करणानुयोग से संबंधित प्रस्तुत लेख में जैन शास्त्रों में वर्णित तीन लोक से संबंधित विभिन्न विसंगतियों पर चर्चा की गई है। लेख का मुख्य आधार प्राकृत भाषा का ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति है। जैन साहित्य में तीन लोक का वर्णन तत्वार्थ सूत्र (अध्याय तीन), तत्वार्थसार, तिलोयपण्णत्ती, षट्खंडागम , जम्बूद्धीप—प्रज्ञप्ति, लोक विभाग, हरिवंश पुराण एवं त्रिलोकसार आदि ग्रंथों में मिलता है। तिलोयपण्णत्ती ग्रंथ का रचनाकाल ईसा की २—७ शताब्दी है जबकि षट्खंडागम का रचना काल ईसा की प्रथम शताब्दी है। श्वेतांबर आचार्य सर्वनन्दी की रचना लोकविभाग, तिलोयपण्णत्ती से पूर्व की बतायी जाती है किन्तु इसकी प्राचीन कृति उपलब्ध नहीं है। जैन वांगमय में लोकाकाश एवं अलोकाकाश का वर्णन मिलता हैं। लोकाकाश में ६ द्रव्यों की उपस्थिति है किन्तु अलोकाकाश् में इनका अभाव है। लोकाकाश तीन भागों में विभाजित है। अधोलोक, मध्यलोक एवं उध्र्वलोक। हमारी सिद्धात्मा उध्र्वलोक एवं अलोकाकाश की सीमा पर स्थापित रहती है।
तिलोयपण्णत्ती में कहा है:—
तंमज्झे मुहमेकंकभेमि जहा होदि सत्त रज्जूवो।
तह छिंदिदम्मि मज्हे हेटिठ मलोयस्य आयारो।
तिलोयपणत्ती, प्रथम अधिकार, श्लोक १३९
अधोलोक का आधार ७ राजू, मुख १ राजू और ऊँचाई सात राजू हैं। इसका घनफल १९६ घनराजू आता है जो कि लम्ब से क्षेत्र के घनफल के सूत्र से आता है।तिलोयपण्णत्ति के गणित में लेखक ने तीन विधियों से अधोलोक का घनफल ज्ञात किया है। विश्व प्रहेलिका मेु युक्लिडीय भूमिती के आधार पर अधोलोक के आयतन के लिए निम्न सूत्र का उपयोग किया है:— आयतन = ७ o ४x2 d२ , १९६ X२ + १८z२ + २१०z – २४०१ = ० इस प्रकार अधोलोक का चित्र सीधी रेखा के स्थान पर वक्र रेखा को लिया हैं। इसमें राजू लंबी—चौड़ी त्रयनाली भी दिखाई जा सकती हैं। यह एक आधुनिक दृष्टि है। अधोलोक में क्रम से सात पृथ्वियों एवं सात नरकों का वर्णन मिलता है। तिलोयपण्णत्ती के ही अनुसार सात पृथ्वियों के नाम निम्नवत् हैं वही, वही, श्लोक १५२ मील रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालूकाप्रभा ,पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा एवं महातमप्रभा। इनकी मोटाई (चौड़ाई) एक राजू है।
राजू के विभिन्न मान:
(१)जी.आर. जैन के अनुसार १ राजू १.४५²१०२१ (२) मुनि श्री महेन्द्र कुमार द्वितीय के अनुसार १ राजू ·७.४४²१०(१.४²१०१९६±२०) मील। यह संख्या १९७ अंको की आती हैं दोनों मानों में बहुत अंतर है। इन मानों के अनुसार ७ राजू का मान २२ अंको की संख्या अथवा १९८ अंको की संख्या आती है। वर्तमान विश्व में पृथ्वी का व्यास ८००० मील है और उसमें ये सातों पृथ्वियाँ नहीं आ सकती क्योंकि राजू का मान १००० मील से कई गुना अधिक है। यहां पर यह सहज प्रश्न उठता हे कि ये सातों पृथ्वियां ब्रह्माण्ड में किस जगह पर हैं। वैदिक भूगोल में भी सात पातालों का वर्णन है जिसमें प्रत्येक की ऊँचाई (मोटाई) १० हजार योजन है। इसके अनुसार अधोलोक की उँचाई
२. ८²१०८ मील आती है जो कि पृथ्वी के व्यास की तुलना में बहुत ब़ड़ी संख्या है। हमारे शास्त्र तीनों लोकों को जुड़ा हुआ मानते हैं अर्थात अधोलोक एवं मध्यलोक परस्पर जुड़े हुए हैं। मध्यलोक में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में भारत वर्ष है। इससे सिद्ध होता है कि अधोलोक भी इसी पृथ्वी पर होना चाहिये।
मध्यलोक:—
तिलोयपण्णत्ती के पंचम अध्याय में कहा है।
मंदरगिरी झूलावों इगिलक्खं जायेपाणि बहुलग्मि।
रज्जूय पदरखेते चिठ् ठेदि तिरियत सलोओ।।
वही, पंचम अधिकार, श्लोक ६
मंदर पर्वत के मूल से एक लाख योजन योजन उँचा एवंएक राजू लंबे चौड़े में तिर्यक त्रसनाली स्थित है। मध्यलोक का घनफल अलग से ज्ञात नहीं दिया गया। किन्तु ऊध्र्वलोक के साथ ही इसका घनफल निकाला गया है। तिलोयपण्णत्ती अध्याय ५ के अनुसार सबके मध्य में एक लाख योजन प्रमाण (व्यास) वाला जम्बूद्वीप है।वही, वही, श्लोक १३—१६ तत्पश्चात दो लाख योजन प्रमाण का लवण समुद्र, चार लाख योजन का धातकी खंड, आठ लाख योजन का कालोदधि समुद्र और सोलह लाख योजन का पुष्करवर द्वीप। इसके आधे भाग में मानुषोत्तर पर्वत है जिसके आगे मनुष्य नहीं होते हैं। अतएव इन अढ़ाई द्वीप में ही मनुष्य पाये जाते हैं।इनमें ५ भरत तथ ५ ऐरावत क्षेत्र के भूत, वर्तमान एवं भविष्य के २४ तीर्थंकरों का अर्ध चढ़ाया जाता है जो ७२० तीर्थंकरों के लिए होता हैं। इसी प्रकार ५ विदेह क्षेत्र में विद्यमान १०० तीर्थंकरों की वंदना होना चाहिये।
यहां निम्न प्रश्न सहज ही उठाये जाते हैं?
(१) क्या मानुषोत्तर पर्वत ही हमारी वर्तमान पृथ्वी की सीमा तो नहीं है? कारण इस पृथ्वी के अलावा अभी कहीं भी मनुष्य जीवन के चिन्ह नहीं मिले हैं।
(२) क्या उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव मानुषोत्तर पर्वत के पश्चात के क्षेत्र तो नहीं हैं? वहां पर मनुष्य नहीं होते हैं? वहाँ पर मनुष्य नहीं होते हैं ? तिलोपण्णत्ती में इस तरह अभ्यतंर भाग में १६ द्वीपों और १६ समुद्रों के नामों का वर्णन किया है जिसका व्यास उत्तरोत्तर दुगुना होता जाता है। इसके पश्चात एक ही नाम के असंख्यात द्वीप एवं समुद्र हैं। बाह्य भाग में भी १६ समुद्र और १६ द्वीपों के नाम दिये हैं। अंतिम समुद्र स्वयंभूरमण है और उसका बाहुल्य (व्यास) एक राजू हैवही, वही, श्लोक ८। यदि हम मध्य क्षेत्र में असंख्यात द्वीपों की संख्या ह मान लें तो १ राजू ·(२ह+१–३)²१०५ योजन वैदिक भूगोल ² अनुसार ७ द्वीप ±७ समुद्र हों तो १राजू
(३) 2७६८²१०९ योजन यदिह·६४, तो १ राजू ·३.६९²१०२४ योजन यदिह·१००, तो १ राजू·२५४²१०३५ योजन द्वीपों और समुद्रों के बर्णन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इनमें एक सातत्य है। इस पृथ्वी पर यह स्थिति वर्तमान में दृष्टिगोचर नहीं होती है।
इसके दो संभावित कारण हो सकते हैं।
(१) समय के कारण पृथ्वी के भूगोल में परिवर्तन। इसे जैन धर्मग्रन्थों में षट्काल परिवर्तन के अन्तर्गत माना गया है।
(२) धार्मिक प्रतिस्पर्धा में अधिक द्वीपों एवं समुद्रों का वर्णन। मध्यलोक का वर्णन वैदिक भूगोल में भी मिलता है। इसमें सात द्वीप और सात समुद्रों का वर्णन है और उनका व्यास भी समान है। वैदिक भूगोल के अनुसार १ राजू ·१.४²१०६ योजन आता है। अतएव राजू के मान में पर्याप्त विसंगति है। जैन परम्परा में इसे असंख्यात माना गया है, किन्तु इस पर शोध कार्य की बहुत संभावनाऐं हैं।
उध्र्वलोक:
तिलोयपण्णत्ति प्रथम अधिकार के अनुसारएक्केक्क
रज्जुमेतत्ता उवरिमलोयस्य होंति मुहवासा।
हेठ्ठावरिभूवासा पण रज्जू सेढ़ि
अहमदमुच्छेहोंवही, प्रथम अधिकार श्लोक १९२।।
उर्ध्वलोक का नीचे और मुख का विस्तार एक—एक राजू, भूमि का विस्तार ५ राजू, उँचाई भूमि से मुख तक ३ राजू और भूमि और भूमि से नीचे ३ राजू है। मध्यलोक सहित उध्र्वलोक का घनफल १४७ घन राजू आता है तथा कुल घनफल ३४३ घन राजू होता है। उध्र्वलोक में एक राजू लंबी एवं चौड़ी त्रसनाली में १६ स्वर्ग हैं जिनके नाम निम्नवत् हैं:— सौधर्म, ईशान, सनतकुमार, महेन्द्र, ब्रह्म ब्रहमोत्तर, लान्तव, काविष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहस्रार, आनत, प्रानत, आरण एवं अच्युत। सौधर्म से लेकर ब्रहमोत्तर तक उध्र्वलोक की चौड़ाई एक राजू से पाँच राजू तक बढ़ती है तत्पश्चात लान्तव से अच्युत तक घटकर एक राजू रह जाती है। १६ वें स्वर्ग के पश्चात नवग्रीवक, नव अनुदिशा और पंच अनुत्तर है।
इसके पश्चात सिद्धालय है। तिलोयपण्णत्ती के अनुसार उध्र्वलोक का आकार खड़े हुए मृदंग के आकार का हैवही, वही, श्लोक १३८ किन्तु इसी में अन्यत्र उध्र्वलोक का घनफल निकालने के लिए आयताकार आकृति का प्रयोग किया गया हैवही, वही, श्लोक १९३—१९९ ।जो कि एक विसंगति प्रतीत होती है। विश्व प्रहेलिका में तीन लोक का आयतन (Eल्म्त्ग्दह) युक्लिडीय भूमिति के आधार पर निकाला गया है। इसमें मध्यलोक से आधे उध्र्वलोक तक आयतन १४७/२ घन राजू आता है। आधे ऊध्र्वलोक से ऊपर लोकाकाश की अंतिम सीमा तक का घनफल १४७/२ घन राज आता है। इस प्रकार तीन लोक का कुल घनफल ३४३ घन राजू आता है। जो कि तिलोयपण्णत्ती के घनफल से मेल खाता है। यदि हम अयुक् लिंडीय आधार पर तीन लोक को मानें तो हमारी तीन लोक की आकृति का चित्र दूसरा ही हो जावेगा। जिसे हमारे विद्वान स्वीकार करेगें या नहीं? यह विचारणीय है। जैन भूगोल के अनुसार मध्यलोक के पश्चात १६ स्वर्ग क्रमश: उपर की ओर हैं। वर्तमान विश्व के मानचित्र में इनकी स्थिति कहां होगी? यह कोई नहीं जानता है। निष्कर्षत: जैन ग्रन्थों में उपलब्ध भूगोल एवं लोक विषयक विवेचनों पर सम्यक अनुसंधान की आवश्यकता है, उपेक्षा की नहीं।
(३) तिलोयपण्णत्ती, भाग १,२ (प्राकृत—हिन्दी), यतिवृषभचार्य, संपादक और अनुवादक डा. ए. एन. उपाध्ये और डा. हीरालाल जैन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर—१९४५
(४) विश्व प्रहेलिका, मुनिश्री महेन्द्रकुमार जी द्वितीय, जवेरी प्रकाशन, माटुंगा—बम्बई,१९६९
(५) तिलोयपण्णत्ती का गणित (हिन्दी), लक्ष्मीचंद्र जैन, जबलपुर, १९५८