कलकत्ता नगरी। एक आदमी घूमने निकला। रास्ते में एक बूढ़े को चिंता में मग्न सिर झुकाये देखा तो उनसे रहा नहीं गया। हमदर्दी से पूछा—भाई तुम इतने परेशान क्यों हो ? बूढ़े ने अनजान व्यक्ति को अपना दुखड़ा सुनाना उचित न समझ कर टालने की कोशिश की। परन्तु आगन्तुक ने और अधिक सहानुभूति जताते हुए पूछा—शायद मैं आपकी कुछ मदद कर सकू। बूढ़ा कुछ आश्वस्त होकर बोला, मैं एक गरीब ब्राह्मण हूँ। बेटी के विवाह के लिये एक महाजन से कर्ज लिया था। परन्तु उसे लाख कोशिश करके भी चुका नहीं सका। अब उसने मुकदमा दायर कर लिया है। समझ में नहीं आता कि क्या करूँ और उनका कर्ज किस प्रकार चुकाऊँ । उस व्यक्ति ने गरीब ब्राह्मण से पूरा विवरण प्राप्त किया, जिसमें मुकदमें की अगली तारीख तथा अदालत का नाम भी शामिल था। मुकदमे की निश्चित तारीख पर वह ब्राह्मण घबराया हुआ अदालत में पहुँचा और एक कोने में बैठकर अपने नाम की पुकार का इन्तजार करने लगा। काफी देर बाद भी जब पुकार नहीं हुई, तो वह और भी चिंतित हुआ । घबराकर उसने अदालत के अहलकारों से पूछताछ की, तो पता चला कि किसी ने उसके कर्ज की पूरी रकम जमा करवा दी और मुकदमा खारिज हो गया है। ब्राह्मण को आश्चर्य के साथ खुशी भी हुई । उसने पता लगाया तो उसको जानकारी मिली कि उसका कर्ज उतारने वाले धर्मात्मा पुरूष वही थे, जो एक दिन सड़क के किनारे उससे दु:खी और चिंता में मग्न बैठे होने का कारण पूछ रहे थे। वे उदारता के अनुपम रूप थे— बंगाल के महान समाज सुधारक तथा परोपकारी ईश्वरचंद्र विद्यासागर।