श्वेतपिच्छाचार्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी महारजा की प्रेरणा से २३-१०-११ को दिल्ली में दानवीर सेठ श्री माणिकचन्द्र का १६० वां जन्म जयन्ती समारोह आयोजित किया गया। यह परिचय इस शृंखला में प्रकाशित किया गया है। सेठ माणिकचन्द्र जैन का चिन्तन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना १०० वर्ष पूर्व था।
दानवीर सेठ माणिकचन्द्र का जन्म सेठ हीराचन्द्र एवं माता बिजलीबाई के घर सूरत में धन तेरस (ध्यान तेरस) के शुभ दिन संवत् १९०८ में हुआ था। सेठ जी न अंग्रेजी के विद्वान् थे और न संस्कृत के, वे साधारण भाषा का पढ़ना लिखना जानते थे परन्तु उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ किया है उससे बाबू वर्ग और पण्डितगण दोनों ही बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। वे अपने अनुकरणीय चरित्र से बतला गये हैं कि कथनी की अपेक्षा करनी का मूल्य अधिक है—ज्ञान की अपेक्षा आचरण अधिक आदरणीय है। उनका अनुभव बहुत बढ़ा—चढ़ा था। जैन समाज के विषय में जितना ज्ञान उनको था उतना बहुत थोड़े लोगों को होगा। कभी—कभी उनके विचार सुनकर कहना पड़ता था कि अनुभव के आगे पुस्तकों और अखबारों का ज्ञान बहुत ही कम मूल्य का है। यदि संक्षेप में पूछा जाय कि सेठजी ने अपने जीवन में क्या किया? तो इसका उत्तर यही होगा कि जैन समाज में जो विद्या की प्रतिष्ठा लुप्त हो गई थी, उसको इन्होंने फिर से स्थापित कर दिया और जगह—जगह उसकी उपासना का प्रारम्भ करा दिया। सेठजी के हृदय में विद्या के प्रति असाधारण भक्ति थी। यद्यपि वे स्वयं विद्यावान् न थे, तो भी तो विद्या के समान मूल्यवान् वस्तु उनकी दृष्टि में और कोई न थी। उन्होंने अपनी सारी शक्तियों को इसी माँ सरस्वती की सेवा में नियुक्त कर दिया था। उनके हाथ से जो कुछ दान हुआ है, उसका अधिकांश इसी परमोपासनीय देवी के चरणों में सर्मिपत हुआ है, बाद में तो उनकी यह विद्याभक्ति इतनी बढ़ गई थी कि उसने सेठजी को कंजूस बना दिया था। जिस संस्था के द्वारा या जिस काम के द्वारा विद्या की उन्नति न हो, उसमें लोगों के लिहाज या दबाव से यद्यपि वे कुछ—न—कुछ देने को लाचार होते थे परन्तु वे उस दान से वास्तविक आनन्द का अनुभव नहीं कर पाते थे। सेठजी के हृदय में यह बात अच्छी तरह जम गई थी कि अंग्रेजी स्कूल और कालेजाों में जो शिक्षा दी जाती है, वह धर्मज्ञान शून्य होती है। उनमें से बहुत कम विद्यार्थी ऐसे निकलते हैं जो धर्मात्मा और अपने धर्म का अभिमान रखने वाले हों। अपनी जाति और समाज के प्रति भी उनके हृदय में आदर उत्पन्न नहीं होता है परन्तु वर्तमान समय में यह शिक्षा अनिवार्य है। अंग्रेजी पढ़े बिना अब काम नहीं चल सकता है, इसलिए कोई ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे उनके हृदय में धर्म का अंकुर उत्पन्न हो सके। इसके लिए आपने ‘‘जैन बोा\डग स्कूल’’ खोलना और उनमें स्कूल—कॉलेज के विद्यार्थियों को रखकर उन्हें प्रतिदिन एक घंटा धर्मशिक्षा देना लाभकारी समझा। इस ओर आपने इतना अधिक ध्यान दिया और इतना प्रयत्न किया कि इस समय दिगम्बर समाज में उनके द्वारा स्थापित २५ बोडग स्कूल काम कर रहे हैं। संस्कृत पाठशालाओं की ओर भी आपका ध्यान गया। संस्कृत की उन्नति आप हृदय से चाहते थे, आपने संस्कृत के लिए बहुत कुछ किया। बनारस की स्याद्वाद पाठशाला ने आपके ही अर्थ सहयोग से चिरस्थायिनी संस्था का रूप धारण किया है। आपके बोर्डिंग स्कूल में वे विद्यार्थी प्रथम स्थान पाते हैं, जिनकी दूसरी भाषा संस्कृत रहती थी और संस्कृत के कई विद्यार्थियों को आपकी ओर से छात्रवृत्तियाँ भी मिलती थी। अपने दान से वे जैन—परीक्षालय को स्थायी बना गये। सेठजी बहुत ही उदारहृदय थे। आम्नाय और सम्प्रदायों की शोचनीय संकीर्णता उनमें न थी। उन्हें अपना दिगम्बर सम्प्रदाय प्यारा था परन्तु साथ ही श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोगों से भी उन्हें कम प्रेम न था। वे यद्यपि बीसपंथी थे, पर तेरहपंथियों से अपने को जुदा न समझते थे। उनके बम्बई के बोा\डग स्कूल में सैकड़ों श्वेताम्बरी और स्थानकवासी विद्यार्थियों ने रहकर लाभ उठाया है। एक स्थानकवासी विद्यार्थी को उन्होंने विलायत जाने के लिए अच्छी सहायता भी दी थी उनकी सुप्रसिद्ध धर्मशाला हीराबाग में निरामिषभोजी किसी भी हिन्दू को स्थान दिया जाता था। साम्प्रदायिक और र्धािमक लड़ाइयों से उन्हें बहुत घृणा थी। उनकी प्रकृति बड़ी ही शान्तिप्रिय थी। पाठक पूछेंगे कि यदि ऐसा था तो वे मुकदमेबाजी में सिद्धहस्त रहने वाली तीर्थक्षेत्र कमेटी के महामंत्री क्यों थे? इसका उत्तर यह है कि वे इस कार्य को लाचार होकर करते थे, पर वे इससे दुखी थे और अन्त तक दुखी रहे। तीर्थक्षेत्र कमेटी का काम उन्होंने इसलिए अपने सिर लिया था कि इससे तीर्थक्षेत्रों में सुप्रबन्ध स्थापित होगा, वहाँ के धन की रक्षा और सदुपयोग होगा। यात्रियों को आराम मिलेगा और धर्म की वृद्धि होगी। इस इच्छा को कार्य में परिणत करने के लिए उन्होंने प्रयत्न भी बुित किये और उनमें सफलता भी बहुत कुछ मिली। कुछ ऐसे कारण मिले और समाज ने अपने विचार—प्रवाह में उन्हें ऐसा बहाया कि उन्हें मुकदमें लड़ने ही पड़े—पर यह निश्चय है कि इससे उन्हें कभी प्रसन्नता नहीं हुई। अपने ढाई लाख के अंतिम दान—पत्र में तीर्थक्षेत्रों की रक्षा के लिए ७/१०० भाग दे गये हैं, परन्तु उसमें साफ शब्दों में लिख गये हैं कि इसमें से एक पैसा भी मुकदमों में न लगाया जाय, इससे सिर्क तीर्थों का प्रबंध सुधारा जाय। जैनग्रंथों के छपाने और उनके प्रचार करने के लिए सेठजी ने बहुत प्रयत्न किया था। यद्यपि स्वयं आपने बहुत कम पुस्तके छपाई थीं। परन्तु पुस्तक प्रकाशकों की आपने बहुत जी खोलकर सहायता की थी। उन दिनों में जब छपे हुए ग्रंथों की बहुत कम बिक्री होती थी, तब सेठजी प्रत्येक छपी हुई पुस्तक को डेढ़—डेढ़ सौ, दो—दो सौ प्रतियाँ एक साथ खरीद लिया करते थे, जिससे प्रकाशकों को बहुत बड़ी सहायता मिल जाती थी। इसके लिए आपने अपने चौपाटी के चन्द्रप्रभ—चैत्यालय में एक पुस्तकालय खोल रखा था। उसके द्वारा आप स्वयं पुस्तकों की बिक्री करते थे और इस काम में अपनी किसी तरह की बेइज्जती न समझते थे। जैनग्रंथ रत्नाकर कार्यालय तो आपका बहुत बड़ा उपकार है। यदि आपकी सहायता न होती, तो आज वह वर्तमान स्वरूप को शायद ही प्राप्त कर पाता। आप छापे के प्रचार के कट्टर पक्षपाती थे परन्तु इसके लिए लड़ाई—झगड़ा, खंडन—मंडन आपको बिलकुल ही पंसद न था। जिन दिनों अखबारों में छापे की चर्चा चलती थी, उन दिनों आप हमें अकसर समझाते थे कि ‘‘भाई, तुम व्यर्थ ही क्यों लड़ते हो ? अपना काम किये जाओ। जो शक्ति लड़ने में लगाते हो, वह इसमें लगाओ। तुम्हें सफलता प्राप्त होगी। सारा विरोध शान्त हो जाएगा।’’ सेठजी के कामों को देखकर आश्चर्य होता है कि एक साधारण पढ़े—लिखे धनिक पर नये समय का और उसके अनुसार काम करने का इतना अधिक प्रभाव कैसे पड़ गया। जिन कामों में जैन समाज का कोई भी धनिक खर्च करने को तैयार नहीं हो सकता, उनक कामों में सेठजी ने बड़े उत्साह से द्रव्य खर्च किया। दिगम्बर जैन—डायरेक्टरी—एक ऐसा ही काम था। इसमें सेठजी ने लगभग १५ हजार रुपये लगाये। दूसरे धनिक नहीं समझ सकते कि डायरेक्टरी क्या चीज है और उससे जैन समाज को क्या लाभ होगा। विलायत एक ‘‘जैन—छात्रावास’’ बनवाने की ओर भी सेठजी का ध्यान था परन्तु वह पूरा न हो सका। धन वैभव का मद या अभिमान सेठजी को छू तक न गया था। इस विषय में आप जैन— समाज में अद्वितीय थे। गरीब—से—गरीब ग्रामीण जैनी से भी आप बड़ी प्रसन्नता से मिलते थे—उससे बातचीत करते थे और उसकी तथा उसके ग्राम की सब हालात जान लेते थे। आप शाम के दो घंटे प्राय: इसी कार्य में व्यतीत करते थे। सैकड़ों कोसों की दूरी से आये हुए यात्री जिस तरह आपकी र्कीित—कहानियाँ सुना करते थे, उसी तरह प्रत्यक्ष में भी पाकर और मुंह से चार शब्द सुनकर अपने को कृतकृत्य समझने लगते थे। आपका व्यवहार इतना सरल और अभिमान—रहित था कि देखकर आश्चर्य होता था। विलासिता और आरामतलबी धनिकों के प्रधान गुण हैं परन्तु ये दोनों बातें आप में न थी। आप बहुत ही सादगी से रहते थे और परिश्रम से प्रेम रखते थे। ६३ वर्ष की उम्र तक आप सवेरे से लेकर रात ११ बजे तक काम में लगे रहते थे। आलस्य आपके पास खड़ा न होता था। परिश्रम से घृणा न होने के कारण ही आपका स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहता था। आपकी शरीर—सम्पत्ति अंत तक अच्छी रहीं—शरीर से आप सदा सुखी रहे। सेठजी की दानवीरता प्रसिद्ध है। उसके विषय में यहाँ पर कुछ लिखने की जरूरत नहीं। अपने जीवन में उन्होंने लगभग पाँच लाख रुपयों का दान किया है, जो उनके जीवन चरित में प्रकाशित हो चुका है। उसके सिवाय अभी उनके स्वर्गवास के बाद मालूम हुआ कि सेठजी एक—दो लाख रुपये का बड़ा भारी दान और भी कर गये हैं, जिसकी बाकायदा रजिस्ट्री भी हो चुकी है। बम्बई में इस रकम की एक आलीशान इमारत है, जिसका किराया ११०० महीना वसूल होता है। यह द्रव्य उपदेशकभंडार, परीक्षालय, तीर्थरक्षा, छात्रवृत्तियाँ आदि उपयोगी कार्यों में लगाया जाएगा। इसका लगभग आधा अर्थात् पाँच सौ रुपया महीना विद्यार्थियों को मिलेगा। सेठजी के किन—किन गुणों का स्मरण किया जाए? वे गुणों के आकार थे। उनके प्रत्येक गुण के विषय में बहुत कुछ लिखा जा सकता है। उनका जीवन, आदर्श जीवन था। यदि वह किसी सजीव कलम के द्वारा चित्रित किया जावे तो उसके द्वारा सैंकड़ों पुरुष अपने जीवनों को आदर्श बनाने के लिए लालायित हो उठें। यदि अच्छे कामों का अच्छा फल मिलता है तो इसमे सन्देह नहीं कि दानवीर सेठजी की आत्मा स्वर्गीय सुखों को प्राप्त करेगी और अपने इस जन्म के लगाये हुए पुण्यविटपों को फलते—फूलते हुए देखकर निरन्तर तृप्तिलाभ करने का अवसर पायेंगी।