त्रिशला-माताजी! जैसे तीर्थंकर किसी को गुरु नहीं बनाते हैं, स्वयं दीक्षा लेते हैं, वैसे ही यदि आजकल कोई पुरुष स्वयं दीक्षा ले लेवें, तो क्या बाधा है?
आर्यिका-त्रिशला! तीर्थंकर के सिवाय अन्य साधारण जनों को स्वयं दीक्षा लेने का आगम में विधान नहीं है। देखो! तीर्थंकर भी पूर्व भव में गुरुओं के पादमूल में ही दीक्षा लेते हैं, उन्हीं के पादमूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं। बिना गुरु के आश्रय के तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता है। गोम्मटसार कर्मकांड में कहा है-
पढमुवसमिये सम्मे, सेसतिये अविरदादि चत्तारि।
तित्थयर बन्ध पारम्भया णरा केवलि दुगन्ते।।९३।।
प्रथमोशम सम्यक्त्व अथवा दोष द्वितीयोपशम, क्षायोपशम और क्षायिक सम्यक्त्व की अवस्था में चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक चार गुणस्थान वाले मनुष्य ही केवली भगवान अथवा द्वादशांग पारगामी श्रुतकेवली के निकट ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ करते हैं। इसलिए तीर्थंकर के सिवाय किसी को भी स्वयं दीक्षा लेने का विधान नहीं है। दूसरी बात यह है कि गुरु दीक्षा देते समय दीक्षार्थी को मंत्रों से संस्कारित करते हैं और व्रत देते हैं।
त्रिशला-माताजी! तीर्थंकरों के पूर्वभव के गुरुओं के नाम हमें बतलाइये?
आर्यिका-सुनो! वङ्कानाभि चक्रवर्ती ने अपने माता-पिता तीर्थंकर वङ्कासेन के समीप दीक्षा ली थी और उन्हीं के समीप सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन करके तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था। अंत में उत्तम संन्यास विधि से मरण करके सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, वे ही भगवान ऋषभदेव हुए हैं। राजा विमलवाहन ने अरिन्दम गुरु के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अभ्यास करके सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति बांध ली, अन्त में अहमिन्द्र के सुख भोगकर अजितनाथ हुए हैं। राजा विमलवाहन ने स्वयंप्रभजिनेन्द्र के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त करके सोलहकारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। पुन: प्रथम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र होकर संभवनाथ तीर्थंकर हुए हैं। राजा महाबल विमलवाहन गुरु के समीप दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों के पाठी होकर सोलहकारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति को बांधकर विजय अनुत्तर में अहमिन्द्र हुए पुन: अभिनंदन तीर्थंकर हुए हैं। ऐसे ही राजा रतिषेण पिहितास्रव जिनेन्द्र के पादमूल में दीक्षित होकर ग्यारह अंगों में पारंगत होकर तीर्थंकर प्रकृति बांधकर ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए पुन: पद्मप्रभ तीर्थंकर हुए हैं। राजा नन्दिषेण ने अर्हन्नंदन मुनि को अपना गुरु बनाकर तीर्थंकर प्रकृति बांध ली। अनन्तर मध्यम ग्रैवेयक से आकर सुपार्श्वनाथ हुए हैं। राजा पद्मनाभ श्रीधर जिनराज से दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए पुन: चन्द्रप्रभ तीर्थंकर हुए हैं। राजा महापद्म भूतहित जिनराज के समीप दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर प्राणत स्वर्ग के इन्द्र हुए पुन: पुष्पदंत तीर्थंकर हुए हैं। राजा पद्मगुल्म आनन्द मुनिराज के समीप दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों को पढ़कर तीर्थंकर प्रकृति को बांध करके पंद्रहवें स्वर्ग में इन्द्र हुए अनन्तर शीतलनाथ तीर्थंकर हुए हैं। राजा नलिनप्रभ अनन्त जिनेश्वर के समीप दीक्षित होकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके सोलहवें स्वर्ग के इन्द्र हुए पुन: श्रेयांसनाथ हुए हैं। राजा पद्मोत्तर ने युगन्धर जिनराज के पादमूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया पुन: महाशुक्र के इन्द्र होकर वासुपूज्य भगवान हुए हैं। राजा पद्मसेन स्वर्गगुप्त केवली के समीप दीक्षित होकर तीर्थंकर प्रकृति बांध करके सहस्रार स्वर्ग में अहमिन्द्र हुए पुन: विमलनाथ भगवान हुए हैं। राजा पद्मरथ स्वयंप्रभ जिनेश्वर के समीप दीक्षित होकर तीर्थंकर प्रकृति बंध करके अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए हैं पुन: अनन्तनाथ हुए हैं। राजा दशरथ चित्तरक्ष गुरु से दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र पद का सुख भोग करके धर्मनाथ तीर्थंकर हुए हैं। राजा सिंहरथ ने यतिवृषभ को गुरु बनाकर तीर्थंकर प्रकृति बांध ली, अन्त में सर्वार्थसिद्धि से आकर कुंथुनाथ तीर्थंकर हुए हैं। राजा धनपति ने अर्हन्नंदन तीर्थंकर से दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति बांध करके अहमिन्द्र पद पाया पुन: अरनाथ तीर्थंकर हुए हैं। राजा वैश्रवण ने श्रीनाग मुनिराज के समीप दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति को बांधकर अहमिन्द्र पद प्राप्त किया पुन: मल्लिनाथ तीर्थंकर हुए हैं। राजा हरिवर्मा ने अनन्तवीर्य मुनिराज के निकट संयम धारण कर तीर्थंकर प्रकृति बांधी पुन: प्राणत स्वर्ग के इन्द्र होकर मुनिसुव्रत तीर्थंकर हुए हैं। राजा सिद्धार्थ ने महाबल केवली के पादमूल में दीक्षित होकर तीर्थंकर प्रकृति बांधी पुन: अहमिन्द्र के सुख को भोगकर नेमिनाथ हुए हैं। राजा सुप्रतिष्ठ ने सुमन्दर जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया, पुन: अहमिन्द्र सुख को भोगकर भगवान नेमिनाथ हुए हैं। राजा आनन्द ने समुद्रगुप्त मुनिराज के समीप दीक्षा ली थी, तीर्थंकर प्रकृति बांधकर अन्त में अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए, वहाँ से आकर भगवान पार्श्वनाथ हुए हैं। राजा नन्द ने प्रौष्ठिल नाम के गुरु के समीप संयम धारण किया और तीर्थंकर प्रकृति को बांध करके अन्त में अच्युत स्वर्ग के इन्द्र पद को प्राप्त किया अनन्तर भगवान महावीर हुए हैं। इनमें भगवान ऋषभदेव पूर्वभव में चक्रवर्ती थे तथा मुनि अवस्था में चौदह पूर्वों के धारक थे और शेष तीर्थंकर पूर्वभव में महामण्डलेश्वर थे तथा मुनि अवस्था में ग्यारह अंग के वेत्ता थे। ये सभी तीर्थंकर पूर्वभव में भी सुवर्ण के समान कान्ति वाले थे, सभी ने पूर्व भव में दीक्षित अवस्था में सिंहनिष्क्रीडित तप कर एक महीने के उपवास के साथ प्रायोपगमन संन्यास धारण किया था और यथायोग्य स्वर्गों में उत्पन्न हुए थे।
त्रिशला-आज मुझे तीर्थंकरों के पूर्व भवों की विशेषता और उनके गुरुओं का नाम जानकर बहुत खुशी हुई है।