प्रस्तुत आलेख में विदुषी लेखिका ने दक्षिण भारत के विभिन्न जैन धर्मानुयायी राजवंशों, राजाओं उनके राज्यकाल में साहित्य सृजन करने वाले जैनाचार्यों तथा उनके कृतित्व की विस्तारपूर्वक चर्चा की है।दिव्यता, भव्यता एवं उत्कृष्ट कला का यदि एक ही मूर्ति में समन्वय किया जावे तो वह नि:संकोच अनुपमेय कृति है, कर्नाटक राज्य के हासन जिले के प्रसिद्ध जैन तीर्थ श्रवणबेलबगोला में विन्ध्यगिरि पर्वत पर भूरे श्वेत वर्ण के ग्रेनाइट पाषाण की ५७ फीट ऊँची गोम्मटेश्वर बाहुबली की एक ही शिला से निर्मित विश्वप्रसिद्ध मूर्ति है। जो भारतीय मूर्तिकला की श्रेष्ठ प्रतीक है। भगवान बाहुबली अपनी स्वतंत्र स्वाभिमानी वृत्ति, बल पराक्रम, शरीर सौष्ठव तथा घोर तपस्या के कारण जैन धर्मावलम्बियों में विशेष श्रद्धा प्राप्त हैं और इस अद्वितीय, विशाल एक पाषाणीय मूर्ति ने तो उन्हें देश—विदेश में पूजित वंदनीय कर दिया है। गंगवंश के यशस्वी पुरुष चामुण्डराय जो मारसिंह द्वितीय एवं राचमल्ल चतुर्थ के मंत्री थे उन्होंने अपनी माता कालकादेवी की इच्छा पर गोम्मटेश्वर भगवान बाहुबलि की मूर्ति का निर्माण १० वीं शताब्दी में कराया।गोम्मटेश्वर बाहुबलि एवं श्रवणबेलगोल, इतिहास के परिप्रेक्ष्य में, सतीश कुमार जैन, प्रकाशक—लाडादेवी प्रकाशन ग्रंथमाला, पृ. ४९ अरिष्टनेमि (शिल्पी) का परिश्रम एवं चामुण्डराय की मातृभक्ति एवं श्रद्धा ही मूर्ति में एकाकार होकर दिव्यता को आज प्रकट कर रही है। इतिहास पर दृष्टिपात करने से मूर्ति का प्रतिष्ठा वर्ष ९७८ ई. और ९९० ई. के मध्य होना चाहिए क्योंकि चामुण्डराय का निधन ९९० ई. के लगभग हुआ था।वही, पृ. ५८, पृ. ६१।
मूर्ति की प्रतिष्ठा चामुण्डराय के गुरु नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती द्वारा सम्पन्न हुई थी। वह स्नेह से चामुण्डराय को गोम्मट कहा करते थे। चामुण्डराय ने उनसे निवेदन किया कि जैन सिद्धान्त को समझने के लिये वह सिद्धान्त विषयों का सार संक्षेप में लिख दें जिससे वह विषय समझ में आ जाये। इसी निवेदन पर नेमिचन्द्र आचार्य ने षट्खण्डागम के ६ खण्डों का सार पंचसंग्रह नामक प्राकृत भाषा में ग्रंथ लिखकर उस प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम चामुण्डराय के गोम्मट नाम के कारण ‘गोम्मटसार’ प्रचलित कर दिया। चामुण्डराय कुशल सेनापति तथा मंत्री थे, उन्होंने युद्ध में शत्रुओं को परास्त कर अनेक उपाधियाँ अर्जित की— रोडग के युद्ध में बज्जलदेव को पराजित कर ‘‘समर धुरन्धर’’ गोनूर के युद्ध में नोलम्बों को पराजित करने पर ‘‘वीर मार्तण्ड’’ उच्छंगि के दुर्ग में राजादित्य को त्रस्त करने पर ‘‘रणरंगसिंह’’, बागेयुर के दुर्ग में त्रिभुवन वीर को समाप्त करने एवं गोविन्दर को उस दुर्ग में प्रविष्ट कराने के लिये ‘‘वैरीकुलकालदण्ड’’ तथा अन्य मुद्दों में विजय प्राप्त करने के लिये ‘‘भुजविक्रम’’, ‘‘भट्टमारि’’,, ‘‘प्रतिपक्ष राक्षस’’, ‘‘नोलम्बकुलान्तक’’ समरकेशरी, सुभटचूडामणि, समर परशुराम आदि उपाधियाँ प्राप्त हुई थीं।
वही, पृष्ठ ६७ उन्होंने अपने कौशल एवं पराक्रम से नोलम्बों, चालुक्यों एवं बज्जलों को अनेक बार परास्त कर हमेशा जैनधर्मावलम्बी गंगनरेशों की रक्षा की तथा उनके स्वामी राष्ट्रकूट सम्राटों का भी संरक्षण किया। यह कुलगुरु अजितसेनाचार्य तथा विद्यागुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के परम भक्त थे। अपने सदाचारी धार्मिक जीवन के कारण उन्हें ‘सम्यक्त्वरत्नाकर, शोभचरण, सत्ययुधिष्ठिर, देवराज, गुणकाव, गुणरत्नभूषण जैसी उपाधियाँ भी मिली थीं। ज्ञानोपार्जन में भी चामुण्डराय को विशेष रुचि थी। कन्नड, संस्कृत, प्राकृत भाषाओं के विद्वान थे। उनके द्वारा रचित पुस्तकों के नाम हैं— १. वीर मार्तण्डी २. चरित्रसार ३. त्रिशष्ठी लक्षणपुराण। यह तो हुई गोम्मटेश्वर भगवान बाहुबली के निर्माता चामुण्डराय की पृष्ठभूमि, इसके अतिरिक्त और भी दक्षिण भारत में अनेक ऐसे राजवंश हुए हैं जिन्होंने जैनसंस्कृति एवं जैनधर्म के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर किया है, उन वंशों में प्रमुख वंश हैं— राष्ट्रकूटवंश, गंगवंश, चालुक्यवंश, होयसलवंश, वोडेयार राजवंश, चंगलववंश, नुग्गेहल्लि के तिरूमल नायक, कदम्बवंश, पल्लववंश, चोलवंश, निडगुलवंश आदि। इन वंशों के नरेशों उनके अमात्यों, सेनापतियों, श्रेष्ठियों के सम्बन्ध में अनेक उल्लेख मिलते हैं जिनसे उनके जैनधर्म प्रेम, पराक्रम, साहस, शौर्य, समरकुशलता, विद्वत्ता, दानशीलता आदि का परिचय मिलता है। श्रवणबेलगोला नगर तथा समीपस्थ ग्रामों में उत्कीर्ण लगभग ५७३ शिलालेखों में से लगभग १०० लेखों में मन्दिर के निर्माण, मूर्ति प्रतिष्ठा, दानशाला, सरोवर उद्यान आदि के निर्माण से तथा तत्वर्तीकाल अथवा पूर्वकाल के दक्षिण क्षेत्र के जैनधर्मावलम्बियों तथा जैन धर्म से प्रभावित नरेशों, अमात्यों, सेनापतियों,श्रेष्ठियाें आदि के विषय में तथा विन्ध्यगिरि पर अमात्य चामुण्डराय द्वारा निर्मित एक ही विशालखण्ड से ५७ फीट ऊँची मूर्ति के उत्कीर्ण कराने तथा विन्ध्यगिरि व चन्द्रगिरि पर अनेक जैन वसदियों (मन्दिर) स्तम्भों आदि के निर्माण के विषय में ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हुई है।संक्षिप्त जैन इतिहास भाग—३, खण्ड—३, दक्षिण भारत का मध्यकालीन इतिहास बाबू कामताप्रसाद जैन, मूलचन्द किसनदान कापड़िया, सूरत, पृ. ३५। इससे यह भी ज्ञात होता है कि किस राजा या सेनापति के काल में कौन से जैनाचार्य थे और कौन सा नरेश अमात्य अथवा श्रेष्ठी किन जैन आचार्य अथवा साधु का शिष्य था। इन शिलोलेखों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन संस्कृति पूर्व में भी भारतव्यापी तथा जैनधर्म अनेक नरेशों द्वारा सम्मानित था।
१. चालुक्य वंश — दूसरी शती ई. के उत्तरार्ध में पल्लव, कदम्ब और गंग तीन नवीन राजवंशों की स्थापना हो चुकी थी। तीसरी से छठी शताब्दी ई. पर्यन्त दक्षिण भारत का इतिहास इन्हीं ३ राज्यों के संघर्ष का इतिहास रहा था। तीसरी से चौथी शताब्दी में कांची के पल्लव राजे सर्वाधिक शक्तिशाली रहे और सम्राट कहलाए, ४थी, ५वीं शताब्दी में वनवासी के कदम्बों का वैसा ही चरमोत्कर्ष हुआ और ५वीं, ६ठी शताब्दी में तलकाण्ड के गंगनरेश दक्षिण भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रतापी सम्राट थे किन्तु ५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महाराष्ट्र प्रदेश में एक नवीन राजशक्ति का उदय हुआ जिसने छठी शताब्दी में बल पकड़ा और ७वीं शताब्दी में दक्षिण के ही नहीं सम्पूर्ण भारतवर्ष के सर्वाधित शक्तिशाली एवं समृद्ध साम्राज्य में परिवर्तित हो गई। यह राजशक्ति चालुक्यों की थी और वातापि (बदामी) के पश्चिमी चालुक्य वंश के रूप में इसका जन्म हुआ था।
२. राष्ट्रकूट वंश — राष्ट्रकूट वंश का जैनधर्म के संरक्षण में विशेष योगदान रहा। ८वीं शती ई. में वातापी के चालुक्यों के पश्चात् दक्षिण भारतीय साम्राज्य का उत्तराधिकार राष्ट्रकूट वंश को प्राप्त हुआ। ये राष्ट्रकूट दक्षिणपंथ के प्राचीन रट्ठिकों (राष्ट्रिकों) के वंशज थे तथा अपने आपको चन्द्रवंशीय क्षत्रिय कहते थे। इनकी एक शाखा लट्टलूर (पूर्व निजाम रियासत के बीदर जिले में एक स्थान) में स्थापित थी। कतिपय लेखों में इसी कारण उन्हें लट्टलूरपुरावराधिश्वर कहा गया है। ६२५ ई. के लगभग लट्टलूर के राष्ट्रकूट बराबर प्रदेश के एलिचपुर (एलोरा) में आ बसे थे। यहीं से इस शाखा का उदय हुआ। इस शाखा के प्रथम राजा दन्तिवर्मन थे। उसके उत्तराधिकारी क्रमश: हुए—
१. दंतिवर्मा —(६५०-६७० ई.)
२. इन्द्रराज प्रथम —(६७०-६९० ई.)
३. गोविन्दराज प्रथम —(६९०-७१० ई.)
४. कर्कराज प्रथम —(७१०-७३० ई.)
५. इन्द्रराज द्वितीय —(७३०-७४५ ई.)
६. दन्तिदुर्ग द्वितीय —(७४५-७५६ ई.)
७.कृष्णराज प्रथम —(७५६-७७५ ई.)
८. गोविन्दराज द्वितीय —(७३०-७४५ ई.)
९. ध्रुवराज द्वितीय —(७८० ई.)
१०. गोविन्दराज तृतीय
११.अमोघवर्ष प्रथम —(८२१ ई.)
१२.कृष्णराज द्वितीय —(९०० ई.)
१३.इन्द्रराज तृतीय —(९१५ ई.)
अमोघवर्ष द्वितीय गोविन्द चतुर्थ अमोघवर्ष तृतीय कृष्णराज तृतीय (९४० ई.) अमोघवर्ष चतुर्थ (९६८ ई.) कर्क द्वितीय (९७२ ई.) इन्द्रराज चतुर्थ (982 ई.) इनका राज्य एक समय उत्तर भारत में कन्नौज तक और दक्षिण भारत में मैसूर तक फैला हुआ था। राष्ट्रकूट वंश के शिलालेखों में उसे एक उत्तम और संसार में प्रसिद्ध राष्ट्रकुल कहा है। इसका उल्लेख रट्ट, राष्ट्रवर्म, राष्ट्रोर (राठोर) नामों से भी शिलालेखादि में मिलता है।वही पृष्ठ ३४ इन्द्रराज द्वितीय के पुत्र दन्तिदुर्ग ने ७४२ ई. के लगभग एलोरा पर अधिकार किया और उसे राजधानी बनाया। एलोरा उस समय जैन, शैव, वैष्णव, बौद्ध चारों ही धर्मों व संस्कृति का केन्द्र था। ७५७ ई. में उसने वातापी चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन को पराजित कर अनेक उपाधियाँ धारण कीं और अपने आपको सम्राट घोषित कर दिया। युद्धों में अनेक नरेशों को परास्त किया तथा लगभग सम्पूर्ण दक्षिणापथ का सम्राट बन गया। उसी समय प्रसिद्ध जैन आचार्य वीरसेन हुए, जिन्होंने वाटग्रामपुर में निर्मित गुहा मन्दिर में तथा एलोरा में निर्मित चामरलेनी गुफा में साधना एवं साहित्य रचना की। ७५२ ई. में दन्तिदुर्ग की नि:संतान मृत्यु होने पर उसके चाचा कृष्णराज प्रथम अकालवर्ष शुभतुंग सिंहासन पर बैठा। उसका राज्यकाल ७५७ से ७७३ ई. तक रहा। उसी ने ७५८ ई. में एलोरा का विश्वप्रसिद्ध गुहा मन्दिर ‘कैलाश मन्दिर’ पर्वत में से काटकर बनवाना शुरू किया जो लगभग १५० वर्षों में पूर्ण हुआ। गुहा मन्दिर इन्द्रसभा, जगन्नाथ सभा आदि के निर्माण का श्रेय राष्ट्रकूटवंशी तथा ऐलवंशी नरेशों को प्राप्त है। ध्रुवराज की राजधानी में स्वयंभू महाकवि (अपभ्रंश) ने रामायण, हरिवंश आदि अनेक ग्रंथों की रचना की। उसी काल में जैनाचार्य वीरसेन, विद्यानन्दि आचार्य, परवादिमल्ल एवं गुरु कुमारसेन प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए। इसकी राजधानी के समीप बाटनगर में पंचस्तूपान्वयी स्वामी वीरसेन का प्रसिद्ध जैन केन्द्र था, जिसमें शिष्य समुदाय शिक्षा पाता था, उसी काल (७८० ई.) में वीरसेन आचार्य ने महान ग्रंथ श्रीधवल को पूर्ण किया और उसके पश्चात् जयधवला का एक तिहाई भाग लिखा था, महाधवल की रूपरेखा तैयार की। उसी समय (७८३ ई.) में आचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण की रचना की। ध्रुवराज का पुत्र गोविन्दतृतीय भी एक शौर्यशाली, जैनधर्म के प्रति सहिष्णु उदार नरेश था।
इसने विद्यानन्दि, अनन्तकीर्ति, अनन्तवीर्य, त्रिभुवन, स्वयंभू आदि प्रसिद्ध जैनाचार्यों—विद्वानों का सम्मान किया, जिससे उसके शासनकाल में जैनधर्म विकसित हुआ” कर्कराज की वीरता, बुद्धिमता, तत्परता, स्वामीभक्ति भी प्रसिद्ध है। जैन धर्मानुयायी अमोघवर्ष (८२१ ई.) उस समय संसार के चार महान सम्राटों में एक प्रतापी सम्राट माना जाता था। तीन अन्य प्रतापी सम्राट थे—चीन का सम्राट, बगदाद का खलीफा, रूस का सम्राट। आचार्य जिनसेन इसके राजगुरु एवं धर्मगुरु थे। जिनसेन ने अपने गुरु वीरसेन द्वारा अधूरे छोड़े जयधवल को पूर्ण किया तथा संस्कृत में पार्श्वाभ्युदय, महापुराण की रचना की। उनका निधन ८५० ई. के लगभग हुआ था तब इनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने महापुराण को पूर्ण किया तथा उत्तरपुराण व अन्य ग्रंथों की रचना की। अमोघवर्ष स्वयं भी विद्वान था उसने संस्कृत में ‘प्रश्नोत्तर रत्नावली’ नीति ग्रंथ तथा कन्नड़ में ‘कवि राजमार्ग’ नामक छंद—अलंकार ग्रंथ रचे। उसका सेनापति बंकेयरस भी जैन था। उसके राज्यकाल में जैनधर्म को राष्ट्रधर्म का रूप प्राप्त हो गया था। कृष्णराज, इन्द्रराज आदि भी जैनधर्म के अनुयायी थे। इस तरह राष्ट्रकूट वंश का शासन लगभग २५० वर्ष रहा। इसके अधिकांश नरेश उनके परिवार, अधीनस्थ राजा, सामंत सरदार, अमात्य मंत्री, सेनापति उस समय जैनधर्म के अनुयायी थे। लगभग दो तिहाई जनता भी जैनधर्मावलम्बी थी। ऐसा वहाँ के लेखों से पता चलता है, जिन्होंने मन्दिर, मठों आदि का निर्माण कराया। राष्ट्रकूट वंश के राजाओं का वैवाहिक सम्बन्ध कलचूरी, गंग आदि जिन राजवंशों से था, वे भी जैनधर्म के अनन्य भक्त और संरक्षक थे। यही कारण है कि राष्ट्रकूट राजाओं को भी जैनधर्म से प्रेम था और उनमें से कई राजाओं ने दीक्षा ली। कई जैनाचार्य उनके गुरु थे और कई विद्वानों का उन्होंने सम्मान किया। चोलों से उनके जो युद्ध हुए, वह धर्मयुद्ध कहे जा सकते हैं क्योंकि चोल शैव थे और राष्ट्रकूट जैनधर्म के संरक्षक थे। राष्ट्रकूट के नरेशों ने अनेक प्रसिद्ध जैनाचार्यों का सम्मान किया। उन आचार्यों द्वारा धर्म प्रसार हुआ। राष्ट्रकूट नरेशों की छत्रछाया में लगभग १०० ग्रंथकारों ने, जो प्राय: दिगम्बर थे, लगभग २०० ग्रंथों की रचना की।
इन ग्रंथों से लगभग ११० संस्कृत, ३५ प्राकृत, २० कन्नड़, १५ अपभ्रंश और तमिल भाषा के हैं।८ धवल जयधवल जैसी आगमिक टीकाओं के अतिरिक्त सिद्धान्त तत्व, अध्यात्म, दर्शन, न्याय, कथा, भक्ति स्तोत्र, मंत्र आदि विषयों पर साहित्य सृजन हुआ। साथ ही व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, प्राणी विज्ञान, राजनीति जैसे लौकिक विषयों पर भी अनुपम साहित्य रचना हुई। पाँचवी शती ई. के मध्य लगभग महाराष्ट्र प्रदेश में इस राजशक्ति का उदय हुआ, छठी शती में उसने बल पकड़ा और सातवीं में दक्षिणापथ के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष में उस काल के सर्वाधिक शक्तिशाली एवं समृद्ध साम्राज्य में वह परिणत हो गयी। वंश का मूल पुरुष अयोध्या का सोमवंशी क्षत्रिय बताया जाता है, जो अपने भाग्य की परीक्षा के लिये दक्षिण आया इस वंश में सर्वप्रथम नाम विजयादित्य का मिलता है जो उसी व्यक्ति अथवा उसके पुत्र का नाम था। उसने पल्लवराज के एक छोटे से भाग पर अधिकार करके अपनी शक्ति बढ़ानी शुरू की किन्तु पल्लवों के साथ युद्ध में मारा गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र जयसिंह जो जन्म के साथ नाथ और राज्यविहीन था, किन्तु वयस्क होते ही उसने ऐसा साहस, शौर्य और पराक्रम दिखाया कि गंग दुर्विनीत ने उसे अपनी छत्रछाया में ले लिया, उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया और पल्लवों के विरुद्ध युद्धों में उसकी सहायता की। अन्तत: वातापी को राजधानी बनाकर चालुक्य राज्य की सुदृढ़ नीव जमाने में जयसिंह सफल हुआ और विष्णुवर्धन राजसिंह रणपराक्रमांक जैसे विरुद उसे प्राप्त हुए।
वातापी (बादामि) अल्तेम, ऐहोल उसके राज्य के प्रसिद्ध नगर थे और यहाँ जैनों की अच्छी बस्ती थी। जयसिंह की मृत्यु चन्द्रदण्ड पल्लव के साथ युद्ध में हुई। तब दुर्विनीत गंग ने उसके पुत्र रणराग एर्रेय्य सत्याश्रय को सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया और भीषण युद्ध में चन्द्रदण्ड पल्लव को मार डाला।९ रणराग का पुत्र हुआ सत्याश्रय पुलकेशी प्रथम वास्तव में यही इस वंश का प्रथम नरेश एवं सही राज्यसंस्थापक माना जाता है इसका काल ५३२ ई. से ५६५ तक रहा।१० इसके पश्चात् उत्तराधिकारी हुए—कीर्तिमान (५६५-५९७ ई.) इसके काल में जैनाचार्य विकीर्ति ने ५८५ ई. में मेघुटी में जैन मन्दिर बनवाया एवं विशाल जैन विद्यापीठ की स्थापना की। यह जिनभक्त था। ५९७ ई. में उसकी मृत्यु के बाद भाई मंगलीश ने ५९७ ई. से ६०८ ई. तक राज्य किया। वह विष्णु भक्त था। उसके पश्चात् कीर्तिमान के पुत्र पुलकेशिन द्वितीय ने मंगलीश को समाप्त कर सिंहासन पर अधिकार किया। वह जैनधर्म का महान संरक्षक सम्राट रहा। इसके गुरु आचार्य विकीर्ति (रविभद्र) थे। इसके शौर्य एवं सैनिक शक्ति के कारण सम्राट हर्षवर्धन दक्षिण में नहीं बढ़ पाया था। आन्ध्र प्रदेश में पिष्टपुर को विजित कर उसने ६१५ ई. में अपने छोटे भाई कृष्ण विष्णुवर्धन को उसका शासक नियुक्त किया जिसके कारण वेंगि की ५वीं चालुक्य शाखा आरम्भ हुई। पुलकेशी ने पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन को परास्त कर काचीवरम का अधिकार कर लिया था, कावेरी को पार कर चोलों, केरलों एवं पाण्ड्य नरेशों को अपना मित्र बना लिया था। इसी के काल में जैनाचार्य अकलंकदेव हुए, जिन्होंने बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया जिसके कारण उन्हें ‘भट्ट’ उपाधि से विभूषित किया गया। अकलंकदेव तत्वार्थराजवार्तिक, अष्टशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, लघीयस्त्रय, प्रमाणसंग्रह आदि अनेक प्रसिद्ध न्याय के ग्रंथों के रचयिता थे। पुलकेशी का पुत्र उन्हें ‘पूज्यपाद’ कहता था। पुलकेशी के राज्य में बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म अधिक अच्छी स्थिति में था। (६४१-६४२ ई.) में पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन द्वारा आक्रमण कर देने से उसमें उसकी मृत्यु हो गई।
उत्तराधिकारी विक्रमादित्य के राज्य में राज्य की स्थिति ठीक नहीं थी। पल्लवों द्वारा युद्ध तथा लूटमार के कारण अराजकता फैल गई थी लेकिन अपने साहस एवं कौशल से पाण्ड्य नरेश माखर्मन तथा गंग की सहायता से नरसिंहवर्मन को परास्त कर अपना राज्य वापस लिया। आचार्य अकलंकदेव इसके गुरु थे। (६८० ई.) में इसकी मृत्यु के पश्चात् पुत्र विनयादित्य (६८०-६९६ ई.) सिंहासनारूढ हुआ। उसके बाद उसका पुत्र विजयादित्य (६९७-७३३ ई.) शासक हुआ। इन नरेशों ने अनेक जैनमन्दिरों का निर्माण कराया। पुष्पसेन, विमलचन्द्र, कुमारनन्दि, अनन्तवीर आदि आचार्य उसी काल में हुए। उसकी मृत्यु पर उसका पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय (७३३-७४४ ई.) में सिंहासन पर बैठा। जैनधर्मभक्त इस नरेश ने शंख जिनालय व धवल जिनालय आदि मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा जिन पूजन के लिये भूमि दान दी। उसका पुत्र कीर्तिवर्मन द्वितीय (७४४-७५७ ई.) इस वंश का अन्तिम नरेश हुआ। यह भी जैनभक्त था। राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग ने ७५३ ई. में र्कीितवर्मन को पराजित कर वातापी के पश्चिमी चालुक्य राज्य का अंत कर दिया।। कीर्तिवर्मन नि:संतान था, कीर्तिवर्मन तृतीय, तैल प्रथम, विक्रमादित्य तृतीय, अय्यन प्रथम, विक्रमादित्य चतुर्थ राष्ट्रकूट के अधीन गौण सामन्तों या उपराजाओं की भाँति चलते रहे। अन्तिम के पुत्र तैल द्वितीय ने १०वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राष्ट्रकूटों का अंत करके चालुक्य शक्ति का पुनरुद्धार किया और कल्याणी के उत्तरवर्ती चालुक्यवंश की स्थापना की। वातापि के चालुक्य जैनधर्म के आस्थावान होते हुए भी शैव—वैष्णवादि धर्मों के प्रति उदार—सहिष्णु थे। बौद्धधर्म इस काल में पतनोन्मुख था।
वेंगि के पूर्वी चालुक्य—तैलप द्वितीय की वंश परम्परा में उत्पन्न नरेश जयसिंह प्रथम (१०१५-१०४० ई.) जिनधर्मसेवी रहा। इसी काल में आचार्य वादिराज, दयापाल, पुष्पसेन सिद्धान्तदेव हुए” जयसिंह ने आचार्य वादिराज को ‘जगदेकमल्ल’ उपाधि प्रदान की थी। वलिपुर नामक स्थान में जयसिंह ने भगवान शांतिनाथ की प्रतिष्ठा करायाी थी। इसके बाद आवाहमल्ल सोमेश्वर प्रथम (१०४३-१०६८ ई.) ने त्रिभुवनतिलक आदि जैन मन्दिरों का निर्माण कराया। उसका भाई विक्रमादित्य षष्ठम भी जिनभक्त था। जिसने गंग पेमेनिडि चैत्यालय का निर्माण कराया था। उसने श्रवणबेलगोला के समीप अनेक जिनालयों का निर्माण कराया था जिन्हें बाद में राजाधिराज चोल ने नष्ट करवा दिया था।
चालुक्य नरेशों का राज्यकाल ५०० वर्ष से अधिक रहा जिसमें कतिपय नरेश जिनधर्म सेवी रहे और उनके समय में जैनधर्म फला—फूला। यद्यपि अधिकतर चालुक्य नरेश शिव एवं विष्णु भक्त थे किन्तु धर्मसहिष्णु होने के कारण उन्होंने उदारतापूर्वक जैन मन्दिरों का निर्माण व उसकी व्यवस्था के लिये योगदान दिया तथा सम्प्रदाय निरपेक्षता के आधार पर जैनधर्म को संरक्षण दिया। १०४० ई. के लगभग जयकीर्ति छंदोनुशासन (संस्कृत) के रचनाकार थे। ११वीं शताब्दी में ही श्रीधर एक प्रसिद्ध गणितज्ञ हुए हैं उन्होंने १०४९ ई. में ‘जातक तिलक’ ज्योतिषविषयक ग्रंथ लिखा, जो नक्षत्र विद्या पर महत्वपूर्ण शोध प्रबन्ध है। ये श्रीधर ज्योतिर्ज्ञान विधि एवं त्रिंशतिका के रचयिता श्रीधर से भिन्न हैं। उनकी चन्द्रप्रभुचरित्र कृति अनुपलब्ध है। उनके आश्रयदाता नरेश अहवमल्ल अथवा सोमेश्वर प्रथम थे। (१०४३-६८० ई.) नरेश कीर्तिवर्मा ने ‘गौ वैद्य’ नामक पशु रोग चिकित्सा सम्बन्धी ग्रंथ लिखा। इससे ज्ञात होता है कि उस समय राजकुमारों को सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। उसने जैनधर्म के पुनरुत्थान के लिये बहुत कार्य किया।1
वेंगि के पूर्वी चालुक्य— सन् ६१५ ई. में चालुक्य सम्राट, पुलकेशी द्वितीय ने आन्ध्रप्रदेश की विजय करके अपने अनुज कुब्जविष्णुवर्धन को उसका शासक नियुक्त किया था। वेंगि इस देश की राजधानी थी। कुब्जविष्णुवर्धन से प्रारम्भ होने वाले इस वंश में लगभग २७ राजा हुए और उन्होंने लगभग ५०० वर्ष तक राज्य किया। कुब्जविष्णुवर्धन कुशल चतुर शासक था, उसने अपने वंश की नीव सुदृढ़ की थी। चालुक्यों की इस पूर्वी शाखा में भी मूलवंश की भांति जैनधर्म की प्रवृत्ति थी। इसके बाद जयसिंह प्रथम, विष्णुवर्धन द्वितीय, जयसिंह द्वितीय, विष्णुवर्धन तृतीय क्रमश: राजा हुए। अन्तिम नरेश ने जैनाचार्य कलिभद्र को सम्मान किया था।उसके पुत्र विजयादित्य प्रथम की महारानी अय्यन महादेवी ने ७६२ ई. में दानपत्र की पुनरावृत्ति की थी। इसके बाद विष्णुवर्धन चतुर्थ (७६४—७९९ ई.) बेगि राज्य का स्वामी हुआ। यह जैनधर्म का भक्त था इसके काल में विजगापट्टम (विशाखापट्टनम) जिले की रामतीर्थ पहाड़ियों पर एक जैन सांस्कृतिक केन्द्र था। यह पर्वत अनेक जैन गुहा मन्दिरों,जिनालयों एवं अन्य धार्मिक कृतियों से सुशोभित था। अनेक विद्वान जैन मुनि यहाँ निवास करते थे। विविध विधाओं एवं विषयों की उच्च शिक्षा के लिये यह संस्थान महान विद्यापीठ था। इस काल में जैनाचार्य श्रीनंदि इस विद्यापीठ के प्रधानाचार्य थे जो आयुर्वेद आदि विभिन्न विषयों में निष्णात थे। स्वयं विष्णुवर्धन उनकी पूजा करते थे। इन आचार्य के शिष्य उग्रादित्याचार्य थे जो आयुर्वेद एवं चिकित्साशास्त्र के विद्वान थे।
सन् ७९९ ई. के कुछ ही पूर्व उन्होंने अपने प्रसिद्ध वैद्यक ग्रंथ कल्याणकारक की रचना की थी। तदुपरांत विजयादित्य द्वितीय (७९९-८४७ ई.) कलिविष्णुवर्धन पंचम, विजयादित्य (८४८-८९२ ई.) हुए चालुक्य भीम प्रथम (८९२-९२२ ई.) हुए। अम्म प्रथम (९२२-९२९ ई.) भीम द्वितीय, अम्म द्वितीय क्रमश: राजा हुए, अम्म द्वितीय प्रतापी और धर्मात्मा नरेश था” सन् ९४५-९७० ई. तक इसने राज्य किया। यह अपने पूर्वजों की भाँति जैनधर्म का पोषक और संरक्षक था। इसके शासनकाल में (१०वीं शती) जैनधर्म आन्ध्र प्रदेश में अत्यधिक लोकप्रिय व उन्नत था। एक लेखानुसार इसने पट्टवर्धक घराने की राजमहिला माचकाम्बे के निवेदन पर अर्हनन्दी को ‘सर्वलोकाश्रय जिनभवन’ के लिये दान दिया था। अम्म का प्रधान सेनापति दुर्गराज था जिसकी चालुक्य—लक्ष्मी की सुरक्षा के लिये तलवार हमेशा म्यान से बाहर रहती थी। वह पूर्वी चालुक्य राज्य का शक्तिस्तम्भ कहा जाता था। यह वंश जैनधर्म का अनुयायी था।
१० वीं शती के अन्तिम वर्ष भारतीय इतिहास में घटना पूर्ण थी। अनेक राज्यों में उलटफेर हुई, कई नरेशों की मृत्यु हुई, नयों के राज्याभिषेक हुए कई स्थानों में राज्य एवं वंश परिवर्तन हुए। वस्तुत: जैन परम्परा के अनुसार यह युग दूसरे उपकल्कि के अंत का सूचक था। दक्षिण भारत में इस काल में महान राजक्रांति हुई। ९६७ ई. में राष्ट्रकूट सम्राट कृष्ण तृतीय नर्मद के दक्षिणवर्ती भूभाग का एकछत्र स्वामी था किन्तु दिसम्बर ९७३ में उसका सम्पूर्ण राज्य उसके भतीजे कर्क द्वितीय के हाथों छिन गया और २५० वर्ष से चला आया विशाल शक्तिशाली राष्ट्रकूट साम्राज्य एक स्मृति बन कर रह गया। उसके स्थान में वातापि के प्राचीन पश्चिम चालुक्य वंश का पुनरुत्थान हुआ और इसका श्रेय चालुक्य वीर तैलप को है। वह एक पराक्रमी योग्य नरेश था विद्वान गुणी पुरुषों का वह आदर करता था। वह सर्वधर्मसहिष्णु उदारदानी नरेश था, जैनधर्म के साथ उसकी श्रद्धा वैसी ही थी जैसी पूर्ववर्ती कदम्बों, गंगों, पश्चिमी चालुक्यों एवं राष्ट्रकूटों की। कोगलि नामक स्थान में स्थित चेन्नपार्श्ववसदि का सन् ९९२ ई. का शिलालेख सूचित करता है कि यह जैनधर्म अनुयायी राजा था। कन्नड़ का जैन महाकवि रत्नाकर उसका राजकवि था। महामंत्री धल्ल, सेनापति मल्लप आदि भी जिनभक्त थे। नागदेव की पत्नी साहित्य सेवा, धर्मप्रभावनारत अहिमब्बे ने महाकवि पोन्न के शांतिपुराण की १००० प्रतियाँ वितरित की थीं तथा स्वर्ण मणि—माणिक्यादि की १५०० जिनमूर्तियां बनवाकर विभिन्न मन्दिरों में स्थापित की थीं, अनेक मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया और ४ प्रकार का दान अनवरत दिया, धर्मकार्यों में सम्राट की अनुमति प्रसन्नता एक सहायता थी। इसका उत्तराधिकारी पुत्र सत्याश्रय इरिव बेदेंग (९९७-१००९ ई.) था।
चोलों की तरह यह भी जैनधर्म का भक्त था। सत्याश्रय ने एक जैन गुुरु की स्मृति में अगदि नामक स्थान में भव्य निषद्या निर्माण करायी थी। आगे विक्रमादित्य पंचम, अय्यन द्वितीय, जयसिंह द्वितीय (१०१४-१०४२ ई.) राजा हुए। जयसिंह द्वितीय जैनधर्म का विशेष भक्त था, अनेक जैन विद्वानों एवं गुरुओं का उसने सम्मान किया तथा साहित्य निर्माण को प्रोत्साहन दिया। आचार्य वादिराज ने उसकी राजसभा में परवादियों के साथ अनेक शास्त्रार्थ किये। उनकी विजय के उपलब्ध में राजा ने उन्हें स्वर्णमुद्रायुक्त जयपत्र तथा ‘जगदेकमल्लवादी’ उपाधि प्रदान की थी। यशोधरचरित, एकीभाव स्तोत्र तथा अकलंकदेव कृत न्यायविनिश्चय की टीका आदि ग्रंथ भी इन्होंने रचे। अनेक ग्रंथों के रचयिता आचार्य प्रभाचन्द्र भी इसी समय हुए। चालुक्य जयसिंह का विरुद मल्लिकामोद था और उसने बलिपुर में मल्लिकामोद शान्ति वसदि नामक जिनालय बनवाया था। तदुपरांत उसका पुत्र सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल (१०४२-६८ ई.) राजा हुआ। उसने चोलों को युद्ध में पराजित किया, उसके हाथों चोल नरेश मारा गया। कोगलि शिलालेख में इस स्याद्वाद मत का अनुयायी लिखा है। सोमेश्वर प्रथम ने जैनाचार्य अजितसेन का सम्मान किया और उन्हें शब्दचतुर्मुख उपाधि प्रदान की। इसका सेनापति (दण्डनाथ) शांतिनाथ भी जैन था। इन्होंने कई जैनमन्दिर बनवाये और उनके लिये दान दिये। १०६८ ई. में एक भयानक रोग से पीड़ित होने के कारण इस राजा ने तुंगभद्रा में जल समाधि ली। यह राजा इस वंश के महान नरेशों में से था। उसका पुत्र सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल (१०६८-७६ ई.) भी चोलों के साथ युद्ध करता रहा। इसने कदम्बों का दमन किया और चोलों पर विजय प्राप्त की। अपने पूर्वजों की भाँति यह भी जैन प्रतीत होता है।
उसने आचार्य कुलचन्द देव को शांतिनाथ वसदि के लिये भूमि प्रदान की थी और मन्दिर में एक मूर्ति प्रतिष्ठित करायी थी। १०७६ ई. में उसका छोटा भाई विक्रम उसे बन्दी करके स्वयं राजा बना। इसने जैनाचार्य वासवचन्द्र का सम्मान करके उन्हें ‘बालसरस्वती’ उपाधि प्रदान की थी तथा चालुक्य गंग परमानंदि जिनालय नाम का मन्दिर बनवाया था। विभिन्न वसदियाें—मठों में विभिन्न भारतीय धर्मों एवं दर्शनों की शिक्षा साथ—साथ दी थी। इस राजा के समय में भारतीय संस्कृति का बहुमुखी संवर्धन हुआ। यह नरेश सर्वधर्मसहिष्णु था और सब धर्मों का प्रतिपालन करता था यद्यपि उसका निजी एवं कुलधर्म जैनधर्म था। ==होयसल वंश== पूर्व मध्यकाल में दक्षिण भारत का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्तिशाली राजवंश था। ये लोग अपने आपको सोमकुल के यदुवंशी क्षत्रिय बताते थे। होयसलो के पूर्वज अन्तिम राष्ट्रकूट एवं उत्तरवर्ती चालुक्यों के साधारण श्रेणी के सामन्त मात्र थे। प्रतापी होयसल नरेश जैनधर्म के पालन एवं संरक्षण में प्रसिद्ध रहे हैं। विनयादित्य द्वितीय (१०६०-११०१ ई.) इस वंश का ऐतिहासिक प्रसिद्ध नरेश था, यह जैन धर्मावलम्बी शासक था। होयसल वंश प्रतापी नरेश यशस्वी विष्णुवर्धन (११११-११४१ ई.) राज्यकाल के आरम्भिक वर्षों में जैन धर्मावलम्बी था। उससे पूर्व सभी होयसल नरेश जैन धर्मानुयायी थे।१५ ११वीं शती ई. के प्रारम्भ में इस वंश का मुखिया सल नामक एक वीर नवयुवक था। ९२५ ई. के लगभग अंगरदि में कुन्दकुन्दान्वय द्रविड संघ पुस्तकगच्छ के मौनी भट्टारक के शिष्य विमलचन्द पंडित देव ने सन्यासमरण किया था। इस उपलक्ष्य में गंगनरेश इरिवबेडेंग ने वहाँ आकर गुरु का स्माकर स्थापित किया था। संभवत: इन्हीं विमलचन्द की निकट शिष्य परम्परा में मुनीन्द्र सुदत्त वर्धमान अंगदि जैन केन्द्र के अध्यक्ष हुए। नगर के बाहर ९वीं १०वीं शताब्दी की कई सुन्दर जिन—बसदियाँ थीं।
इसी स्थान पर जैनाचार्य सुगत वर्धमान का विद्यापीठ था जिसमें अनेक गृहस्थ, त्यागी, मुनि शिक्षा प्राप्ति करते थे। पोयसल (होयसल) (१००७-१०२२ ई.) ने गुरु सुगत के उपदेश और पथ—प्रदर्शन में अपनी राज्यशक्ति की नींव डालनी प्रारम्भ की। इस काल में चोलो द्वारा गंगवाडि राज्य का अंत कर दिये जाने के कर्नाटक देश की स्थिति संकट में थी अत: पोयसल अपनी वीरता एवं योग्यता से चालुक्यों का एक महत्वपूर्ण सामन्त हो गया और चोलों तथा उनके कोगाल्ववंशी सामन्तों ने युद्धों द्वारा प्रदेश छीनकर वह अपनी शक्ति बढ़ाने लगा। उसके पुत्र विनयादित्य प्रथम (१०२२-१०४७ ई.) और पौत्र नृपकाम होयसल (१०४७-१०६० ई.) ने पोयसल के कार्य को चालू रखा और अपनी शक्ति बढ़ाते रहे गुरु सुगत वर्धमान ही उनके धर्मगुरु एवं राजगुरु थे। नृपकाम के उत्तराधिकारी विनयादित्य द्वितीय (१०६०-११०१ ई.) के गुरु शांतिदेव थे। १०६२ ई. में अंगदि में ही शांतिदेव ने समाधिमरण किया और उस उपलक्ष्य में राजा तथा नागरिकों ने वहाँ स्मारक स्थापित किया था। इस राजगुरु के उपदेश से महाराज विनयादित्य ने अनेक जिनमन्दिर, देवालय, सरोवर, ग्राम और नगर निर्माण किये। १०६२ में जैनगुरु अभयचन्द को भूमिदान देकर सम्मान किया।१७ १०६९ में मंत्रावर नगर में जिन मन्दिर बनवाया” १०९४ ई. में इस नरेश ने दार्शनिक वादी जैन विद्वान गोपनन्दि का सम्मान किया और बेलगोल तीर्थ की बसदियों की मरम्मत के लिये कई गाँव दान दिये। विनयादित्य द्वितीय का उत्तराधिकारी पुत्र बल्लाल प्रथम (११०१-११०१ ई.) राजा हुआ।
इसके राजगुरु चारुकीर्ति पण्डितदेव थे। ये महानवादी श्रुतकीर्तिदेव के शिष्य थे और स्वयं आयुर्वेद, व्याकरण, न्याय, सिद्धान्त, योग, मंत्र शास्त्र आदि विविध विद्या पारंगत थे। इसका उत्तराधिकारी उसका अनुज बिट्टिदेव (विष्णुवर्धन) (११०६-११४१ ई.) था। यह इस वंश का यशस्वी नरेश था। चालुक्यों की अधीनता से अपने आपको प्राय: मुक्त कर लिया और चोलो को देश से निकाल भगाया। स्वतंत्र होयसल राज्य का वह वास्तविक संस्थापक था साथ ही अत्यन्त सहिष्णु और समदर्शी था। ११२१ में हादिरवागिलु जैन वसदि को दान दिया। ११२५ ई. में जैनगुरु श्रीपाल त्रैविद्यवृती का सम्मान किया। श्रवणबेलगोला में उसने एक जिनालय बनवाया, ११२१ में वहीं समाधिमरण किया था। इसके अलावा मंत्री पुणिसमय्य, पत्नि जकणब्बे, दण्डनायक बलदेवण्ण, परस्पराय, हरिदेव, माचिराज, मरियाने, भरतेश्वर, चिन्नराज, इम्मद्रि, बिट्टिमय्य आदि भी जिनभक्त एवं जैनधर्म को समर्पित थे। इन्होंने चार प्रकार के दान दिये एवं कई मन्दिरों का निर्माण कराया। इनके सहयोग से विष्णुवर्धन ने शासनव्यवस्था सुचारू की और जैनधर्म का भी सर्वतोमुखी उत्कर्ष किया।
दूसरी शती के प्रारम्भ में उरैयूर (वर्तमान त्रिचरापल्ली) का नरेश कीलिकवर्मन चोल था, उसका छोटा पुत्र शांतिवर्मन था। कुमारावस्था में ही बलाकपिच्छ नामक जैनाचार्य से दीक्षा लेकर वह जैन मुनि हो गया और समन्तभद्र के नाम से विख्यात हुआ। समन्तभद्र का प्रारम्भिक मुनि जीवन कांची में बीता, कांची के महारथी स्कंदनाग की कन्या चटुपल्लव से विवाही थी अत: नागराज की मृत्यु के बाद पल्लव के पुत्र विरूकुरुच ने कांची में पल्लव वंश की स्थापना की। बनवास देश की करहाटक नगरी में सात वाहनों के एक अन्य सामन्त ने कदम्ब वंश की नींव डाली थी। प्रथम कदम्ब नरेश का उत्तराधिकारी १५० ई. के लगभग शिवस्कंद श्री/आचार्य समन्तभद्र से सम्बन्धित जैन अनुश्रुति का राजा शिवकोटि यही व्यक्ति लगता है। भस्मक रोग हो जाने पर इसी राजा के शिवालय में आचार्य ने रोग की उपशांति की थी और स्वयंभू स्तोत्र की रचना द्वारा अपनी भक्ति का चमत्कार दिखाया था” फलस्वरूप राजा शिवकोटि और उसका भाई शिवायन आचार्य के शिष्य हुए और जैन मुनि हो गये। मुनि शिवकोटि ने ही तत्वार्थसूत्र पर रत्नमाला नामक सर्वप्रथम टीका लिखी थी। नरेश मयूरवर्मन के समय से कदम्ब वंश का उत्कर्ष हुआ। इस काल में जैन संघ में स्वामी समन्तभद्र (१२०-१८५ ई.) महानवादी, धर्मप्रचारक तथा ग्रंथ प्रणेता थे। पल्लव राजे एवं करहाटक के प्रारंभिक कदम्ब राजे उनके भक्त थे। बौद्धाचार्य नागार्जुन उनके समकालीन एवं प्रतिस्पर्धी थे, अन्य धर्मों के विद्वानों के साथ इन्होंने सैकड़ों सफल शास्त्रार्थ किये थे। इन्हीं के समकालीन मथुरा संघ के प्रसिद्ध आचार्य नागहस्ति और उनके शिष्य यतिवृषभाचार्य थे, जिन्होंने कसायपाहुड ग्रंथ पर चूर्णिसूत्र लिखे और १७६ ई. में तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ की रचना की। इन्हीं के जीवन में १५६ ई. में महावीर के शिष्य परम्परा का अंत हुआ जो परम्परागत साक्षात् ज्ञान की मौखिक द्वार से संरक्षक थी।
आचार्य समन्तभद्र के ही एक शिष्य आचार्य सिंहनंदि को सन् १८८ ई. में दद्दिग और माधव नामक भ्रातृद्वय के हाथों कर्नाटक के प्रसिद्ध गंगवंश और गंगवादि राज्य की स्थापना का श्रेय है। इस प्रकार दूसरी शताब्दी के अंत तक दक्षिण भारत में पाण्ड्य, चोल, चेर नामक प्राचीन छोटे—छोटे तीन तमिल राज्यों के अतिरिक्त पूर्वी तट पर तोण्डेय मण्डल में कांची का पल्लव, बनवास देश में करहाट, वैजयंती का कदम्बराज और कर्नाटक में गंगवादि का गंगराज्य ये तीन नये वंश स्थापित हो गये थे। इनके अतिरिक्त दक्षिणापथ के विभिन्न भागों में छोटे—छोटे शक्तिशाली किन्तु अल्पस्थायी राज्य स्थापित हो गये थे। जैसे पश्चिमी भाग में शकक्षत्रप शक्तिशाली थे, आन्ध्र देश में इक्ष्वाकुओं का राज्य था।
नासिक और खान देश पर लगभग ७० वर्ष अामीरों का राज्य रहा। तदनन्तर वहाँ प्राचीन रट्टिक एवं भोजों के वंशजों—राष्ट्रिकों का आधिपत्य हुआ और ३री से ६ठी शती तक वे राज्य करते रहे, ५वीं शती में चालुक्यों के उदय से राष्ट्रीक गौण हुए और फिर ८वीं शती में राष्ट्रकूटों के रूप में उनका उत्थान हुआ। अब आगे तीसरी से १०वीं शती पर्यन्त दक्षिण भारत का इतिहास कदम्ब, पल्लव, गंग, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों का ही इतिहास रहा। पल्लव वंश का प्रथम राजा विरूकुरुच था, उसके बाद स्कंदवर्मन हुआ, यह धर्ममहाधिराज भी कहलाता था। पल्लव राजाओं पर स्वामी समन्तभद्र और उनके धर्म का प्रभाव रहा है। प्रारम्भिक पल्लव राजाओं के विशेष कर शिवस्कन्दवर्मन स्वयं आगमों के टीकाकार जैन गुरु बप्पदेव का शिष्य था। इसके बाद सिंहवर्मन, बुद्धवर्मन, कुमारविष्णु (३२५-५० ई.) विष्णुगोप सिंहवर्मन द्वितीय राजा हुए, सिंहवर्मन के राज्य में (४५८ ई.) में पाटलिक ग्राम के जिनालय में जैनाचार्य सर्वनन्दी ने लोकविभाग प्राकृत ग्रंथ पूर्ण किया था। यह जैनी था। इसके उपरान्त दो—तीन राजा और हुए। सन् (५५० ई.) के लगभग कुमारविष्णु से प्रारम्भ होने वाली पल्लव वंश की इस दूसरी शाखा का अन्त हुआ। पल्लव (५५०-६०० ई.) में तीसरी शाखा का प्रारम्भ हुआ। इसके आश्रय में महाकवि भारवि ने जीवन के अन्तिम वर्ष बिताये थे।
इसका उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन (६००-६३० ई.) हुआ वह जैनधर्मभक्त था। कई जैन मन्दिर और सित्तनवासल की गुफाएं भी उसने बनवाई थीं। इन गुफाओं में भित्तिचित्र भी मिलते हैं। चैत्यालयों के निर्माण के कारण इसे चैत्यकन्दर्प उपाधि प्राप्त हुई थी। महेन्द्रवर्मन का उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मन प्रथम (६३०-६८० ई.) प्रतापी नरेश था। यह शैवधर्म का समर्थक था किन्तु इसके राज्य में जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मों के साधु, देवालय, मठ और अनुयायी पर्याप्त संख्या में थे। तदनन्तर नरसिंहवर्मन द्वितीय (६९०-७१५ ई.) शैवधर्म का समर्थक हुआ। सन् ७०५ ई. में नन्दिवर्मन हुआ इसने चालुक्यों, राष्ट्रकूटगंगों से अनेक युद्ध किये। इसके पुत्र दन्तिवर्मन ने (१९५-८४५ ई.) तक राज्य किया, उसका उत्तराधिकारी नन्दिवर्मन तृतीय (८४४-८६६ ई.) हुआ। इसका पुत्र नृपतुंगवर्मन नरेश हुआ, यह जैनधर्म का समर्थक था। इस वंश का अन्तिम नरेश अपराजित था।
१०वीं शताब्दी में चोल सम्राटों के अभ्युत्थान ने पल्लव राज्य का अंत किया। पल्लवों की एक शाखा नोलम्बवाड़ी के नोलम्ब थे, इस वंश में जैनधर्म की प्रवृत्ति निरन्तर बनी रही। पल्लव वंश के प्राय: सभी नरेश विद्याओं और कलाओं के पोषक थे और विद्वानों का आदर करते थे। प्राकृत, संस्कृत, तमिल भाषाओं में श्रेष्ठ धार्मिक एवं लौकिक साहित्य का पल्लव नरेशों के आश्रय में सृजन हुआ। ७वीं शती ई. के पूर्व पल्लव राज्य में जैन और बौद्ध धर्मों की ही प्रधानता थी, तदुपरान्त शैव और वैष्णव धर्मों का प्रसार हुआ। जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव चारों ही धर्म इस राज्य में साथ—साथ फलते फूलते रहे” ७वीं ८वीं शताब्दी में शैव और वैष्णवों ने जैनों और बौद्धों पर भीषण अत्याचार करने आरंभ कर दिये किन्तु दक्षिण के विद्वान जैन गुरुओं ,उनके संघों के संगठन, अनेक पड़ोसी राजाओं तथा सामन्त सरदारों की जैनधर्म में आस्था आदि कारणों से जैनधर्म पल्लव राज्य में अंत तक बना रहा।।
पाण्डय राज्य — ईस्वी सन् के बहुत पहले से इस वंश की अवस्थिति थी। ई. सन् के प्रारम्भ के लगभग पाण्डय राज्य उन्नत अवस्था में था। रोम के सम्राटों से इस वंश के राजनैतिक सम्बन्ध थे। ई. पू. २५ में पाण्डय नरेश ने एक जैन मुनि को रोम के सम्राट आगस्ट्स के दरबार में भेजा था। उक्त मुनि ने अपना अंत निकट जानकर रोम में सल्लेखना द्वारा देह त्याग किया और वहाँ उनकी समाधि बनी थी। आचार्य कुन्दकुन्द, बलाकपिच्छ, समन्तभद्र आदि ने द्रविड़ देश में जैनधर्म का पोषण किया। पाण्डय राज्य की राजधानी मथुरा में सर्वप्रथम तमिल भाषा के साहित्य का प्रणयन हुआ। तिरुकुरल, तोलकप्पियम, नलादियर आदि का प्रणेता जैनों को माना जाता है। ५वीं शती में आचार्य देवनन्दी पूज्यपाद ने द्रविड़ देश में विहार किया। ५वीं से ७वीं शती तक पाण्डय देश में जैनधर्म का अत्युत्कर्ष हुआ। वज्रनन्दि और उनके सहयोगी गुणनन्दि, वक्रगीव, पात्रकेसरी, सुमतिदेव, श्रीवर्धदेव आदि जैनाचार्यों ने द्रविड़ या द्रमिल संघ को एक सजीव शक्ति बना दिया। इन विद्वानों ने अनेक ग्रंथों का संस्कृत, प्राकृत, तमिल भाषाओं में प्रणयन किया। ६ठी शती के अंत में कडुंग राजा ने पाण्डय राज्य की शक्ति का पुनरुत्थान किया। वह पूर्वजों की भाँति जैनभक्त था। उसके क्रमश: ४ वंशज भी जैनी थे। १०वीं शती के प्रारम्भ में चोलों ने पाण्डय राज्य पर विजय करके अपने साम्राज्य में मिला लिया” बारहवीं शती में पाण्ड्यों ने फिर से शक्ति पकड़ी और दूसरा पाण्डय साम्राज्य उदय में आया ” नरेश मारवर्मन कुलशेखर (१२६८-१३११ ई.) हुआ, उसके वृतान्त से विदित होता है कि उस समय पाण्डय देश में अनेक जैन मठ और जैनी विद्यमान थे। १३१० ई. में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण ने मदुरा के पाण्डय राज्य का अंत कर दिया।
चोल राज्य— ईसवी सन् की प्रारंभिक शताब्दियों में उरगपुर का चोलराज्य एक उन्नत राज्य था। नागों से उसका सम्बन्ध था और जैनधर्म की उस राज्य में प्रवृत्ति थी। तीसरी शती ई. से पल्लवों के उत्थान के कारण चोल राज्य का सूर्य कई शताब्दियों तक अस्त रहा और वह गौण राज्य के रूप में संभवत: चलता रहा। ९वीं शताब्दी ई. में चोल देश के तंचाऊर नगर में विजयालय चोल ने चोल राज्य का पुनरुत्थान किया और अपने वंश की स्थापना की। उसके उत्तराधिकारी आदित्य चोल, परान्तक चोल (९०७-९४३ ई.) राजा हुए उसके कतिपय उत्तराधिकारी महत्वपूर्ण नहीं थे किन्तु राजा चोल (९८५-१०१६ ई.) इस वंश का महान नरेश था, यह सामान्यत: शैवधर्म का अनुयायी था, किन्तु वह उदार सहिष्णु नरेश था उसके राज्य में जैनों के ऊपर कोई अत्याचार नहीं हुआ, जैनियों को शैवों के समान ही राज्याश्रय प्राप्त था और उसके राज्य में जैनधर्म उन्नत अवस्था में था। १०७४ ई. में कोलुत्तुंग जैनधर्म का अनुयायी सम्राट हुआ। इसके आश्रय में अनेक जैन विद्वानों ने अनेक ग्रंथों की रचना की थी। इस नरेश ने अपने राज्य से समस्त निषिद्ध पदार्थों का आयात बन्द कर दिया था। प्राचीन भारत में चरित्रवान नरेशों में उसकी गणना की जाती है। चोल साम्राज्य में जैन संस्कृति उन्नत रूप में थी तथा हिन्दू धर्म के साथ निर्विरोध सद्भावपूर्वक लोक कल्याण में रत थी। (पृ. १८९)२२ गंगवंश—दक्षिण के सम्पूर्ण वंशों में यह सर्वाधिक स्थायी रहा और पल्लव, कदम्ब, चालुक्य, राष्ट्रकूट सभी प्रधान राजशक्तियों का प्रबल प्रतिद्वन्दी बना रहा। इस वंश का प्रथम राजा माधव कोंगुणिवर्म प्रथम (१८९-२५० ई.) था।
यह पराक्रमी व धर्मात्मा था। इसने एक भव्य जिनालय एवं विद्यापीठ बनवाया जो शिक्षा और संस्कृति का केन्द्र रहा था। उसके उपरान्त किरियमाधव द्वितीय हुआ। वह नीतिशास्त्र में निष्णात था। वैशेषिक सूत्रों पर उसने टीका लिखी थी। ३री—४थी शताब्दी में गंग नरेशों के शासनकाल में कई प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए। कसायपाहुड के आचार्य यतिवृषभ कृत चूर्णीसूत्रों पर वृत्ति लिखी, शामकुण्ड और बप्पदेव ने भी आगमों पर टीकाएं लिखी। कुचिभट्टारक और नन्दमुनि ने पुराण ग्रंथ लिखे। शिवधर्म ने कम्मपयडि और सत्तक नामक कर्मग्रंथों की रचना की। यशोभद्र, प्रभाचन्द्र ,श्रीदत्त आदि विद्वान भी इसी काल में हुए। अविनीत कोंगुणि पराक्रमी और धर्मात्मा नरेश था उसके गुरु जैनाचार्य विजयकीर्ति थे। उसने अनेक अर्हतायतन को दान दिया था, देवनन्दी पूज्यपाद (४६४-५२४ ई.) में उसने अपने पुत्र युवराज दुर्विनीत का शिक्षक नियुक्त किया था। दुर्विनीत कोंगुणी गंगवंश का महान नरेश था।
महाकवि भारवि भी कुछ समय तक उसके दरबार में रहे और उसने उनके करातार्जुनीय के १५वें सर्ग पर टीका भी लिखी। कन्नड़ भाषा के प्रारंभिक लेखकों और कवियों में भी दुर्विनीत की गणना है।२३ (पृ. १९७) दुर्विनीत के प्रधान धर्म एवं विद्यागुरु पूज्यपाद देवनंदि जैनधर्म के महान आचार्यों में से हैं। जैनेन्द्रव्याकरण, शब्दावतार, सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र आदि अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की उन्होंने रचना की। सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, काव्य, आयुर्वेद, छंदशास्त्र आदि विभिन्न विषयों में वे निष्णात थे। तदुपरान्त मुष्कर राजा हुआ इसने मुष्कर वसदि नामक जिनालय का निर्माण कराया था। भूविक्रम, विक्रमादित्य गोविन्द शचीन्द्र पृथ्वीकोंगुणि राजा भी जिनभक्त था। पृथ्वीकोंगुणि ने जैनमन्दिरों का निर्माण कराया था। यह युग शांतिपूर्ण रहा, अनेक विद्वान जैनाचार्यों ने ६ठी ७वीं शताब्दी में जैनधर्म की प्रभावना की और महत्त्वपूर्ण साहित्य का सृजन किया।
गंग नरेशों से सम्मान प्रश्रय पाने वाले इस काल के जैनगुरु व विद्वान निम्नलिखित हैं— पूज्यपाद, गुणनन्दि, वक्रग्रीव, पात्रकेसरी, वज्रनन्दि, सुमतिदेव, श्रीवर्धदेव, गंगाचार्य, ऋषिपुत्र, वृषभनन्दि, चन्द्रसेनाचार्य , जोइन्दु, महासेन, जटासिंहनन्दि, रविषेण, पद्मनन्दि, अपराजितसूरि, कुमारनन्दि, धनंजय कवि इत्यादि। सन् ७७७ ई. में श्रीपुरुष ने राज्य का परित्याग करके पुत्र शिवमार द्वितीय को सिंहासन देकर जैनगुरुओं के निकट उदासीन श्रावक के रूप में धर्मसाधन किया। शिवमार जैनधर्म में ७ का महान संरक्षक था। श्रवणबेलगोल में एक जिनालय भी इसने बनवाया था जिसे शिवमारन वसदि कहते हैं। युवराज भारसिंह और उसके चाचा दुग्गमार ने अंजनेय नामक मन्दिर बनवाया था। इस वंश में अनेक राजा हुए जिन्होंने जैनधर्म संरक्षण में अपना योगदान दिया। राजदमल्ल नरेश के मंत्री चामुण्डराय के कारण गंगवंश इतिहास में अमर हो गया। यह मंत्री राजनीतिज्ञ वीर योद्धा, स्वामीभक्त, कन्नड़, संस्कृत, प्राकृत भाषाओं का विद्वान, कवि और लेखक था। दक्षिण भारत में जैनधर्म की स्थिति इसने सुदृढ़ की। अपनी माता की इच्छापूर्ति करने के लिये उसने ९७८ ई. में श्रवणबेलगोल में गोम्मटेश्वर बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण कराया था। इसके अलावा भी कल्याणी के कलचुरि, चोरवंश उपवंश सौन्दत्ति के रट्ट कोंकण के शिलाहार, चंगाल्व वंश, अलुव वंश, गंगधारा का चालुक्य वंश, वंग, वंष, पोम्बच्चपुर के तांतर, वारंगल के कांतीय, देवगिरि के यादव इत्यादि वंश दक्षिण में हुए हैं, जिन्होंने जैनधर्म संरक्षण में अपना योगदान दिया है लेकिन विस्तार भय से हम उन सबका विस्तृत विवेचन यहाँ नहीं कर रहे हैं।