बेवकूफी का पुरूषों का नमूना तो दिख गया जीरा वाली कथा में अब उसी गाँव की एक महिला से भी रूबरू हो जाइए। उस भद्र महिला ने सोने की चूड़ियों का बढ़िया सेट बनवाया। पहन कर पूरे गांव में फिरी पर किसी ने उसकी चूड़ियों को न तो ध्यान से निहारा और न तद्विषयक संवाद किया। भद्र महिला को बड़ी विरक्ति हुई। विरक्ति से क्रोध भी आया घर के पास बाड़ा था। उसमें आग लगा दी। छोटा सा गाँव था। आग लगी-आग लगी के समाचार तुरन्त फैल गए और पुरूष तो प्राय: काम पर गये थे सो कम ही पहुँचे पर मातृ शक्ति की पर्याप्त उपस्थिति हो गई। सभी ने भद्र महिला से एक ही सवाल पूछा- ‘आग कैसे लगी ?’ उसने अपनी चूड़िया दिखाते हुए कहा- ‘मैं तो इन चूड़ियों को तिजोरी में रखने जा रही थी और अचानक आग लग गई। सबने आग का प्रकरण छोड़ा और चूड़ी प्रकरण शुरू हो गया। ’‘कब बनवाई ? किससे बनवाई ? कितने तोले की बनी ? डिजाइन तो लेटेस्ट है न?’ अब भद्र महिला ने कहा- यदि ये सारी बातें मैं पूरे गांव में ये चूड़ियाँ पहन कर फिरी तब पूछ ली होती तो बाड़े में आग क्यों लगाती?’ नीतिकार तो कहते हैं कि घड़ा फोड़ कर, कपड़े फाड़ कर गधे पर बैठ कर येन केन प्रकारेण व्यक्ति प्रसिद्धि चाहता है। जो प्रसिद्धि चाहता है वह सिद्धि नहीं चाहता है। सिद्धि और प्रसिद्धि के मार्ग एक दूसरे के विपरीत हैं। प्रसिद्धि हो जाना अलग चीज है और चाहना अलग चीज है। चाहना छाया के सामने चलने के समान है। छाया आगे आगे चलती है। जब छाया की ओर पीठ कर दी जाती है तब छाया पीछे पीछे आती है। पूर्वज महापुरूष तो यह भी स्थापना कर गये कि कीर्ति अभी तक कुंवारी ही है। वह वृद्धा हो गई फिर भी कुंवारी ही क्यों है ? क्योंकि जो उसके साथ विवाह करना चाहते हैं उन्हें वह दुत्कार देती है और वह जिनके साथ वरण करना चाहती है उसे वे दुत्कार देते हैं।