सयोगकेवली गुणस्थान के अन्त समय में तीस प्रकृतियों के उदय का नाश हुआ है। उस समय उनके शरीरांगोपांग कर्म का भी नाश हो गया है अत: उसी समय किञ्चित् ऊनता हुई है, तब आत्मा के प्रदेश उसी छूटने वाले अन्तिम शरीर के आकार के रह गये हैं।

शंका–जैसे दीपक को ढकने वाले पात्र आदि के हटा लेने पर उस दीपक का प्रकाश पैâल जाता है, उसी प्रकार देह का अभाव हो जाने पर सिद्धों की आत्मा भी पैâलकर लोकप्रमाण हो जाना चाहिए ?

समाधान–जो यह दीपक के प्रकाश का पैâलना है सो वह तो पहले से ही स्वभाव से दीपक में रहता है, पीछे उस दीपक के आवरण से संकुचित हो जाता है। वैसे ही जीव का लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशत्व स्वभाव तो है किन्तु प्रदेशों का लोकप्रमाण विस्तार (पैâल जाना) स्वभाव नहीं है अर्थात् जीव स्वभाव से लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी तो है किन्तु प्रदेशों का विस्तार होना यह जीव का स्वभाव नहीं है इसीलिए अन्तिम शरीर छूटने पर आत्मा के प्रदेशों का आकार जैसे का तैसा पुरुषाकार रह जाता है।

शंका–जीव के प्रदेश पहले लोक के बराबर पैâले हुए, आवरण रहित रहते हैं पुन: जैसे प्रदीप के उâपर आवरण होता है उसी तरह जीव प्रदेशों के भी आवरण हो जाता है ?

समाधान–ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के प्रदेश तो पहले अनादिकाल से सन्तान रूप से चले आ रहे शरीर के आवरण सहित ही (शरीर के आकार) रहते हैं अर्थात् जीव अनादिकाल से शरीररूपी पात्र में ही रहा है। कभी पहले शुद्ध शरीररहित रहा हो पुन: अशुद्ध शरीरधारी हुआ हो, ऐसा है ही नहीं। इस कारण जीव के प्रदेशों का संहार (संकोच) और विस्तार (पैâलना) शरीर नामक नामकर्म के आधीन ही है, यह प्रदेशों का संकोच-विस्तार जीव का स्वभाव नहीं है इसीलिए जीव के शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का विस्तार नहीं होता है।

इस विषय में और भी उदाहरण हैं-जैसे किसी मनुष्य की मुट्ठी के भीतर चार हाथ लम्बा वस्त्र बंधा-भिंचा हुआ है। अब यह वस्त्र मुट्ठी खोल देने पर पुरुष के प्रयोग के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता है, जैसा उस पुरुष ने छोड़ा है वैसा ही रह जाता है अथवा गीली मिट्टी का बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता रहता है किन्तु जब वह सूख जाता है तब जल का अभाव होने से वह बर्तन संकोच व विस्तार को प्राप्त नहीं होता है। इसी तरह मुक्त जीव भी जल के अभाव सदृश, शरीर के अभाव में संकोच विस्तार नहीं करता है। जब तक शरीर नामकर्म का उदय है तभी शरीर के बराबर प्रदेशों का संकोच-विस्तार किया करता है किन्तु सम्पूर्ण कर्मों के अभाव में अपने अन्तिम शरीर से विंâचित् न्यून ही आत्मा के प्रदेशों का आकार रहता है इसलिए सिद्ध भगवान चरमदेह से विंâचित् न्यून कहलाते हैं।

जीव का ऊध्र्वगमन स्वभाव है

जीव जिस स्थान में सम्पूर्ण कर्मों से छूटता है ठीक उसी स्थान के ऊपर एक समय में ऊध्र्वगमन करके लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाता है। चूँकि यह ऊध्र्वगमन उसका स्वभाव है।

शंका-जीव जिस स्थान में कर्मोें से छूटा है उसी स्थान पर रह जाता है। चूँकि ऊपर जाने का कोई कारण नहीं है ?

समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि ऊध्र्वगमन करना यह जीव का स्वभाव है।

शंका-पुन: संसार में भी यह तिर्यग्गमन क्यों करता है, जब ऊध्र्वगमन स्वभाव है तब सतत ऊध्र्वगमन ही करना चाहिए ?

समाधान-जैसे जीव का पूर्णज्ञानी और सर्वदर्शी होना स्वभाव है किन्तु संसार में कर्मों के आवरण से वह स्वभाव प्रगट नहीं हो पाता है, फिर भी कर्मों के नष्ट होते ही जीव सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है। उसी प्रकार से जीव संसार में कर्मों के निमित्त से ऊध्र्वगति नहीं कर पाता है किन्तु कर्मों से छूटते ही स्वभाव से ऊध्र्वगमन कर लेता है। इसके लिए चार दृष्टांत हैं-जैसे वुंâभार का चाक पूर्व प्रयोग से (घुमाना छोड़ देने पर भी) घूमता रह जाता है, वैसे ही सिद्धों ने मुनि अवस्था में ध्यान में जो सतत ही ऊध्र्वगमन का अभ्यास किया है, सो इस समय वे ऊध्र्वगमन कर जाते हैं। जैसे-मिट्टी का लेप धुल जाने से तुम्बी जल के ऊपर आ जाती है उसी प्रकार से कर्मलेप के छूट जाने से यह आत्मा ऊपर चला जाता है। जैसे-बंध का नाश होने से एरण्ड का बीज ऊपर को उछलता है वैसे कर्मबंध का नाश होने से यह आत्मा ऊपर को चला जाता है। जैसे-अग्नि की लौ स्वभाव से ऊपर को ही उठती है उसी प्रकार से आत्मा भी स्वभाव से ऊपर को गमन कर जाता है। यह ऊध्र्वगमन लोक के अग्रभाग तक ही होता है, लोक के आगे नहीं होता है।

शंका-जब आत्मा का ऊध्र्वगमन स्वभाव ही है तब वह लोकाग्र के भी आगे क्यों नहीं चला जाता है ?

समाधान-नहीं, आगे नहीं जा सकता है क्योंकि लोक के बाहर धर्मास्तिकाय का अभाव है१, ऐसा आगम वाक्य है। धर्मास्तिकाय का यह लक्षण है कि जो जीव और पुद्गलों को गमन करने में सहकारी हो। अत: सिद्ध जीव भी जीव हैं, उनके गमन में सहकारी कारण धर्मास्तिकाय का आगे अलोकाकाश में अभाव होने से वहाँ पर वे मुक्तजीव भी नहीं जा सकते हैं। परद्रव्य का सहयोग न मिलने से उनका ऊध्र्वगमन स्वभाव आगे काम नहीं कर पाता है। यह परद्रव्य की पराधीनता कितनी विचित्र है ?
सिद्धजीव नित्य हैं। कभी अपने स्थान और स्वभाव से च्युत नहीं होते हैं।

शंका-हम सदाशिव मतावलम्बियों के यहाँ सिद्ध जीवों का भी पुनरागमन माना है। देखो, सौ कल्प प्रमाण समय के बीत जाने पर जब यह सारा जगत् शून्य हो जाता है तब फिर उन मुक्त जीवों का पुन: संसार में आगमन होता है ?

समाधान-नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव सदा नित्य माने गये हैं अतएव सैकड़ों कल्पकालों के बीत जाने पर भी उनमें विकार-परिवर्तन या कर्म का संबंध संभव नहीं है। भले ही तीन लोक को वंâपा देने वाला उत्पात ही क्यों न हो जाए किन्तु सिद्ध जीवों का पुन: इस संसार में आना नहीं हो सकता है।२ जैसे एक बार बीज को अग्नि के द्वारा जला देने पर वह पुन: अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकता है वैसे ही कर्मरूपी संसार बीज के जल (नष्ट) जाने पर पुन: जन्म-मरण रूप संसार में आगमन नहीं हो सकता है।
ये सभी सिद्ध परमेष्ठी उत्पाद-व्यय से सहित हैं। सर्वथा अपरिणामी, वूâटस्थ नित्य नहीं हैं।

शंका-सिद्ध परमात्मा निरन्तर ही निश्चल, अविनश्वर, शुद्ध आत्मस्वरूप हैं। उससे भिन्न नरक आदि गतियों में भ्रमण नहीं करते हैं अत: उनमें उत्पाद, व्यय वैâसे घटेगा ?

समाधान-उन सिद्धों में अगुरुलघु गुण के षट्हानि-वृद्धि रूप से अर्थपर्यायरूप परिणमन पाया जाता है जो कि आगमगम्य है, वचन के अगोचर है। इस अर्थपर्यायरूप से ही उनमें उत्पाद-व्यय होता है अथवा ज्ञेय पदार्थ अपने-अपने जिस-जिस उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप से परिणमते हैं, उन-उनके आकार से निरिच्छुक वृत्ति से सिद्धों का ज्ञान भी परिणमता है। इस कारण भी सिद्धों में उत्पाद-व्यय घटित हो जाता है अथवा सिद्धों में व्यंजन पर्याय की अपेक्षा से संसार-पर्याय का नाश, सिद्ध पर्याय का उत्पाद तथा शुद्ध जीव द्रव्यपने से ध्रौव्य अवस्था विद्यमान है। इस प्रकार अगुरुलघु गुण की षट्हानि वृद्धिरूप, ज्ञेयाकार से ज्ञान के परिणमन रूप और व्यंजन पर्याय की अपेक्षा सिद्ध पर्याय की उत्पत्ति और संसार पर्याय के नाशरूप आदि नय विभागों से सिद्धों में उत्पाद, व्यय भी माना जाना आगमसम्मत है।

आत्मा के ३ भेद हैं-बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा।

  • निज शुद्ध आत्मतत्त्व से बहिर्भूत इन्द्रियसुख में आसक्त आत्मा बहिरात्मा है। निज शुद्ध आत्मतत्त्व की रुचि से सहित आत्मा अन्तरात्मा है तथा पूर्ण निर्मल केवलज्ञान, दर्शन से सहित सर्वज्ञदेव परमात्मा हैं। इन परमात्मा के विष्णु, ब्रह्मा आदि अनेक नाम हैं-
  • जो अपने केवलज्ञान के द्वारा लोक-अलोक को व्याप्त कर लेता है, जान लेता है वह ‘विष्णु’ है।
  • परब्रह्म नामक निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत का पान करने से जो तृप्ति को प्राप्त हैं पुन: उर्वशी, तिलोत्तमा, रंभा आदि देवकन्याओं द्वारा जिनका ब्रह्मचर्य खण्डित नहीं हुआ है, ऐसे आत्मा ही ‘परंब्रह्म’ परमात्मा हैं।
  • केवलज्ञान आदि गुणरूपी ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण जिनके पद की अभिलाषा करते हुए देवेन्द्र आदि भी जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं ऐसे जीव ही ‘ईश्वर’ कहलाते हैं।
  • केवलज्ञान शब्द से वाच्य ‘सु’ (उत्तम) ‘गत’ (ज्ञान) है जिनका, वे ‘सुगत’ बुद्ध हैं। अथवा ‘सु’ (शोभायमान) अविनश्वर मुक्तिपद को प्राप्त हुए सो ‘सुगत’ हैं।
  • शिव-परम कल्याणरूप निर्वाण एवं अक्षयज्ञानरूप मुक्त पद को जिन्होंने प्राप्त किया है, वे ‘शिव’ हैं।
  • काम, क्रोध आदि दोषों को जीत लेने से वे परमात्मा अनन्त गुणों के धारक ‘जिन’ कहलाते हैं इत्यादि रूप से परमात्मा के परमागम में एक हजार आठ नाम कहे गये हैं।
  • इस प्रकार से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा को गुणस्थानों में घटाते हैं। मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीनों गुणस्थानों में तारतम्य-न्यूनाधिक भाव से बहिरात्मा हैं।
  • अविरत गुणस्थान में उसके योग्य लेश्या से परिणत जघन्य अन्तरात्मा हैंं और क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं तथा अविरत और
  • क्षीणकषाय गुणस्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं उनमें मध्यम अन्तरात्मा हैं अर्थात् पाँचवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक मध्यम अन्तरात्मा हैं।
  • सयोगी और अयोगी इन दोनों गुणस्थानों में विवक्षित एक देश शुद्धनय की अपेक्षा से सिद्ध के समान परमात्मा हैं और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा हैं ही।
    यहाँ बहिरात्मा तो हेय है और उपादेयभूत अनन्तसुख का साधक होने से अन्तरात्मा उपादेय है तथा परमात्मा साक्षात् उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है। इस प्रकार यह जीव जीव है, उपयोगमयी है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है।

अजीव द्रव्य

पुद्गल औ धर्म अधर्म तथा, आकाश काल ये हैं अजीव।
इन पाँचों में पुद्गल मूर्तिक, रूपादि गुणों से युत सदीव।।
बाकी के चार अमूर्तिक हैं, स्पर्श वर्ण रस गंध रहित।
चैतन्य प्राण से शून्य अत:, ये द्रव्य अचेतन ही हैं नित।।१५।।

  • अजीव द्रव्य के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच भेद हैं, ऐसा जानो। इनमें से पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है क्योंकि वह रूप, रस, गंध और स्पर्श गुण वाला है, बाकी शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं।
  • उपयोग के दो भेद हैं-शुद्धोपयोग और अशुद्धोपयोग। सकल, विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों शुद्धोपयोग हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान ये चारों ज्ञान तथा चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीनों दर्शन ये सब अशुद्ध उपयोग हैं।
  • चेतना के भी तीन भेद हैं-कर्मफल चेतना, कर्मचेतना और शुद्ध चेतना (ज्ञानचेतना)। अव्यक्त सुख-दु:ख के अनुभव रूप कर्म फल चेतना है। अपनी इच्छापूर्वक इष्ट-अनिष्ट विकल्परूप से विशेष राग- द्वेष रूप परिणमन कर्मचेतना है और केवलज्ञान रूप शुद्ध (ज्ञान) चेतना है।
  • ये उपयोग और चेतना जिनमें नहीं हैं, वे अजीव हैं।
  • पुद्गल द्रव्य-उनके पाँच भेदों में पुद्गल का लक्षण है-पूरण गलन स्वभाव। इसमें पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श ये बीस गुण पाये जाते हैं। इस पुद्गल के अणु और स्वंâध की अपेक्षा दो भेद भी होते हैं। दो अणु, तीन अणु आदि से लेकर अनंत अणुओं तक मिलकर स्वंâध बनते हैं। अणु में दो स्पर्श-स्निग्ध-रूक्ष में से कोई एक और शीत-उष्ण में से कोई एक, एक वर्ण, एक रस और एक गंध ऐसे पाँच गुण ही रहते हैं। यह अणु शुद्ध माना जाता है अत: इसके गुण भी शुद्ध ही माने जाते हैं किन्तु स्वंâध अशुद्ध माना जाता है।
  • अब इसी पुद्गल द्रव्य की पर्यायों को बताते हैं-

ये शब्द और जो बंध कहे, सूक्ष्मत्व और स्थूलपना।
आकार भेद तम छाया औ, उद्योत तथा आतप जितना।।
ये सब पुद्गल की पर्यायें, जो हैं विभाव व्यंजन जानो।
इन सबसे विरहित निज आत्मा, को निश्चयनय से पहचानो।।१६।।

  • शब्द, बंध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, भेद-खण्ड, अंधकार, छाया, उद्योत और आतप ये सब पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं अर्थात् इन्हें विभाव व्यंजन पर्याय कहते हैं। निश्चयनय से आत्मा इन सभी पुद्गल पर्यायों से रहित है ऐसा समझना चाहिए।
  • शब्द-शब्द के दो भेद हैं-भाषात्मक और अभाषात्मक। इनमें से भाषात्मक भी अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक के भेद से दो प्रकार का है। अक्षरात्मक भाषा भी संस्कृत, प्राकृत और उनके अपभ्रंश रूप पैशाची आदि भाषाओं के भेद से आर्य और म्लेच्छ मनुष्यों के व्यवहार का कारण है अत: इसके अनेक भेद हो जाते हैं। अनक्षरात्मक भाषा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय पशु-पक्षियों में पाई जाती है जिसमें अक्षर, वर्ण, पद, वाक्य स्पष्ट नहीं रहते हैं।
  • सर्वज्ञ की वाणी-दिव्यध्वनि को भी अनक्षरात्मक कहा है१।
  • अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैश्रसिक के भेद से दो प्रकार का है। इसमें से प्रायोगिक के तत, वितत, घन और सुषिर भेद माने गये हैं। वीणा आदि के शब्द को ‘तत’ कहते हैं। ढोल आदि के शब्द का ‘वितत’ नाम है। मंजीरा, घण्टा, ताल आदि के शब्द ‘घन’ कहलाते हैं और वंशी आदि के शब्द को सुषिर नाम है। ये सभी शब्द मनुष्यों के द्वारा प्रयोग किये जाते हैं इसलिए इनका प्रायोगिक यह नाम सार्थक है।
  • वैश्रसिक का अर्थ है जो स्वभाव से-बिना किसी की प्रेरणा या प्रयोग से प्रगट होते हैं। ये मेघ, गर्जना आदि से होने वाले हैं इसीलिए इनके अनेक भेद हो जाते हैं।
    यहाँ विशेष ज्ञातव्य यह है कि संसारी जीव शब्द आदि मनोज्ञ और अमनोज्ञ पंच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर सुस्वर अथवा दुस्वर नामकर्म का बंध करते हैं। उदय में आकर वही कर्म जीव के स्वर को अच्छा या बुरा बना देता है। वहाँ पर यद्यपि ये शब्द जीव के दिखते हैं फिर भी ये सब पुद्गल की ही पर्यायें हैं। जीव के संयोग से उत्पन्न होने के निमित्त से व्यवहारनय की अपेक्षा ये जीव के कहे जाते हैं किन्तु निश्चयनय से ये शब्द पुद्गलरूप ही हैं।

महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-

‘शरीरवाङ्मन: प्राणापाना: पुद्गलानाम्१।’ शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास ये सब पुद्गल के उपकार हैं जो कि जीव में होते हैं।

बंध-मिट्टी आदि में जो पिण्डरूप से बंध होता है वह मात्र पुद्गल बंध है। जीव और पुद्गल के संयोग से जो बंध होता है वह कर्मबंध और नोकर्मबंध कहा जाता है।

यहाँ यह बात विशेष है कि जीव के अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्य बंध है और अशुद्ध निश्चयनय से रागादि परिणाम रूप भाव बंध है तथा शुद्ध निश्चयनय से जीव में बंध नहीं है। मात्र पुद्गल की ही बंध पर्याय है।

सूक्ष्मत्व-बेल, नारंगी आदि की अपेक्षा बेर में सूक्ष्मता है और परमाणु में साक्षात् सूक्ष्मता है अर्थात् वह किसी की अपेक्षा से नहीं है।

स्थूलत्व-बेर आदि की अपेक्षा बेल, नारियल आदि में स्थूलता-बड़ापन है। तीन लोक में व्याप्त महास्वंâध में सबसे अधिक स्थूलता है अर्थात् इससे बड़ा और कोई नहीं है।

संस्थान-संस्थान अर्थात् आकार। इस संस्थान के ६ भेद हैं-समचतुरस्र, न्यग्रोध, सातिक-स्वाति, कुब्जक, वामन और हुण्डक। व्यवहारनय से ये संस्थान जीव के हैं किन्तु निश्चयनय से ये जीव के नहीं हैं प्रत्युत पुद्गल के ही हैं। चूँकि जीव चेतन चमत्कार परिणाम वाला है अत: जीव से भिन्न पुद्गल के ही गोल, त्रिकोण, चौकोन आदि प्रगट, अप्रगट अनेक आकार माने गये हैं। ये सब पुद्गल की ही पर्यायें हैं।

भेद-गेहूँ आदि के दलिया, आटा तथा घी, शक्कर आदि के प्रकार से भेद भी अनेक प्रकार का होता है।

तम-अंधकार की ‘तम’ संज्ञा है। यह दृष्टि को रोकने वाला है। यह भी पुद्गल की पर्याय है।

छाया-पेड़ आदि के आश्रय से होने वाली छाया है। मनुष्य, घर आदि वस्तुओं की जो परछार्इं पड़ती है, उसे भी छाया कहते हैं। जो फोटो-चित्र खिचते हैं, टेलीविजन आदि में चित्र दिखते हैं, ये सब छाया ही हैं।

उद्योत-चन्द्रमा के विमान से जो चांदनी छिटकती है, वह उद्योत है उसी प्रकार से जुगनू आदि तिर्यंच जीवों के भी उद्योत नामकर्म के उदय से उद्योत होता है। यह सब प्रकाश भी पुद्गल की ही पर्यायें हैं।

आतप-सूर्य के विमान में तथा सूर्यकांत आदि मणिरूप पृथ्वीकाय में ‘आतप’ जानना चाहिए। सूर्य के विमान में रहने वाले एक इन्द्रिय पृथ्वीकायिक जीव के आतप नामकर्म का उदय पाया जाता है तथा सूर्यकांत मणि से जो प्रकाश निकलता है, आतप-घाम, जिसे धूप भी कहते हैं, यह पुद्गल की ही पर्यायें हैं। यह आतप नामकर्म भी जीव में अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से पाया जाता है। शुद्ध निश्चयनय से जीव में आतप आदि कुछ भी नहीं हैं।

जीव से सर्वथा भिन्न ऐसे पुद्गल द्रव्य का वर्णन पढ़ा है। इसमें पुद्गल के भेद अणु-स्वंâध व पुद्गल के गुण रूप, रस, गंध, स्पर्श तथा पुद्गल की पर्यायें शब्द, बंध आदि बताई गई हैं। संसार में जो भी दिख रहा है, वह सब पुद्गल ही है। चूँकि धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों द्रव्य रूप, रसादिरहित अमूर्तिक ही हैं। वे कथमपि दृष्टिगोचर नहीं हो सकते हैं। उन्हें मात्र आगमज्ञान से या अनुमान से अथवा केवलज्ञान रूप प्रत्यक्षज्ञान से ही जाना जा सकता है। जीव द्रव्य भी वस्तुत: अमूर्तिक है किन्तु जब तक वह संसारी है तब तक पुद्गल से निर्मित शरीर आदि के संबंध से मूर्तिक हो रहा है और वही मूर्तिक जीव ही दिख रहा है अथवा यों कहिए कि जीव का शरीर ही दिख रहा है। श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है-

अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं तत:।
क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यत:१।।

जो भी दिख रहा है, वह सब अचेतन है और चेतना दिखता नहीं है अत: मैं किसमें रोष या द्वेष करूँ और किसमें संतोष या राग करूँ इसीलिए मैं अब मध्यस्थ भाव को अर्थात् समताभाव को धारण करता हूँ। इसी वीतराग अवस्था को प्राप्त करने के लिए स्वाध्याय आदि साधन हैं।

धर्मद्रव्य-

गति क्रियाशील जो जीव और, पुद्गल नित गमन करें जग में।
इन दोनों के ही चलने में, यह धर्मद्रव्य सहकारि बने।।

जैसे मछली को चलने में, जल सहकारी बन जाता है।

नहिं रुकी हुई को प्रेरक हो, वैसे यह द्रव्य कहाता है।।१७।।

गमन करते हुए जीव और पुद्गल को जो गति क्रिया में सहकारी है, वह धर्म द्रव्य है। जैसे जल मछलियों को गमन में सहकारी है किन्तु वह नहीं चलते हुए को नहीं ले जाता है अर्थात् जैसे जल प्रेरक नहीं है वैसे यह द्रव्य प्रेरक नहीं है।

यह धर्मद्रव्य धर्म नाम का जीव का स्वभाव नहीं है प्रत्युत यह एक स्वतंत्र द्रव्य है।

अधर्मद्रव्य-

पुद्गल औ जीव ठहरते हैं, उनको जो होता सहकारी।
वह द्रव्य अधर्म कहाता है, नहिं बल से ठहराता भारी।।
जैसे चलते पथिकों को तरु, छाया नहिं रोके बलपूर्वक।
रुकते को मात्र सहायक है, वैसे यह द्रव्य सहायक बस।।१८।।

ठहरते हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में जो सहायक है वह अधर्म द्रव्य है। जैसे-छाया पथिकों को ठहरने में सहकारी है किन्तु यह द्रव्य चलते हुए को रोकता नहीं है।

आकाशद्रव्य-

जीवादी द्रव्यों को नित ही, अवकाश दान के योग्य रहे।
जिनदेव कथित आकाश द्रव्य, उसके भी हैं दो भेद कहे।।
पहला है लोकाकाश कहा, औ दुतिय अलोकाकाश सही।
बस एक अखण्ड द्रव्य के भी, दो भेद हुए कारणवश ही।।१९।।

जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन द्रव्यों को अवकाश देने में योग्य आकाश द्रव्य है, ऐसा तुम जानो। जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित इस आकाश द्रव्य के लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे दो भेद होते हैं।

लोकाकाश-अलोकाकाश विभाजन-

जितने आकाश प्रदेशों में, पुद्गल औ जीव सभी रहते।
औ धर्म अधर्म व काल रहें, बस लोकाकाश उसे कहते।।
उसके बाहर में सभी तरफ है, वृहत् अलोकाकाश रहा।
जिससे बढ़कर नहिं कोई है, फिर भी यह चेतनशून्य कहा।।२०।।

धर्म, अधर्म, काल, जीव और पुद्गल ये पाँचों द्रव्य जितने आकाश में रहते हैं, वह लोकाकाश है और उससे परे चारों तरफ अलोकाकाश है फिर भी यह आकाश चैतन्य शून्य अचेतन ही है।

कालद्रव्य-

द्रव्यों में परिवर्तनकारी, व्यवहारकाल कहलाता है।
परिणाम क्रियादिक लक्षण से, यह जग में जाना जाता है।।
व्यवहार और निश्चय से जो, दो भेद रूप भी हो जाता।
बस मात्र वर्तना लक्षण से, परमार्थकाल जाना जाता।।२१।।

कालद्रव्य के दो भेद हैं-व्यवहार और निश्चय। जो द्रव्यों में परिवर्तन कराने वाला है और परिणाम, क्रिया आदि लक्षण वाला है वह व्यवहारकाल है तथा वर्तना लक्षण वाला परमार्थकाल है।

जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों के परिवर्तन में अर्थात् नई या जीर्ण अवस्थाओं के होने में काल द्रव्य सहायक हैं, इनमें घड़ी, घण्टा, दिन, रात आदि व्यवहार काल है और वर्तना रूप सूक्ष्म परिणमन रूप निश्चयकाल है।

कालद्रव्य कितने हैं-

सब लोकाकाश प्रदेशों में, इक-इक प्रदेश पर एक-एक।
कालाणू संस्थित हैं सदैव, सब पृथक रहें नहिं एकमेक।।
रत्नों की राशी के समान, वे अलग-अलग ही रहते हैं।
वे हैं असंख्य कालाणु द्रव्य, जो लोकाकाश प्रमित ही हैं।।२२।।

लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है जो कि रत्नों की राशि के समान पृथक्-पृथक् है। काल द्रव्य असंख्यात हैं अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश पर अलग-अलग एक-एक कालद्रव्य स्थित है इसलिए वे कालद्रव्य असंख्यात हैं।

यहाँ पर अजीव के अन्तर्गत धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य और कालद्रव्य का वर्णन किया है। संसारी जीवों के लिए ये चारों द्रव्य सहकारी तो हैं ही हैं किन्तु मुक्त जीवों के लिए भी सहकारी कारण हैंं। देखिए, जब यह आत्मा कर्मों से छूटता है, तब धर्म की सहायता से ही इस मध्यलोक से ऊपर सात राजू जाकर सिद्धशिला से आगे लोक के अग्रभाग में पहुँचता है। लोकाकाश के बाहर क्यों नहीं चला जाता ? तो आगे धर्म द्रव्य का अभाव है। उसी प्रकार वहाँ लोकाग्र पर ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी कारण है। वैसे ही आकाश द्रव्य में ही सिद्ध जीव निवास कर रहे हैं अत: लोकाकाश ने अवकाश भी दिया है। साथ ही प्रतिसमय अनंतगुणों में षट्गुण हानि वृद्धि रूप सूक्ष्म परिणमन भी काल द्रव्य की सहायता से हो रहा है इसलिए सिद्धों के लिए भी ये द्रव्य सहकारी कारण हैं तो हम और आपके लिए तो हैं ही हैं। यद्यपि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है फिर भी निमित्त कारण अवश्य मिलते हैंं। निश्चयनय की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है और अपने में ही है किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से पर की सहायता स्वीकार किये बिना सिद्धांत ग्रंथों से बाधा आती है। स्वयं श्री कुन्दकुन्ददेव ने भी नियमसार में कहा है कि-

कर्म से रहित आत्मा लोक के अग्रभाग पर चला जाता है क्योंकि जीवों और पुद्गलों का गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहीं तक जानो। यह मुक्त जीव धर्मास्तिकाय के अभाव में लोकाकाश से बाहर नहीं जा सकते हैं१।

इस प्रकार से इन द्रव्यों के अस्तित्व को तथा कार्य को आगम से जानकर उस पर दृढ़ श्रद्धान रखना ही सम्यग्दर्शन है।

द्रव्य और अस्तिकाय

इस विधि से ये छह भेद रूप, जो द्रव्य कहे परमागम में।
वे जीव अजीवों के प्रभेद, से ही माने जिनशासन में।।
इनमें से कालद्रव्य वर्जित, जो पाँच द्रव्य रह जाते हैं।
वे ही अर्हंतदेव भाषित, पंचास्तिकाय कहलाते हैं।।२३।।

मूल में द्रव्य के जीव और अजीव ये दो ही भेद हैं। इसी में अजीव के पाँच भेद होने से द्रव्य के जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह भेद हो जाते हैं।
इन छहों द्रव्यों में काल द्रव्य को छोड़कर पाँच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। ग्रंथकार स्वयं अस्तिकाय का लक्षण बतलाते हैं-

जिस हेतू से ये ‘सन्ति’ हैं, इस हेतू से ही ‘अस्ति’ कहे।
इस विध श्रीजिनवर कहते हैं, ये विद्यमान ही सदा रहें।।
ये बहुप्रदेशयुत काय सदृश, इसलिए ‘काय’ माने जाते।
दोनों पद मिलकर ‘अस्तिकाय’, संज्ञा से ये जाने जाते।।२४।।

ये द्रव्य ‘सन्ति’ अर्थात् विद्यमान हैं इसलिए इन्हें ‘अस्ति’ अर्थात् ‘हैं’ ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव कहते हैं और जिस हेतु से ये काय-शरीर के समान बहुत प्रदेशी हैं उसी हेतु से ये काय इस नाम को प्राप्त हैं अत: ये पाँच द्रव्य ‘अस्तिकाय’ इस सार्थक नाम वाले हैं।

यद्यपि इन पाँचों द्रव्यों में संज्ञा, लक्षण तथा प्रयोजन आदि से परस्पर में भेद है फिर भी अस्तित्व की अपेक्षा से अभेद है अर्थात् अस्तित्व की दृष्टि से सभी द्रव्य एक रूप ही हैं। इसी अस्तित्व को न समझकर ही ब्रह्माद्वैत आदि ‘अद्वैत’ मतों की स्थापना हो गई है।

प्रत्येक द्रव्य में सामान्य और विशेष ऐसे दो प्रकार के गुण माने गये हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण हैं और ज्ञान, दर्शन, रूप, रस आदि विशेष गुण हैं। शुद्ध जीवास्तिकाय में सिद्धत्व लक्षण शुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है, केवलज्ञान आदि विशेष गुण हैं और इसी शुद्ध मुक्त जीव में अस्तित्व आदि सामान्य गुण हैं। ऐसे ही सिद्धजीव में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भी होते हैं। उनमें अव्याबाध, अनंतसुख आदि अनंत गुणों की प्रगटता रूप कार्य समयसार का उत्पाद हुआ है। रागादि विभाव रहित परम स्वास्थ्यरूप कारण समयसार का विनाश हो गया है और कार्य-कारण समयसार दोनों के आधारभूत परमात्म द्रव्यरूप से वो ही आत्मा ध्रौव्य स्थिर रूप हैं। ये तीनों एक ही समय में होते हैं।

जैसे-गुण, पर्याय और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य लक्षण से सहित सिद्ध जीवों का अस्तित्व है, वैसे ही संसार अवस्था में अशुद्ध गुण, पर्याय और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से सहित सम्पूर्ण जीव समूह का भी अस्तित्व है। ऐसे ही सभी द्रव्यों का भी अस्तित्व है अत: शुद्ध-अशुद्ध सभी द्रव्यों में अस्तित्व गुण समान रूप से पाया जाता है।
इस कारण छहों द्रव्य अस्तिरूप हैं किन्तु काय का लक्षण काल द्रव्य में घटित न होने से उसे छोड़कर शेष पाँच द्रव्य कायरूप हैं अत: पाँच द्रव्य ही ‘अस्तिकाय’ कहलाते हैं। बहुत से प्रदेशों का प्रचय जिसमें पाया जाए, उसे ही काय संज्ञा है।

किसमें कितने प्रदेश हैं, अब इसे स्पष्ट करते हैं-

इक जीव धर्म व अधर्म में, माने प्रदेश हैं असंख्यात।
नभ में अनंत होते प्रदेश, औ लोकाकाश में असंख्यात।।
पुद्गल में त्रिविध प्रदेश कहे, जो संख्य असंख्य अनंते भी।
बस काल में एक प्रदेश कहा, नहिं काय नाम है अत: सही।।२५।।

एक जीव द्रव्य में, धर्मद्रव्य में और अधर्मद्रव्य में असंख्यात प्रदेश होते हैं। एक जीव में असंख्यात प्रदेश हैं यदि वे पैâल जावें तो लोकाकाश प्रमाण हो जाए किन्तु संसार अवस्था में कर्म से सहित जीव को जितना छोटा या बड़ा शरीर मिलता है उतने ही प्रमाण में संकुचित होकर या विस्तृत होकर रहते हैं, शरीर से बाहर नहीं जाते हैं। आगम में सात प्रकार के समुद्घात कहे हैं। उन प्रसंगों में आत्मा से बाहर भी प्रदेश चले जाते हैं तथा इसी में एक केवली समुद्घात है उसकी अपेक्षा से जीव के प्रदेश पूरे लोकाकाश में पैâल जाते हैं। आकाश द्रव्य में अनंत प्रदेश हैं अर्थात् आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश दो भेद हैं। उनमें से लोकाकाश में एक जीव के बराबर असंख्यात प्रदेश हैं और अलोकाकाश में अनंत प्रदेश हैं। मूर्तिक पुद्गल द्रव्य में संख्यात, असंख्यात और अनंत ऐसे तीनों प्रकार के प्रदेश हैं। काल द्रव्य का एक प्रदेश होता है इसीलिए वह ‘काय’ नहीं कहलाता है। तात्पर्य यही है कि कालद्रव्य एकप्रदेशी होने से ‘काय’ नहीं है इसीलिए वह द्रव्य तो है किन्तु अस्तिकाय नहीं है। इस बात से यह शंका सहज ही हो जाती है कि पुद्गल का परमाणु भी ‘एक प्रदेशी है’ उसे भी ‘काय’ नहीं कहना चाहिए। उसी के समाधान में आचार्य कहते हैं-

जो एकप्रदेशी भी अणु है, वह कारण बहु स्वंâधों का।
उपचार विधी से कहलाता, वह बहुत प्रदेशी जो होगा।।
इसलिए काय संज्ञा अणु की, सर्वज्ञदेव बतलाते हैं।
पर कालद्रव्य में बहुप्रदेश, की शक्ती भी नहिं पाते हैं।।२६।।

अणु-परमाणु यद्यपि एक प्रदेश वाला है फिर भी वह अनेक प्रदेशी स्वंâधों का कारण है अर्थात् आगे द्व्यणुक, त्र्यणुक आदि होकर अनेक प्रदेशी स्वंâध बन सकता है इसीलिए वह अणु भी उपचार से बहुप्रदेशी माना जाता है अत: यह अणु भी ‘काय’ संज्ञक होने से अस्तिकाय है किन्तु काल द्रव्य कभी भी दो आदि बहुत प्रदेश वाला नहीं हो सकता है, यही कारण है कि वह ‘अस्ति’ तो है किन्तु ‘काय’ नहीं है।

अब प्रदेश का लक्षण और उसकी योग्यता को बतलाते हैं-

इस जितने मात्र नभस्तल को, अविभागी इक पुद्गल अणु ने।
रोका है उतने नभ को ही, इक प्रदेश संज्ञा दी प्रभु ने।।
ऐसा जो एक प्रदेश कहा, वह युगपत् सब परमाणू को।
ठहरा सकता है अपने में, तुम जानो इतना क्षम उसको।।२७।।

जितने मात्र आकाश को एक अविभागी पुद्गल के परमाणु ने रोका है उतने मात्र को तुम ‘प्रदेश’ जानो। वह प्रदेश सभी परमाणु को ठहराने में समर्थ हो सकता है। तात्पर्य यह है कि आकाश के एक प्रदेश में असंख्यात और अनंत परमाणुओं का स्वंâध भी रह सकता है। ऐसी आकाश में अवकाश देने की योग्यता विद्यमान है, तभी तो असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनंतानंत जीव और उनसे भी अनंतगुणे पुद्गल रह रहे हैं।

कहा भी है-

एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा।
सिद्धेहिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण।।

एक निगोदिया जीव के शरीर में द्रव्य प्रमाण से अतीतकाल के सब सिद्धों से भी अनंतगुणे जीव देखे गये हैं और निगोदिया जीव की अवगाहना बहुत ही छोटी मानी गई है।

उदाहरणस्वरूप सुई की नोक के अग्रभाग पर अनंत निगोदिया जीव रह जाते हैं।

उपसंहार

इस प्रकार द्रव्यसंग्रह ग्रंथ के प्रथम अधिकार में छहों द्रव्य और पाँच अस्तिकाय का वर्णन किया गया है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय हैं, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेव का उपदेश है।

।। प्रथम अधिकार पूर्ण।।

 

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