सुधा-बहन शशिप्रभा! जब श्री रामचन्द्र सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास में घूम रहे थे, क्या देवतागण भी उनकी सेवा करते थे? शशिप्रभा-हाँ बहन, इसका मैं एक उदाहरण तुम्हारे सामने प्रस्तुत करती हूँ। सुनो! किसी समय निर्जन वन में चलते हुए जब सीता अत्यन्त थक गईं तब श्रीराम से बोलीं-हे नाथ! मेरा कण्ठ बिल्कुल सूख गया है। जिस प्रकार से सैकड़ों जन्म को धारण करने से खिन्न हुआ कोई भव्य अर्हंत भगवान के दर्शन चाहता है उसी प्रकार तीव्र प्यास से व्याकुल मैं अब जल चाहती हूँ। इतना कहकर रामचन्द्र द्वारा रोकने पर भी वह वृक्ष के नीचे बैठ गर्इं। तब रामचन्द्र ने कहा-हे शुभे! विषाद मत करो। देखो, यह सुन्दर ग्राम दिखाई दे रहा है। वहाँ चलें, वहीं जल पीना। ऐसा कहकर सीता को साथ लेकर वे धीरे-धीरे अरुण ग्राम में पहुँच गये। वहाँ वे तीनों ही कपिल ब्राह्मण के घर पर ठहर गये। वहाँ यज्ञशाला में क्षणभर विश्राम किया। ब्राह्मणी ने सीता को शीतल जल पिलाया। वे सब वहीं बैठे ही थे कि इतने में ही प्रतिदिन होम करने में कुशल वह कपिल ब्राह्मण बेल, पीपल, पलाश आदि लकड़ियों को लेकर जंगल से आ गया। महाक्रोधी वह ब्राह्मण उन लोगों को देखते ही दावानल के समान भभक उठा। उसके वचन कालकूट के सदृश थे। वह हाथ में कमण्डलु लिये था। उसके सिर पर चोटी, मुख पर लम्बी दाढ़ी और कन्धे पर यज्ञोपवीत था। उञ्छवृत्ति से वह अपनी जीविका चलाता था। उसने अपनी भार्या से कहा, ‘‘अरे पापिनी! तूने इन लोगों को यहाँ क्यों आने दिया? देख, मैं आज तुझे पशु से भी अधिक दु:सह बन्धन में डालूँगा। देख, ये धूलि से धूसर, निर्लज्ज, ढीठ लोग मेरी यज्ञशाला को दूषित कर रहे हैं।’’
इतना सुनते ही सीता
इतना सुनते ही सीता ने राम से कहा-हे देव! इस अपशब्दवादी अधम का स्थान छोड़ो। अपना पूâलों-फलों से युक्त वनों में ही हिरणों के साथ रहना अच्छा है। इधर ब्राह्मण के हल्ले-गुल्ले को सुनकर ग्रामवासी लोग आ गये और राम-लक्ष्मण के रूप को देखकर इन्हें देवता समझकर ब्राह्मण को समझाने लगे। परन्तु उसने सबको डाँट-फटकार दिया और राम-लक्ष्मण से बोला-‘‘तुम लोग अपवित्र हो, शीघ्र ही मेरे घर से निकलो।’’ इतने पर लक्ष्मण को अत्यधिक क्रोध आ गया। उस ब्राह्मण को उल्टा करके जमीन पर पटकना ही चाहता था कि करुणाद्र्रचित्त उन राम ने उन्हें रोक दिया और कहा कि यह बेचारा जीवित रहते हुए भी मृतकतुल्य है। इसके मारने से क्या लाभ है? मुनि, ब्राह्मण, गाय, पशु, स्त्री, बालक और वृद्ध ये सदोष हों तो भी शूरवीरों द्वारा मारने के योग्य नहीं हैं। उसे छुड़ाकर रामचन्द्र लक्ष्मण और सीता को आगे करके उसकी कुटिया से बाहर निकल गये और वन में चले गये। किसी समय ये तीनों वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए थे और खूब जोरों की वर्षा हो रही थी। ये लोग भीग रहे थे। उनको देखकर एक यक्ष अपने स्वामी के पास जाकर बोला कि कोई तीन महानुभाव मेरे घर पर आ गये हैं। यक्षराज ने आकर अवधिज्ञान से उन्हें बलभद्र और नारायण जानकर एक क्षण में उनके लिए सुन्दर नगरी की रचना कर दी। अनेक सेवक स्वामी रामचन्द्र की सेवा में संलग्न हो गये। इसका नाम रामपुरी था। इसकी शोभा का वर्णन अयोध्यापुरी के सदृश था। अनन्तर प्रात:काल वही कपिल ब्राह्मण हँसिया लेकर लकड़ी काटने जंगल में गया और इतनी विशाल मनोरम, मन्दिरों से सहित नगरी को देखकर अनेकों कल्पनाएँ करता हुआ आश्चर्य में डूब गया और वहाँ की एक स्त्री से पूछने लगा। उसने बताया कि यहाँ के राजा रामचन्द्र हैं, महारानी सीता हैं। जो भव्य हो, अर्हंत देव का परमभक्त हो, अणुव्रती हो, मुनियों को आहार दान देता हो, उस पर ये संतुष्ट होकर खूब द्रव्य देते हैं। बस, ब्राह्मण बेचारा लकड़ी का गट्ठा पटककर शीघ्र ही जिनमन्दिर में मुनिराज के पास आकर अणुव्रती बन गया और श्रावक की सारी बातें सीख लीं। घर जाकर ब्राह्मण को भी सारी बातों से अवगत कराकर वहाँ गुरू के पादमूल में जैनधर्मिणी बना दिया।
पुन: जिनवन्दना के बाद
पुन: जिनवन्दना के बाद वह श्रीराम के दर्शनों को गया। वहाँ दूर से ही लक्ष्मण को देखकर पहचानकर पूर्व घटना की याद कर काँपने लगा। उसकी बोलती बन्द हो गयी। वह सोचने लगा कि अब मैं क्या करूँ? किस वन में घुस जाऊँ? आज मुझे कहाँ शरण मिलेगी? वह घबराकर जोर से भागा। तब लक्ष्मण ने उसे देखा। हँसकर और बुलाकर सान्त्वना दी। तब वह अंजलि में पुष्प लेकर अनेक स्तोत्रों से श्रीरामचन्द्र की स्तुति करने लगा। हे ब्राह्मण! उस समय हम लोगों को वैसा तिरस्कार कर अब पूजा क्यों कर रहे हो, सो तो बताओ। उसने कहा हे देव! मैंने नहीं जाना था कि आप प्रच्छन्न महेश्वर हो। हे जगन्नाथ! जगत की यही रीति है कि धनवान की ही सदा पूजा होती है। इत्यादि रूप से अपनी निन्दा करते हुए उसने कहा-हे देव! उस समय जो मैंने आतिथ्यक्रिया नहीं की, उसका मुझे सदा ही संताप रहेगा। अनन्तर वह शोकाक्रान्त हो रोने लगा। तब राम ने उसे बहुत कुछ समझाया। सीता ने उसकी भार्या को समझाया। उसे भोजन-पान आदि से तृप्त कर बहुत-सा धन प्रदान किया। वह ब्राह्मण भी राम से सत्कार पाकर मालामाल हो गया। तदनन्तर उस ब्राह्मण का मन पश्चाताप से जला करता था। उसने सोचा जब तक मैं जैनेश्वरी दीक्षा न ले लूँ, तब तक मेरे मन को शान्ति नहीं मिलेगी। अत: सभी परिजनों से ममता छोड़कर उस कपिल ब्राह्मण ने मुनिराज के चरणों में पहँुचकर दिगम्बर मुनि की दीक्षा ले ली और निग्र्रन्थ रूपधारी तप लक्ष्मी से आलिंगित होते हुए पृथ्वी तल पर विहार करने लगे। सुधा-इस प्रकार ये लोग वनवास में कितने ही अपमान और सम्मानों को झेले होंगे। शशिप्रभा-ये लोग महामना, गम्भीर, धीर, वीर थे। सागर के समान मर्यादा के रक्षक थे। तभी तो आज ये रामचन्द्र मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं। देखो! तभी तो इन्होंने ब्राह्मण के तिरस्कार का फल सत्काररूप से चुकाया।