—ब्र० धमेन्द्र जैन
विकास प्राधिकरण (प्राकृत) राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, जयपुर-परिसर,त्रिवेणी नगर ,जयपुर- राज०
सारांशप्राकृत भाषा का ही विकसित सरल रूप अपभ्रंश भाषा है। इसका साक्षात् सम्बन्ध हिन्दी भाषा से है तथा पश्चिमोत्तर भारत की अन्य भाषाओं का स्रोत भी यही अपभ्रंश भाषा मानी जाती है। ७वीं शताब्दी के बाद अपभ्रंश भाषा में विपुल साहित्य लिखा जाने लगा था। १०वीं से १७वीं शताब्दी तक तो साहित्य की अनेक विधाओं में अपभ्रंश भाषा के साहित्य का सृजन हुआ। पिछले २०० वर्षों में अपभ्रंश साहित्य के लेखन, पठन—पाठन की परम्परा लुप्तप्राय हो गई थी। तब डॉ. हर्मन जैकोबी, रिचर्ड पिशेल, पिटर्सन, डॉ. आल्सडॉर्प एवं डॉ. गुणे, पी. एल. वैद्य, डॉ. हरिवल्लभ भायाणी, डॉ, हीरालाल जैन आदि देशीय एवं वैदेशिक विद्वानों ने वर्तमान में अपभ्रंश जगत् में अध्ययन/अनुसंधान/ सम्पादन की क्रान्ति उत्पन्न की थी। इस क्रान्ति—सूर्य की कुछ किरणें विकीर्ण हुई किन्तु, आज भी प्राकृत—अपभ्रंश के कई प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन/अनुसंधान सम्पादन शेष है। यह कार्य अनेक शताब्दियों की अपेक्षा रखता है।
प्राकृत—अपभ्रंश की हजारों पाण्डुलिपियाँ अभी ग्रंथ भण्डारों में हैं, जिनका सम्पाद/अनुवाद शेष है। सम्पादन/अनुवाद तो बहुत दूर की बात है, किन्तु प्राकृत, अपभ्रंश पाण्डुलिपियों की अद्यावधि एक व्यवस्थित अनुक्रमणिका भी तैयार नहीं है। गुजरात और राजस्थान में प्राकृत—अपभ्रंश भाषा की सर्वाधिक पाण्डुलिपियाँ हैं। राजस्थान के जयपुर शहर में भी प्राकृत—अपभ्रंश की सैंकड़ों असम्पादित दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ विद्यमान हैं। पाण्डुलिपियों की खोज में एक दंसणकहरयणकरंडु नामक पाण्डुलिपि की अनेक प्रतियाँ जयपुर के अनेक भण्डारों में विद्यमान हैं। यह ग्रंथ जैनपरम्परानुसार श्रावक की आचार संहिता का विस्तर से वर्णन करता है। आचार संहिता परक ग्रंथ होने पर भी इसमें काव्यात्मक गुणवत्ता है। अत: इसे काव्य कोटि का ग्रंथ कहा जा सकता है। दंसणकहरयणकरंडु ग्रंथ दर्शनशास्त्र, आचार शास्त्र एवं भारतीय जीवनमूल्यों की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्राकृत भाषा का ही विकसित सरल रूप अपभ्रंश भाषा है। इसका साक्षात् संबंध हिन्दी भाषा से है तथा पश्चिमोत्तर भारत की अन्य भाषाओं का स्रोत भी यही अपभ्रंश भाषा मानी जाती है। ७वीं शताब्दी के बाद अपभ्रंश भाषा में विपुल साहित्य लिखा जाने लगा था। १०वीं से १७वीं शताब्दी तक तो अपभ्रंश साहित्य की अनेक विधाओं में अपभ्रंश भाषा का साहित्य सृजन हुआ। पिछलु २०० वर्षों में अपभ्रंश साहित्य के लेखन, पठन—पाठन की परम्परा लुप्त प्राय: हो गई थी। तब डॉ. हर्मन जैकोबी, रिचर्ड पिशेल, पिटर्सन, डॉ. आल्सडॉर्प एवं डॉ. गुणे, पी. एल. वैद्य, डॉ. हरिवल्लभ भायाणी, डॉ, हीरालाल जैन आदि देशीय एवं वैदेशिक विद्वानों ने वर्तमान में अपभ्रंश जगत् में अध्ययन/अनुसंधान/सम्पादन की क्रान्ति उत्पन्न की थी। इस क्रान्ति—सूर्य की कुछ किरणों विकीर्ण हुई किन्तु, आज भी प्राकृत—अपभ्रंश के कई प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन/अनुसंधान/सम्पादन शेष है। यह कार्य अनेक शताब्दियों की अपेक्षा रखता है। प्राकृत—अपभ्रंश की हजारों पाण्डुलिपियाँ अभी ग्रंथ भण्डारों में हैं, जिनका सम्पादन/ अनुवाद शेष है। सम्पादन/अनुवाद तो बहुत दूर की बात है, किन्तु प्राकृत अपभ्रंश पाण्डुलिपियों की अद्यावधि एक व्यवस्थित अनुक्रमणिका भी तैयार नहीं है। गुजरात और राजस्थान में प्राकृत—अपभ्रंश की सैंकड़ों असम्पादित दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ राजस्थान के जयपुर शहर में भी प्राकृत—अपभ्रंश की सैकड़ों असम्पादित दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ विद्यमान हैं। पाण्डुलिपियों की खोज में एक दंसणकहरयणकरंडु नामक एक पाण्डुलिपि की अनेक प्रतियाँ जयपुर के अनेक भण्डारों में विद्यमान हैं। जिनका परिचय क्रमश: इस प्रकार है—
(१) आमेर शास्त्र—भण्डार, अपभ्रंश साहित्य—अकादमी, नारायण सिंह र्सिकल, सवाईमानिंसह रोड, जयपुर इसमें दंसणकहरयणकरंडु की ५ प्रतियाँ विद्यमान हैं। ये सभी प्रतियाँ अलग—अलग समय की है।
१. वेष्ठन सं. ८७८—यह पाण्डुलिपि वि. सं. १५८२ की है। इसकी प्रशस्ति में ऐसा उल्लेख है। १५९ पत्रों वाली यह पाण्डुलिपि है और सुस्पष्ट अक्षरों वाली है, घंटियालीपुर स्थान में यह लिखी गई थी।
२. दूसरी पाण्डुलिपि भी आमेर शास्त्र भण्डार में है। इसका वेष्ठन सं. ८७९ है। लिपिकाल सं. १५८९ है। पत्र संख्या १२३ है। यह पाण्डुलिपि पूर्ण है। यह पूर्णत: भीग गई थीं इसका जीर्णोद्धार कराया गया है। राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन की पाण्डुलिपि संरक्षणशाला में चिपके पत्रों को अलग कराकर इस पाण्डुलिपि को सुरक्षित किया गया है। इसका लेखन स्थान चम्पावती है, ऐसा प्रशस्ति में उल्लेख है।
३. तीसरा वेष्ठन सं. ८८० है। पत्र सं. १५७ है। इस पाण्डुलिपि का लिपि काल संवत् १५६३ है। इसके पत्र भी चिपक गये थे। राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन की संरक्षणशाला में इसका उपचार कराकर इसे सुरक्षित किया है। इसकी प्रशस्ति अपूर्ण है।
४. वेष्ठन सं. ८८१ है। पत्र सं. १४५ है। यह प्रति भी भीग गई थी। इसको राष्ट्र्रीय मिशन की पाण्डुलिपि मिशन की सरंक्षणशाला में इसका उपचार कराकर इसे सुरक्षित किया है। इस पाण्डुलिपि का लिपिकाल संव १६१४ है। यह भी स्पष्ट अक्षरों वाली है।
५. वेष्टन सं. ८८२ है। पत्र संख्या १८९ है। लिपिकाल १५८२ है। इसकी प्रशस्ति अपूर्ण है। दिगम्बर जैन महासंघ, तेरापंथी बड़ा मन्दिर में भी दंसणकहरयणकरंडु नामक ग्रंथ की ३ प्रतियाँ उपलब्ध हैं। प्रथम पाण्डुलिपि की वेष्टन संख्या १४९० है। क्रमांक १६९१ है। इसमें १४२ पत्र है। यह अत्यन्त जीर्ण और अस्पष्ट है। पत्र संख्या १ फटा है । पत्र संख्या १३७ नहीं है। दूसरी प्रति का वेष्टन संख्या १४९१ है। इसका क्रमांक १६९२ है। यह प्रति अपूर्ण तथा प्रशस्ति रहित है। इसमें पत्र संख्या ६ से १२२ तक (११७) है। प्रति अत्यन्त जीर्ण है। इसको राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन की संरक्षणशाला में उपचार कराकर सुरक्षित किया है। दिगम्बर जैन तेरापंथी मन्दिर में एक प्रति और है जिसका वेष्टन संख्या २३७८ है किन्तु वह प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हो पाई है। (२) नागौर के विशाल ग्रंथ भण्डार में भी इस पाण्डुलिपि की २ प्रतियाँ हैं। ऐसी सूचना राजस्थान विश्वविद्यालय, जैन अनुशीलन केन्द्र से प्रकाशित केटलॉग द्वारा प्राप्त हुई है।
दंसणकहरयणकरंडु की रचना विक्रम सम्वत् ११२३ (ईस्वी सन् १०६६) में श्रीचंद कवि ने की थी। रचनाकर्ता श्रीचंद कवि जब श्रावक थे, तभी उन्होंने इस ग्रंथ की रचना प्रारम्भ की थी। ग्रंथकार के लिए दंसणकहरयणकरंडु की १६ संधि के बाद की प्रत्येक संधि के अन्त में पुष्पिका वाक्यों में मुनि उपाधि उल्लिखित है। इससे लगता है कि वे जीवन के उत्तरार्ध में त्याग, वैराग्य, संयम की र्मूितरूप मुनि हो गये थे। १ से १६ तक संधियों में कवि तथा पण्डित उपाधि लिखित है, इससे यह भी प्रतीत होता है कि श्रीचंद कवि इस संधि के लिखे जाने तक श्रावक अर्थात् सद्गृहस्थ ही थे। कवि और पण्डित उपाधि के सिद्ध होता है कि श्रीचंद कवि, साहित्य, दर्शन एवं अध्यात्म के उद्भट विद्वान् थे। मुनि उपाधि से उनके वैराग्य, त्याग एवं संयम का ज्ञान होता है। श्रीचंद कवि की अद्यावधि मात्र दो रंचनाएँ प्राप्त हैं—१. दंसणकहरयणकरंडु २. कहाकोसु। कहाकोसु का सम्पादन तो हो चुका है किन्तु उसका हिन्दी अनुवाद अद्यावधि नहीं हुआ है। दंसणकहरयणकरंडु का आज तक सम्पादन भी नहीं हुआ है। इसका प्रकाश प्राकृत ग्रंथ परिषद् स्वाध्याय मण्डल, जैननगर, पालडी, अहमदाबाद (गुजरात) से हुआ है। दंसणकहरयणकरंडु नामक ग्रंथ तत्कालीन कर्णनरेश के राज्य में श्रीमालपुर में लिखा गया था। कर्ण सोलंकी नरेश भीमदेव के प्रथम उत्तराधिकारी थे और उन्होंने ईस्वी सन् १०६४ से १०९४ तक राज्य किया था। श्रीमाल अपरनाम भीनमाल दक्षिण मारवाड की राजधानी थी। सोलंकी नरेश भीमदेव ने सन् १०६० में वहाँ के परमारवंशी राजा कृष्णराज को पराजित कर बन्दीगृह में डाल दिया था और भीनमाल पर अपना अधिकार जमा लिया था जो उसके उत्तराधिकारी राजा कर्ण तक स्थिर रहा प्रतीत होता है।
दंसणकहरयणकरंडु ग्रंथ प्राकृत—अपभ्रंश साहित्य का प्रतिनिधि ग्रंथ है। इसमें सन्दर्भ श्लोकों के रूप में संस्कृत भी है। इसमें जैन परम्परा के अनुसार श्रावक की आचार—संहिता का विस्तार से वर्णन है। भारतीय परम्परा में गृहस्थ कैसा होना चाहिए, इसका उत्तर इस ग्रंथ में सहजरूप से प्राप्त होता है। जैन परम्परा में सप्त परम स्थान माने गये हैं। उनमें सद्गृहस्थ को भी इन सप्त परमस्थानों में गिना है। उक्त ग्रंथ सद्गृहस्थाचार/श्रावकाचार का विस्तार में वर्णन करता है। दंसणकहरयणकरंडु ग्रंथ में २१ सन्धियाँ हैं। प्रथम सन्धि में देव, गुरु और धर्म तथा गुणदोषों का वर्णन है। इसमें ३९ कड़वक हैं। उत्तमक्षमादि दशधर्म, २२ परिषह, पंचाचार, १२ तप आदि का कथन किया है। पंचास्तिकाय और षड्द्रव्यका वर्णन भी इसी सन्धि में आया है। समस्त कर्मों के भेद—प्रभेद का कथन भी प्राप्त होता है। कवि ने नामकर्म की ४२ प्रकृतियों का विस्तार से वर्णन किया है। द्वितीय सन्धि में सुभौम चक्रवर्ती की उत्पत्ति और परशुराम के मरण का वर्णन किया गया है। तृतीय सन्धि में पद्मरथ राजा का उपसर्ग सहन, आकाशगमन, विद्यासाधन और अंजनचोरका निर्वाण—गमन र्विणत है। चतुर्थ सन्धि में अनन्तमतीकी कथा आया है। पंचम सन्धि में निर्विभीकत्सा गुण का वर्णन है। षष्ठ सन्धि में अमूढ़ दृष्टि गुण का सप्तम सन्धि में उपगूहन और स्थितिकरण के कथानक आये हैं। अष्टम सन्धि में वात्सल्यगुण की कथा र्विणत है। नवम सन्धि में प्रभावना अंग की कथा आयी है।
दशम सन्धि में कौमुदी—यात्रा का वर्णन है। ग्यारहवीं सन्धि में उदितोदय सहित उपदेशदान र्विणत है। बारहवीं सन्धि में परिवार सहित उदितोदयका तपश्चरण—ग्रहण आया है। १३वीं सन्धि में सोमश्री की कथा र्विणत है। १६वीं सन्धि में काशीदेश, वाराणसी नगरी के वर्णन के पश्चात् भक्ति और नियमों का वर्णन है। १७वीं सन्धि में काशीदेश, वाराणसी नगरी के वर्णन के पश्चात् भक्ति और नियमों का वर्णन है। १७वीं सन्धि में अनस्तमित करने वालों की कथा र्विणत हैं। १९वीं सन्धि में नरकगति के दु:खों का वर्णन किया गया है। २०वीं सन्धि में बिना जाने हुए फल—भक्षण के त्याग की कथा वर्णित है। २१वीं सन्धि में उदितोदय राजाओं की परिव्रज्या और उनका स्वर्गगमन आया है। इस प्रकार इस ग्रंथ में सम्यग्दर्शन के आठ अंग, व्रतनियम, रात्रिभोजन त्याग आदि के कथानक र्विणत है। कथाओं के द्वारा कवि ने धर्म—तत्त्व को हृदयंगम कराने का प्रयास किया है। इस प्रकार विशालकाय यह दंसणकहरयणकरंडु काव्य कोटि का ग्रंथ है। इसमें रस, छन्द तथा अलंकारों का भूरिश: प्रयोग है। ग्रंथ के नामानुसार विषय की प्रमुखता होने पर भी अन्यान्य अनेक विषयों का वर्णन प्रसंगोपात्त किया गया है।
दंसणकहरयणकरंडु ग्रंथ दर्शनशास्त्र, आचारशास्त्र एवं भारतीय जीवनमूल्यों की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें जैनदर्शन मान्य दार्शनिक विचारों का वर्णन भी विस्तार से उपलब्ध होता है। कर्मसिद्धान्त का विवेचन भी उक्त ग्रंथ का प्रमुख प्रतिपाद्य है। बीच—बीच में कथाओं का उल्लेख होने से जैन इतिहास की परम्परा का ज्ञान भी होता है। इसमें कथाओं के माध्यम से भारतीय जीवनमूल्यों का प्रतिपादन किया गया है। जैनपरम्परा में भक्ति का क्या महत्व है ? भक्ति का क्या स्वरूप है ? आदि तथ्य भी उपर्युक्त ग्रंथ में प्राप्त होते हैं। व्रत, नियम, त्याग, तपस्या का स्वरूप भी इस ग्रंथ में विस्तार से मिलता है। सदाचार पालन मानव जीवन में अत्यावश्यक है, इसके तो कदम—कदम पर सूत्ररूप से उल्लेख मिलते हैं। सद्गृहस्थ को क्या सेवनीय है ? तथा क्या असेवनीय है ? इसका वर्णन भी प्रकृतग्रंथ में हैं जैन परम्परा मान्य दीक्षा (प्रव्रज्या) का स्वरूप, कथाओं के माध्यम से दंसणकहरयणकरंडु में प्रतिपादित किया गया है।दंसणकहरयणकरंडु ग्रंथ भारतीय वाङ्मय में दार्शनिक, नैतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। साहित्यिक कोटि का ग्रंथ होने से भी यह अत्यन्त उपयोगी हैं इसके सम्पादन से भारतीय विद्या के अनेक पक्षों पर प्रकाश प्रसरित होगा। साथ ही साथ प्राकृत अपभ्रंश भाषा के साहित्यिक संसार में एक नई उपलब्धि र्अिजत होगी। विषय वर्णन के समय इस ग्रंथ में साहित्यिक सम्पदा भी बहुश: उपलब्ध होती है। यह ग्रंथ काव्यशास्त्रीय गुणों से अलंकृत है। उपत: दंसणकहरयणकरंडु ग्रंथ अनेक विद्याओं का कोश ग्रंथ बन गया है।