१९७० के बाद से पश्चिम के देशों में वे क्या खा रहे हैं और जो कुछ वे खा रहे हैं उसका व्यक्ति और समाज के व्यक्तित्व-निर्माण पर क्या प्रभाव पढ़ रहा है विषम पर काफी विचार किया है। आश्चर्य है कि हम जो खा रहे हैं और सामने आ रहे नतीजों को उन मामलों से जोड़ रहे हैं, जिनका उनसे दूर का भी रिश्ता नहीं है। वस्तुत: हम असली घाव पर अपनी अँगुली नहीं रख पा रहे हैं, अत: घाव गहराता जा रहा है और हालात अधिक गंभीर होते जा रहे हैं। आहार पर ध्यान न देकर हम इतनी बड़ी भूल कर रहे हैं कि जिसके कई सांस्कृतिक और सामाजिक दुष्परिणाम सामने आयेंगे। संसाघित प्रोसेजल कार्बोहाइड्रेट्स स्वास ने तो रुचिकर लगते हैं, किन्तु संसाधन (प्रोसेसिंग) के दौरान उनमें अवस्थित विटामिनों को जो दुर्दशा होती है, उसके बारे में हम बिल्कुल चिन्तित नहीं है। बावजूद चिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों की चेतावनी के हमने अपने बर्ताव में कोई खास तब्दीली नहीं की है और संसाधित प्रोजेज्ड आहार को लगातार उत्साहित कर रहे हैं। हमारे देश की कहीं कोई ऐसी इकाई सरकारी या गैर सरकारी नहीं है जो इस बात का पता करे कि जो हम पेट में डाल रहे हैं उसकी गुणवत्ता क्या है ? या उसकी सामाजिकता क्या है ? ज्यादातर हमारा ध्यान या तो व्यक्तिगत स्वार्थ पर या फिर तटस्थ बने रहने पर है। हम अपना व्यक्तिगत हित साथ लेने के बाद या तो चुप्पी साध लेते हैं या उनमें से अधिकतम लाभ उठाने की कोशिश में दुगने-चौगुने उत्साह से लग जाते हैं। हमने बहुजन हिताय/बहुजन हिताय के उनके सदियों पुराने आदर्श में नष्ट कर दिया है।
फलस्वरूप अब हम पर्यावरण को पुरस्कारों में ढूँढ़ने लगे हैं। हमने एक भिन्न ही सामाजिकता में स्वर्ण को फंसा लिया है। हम जिस समाज में है उसके दरद समझने की हम कोशिश ही नहीं करते। वस्तुत: हमारी संवेदनशीलता ही खुट गयी है या उसमें धुन लग गयी है। हम उन सब बुराइयों का पता लगाने में कोई रुचि नहीं रखते, जिनका दूसरों की जिन्दगी पर असर पड़ सकता है। विगत वर्षों में जितने कत्लखाने मत्स्यायन खुले हैं, उतने शायद ही कभी खुले हों। अब हमारा ध्यान इस बात पर नहीं हैं कि हमने अपने प्राणिमित्रों की जिन्दगी की रक्षा कैसे करें, बल्कि इस पर है कि उसके प्राण किस तरह लें ? जो लोग वातावरण को निर्मल और निरापद बनाये रहे जो जीवधारी प्राणप्रण से हमारी उपज बढ़ाते रहे आज स्थिति यह है कि हम अर्थोपार्जन के पागलपन में उन्हीें की जान लेने पर तुले हुए है। हमने उनके आवास छीन लिये हैं और रसोईघर बर्बाद कर दिये हैं। अब बेचारे रहे भी तो कहाँ रहे ? हमने इतनी कालोनियाँ/ फैक्टरियाँ विकसित कर ली है कि हमारे उन प्राणिमित्रों को रहने के लिए जब जगह ही नहीं मिल रही है। जिन वनों को हम रोप रहे हैं ध्यान रहे उन वनों में अब प्राणी नहीं मिलेंगे। पेड-पौधे और अन्य प्राणी हमारी धरती को हरा-भरा रखते आये हैं, किन्तु हम कृतघ्नी हैं कि स्वाद और समृद्धि के लिए उन्हें लगातार नष्ट कर रहे हैं। करते रहे हैं। यदि हम राष्ट्रीय/वैश्विक स्तर पर आहार की समीक्षा नहीं करेंगे तो वह पल दूर नहीं है जब हमारी समस्याएँ ओर आहार भीषण रूप धार कर लेंगी और हम फिर उन असाध्य गुत्थियों को कोई हल नहीं ढूँढ पायेंगे।
पश्चिम के मुल्क अब अपनी गलती महसूस कर रहे हैं और प्राकृतिक आहार तथा जीवन की ओर तेजी से लौट रहे हैं। किन्तु हम सही-जीवन शैली को छोड़कर एक निकम्मी जीवन शैली को अपनाने में लगे हैं। क्या हमारी यह बदकिश्मती नहीं है और इसके प्रति हमें तुरन्त सावधान नहीं हो जाना चाहिये। हमने सबसे पहले हरित, फिर श्वेत क्रान्ति की और अब भूरी (मछली) क्रान्ति कर रहे हैं। सुनने-पढ़ने में हमारा यह शब्द छल बहुत आकर्षक और मनमोहक लगता है, किन्तु जो फल सामने आ रहे हैं, वे उत्साहजनक नहीं हैं। सरकार अपने प्रचार-माध्यमों द्वारा जिसमें दुर्भाग्य से साहित्य को भी भागीदार बना लिया गया है। किस तरह समाज के आधार को दूषित कर रहे हैं उसे देखने तक व्यापक अभियान छेड़ने की आवश्यकता है। जिन खाद्यों की बुराइयाँ साबित हो चुकी हैं उन्हें प्रचार-माध्यमों द्वारा जनता पर थोपना क्या किसी भी सरकार के लिए उचित हैं ? माँस, अण्डा, मछली इत्यादि किस तरह मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए घातक है और आर्थिक दृष्टि से उस पर किल्लत बोझ लाते हैं क्या यह किसी से छुपा हुआ है / हमें विश्वास है कि हम/सरकार/ कभी इन तथ्यों की अनदेखी न ही करेंगे और पूरे देश के हित में सामाजिक आहार की खुली निष्पक्ष जाँच करेंगे।
तीर्थंकर, जनवरी २०१५