दूसरों को जो सुनाने हैं, चला सुन लिया है क्या उसे खुद गौर से। हर मनुष्य किसी न किसी धर्म या मत का अनुयायी होता है। बचपन से ही वह अपने धर्म के बारे में सुनने लग जाता है। उसे यह पाठ अच्छी तरह पढ़ा दिया जाता है कि उसका धर्म दूसरों के धर्म से अच्छा है। वह अपने धर्म को दूसरों के धर्म से अच्छा समझे और उसी के अनुसार अपने जीवन को चलाये। बाल्यकाल का सीखा हुआ पाठ युवावस्था में और भी अच्छी तरह याद हो जाता है। अपने ही धर्म के लोगों के बीच विशेष धर्म—चर्चा एवं धार्मिक कार्यक्रमों के द्वारा वह अनुभव करता है कि वस्तुत: उसका धर्म ही अधिक उपादेय है। अपने धर्म के प्रति श्रेष्ठता का यह संस्कारजन्य भाव उसके मन में दूसरे धर्मो के प्रति दूरी का भाव जगा देता है। वह जितना महत्व अपने धर्म के अनुयायियों को देता है, उतना दूसरे धर्म वालों को नहीं देता। यह स्वाभाविक भी है और अनुचित भी नहीं। अगर अपने धर्म के प्रति सच्चा समपर्ण हो तो इसमें व्यक्ति का कल्याण हो जाता है। समस्या तो तब उत्पन्न होती है, जब अपने धर्म की श्रेष्ठता के गुणगान में व्यक्ति दूसरे धर्मों के बारे में अनावश्यक टिप्पणी करता है। धर्म के बारे में प्राय: यही देखने में आया है कि व्यक्ति अपने धर्म ग्रन्थों के अलावा दूसरे धर्म ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करता। उसे अन्य धर्मों के बारे में प्राय: न के बराबर जानकारी होती है। जब तक सभी धर्मों के बारे में गम्भीर अध्ययन नहीं होता, एक धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ या हीन बताना किसी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता है। फिर भी लोगों में यही प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रवृत्ति के कारण धर्म के नाम पर झगड़े एवं मारकाट होती है। हम धर्म के प्रश्न पर खूब गहराई से विचार करें। धर्म केवल वाणी का विषय नहीं है। धर्म विषय है आचरण का। जब धर्म का आचरण में अवतरण होता है तो सारे विवादों से मुक्त हो जाता है। फिर यह धर्म अच्छा या यह धर्म बुरा वाली बात ही नहीं रह जाती । फिर तो सभी धर्मों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है । सब धर्मों की आवश्यकता का अनुभव होने लगता है। विचारणीय बात यह है कि क्या हम सब धर्म पर चर्चा करने से पहले स्वयं धर्म को अपने जीवन में उतार लेते हैं । अगर धर्म को धारण नहीं किया जाता तो उसकी महिमा के गुणगान गाना कहां तक उचित है ? धर्म के विषय में विश्वसनीय बात होती है स्वयं अपना अनुभव। बिना आचरण के केवल धर्म का गुणगान करना प्रभावी सिद्ध नहीं होता। जब तक हम किसी बात का स्वयं अनुभव नहीं कर लेते, उसके बारे में इत्थंभूत वाली बात संशय युक्त ही होती है। जरूरत इस बात की है कि हम पहले अपने धर्म के अनुसार अपने जीवन को बनायें। जब धर्म जीवन में उतर जाय, तब हम इस विषय पर अपने विचार प्रस्तुत करें। अपना अनुभव लोगों को बतायें। लोग तब हमारी बात को अवश्य सुनेंगे। सुनी हुई बात को जीवन में भी उतारेंगे। जब तक व्यक्ति स्वयं धार्मिक नहीं होगा, उसकी वाणी का लोगों पर जरा भी असर नहीं पड़ेगा। जीवन में परिवर्तन वही लोग ला सकते हैं जो स्वयं अपना जीवन उन्नत बना लेते हैं। उन्नत जीवन की सामान्य बात भी असामान्य प्रभाव अंकित करती है, लोगों का मार्गदर्शन करती है और उनको आनन्द की उपलब्धि करा सकती है।