प्रथम अध्याय
दूसरा अध्याय
तन औदारिक आदि हैं एक जीवलों चार।
आहारक छठवें ही हो प्रमत्त के निरधार ॥ ३॥
तीसरा अध्याय
सौ धर्मादिक सोलह कलप ब्रह्मलोक लोकान्ति ।
ग्रवेयकादि अकल्प है मत मन में रख भ्रांति ॥ २॥
पांचवाँ अध्याय
छठा अध्याय
दर्शन विशुद्धि आदि हैं षोड़श जो भी हेतु।
तीर्थंकर जो नाम हैं उसके आस्रव हेतु ॥ ६॥
सातवां अध्याय
श्रावक के वे आठ हैं शील सात भी मान ॥ ३॥
आठवां अध्याय
शतअरु अड़तालीस हैं उत्तर प्रकृति मान।
ज्ञानावरणादिक त्रय अंतराय भी जान ॥ २॥
नवमां अध्याय
दसवाँ अध्याय