इलाहाबाद से ६० किमी. उत्तर—पश्चिम कौशाम्बी जनपद में गंगा नदी के दायें तट पर स्थित कड़ा मध्यकाल में राजनीतिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण नगर था। दिल्ली सल्तनत के प्रथम बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे तेरहवीं सदी के प्रारम्भ में कड़ा—मानिकपुर सूबे का केन्द्र बनाया था। मुगल बादशाह अकबर ने जब साम्राज्य के सूबों का पुनर्गठन किया तब कड़ा—मानिकपुर के स्थान पर इलाहाबाद को सूबा बनाया और १५८६ ई. में सूबे का केन्द्र इलाहाबाद स्थानान्तरित किया तथा कड़ा को उसके अन्तर्गत एक सरकार (जिला) बना दिया। इस प्रकार कड़ा बहुत दिनों तक एक सूबे का केन्द्र रहा। अत: यह एक पूरा नगर था। शाह अबुल हसन कृत तारीख आईन ए अवध में लिखा है कि इसकी आबादी तीन कोस (लगभग १० किमी.) क्षेत्र में थी।१ मीर उम्मीद अली खां ने जहुर कुतुबी में लिखा है कि कड़ा की आबादी पश्चिम में कमालपुर तक, पूर्व में शहजादपुर तथा दक्षिण में दारानगर तक थी।२ कड़ा का प्राचीन वैभव अब बिल्कुल नष्ट हो चुका है। बस्ती से कई गुना वहाँ खंडहर और कब्रे हैं, जिनकी लम्बाई गंगा के किनारे—किनारे मीलों तक चली गयी है। कड़ा से लगभग २ किमी. दक्षिण की ओर दानानगर है। इसका प्राचीन नाम चमरूपुर था। दाराशिकोह के एक मुसाहिब पैजुल्ला ने इस गाँव को खरीदकर एक गंज (बाजार) बसाया था। उसकी मृत्यु के बाद उसके भाई अफजलुल्ला ने इसका नाम दाराशिकोह के नाम पर दारानगर रख दिया और दाराशिकोह ने पुरस्कार के रूप में यह गाँव उसको माफी में दे दिया। यहाँ एक जैन चैत्यालय है, जिसका जीर्णोद्वार कुछ वर्ष पूर्व दिगम्बर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा की र्आिथक सहायता से किया गया है। इसकी व्यवस्था एकमात्र खंडेलवाल जैन परिवार करता है। इस चैत्यालय में संगमरमर की वेदी पर लगभग आधा दर्जन श्वेत संगमरमर की तीर्थंकर प्रतिमाएँ विराजमान हैं, जिनमें एक जीवराज पापड़ीवाल द्वारा मोडासा में संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित की गयी थी जैसा कि प्रतिमा के पादपीठ पर उत्कीर्ण लगभग अपाठ्य लेख से स्पष्ट है। वेदी पर मूल प्रतिमा काले चमकीले प्रस्तर की पद्ममासनस्थ ऋषभदेव की है (चित्र १)। जिसकी अवगाहना २६’’ ² १४’’ है। इसकी पादपीठ पर निम्नलिखित लेख उत्कीर्ण है।
१. माथुरान्वये ठक्कुर गंगाधर तस्यात्मज ठक्कुर जागू
२.तस्य पुत्रौ दावरमाढलौ नित्यं प्रणमन्ति सं. १२३४ ज्येष्ठ वदि ५ सोमे। कड़ा से मिला हुआ एक गाँव सिपाह नामक है। यहाँ सूबेदारी के समय में सेना की छावनी रहा करती थी। इससे ५ किमी. पूर्व शहजादपुर है। इसके प्राचीन इतिहास का पता नहीं है। सन् १४९९ में कड़ा शहजादा आजम हूमायूँ की जागीर थी। सन् १५२९ में उसका बेटा इस्लाम खाँ कड़ा का सूबेदार हुआ। सम्भवत: शाहजादा आजम हूमायूँ के नाम पर यह गाँव बसाया गया था, जो गंगा के दायें तट पर इलाहाबाद से ५२ किमी. उत्तर—पश्चिम और शेरशाह सूरि राजमार्ग से ३ किमी. उत्तर में स्थित है। सन् १८६७ में ब्रिटिश शासन ने इसे एक कस्बे का दर्जा दिया था, जिसे सन् १९०९ में समाप्त कर दिया गया। आज भी यह एक बहुत बड़ा गाँव है, जिसमें १०,००० से अधिक मतदाता हैं। सन् १६३२ में पीटर मुण्डी यहाँ आया था। उसने लिखा है कि शहजादपुर में छींटदार कपड़े और उत्तम प्रकार का कागज बनता था। गंगा के दायें तट पर स्थित यह एक धन—जन संकुल महत्वपूर्ण कस्बा था, जिसकी तुलना उसने कस्तुनतुनिया नगर से की है। उसने आगे लिखा है कि यहाँ एक लम्बी सड़क के दोनों ओर मकान बने हुए थे और उनके सामने सड़क के किनारे वृक्षों की लम्बी कतार एक सराय तक चली जाती थी। ३ सन् १७६५ में जोसेफ टीफेन्थलर भी यहाँ आया था। उसने भी लिखा है कि इस कस्बे में एक लम्बी सड़क के दोनों ओर मकानों की कतारें थीं। यह सड़क उत्तर—पश्चिम में स्थित एक महलनुमा सराय तक चली गयी थी जिसके चारों कोनों पर बुर्ज बने हुए थे।४ सम्भवत: इस कस्बे की स्थापना मध्यकाल में एक बाजार के रूप में की गयी थी ताकि निकटवर्ती सिपाह गाँव में स्थित सेना को रसद और अन्य आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराया जा सके। कहते हैं कि यहाँ ५२ मंडियाँ थीं। आज भी इस गाँव में एक बडी मंडी प्रतिदिन लगती है। आज यह एक लगभग उजड़ा हुआ गाँव है जहाँ भग्नावशेश सर्वत्र बिखरे हुए हैं। जिस सराय का उल्लेख पीट मुंडी और जासेफ टीपेâन्थलर ने किया है उसके अवशेष गाँव के पश्चिम सड़क के दक्षिण किनारे पर आज भी विद्यमान हैं। मध्यकाल में यहाँ अनेक जैन धर्मावलम्बी व्यवसायी थे। जयविजय (सं. १६६४/१६०७ ई.) ने अपनी तीर्थमाला में लिखा है कि शौरीपुर से शहजादपुर ११५ कोस दूर है, यहाँ से ३ कोस दूर मऊग्राम है। उन्होंने यहाँ ५ चैत्यालयों और ३१ जिन प्रतिमाओं का उल्लेख किया है।५ विजयसागर (सं. १७१७/१६५० ई.) के अनुसार फिरोजाबाद से १५० कोस दूर शहजादपुर है जहाँ से ३ कोस की दूरी पर मऊग्राम है। उन्होंने यहाँ के चैत्यालय में अनेक जिन प्रतिमाएँ देखी थीं। (देहरासरि बहु देव तयो)६। सौभाग्यविजय (सं. १७५०/१६९३ ई.) ने अपनी तीर्थमाला में लिखा है कि शहजादपुर गंगा तट पर एक विशाल नगरी थी। उन्होंने यहाँ जिनराज (ऋषभदेव) की प्रतिमा की पूजा की थी। वहाँ किसी लालची अधर्मी दुर्बुद्धि सबल ने मुख्य जैन मंदिर को तोड़कर मस्जिद बना दिया था। उन्होंने वहाँ के धर्मशील श्रावकों की प्रशंसा की है, किन्तु एक धर्मशाला के अभाव में धर्मव्यवहार का निर्वाह वहाँ कठिन बताया।७ दारानगर साहिजदपुर आया देखी श्रावक गुरूमन भाया गंगाजू तट नगरी विशाल पणि एक खोटि नहि पोसात। कोई कुमति रह्यो तिमि गामई सबल उपाधि करी तिण ठामई लालची अधरमी अरीत उपासिरानी करावी मसीत। नगर भला श्रावक भला धर्मवंत सुविचार एक धर्मशाला बिना कठिन धर्मव्यवहार। साहिजदपुर नगरमां वंद्या बिंब उदार नित पूजें जिनराज ने पूरणमल सुविचार। शहजादपुर में एक मस्जिद सन् १६६९ में बनी थी और दूसरी मस्जिद सन् १७२६ में अलहदाद खान ने बनवायी थी। ये दोनों मस्जिदें कुछ वर्षों पूर्व तक जीर्ण—शीर्ण दशा में वर्तमान थीं, किन्तु पहली वाली मस्जिद का अब नामोनिशान नहीं बचा है। यह वही मस्जिद प्रतीत होती है जिसे औरंगजेब के मंदिर ध्वंस सम्बन्धी फरमान के बाद १६६९ ई. में मुख्य जैन मन्दिर को तोड़कर बनवाया गया था। सैयद अली को सन् १६६७ में कड़ा—मानिकपुर का फौजदार नियुक्त किया था। सम्भवत: सौभाग्यविजय द्वारा उल्लिखित लालची अधर्मी मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनवाने वाला यही है। जोसेफ टीपेâन्थलर के काल तक शहजादपुर उजाड़ नहीं हुआ था, किन्तु १८-१९वीं सदी में यहाँ से जैनियों का पलायन व्यवसाय के निमित्त इलाहाबाद नगर में हुआ और कुछ तो बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में पाकुड़ में जाकर बस गये। वे अपने साथ जिन र्मूितयों को भी ले गये और देखरेख के अभाव में शहजादपुर में जैन मंदिर धीर—धीरे ध्वस्त होते गये। मुख्य सड़क के बायीं ओर मंदिर की जमीन में बीसवीं सदी के प्रथम चतुर्थांश में बना एक प्राइमरी विद्यालय चल रहा है, किन्तु उसके प्रांगण में बची मंडपिका (चित्र २) में एक अभिलेख अभी तक सुरक्षित है। अब इस मंडिपिका में गाँधीजी की एक र्मूित विराजमान है। अभिलेख इस प्रकार है—
१.अथ श्रीमत्काष्ठासंधे पुष्करगणे माथुरगच्छे लोहाचार्यन्वये भट्टारक श्री कु—
२.मारसेनदेवो तदान्वये अग्रोतकान्वये साधु श्री षरहथ तस्य पुत्रास्त्रय प्रथम श्री भगौतीदास, द्वितीय पुत्र साधु श्री वेणीदा—
३. स तृतीय पुत्र जिनप्रसादो चरणधीर साधु श्री मथुरादास तस्य पुत्र श्री चिरंजीवी दयालदास तस्य पितुस्तेनेयं श्री
४. जिनचैत्यालये वेदिका कारिता।
संवत् १६९९ वर्षे भाद्रमासे श्री दसम्यां तिथौ। श्री चन्द्रात्मजवारे पांडे श्री दरगहमन्घरस्तस्ये पदे सत:। लिखितं पं. वाममेरूणा विदुषा। श्री चर्तुिवधसंघ शिवं सदा प्राप्नुयात्। यावत् तिष्ठत: सूर्य शशी तावत् तिषस…….। शहजादपुर में मुख्य सड़क से दक्षिण थोड़ी दूर गली में श्री मोहनलाल गुप्त के घर के पास एक जिन चैत्यालय के भग्नावशेष (चित्र ३) और उसके पूर्वी प्रवेश द्वार के सामने एक मंडपिका (चित्र ४) दर्शनीय है। अल्प प्रयास से न केवल इसका जीर्णोद्वार हो सकता है, वरन् जैन धर्म की अमूल्य जमीन की रक्षा भी हो जायेगी। इलाहाबाद नगर के कई जैन परिवार शहजादपुर से विनिर्गत हैं, किन्तु उन्होंने कभी भी अपने पूर्वजों की धरोहर को सहेजने का कोई प्रयास नहीं किया। यहाँ की लगभग दो दर्जन विभिन्न तीर्थंकरों की संगमरमर की प्रतिमाएँ इलाहाबाद के मुहल्ला चाहचन्द में धर्मशाला के फाटक के अन्दर शिखरबद्ध पंचायती दिगम्बर जैन मंदिर में सुरक्षित हैं। इनमें से कुछ पर लेख हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि इनकी प्रतिष्ठा संवत् १५४८ में शाह जीवराज पापड़ीवाल ने करवायी थी। तीर्थंकर चन्दप्रभ की तीन प्रतिमाओं के पादपीठ पर निम्नलिखित लेख पठनीय हैं : १. संवत् १५४८ वर्षे वैसाष सुदि (अर्धचन्द्र लांछन), ३ श्री मुलसंघे भटारक जी श्री जि. २. नचन्द्र साधु जीवराज पापड़ीवाल नित प्रणमति सद्गुरू गुरस श्रीरस्तु। संगमरमर की एक पाश्र्वनाथ प्रतिमा के पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख में संवत् २५८ लिखा है जो वस्तुत: १५४८ होना चाहिए। लेख इस प्रकार है :
१.संवत् २५८ वर्षे वैसाष सुदि ३ (शंख लांछन), मुलसंघे भटरक जी श्री जिन।
२.………पपड़वाली नित्य प्रणमति………..। संगमरमर की एक पद्मप्रभ की र्मूित के पादपीठ पर भी इसी प्रकार का लेख मिलता है :
१. संवत् १५४८ वर्षे वैसाष सुदि (कमल पुष्प), ३ मूलसंघे भटरक जी…..
२.……… पपड़ीवाल प्रणमति सरनम (श्रीरस्तु। कृष्ण पाषाण की चमकीले पालिश वाली एक प्रतिमा पद्मासनस्थ आदिनाथ (चित्र ५) की है जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १८८१ में पभोसा पर्वत पर जैन मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा के समय हुई थी। इस र्मूित के पादपीठ पर निम्नलिखित लेख मिलता है :
१. संवत् १८८१ मिते मार्गशीर्षशुक्लषष्ठ्यां शुक्रवासरे लाहाचार्यन्वये भट्टारक श्री जगत्र्कीित
२.स्तत्पट्टे भट्टारक श्री ललितर्कीितस्तदाम्नाये अग्रोतकान्वये प्रयागनगरवास्तव्य साधु श्रीमाणि—
३. कचन्द्रस्तत्पुत्रश्रीदासलालेन कौशाम्बीनगरबाह्यप्रभासालोपरि श्रीपद्मदीक्षाज्ञानकल्याण
४.क्षेत्र श्रीजिनदेवप्रतिमा कारिता। उपरिलिखित अभिलेखों में कुछ भट्टारकों के नाम मिलते हैं। जिनचन्द्र बलात्कारगण की दिल्ली—जयपुर शाखा के भट्टारक थे। मोडासा नगर में सेठ जीवराज पापड़ीवाल ने संवत् १५४८ की अक्षय तृतीया को भट्टारक जिनचन्द्र के द्वारा अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा करायी और उन्हें अपने प्रयास से देश के कोने—कोने में पहुँचायी थीं। उन्हीं में से कुछ मूर्तियाँ शहजादपुर में भी श्रावकों ने मंदिरों में स्थापित कर रखी थीं जो अब इलाहाबाद में चाहचन्द मुहल्ले के जैन मन्दिर में सुशोभित हैं। भट्टारक जगत्कीर्ति भ. देवेन्द्रर्कीित के शिष्य थे। इनके पट्ट पर ललितकीर्ति भट्टारक हुए थे। आपके निर्देशन में संवत् १८८१ (१८२४ ई.) में पभोसा पर्वत पर एक जैन मंदिर का निर्माण हुआ था और कुछ मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी हुई जिनमें से कुछ मूर्तियाँ बेरूई, शहजादपुर, सिंहपुर आदि के जिन मन्दिरों में स्थापित की गयी थीं। भ. कुमारसेन भ. गुणभद्र के अन्वय से सम्बन्धित थे। यह भ. भानुकीर्ति के पट्ट पर भट्टारक हुए थे। विद्याधर जोहरापुरकर के अनुसार यह संवत् १६१५ से १६३२ तक भट्टारक पद पर आसीन थे।८ किन्तु उपरोक्त संवत् १६९९ के लेख से स्पष्ट है कि उनका कार्यकाल संवत् १६९९ तक अवश्य था। ये सभी भट्टारक काष्ठासंघ के माथुरगच्छ लोहाचार्याम्नाय से सम्बन्धित थे। इसमें मुनियों के लिए पिच्छी धारण का निषेध किया गया है। पूजा—प्रतिष्ठा भट्टारकों का मुख्य कार्य था और इस कार्य के लिए वे भारत के प्राय: सभी भागों में जाते थे। पूर्व भारत में सम्मेदशिखर, चम्पापुरी, पावापुरी, इलाहाबाद—कौशाम्बी में कोई भट्टारक पीठ नहीं था।९ इस स्थापना के लिए कोई प्रमाण नहीं है कि पभोसा में कोई भट्टारक पीठ थी।
संदर्भ
१. शाह अबुल हसन कृत तारीख आईन ए अवध, निजामी प्रेस, कानपुर, १३०५ हिजरी, पृ. ३५.