सिद्धिप्रासादनि:श्रेणी-पंक्तिवत् भव्यदेहिनाम्।
दशलक्षणधर्मोऽयं, नित्यं चित्तं पुनातु न:।।१।।
भव्य जीवों के सिद्धिमहल पर चढ़ने के लिये सीढ़ियों की पंक्ति के समान यह दशलक्षणमय धर्म नित्य ही हम लोगों के चित्त को पवित्र करे।
सर्वं यो सहते नित्यं क्षमादेवीमुपास्य स:।
पाश्र्ववत् जायते जित्वोपसर्गांश्च परीषहान्।।१।।
शांति:किं स्यात्व्रुधाकिं नु नश्येत् वैरं हि वैरत:।
रत्तेन रञ्जितं वस्त्रं,किं रजसा विशुद्ध्यति।।२।।
अपकत्र्रे हि कोपश्चेत्,किं न कोपाय कुप्यसि।
क्रोधोऽयं ते महाशत्रुर्लोकद्वयविनाशकृत।।३।।
मुनय: पांडवाद्याश्च प्राणहारिरिपूनपि।
क्षान्त्वा सर्वंसहा: सिद्धा जातास्तेभ्यो नमोऽस्तु मे।।४।।
द्रव्यं भावं द्विधा क्रोधं भित्वाहं स्वात्मचिंतनात्।
उत्तमक्षांतियुक्स्वात्मज्ञानं लप्स्ये सुखं ध्रुवम्।।५।।
जो क्षमा देवी की उपासना करके हमेशा सभी कुछ सहन कर लेता है वह उपसर्गों और परीषहों को जीतकर पाश्र्वनाथ तीर्थंकर के सदृश महान हो जाता है। क्या क्रोध से शांति हो सकती है ? क्या बैर से बैर का नाश हो सकता है ? क्या खून से रंगा हुआ वस्त्र खून से ही साफ हो सकता है ? यदि अपकार करने वाले के प्रति तुझे क्रोध आता है तो फिर तू क्रोध पर ही क्रोध क्यों नहीं करता है ? क्योंकि यह क्रोध तो तेरे दोनों लोकों को विनाश करने वाला महाशत्रु है। पांडव, गजकुमार आदि महामुनि अपने प्राणों का घात करने वाले महाशत्रुओं को भी क्षमा करके ‘सर्वंसह’ सिद्ध हो गये हैं उनको मेरा नमस्कार होवे। द्रव्य और भाव इन दो प्रकार के क्रोध को मैं अपने आत्मचिन्तन के बल से भेदन करके उत्तम क्षमा से युक्त अपने ज्ञान और सौख्य को निश्चित रूप से प्राप्त करूँगा, हमेशा ऐसी भावना भाते रहना चाहिये।।१—५।।
मार्दव: स्यान्मृदोर्भावो, मानशत्रोर्विमर्दक:।
चतुर्धा विनयोपेतो, वर्जित: सोऽष्टभिर्मदै:।।१।।
इन्द्रवत् खग इन्द्राख्यो, रावणेन विनिर्जित:।
रावणोऽपि स्वयं नष्ट:,किं मानेन प्रयोजनम्।।२।।
उच्चं नीचं धृतं सर्वं, पर्यायं भुवने मया।
इन्द्रसौख्यमवाप्तं हा! निगोदेष्वपि दु:खित:।।३।।
चक्रभृत् भरतेशोऽपि, वृषभािंद्र व्यलोकयत्।
स्यफेटत्वाक्षरं तत्र, स्वप्रशस्तिं लिलेख स:।।४।।
स्वात्मगुणस्य सन्मानै: स्वात्मानंदामृतं स्वदे।
स्वाभिमाने पदे स्थित्वा ज्ञानादिगुणमाप्नुयाम्।।५।।
मृदु का भाव मार्दव है, यह मार्दव मानशत्रु का मर्दन करने वाला है, यह आठ प्रकार के मद से रहित है और चार प्रकार की विनय से संयुक्त है। देखो, इन्द्र नाम का विद्याधर इन्द्र के समान वैभवशाली था फिर भी रावण के द्वारा पराजय को प्राप्त हुआ है और वह रावण भी एक दिन मान के वश में नष्ट हो गया, अत: मान से क्या लाभ है ? मैंने इस संसार में ऊँच और नीच सभी पर्यायें धारण की हैं। अहो! मैंने इन्द्रों के सुख भी प्राप्त किये हैं और हा! खेद है कि निगोद पर्याय में दु:ख भी प्राप्त किये गये हैं। देखो, चक्ररत्न को धारण करने वाले भरत चक्रवर्ती भी वृषभाचल पर्वत को देखता है पुन: उस पर से अक्षर को मिटाकर वह अपनी प्रशस्ति को लिखता है। अपने आत्मगुणों के सन्मान से अपने आत्मा के आनन्दरूपी अमृत को चखना चाहता हूँ। अपने स्वाभिमानमय पद में स्थित होकर मैं ज्ञानादिगुण को प्राप्त कर लूँ, मेरी यही भावना है, प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी भावना सदा भाते रहना चाहिये।।१—५।।
आर्जव: स्यादृजोर्भाव: त्रियोगं सरलं कुरु।
तिर्यग्योनिर्भवेल्लोके माययानंतकष्टदा।।१।।
छद्मत: सगरो राजाऽवमेने मधुिंपगल:।
सोऽपि कालासुरो भूत्वाहिसायज्ञमकारयत्।।२।।
साधुर्मृदुमति: छद्मभावात् हस्ती बभूव च।
धिक् धिक् मायामहादेवीं यत्प्रसादाद् भुवि भ्रमेत्।।३।।
ऊध्र्वग: ऋजुभावेन कौटिल्येन चतुर्गति:।
यत्ते रोचेत तत्कुर्या: किमन्यैर्बहुजल्पनै:।।४।।
विश्वासं परत: त्यक्त्वा, स्थित्वा स्वस्मिन् स्वयं स्वत:।
त्रियोगमचलं कृत्वा स्वकं रत्नत्रयं लभे।।५।।
ऋजु अर्थात् सरलता का भाव आर्जव है अर्थात् मन-वचन-काय को कुटिल नहीं करना। इस मायाचारी से अनंतों कष्टों को देने वाली तिर्यंच योनि मिलती है। सगर राजा ने सुलसा से स्वयंवर में मायाचारी से मधुिंपगल का अपमान किया था पुन: वह मधुिंपगल मरकर ‘काल’ नाम का असुर देव हो गया और उसने द्वेष में आकर िंहसामयी यज्ञ को चला दिया। मृदुमति नाम के मुनि ने मायाचारी की, जिसके फलस्वरूप वह त्रिलोकमंडन हाथी हो गया। इसलिये इस माया नाम की महादेवी को धिक्कार हो! धिक्कार हो! कि जिसके प्रसाद से यह जीव संसार में परिभ्रमण करता है। सरल भाव से ऊध्र्वगति होती है। इसका अर्थ यह भी है कि ऋजुगति से जीव मोक्ष गमन करता है और कुटिलता से चारों गतियों में अर्थात् वक्रगति में संसार में भ्रमण करता है अत: बहुत अधिक कहने से क्या? इसमें से तुझे जो रुचता है सो कर। पर वस्तु से विश्वास को त्याग कर मैं अपने में आप स्वयं स्थित होकर मन-वचन-काय को स्थित करके अपने रत्नत्रय को प्राप्त करूँगा, ऐसी भावना प्रतिदिन भाते रहना चाहिये।।१—५।।
सत् सम्यक् च प्रशस्तं स्यात् सत्यं पीयूषभृद् वच:।
मिथ्यापलापकं वाक्यं धर्मशून्यं सदा त्यज।।१।।
गर्हितं निदितं हिसापैशून्याप्रियकर्कशं।
आक्रोशक्रोधवैरादिसावद्योत्सूत्रकं त्यजे:।।२।।
मंत्री श्रीवंदकोऽसत्यैर्वाक्यै र्दृग्भ्यां च्युत: क्षणात्।
वसुराजाप्यसत्पक्षात् सप्तमं नरकं गत:।।३।।
सत्यं प्रियं हितं वाक्यं सुंदरं सर्वंसिद्धिदं।
विश्वासघातवल्लोके महापापं न वर्तते।।४।।
स्वस्मात् भिन्नं परद्रव्यं मा कुर्वात्मन्! स्वकीयकम्।
सम्यक् स्वस्मिन् स्ववं ध्यात्वा, स्वात्माल्हादं सुखं भज।।५।।
सत् अर्थात् समीचीन और प्रशस्त वचन सत्य कहलाते हैं। ये वचन अमृत से भरे हुये हैं। मिथ्या अपलाप करने वाले और धर्मशून्य वचन सदा छोड़ो। गर्हित, िंनदित, िंहसा, चुगली, अप्रिय, कठोर, गाली-गलौज, क्रोध, वैर आदि के वचन, सावद्य के वचन और आगम विरुद्ध वचन इन सबको छोड़ो। देखो! श्रीवंदक नामक बौद्ध मंत्री असत्य वचनों के द्वारा क्षण मात्र में आँखों से अंधा हो गया। वसु राजा भी असत्य के पक्ष में सातवें नरक में चला गया। सत्य, प्रिय, हितकर और सुन्दर वचन सर्वसिद्धि को देने वाले हैं। इस लोक में विश्वासघात के समान महापाप कोई नहीं है। हे आत्मन्! अपने से भिन्न परद्रव्य को अपना मत बनाओ और अपने में अपने को अच्छी तरह से ध्याकर अपनी आत्मा के आह्लादमय सुख को प्राप्त करो, ऐसी भावना सतत भाते रहना चाहिये।।१—५।।
शुचेर्भावो भवेत् शौचमन्तर्लोभो निवार्यताम्।
या निर्लोभवती देवी त्वया नित्यमुपास्यताम्।।१।।
कामधेनुं ऋिंष हत्वा कृतवीरोऽहरत् तत:।
जघानैकिंवशतिश: क्षत्रियान् जमदग्निज:।।२।।
देहीति वाक्यतो नूनं, नाऽप्यणुवल्लघुर्भवेत्।
दाता गगनवल्लोके, विशाल: स्याच्च कीर्तिमान्।।३।।
जलाद्यैर्बाह्यशुद्धिं च, कुर्वंति श्रावका: सदा।
स्वात्मशुद्धिं च कुर्वंति साधवो ब्रह्मचारिण:।।४।।
ज्ञानामृतैरहं शश्वदात्मकर्ममलं नुदन्।
स्वयं शौचगुणै: लप्स्ये स्वात्मसौख्यामृतं शुचि।।५।।
शुचि—पवित्रता का भाव शौच है अर्थात् अंतरंग के लोभ को दूर कीजिये और जो निर्लोभवती देवी है उसकी नित्य ही उपासना कीजिये। राजा कृतवीर ने जमदग्नि ऋषि को मारकर उसकी कामधेनु का अपहरण कर लिया। तब ऋषि पुत्र परशुराम ने भी व्रुद्ध होकर इक्कीस बार राजवंश को समूल नष्ट कर दिया। ‘देहि’ अर्थात् देओ! इस वाक्य से निश्चित ही वह मनुष्य अणु के समान लघु हो जाता है और देने वाला दाता लोक में आकाश के समान विशाल और कीर्तिमान हो जाता है। श्रावक हमेशा जल आदि से बाह्य शुद्धि करते हैं और साधुगण तथा ब्रह्मचारी जन आत्मशुद्धि करते हैं। मैं ज्ञानरूपी अमृत से हमेशा आत्मा के कर्ममल को दूर करते हुए स्वयं शौच गुणों से पवित्र अपनी आत्मा के सुखरूपी अमृत को प्राप्त करूँगा, प्रत्येक व्यक्ति को हमेशा ऐसी भावना करते रहना चाहिये।।१—५।।
प्राणीन्द्रियैद्र्विधा प्रोक्त:, संयम: संयतै: जनै:।
षट्कायजीवरक्षा स्यात् पंचेन्द्रियमनोजय:।।१।।
जीवानां संकुले लोके, कुर्वे ह्याचरणं कथम्।
भाषे भुंजे कथं स्वामिन्! यतो पापं न बध्यते।।२।।
यत्नादाचरणं कुर्या:, यत्नात् भाषण भोजनम्।
यत्नात् सर्वां क्रियां कृत्वा त्वया पापं न बध्यते।।३।।
एकव्रतयुतं शत्रुं सीताचरोऽपि रावणम्।
सम्यक्त्वं ग्रहयित्वा सोऽकार्षीत् वैरविमोचनम्।।४।।
संयम्येंद्रियचेतोऽहं वाञ्छामि स्वात्मनि स्थित।
कर्म कर्मफलं भुंजन, मनाक् खेदमनाप्नुयाम्।।५।।
संयत मुनियों में प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा दो भेद हैं। पाँच स्थावर और त्रस ऐसे षट्काय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है और पाँच इन्द्रियों तथा मन का जय करना इन्द्रिय संयम है। हे भगवन्! जीवों से ठसाठस भरे हुये इस संसार में मैं कैसे प्रवृत्ति करूँ ? कैसे बोलूँ ? और कैसे भोजन करूँ? कि जिससे पाप का बन्ध नहीं होवे। इस प्रकार से प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि यत्नपूर्वक आचरण करो, यत्नपूर्वक भाषण और भोजन करो तथा यत्नपूर्वक संपूर्ण क्रिया करने से तुम्हें पाप का बन्ध नहीं होगा। देखो! सीता का जीव जब अच्युतेन्द्र हुआ तब ‘एक व्रत को धारण करने से रावण मेरे साथ बलात्कार करने के लिये प्रयत्नशील नहीं हुआ’ ऐसा सोचकर वह अच्युतेन्द्र नरक में जाकर रावण को सम्यक्त्व ग्रहण कराकर वैर का त्याग कर देता है। मैं सर्व इन्द्रिय और मन को नियन्त्रित करके अपनी आत्मा में स्थित करना चाहता हूँ कि जिससे कर्म और कर्म के फल को भोगता हुआ िंकचित् मात्र खेद को न प्राप्त होऊँ, प्रतिदिन ऐसी भावना भाते रहना चाहिये।।१—५।।
तपो द्वादशधा प्रोत्तं, बाह्याभ्यंतरसंयुतम्।
बाह्यमनशनादि स्यात्, प्रायश्चित्तादि चांतरम्।।१।।
सम्यक् तपांसि रुन्ध्दंति, पतनं भववारिधौ।
कायं कृष्ट्वा समाप्नोति नरोऽनंतबलं सुखम्।।२।।
मयनाममुनीशं सा स्पृष्ट्वा सिंहेन्दुकं पतिं।
अस्प्राक्षीत् तत्क्षणं सोऽपि, निर्विषस्तमपूजयत्।।३।।
तपोभिर्दीप्ततप्ताद्या: ऋद्धय: प्रभवन्त्यरम्।
निस्पृहा अपि ते सन्त: कथ्यन्तेऽत्र तपोधना:।।४।।
इच्छां सर्वां निरुध्याशु, तप्त्वा सम्यक् तप: स्वयं।
ध्यानाग्नौ कर्मकाष्ठानि क्षिप्त्वा शुद्धो भवाम्यहम्।।५।।
तप के बाह्य और आभ्यंतर से युक्त बारह भेद कहे गये हैं। अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशयनासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान ये छह अंतरंग तप हैं। सम्यक् तप जीव के संसार समुद्र में पतन को रोक लेते हैं। मनुष्य काय को कृश करके अपने अनंतबल और सुख को प्राप्त कर लेता है। एक रानी ने मय नाम के ऋद्धियुक्त मुनि का स्पर्श करके विष से मूर्छित अपने पति राजा सिंहेंदु का स्पर्श किया तो उसी क्षण वे निर्विष हो गये पुन: उन मुनि की पूजा की। तप के प्रभाव से दीप्त तप, तप्ततप आदि ऋद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं फिर भी वे साधु उनसे निस्पृह रहते हैं अत: वे ‘तपोधन’ इस सार्थक नाम से पुकारे जाते हैं। संपूर्ण इच्छाओं का निरोध करके मैं सम्यक् तप को तपकर ध्यानरूपी अग्नि में कर्म र्इंधन को डालकर शुद्ध हो जाऊँगा, ऐसी भावना से ही कर्म नष्ट होते हैं।।१—५।।
रत्नत्रयस्य दानं स प्रासुक त्याग उच्यते।
चतुर्धा दानमप्यार्षात् त्रिधा पात्राय दीयते।।१।।
वङ्काजंघो नृपो राज्ञया श्रीमत्या सह कानने।
भुत्तिं ददौ मुनिभ्यां स तीर्थेशो वृषभोऽभवत्।।२।।
भूत्वा श्रीमत्यपि श्रेयान् दानतीर्थ प्रवर्तक:।
श्रीकृष्ण औषधेर्दानात् पुण्यभाक् भावितीर्थकृत्।।३।।
सच्छास्त्रदानतो गोप: कौंडेश: श्रुतपारग:।
वसते र्दानमाहात्म्यात् घृष्टि: स्वर्गतिमाप्तवान्।।४।।
रत्नत्रयमहं दत्वा स्वस्मै सर्वगुणात्मकं।
स्वात्मतत्त्वं लभेयाशु स्वस्मिन्नेव लयं पुन:।।५।।
‘रत्नत्रय का दान देना वह प्रासुक त्याग कहलाता है और तीन प्रकार के पात्रों के लिए चार प्रकार दान देना भी त्याग है’ ऐसा आर्ष ग्रंथ में कहा है। राजा वङ्काजंघ ने रानी श्रीमती के साथ वन में युगल मुनि को आहारदान दिया था, जिसके फलस्वरूप वे वृषभ तीर्थंकर हुए हैं तथा उनकी रानी श्रीमती भी उसी के प्रभाव से आगे राजा श्रेयांस होकर दानतीर्थ के प्रवर्तक हुए हैं। श्रीकृष्ण ने एक मुनि को औषधिदान दिया था, जिससे वे भविष्य में पुण्य के स्थान ऐसे तीर्थंकर होवेंगे। सच्चे शास्त्र के दान से एक ग्वाला अगले भव में कौंडेश मुनि होकर श्रुतज्ञानी हुआ। वसतिका के दान के प्रभाव से सूकर ने स्वर्ग को प्राप्त कर लिया। मैं भी रत्नत्रय का दान अपने को देकर सर्व गुणों से परिपूर्ण स्वात्म तत्त्व को शीघ्र ही प्राप्त कर लेऊँ और उसी में लीन हो जाऊँ, ऐसी भावना प्रत्येक व्यक्ति को भाते रहना चाहिए।।१—५।।
अकिञ्चनो न मे किंचित् आत्मानंत गुणात्मक:।
परद्रव्यात् सदा भिन्नस्त्रैलोक्याधिपतिर्महान्।।१।।
अणुमात्रं परं स्वस्य, मत्वा जीवो भवे भ्रमेत्।
कायेऽपि निर्ममो भूयात् लोकाग्रे निवसेत्तदा।।२।।
जमदग्निमुनिर्मिथ्यातापसोऽभूत् परिग्रही।
भवाब्धौ पतितो दीर्घभारै: स्यात्कथमूध्र्वग:।।३।।
पिच्छि कमंडलु शास्त्रं गृण्हाति देहनि: स्पृह:।
आतापनादियोगेषु तिष्ठेत् स्वात्मैक्यसंगत:।।४।।
भगवन्। त्वत्प्रसादान्मे शक्ति: प्रादुर्भवेत्त्वरम्।
गिरिकंदर दुर्गेषु स्वं ध्यायन, सिद्धि माप्नुयाम्।।५।।
‘न मे किञ्चन अकिञ्चन:’ मेरा कुछ भी नहीं है अत: मैं अकिञ्चन हूँ। फिर भी मेरी आत्मा अनंत गुणों से परिपूर्ण है। मैं सदा परद्रव्य से भिन्न हूँ और तीन लोक का अधिपति महान् हूँ। यह अणुमात्र भी परवस्तु को जब तक अपनी मानता रहता है तब तक संसार में भ्रमण करता रहता है और जब काय से भी निर्मम हो जाता है तब लोक के अग्रभाग में विराजमान हो जाता है। जमदग्नि मुनि ने मिथ्या तापसी होकर स्त्री आदि का परिग्रह स्वीकार कर लिया अत: वह संसार समुद्र में डूब गया। सच है, दीर्घ भार लेकर मनुष्य ऊपर कैसे गमन कर सकता है ? शरीर से भी नि:स्पृह हुए साधु पिच्छी, कमण्डलु और शास्त्र को ग्रहण करते हैं फिर भी अपनी आत्मा में एकाग्र होते हुए आतापन आदि योगों में स्थित हो जाते हैं। हे भगवन्! आपके प्रसाद से शीघ्र ही मुझ में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जावे कि मैं पर्वत पर, कन्दराओं में और दुर्ग आदि प्रदेशों में अपनी आत्मा का ध्यान करते हुए सिद्धि पद को प्राप्त कर लेऊँ, ऐसी भावना सदा भाते रहना चाहिए।।१—५।।
आत्मैव ब्रह्म तस्मिन् स्यात् चर्येति ब्रह्मचर्यभाक्।
वासो वा गुरूसंघेऽपि ब्रह्मचारी स उत्तम:।।१।।
एकमंकं विनाऽसंख्यविंदूनां गणना नु का ?
ऋते ब्रह्मव्रताल्लोकेऽन्यव्रतानां फलं कुत: ?।।२।।
अभुक्त्वापि परित्यत्तं विश्वमुच्छिष्टवत् पुरा।
यैस्तान्नमामि भवत्याहं कौमारब्रह्मचारिण:।।३।।
अणुब्रह्मव्रती श्रेष्ठी यशस्वीह सुदर्शन:।
सीताया: शीलमाहात्म्यात् अग्निर्वारिसरोऽभवत्।।४।।
स्वब्रह्मणि रमित्वाहं हित्वा सर्वान् विकल्पकान्।
लब्ध्वा ज्ञानवतीं लक्ष्मीं भविष्यामि जगत्पति:।।५।।
‘आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चर्या करना सो ब्रह्मचर्य है अथवा गुरु के संघ में रहना भी ब्रह्मचर्य है। इस विध चर्या को करने वाला उत्तम ब्रह्मचारी कहलाता है। जिस प्रकार से एक (१) अंक को रखे बिना असंख्य बिन्दु भी रखते जाइये, किन्तु क्या कुछ संख्या बन सकती है ? नहीं, उसी प्रकार से एक ब्रह्मचर्य के बिना अन्य व्रतों का फल कैसे मिल सकता है अर्थात् नहीं मिल सकता। पहले बिना भोगे भी जिन्होंने इस विश्व को उच्छिष्ट के सदृश समझकर छोड़ दिया है, मैं उन बाल ब्रह्मचारियों को नमस्कार करता हूूँ। देखो! सुदर्शन सेठ ने ब्रह्मचर्याणुव्रत का ही पालन किया था, फिर भी वे आज तक यशस्वी हैं। सीता के शील के माहात्म्य से अग्नि भी जल का सरोवर हो गई थी। मैं भी सर्व विकल्पों को छोड़कर अपने ब्रह्मस्वरूप आत्मा में रमण करके ज्ञानवती लक्ष्मी को प्राप्त करके पुन: निश्चिंत हो तीनलोक का स्वामी हो जाऊँगा, ऐसी भावना सतत करनी चाहिए।।१—५।।
क्षमामूलं मृदुत्वं स्यात्, स्कंध शाखा: सदार्जवम्।
शौचं कं सत्यपत्राणि, पुष्पाणि संयमस्तप:।।१।।
त्यागश्चाकिञ्चनो ब्रह्म मंजरी सुमनोहरा।
धर्मकल्पद्रुमश्चैष दत्ते श्वश्च शिवं फलम्।।२।।
धर्मकल्पतरो! त्वाहं समुपास्य पुन: पुन:।
ज्ञानवत्या श्रिया युत्तं, याचे मुक्त्यैकसत्फलम्।।३।।
क्षमा जिसकी जड़ है, मृदुता स्कंध है, आर्जव शाखाएँ हैं, उसको सिंचित करने वाला शौचधर्म जल है, सत्यधर्म पत्ते हैं, संयम, तप और त्याग रूप पुष्प खिल रहे हैं, आकिञ्चन और ब्रह्मचर्य धर्मरूप सुन्दर मंजरियाँ निकल आई हैं। ऐसा यह धर्मरूप कल्पवृक्ष स्वर्ग और मोक्षरूप फल को देता है। हे धर्मकल्पतरो! मैं तुम्हारी पुन:-पुन: उपासना करके तुमसे ज्ञानवती लक्ष्मी से युक्त मुक्तिरूप एक सर्वोत्कृष्ट फल की ही याचना करता हूँ।।१ से ३।।
पर्यूषण पर्व का प्रारंभ भी क्षमाधर्म से होता है और समापन भी क्षमावणी पर्व से किया जाता है। दश दिन धर्मों की पूजा करके, जाप्य करके जो परिणाम निर्मल किये जाते हैं और दश धर्मों का उपदेश श्रवण कर जो आत्म शोधन होता है, उसी के फलस्वरूप सभी श्रावक-श्राविकाएँ किसी भी निमित्त परस्पर में होने वाली मनोमलिनता को दूरकर आपस में क्षमा कराते हैं क्योंकि यह क्रोध कषाय प्रत्यक्ष में ही अग्नि के समान भयंकर है। क्रोध आते ही मनुष्य का चेहरा लाल हो जाता है। ओंठ काँपने लगते हैं, मुखमुद्रा विकृत और भयंकर हो जाती है किन्तु प्रसन्नता में मुखमुद्रा सौम्य, सुन्दर दिखती है। चेहरे पर शांति दिखती है। वास्तव में शांत भाव का आश्रय लेने वाले महामुनियों को देखकर जन्मजात वैरी ऐसे क्रूर पशुगण भी क्रूरता छोड़ देते हैं। यथा—
सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नंदिनी व्याघ्र पोतं।
मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकांता भुजंगीम्।।
वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जंतवोऽन्ये त्यजंति।
श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम्।।
हरिणी सिंह के बच्चे को पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती है, गाय व्याघ्र के बच्चे को दूध पिलाती है, बिल्ली हंसों के बच्चों को प्रीति से लालन करती है एवं मयूरी सर्पों को प्यार करने लगती है। इस प्रकार से जन्मजात भी वैर को व्रूर जंतुगण छोड़ देते हैं। कब ? जबकि वे पापों को शांत करने वाले मोहरहित और समताभाव में परिणत ऐसे योगियों का आश्रय पा लेते हैं अर्थात् ऐसे महामुनियों के प्रभाव से हिंसक पशु अपनी द्वेष भावना छोड़कर आपस में प्रीति करने लगते हैं। ऐसी शांत भावना का अभ्यास इस क्षमा के अवलंबन से ही होता है। क्रोध कषाय को दूर कर इस क्षमाभाव को हृदय में धारण करने के लिए भगवान् पाश्र्वनाथ का चरित्र, श्री संजयंत मुनि का चरित्र और तुंकारी की कथाएँ पढ़नी चाहिए तथा क्षमाशील साधु पुरुषों का आदर्श जीवन देखना चाहिए। चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी आदि साधुओं ने इस युग में भी उपसर्ग करने वालों पर क्षमा भाव धारण करके सदैव प्राचीन आदर्श प्रस्तुत किया है। बहुत से श्रावक भी क्षमा करके-कराके अपने में अपूर्व आनंद का अनुभव करते हैं। अत: हृदय से क्षमा करना तथा दूसरों से क्षमा कराना ही क्षमावणी पर्व है।