द्वादशांग हे वाङ्मय! श्रुतज्ञानामृतसिंधु।
वंदूं मन वच काय से, तरूँ शीघ्र भवसिंधु।।१।।
जय जय जिनवर की दिव्यध्वनी, जो अनक्षरी ही खिरती है।
जय जय जिनवाणी श्रोताओं को, सब भाषा में मिलती है।।
जय जय अठरह महाभाषाएँ, लघु सातशतक भाषाएँ हैं।
फिर भी संख्यातों भाषा में, सब समझें जिन महिमा ये हैं।।२।।
जिन दिव्यध्वनी को सुन करके, गणधर गूंथें द्वादश अंग में।
बारहवें अंग के पांच भेद, चौथे में चौदह पूर्व भणें।।
पद इक सौ बारह कोटि तिरासी, लाख अठावन सहस पाँच।
मैं इनका वंदन करता हूँ, मेरा श्रुत में हो पूरणांक।।३।।
इक पद सोलह सौ चौंतीस कोटी और तिरासी लाख तथा।
है सात हजार आठ सौ अट्ठासी, अक्षर जिन शास्त्र कथा।।
इतने अक्षर का इक पद तब, सब अक्षर के जितने पद हैं।
उनमें से शेष बचें अक्षर वह, अंगबाह्य श्रुत नाम लहे।।४।।
जो आठ कोटि इक लाख आठ, हज्जार एक सौ पचहत्तर।
चौदह प्रकीर्णमय अंगबाह्य के, इतने ही माने अक्षर।।
यह शब्द रूप अरु ग्रंथरूप, सब द्रव्यश्रुत कहलाता है।
जो ज्ञानरूप है आत्मा में, वह कहा भावश्रुत जाता है।।५।।
जिनको केवलज्ञानी जानें, पर वच से नहिं कह सकते हैं।
ऐसे पदार्थ सु अनंतानंत, जो तीन भुवन में रहते हैं।।
उनसे भि अनन्तवें भाग प्रमित, वचनों से वर्णित हों पदार्थ।
इन प्रज्ञापनीय से भि अनन्तवें, भाग कथित श्रुत में पदार्थ।।६।।
फिर भी यह श्रुत सब द्वादशांग, सरसों सम इसका आज अंश।
उनमें से भी लवमात्र ज्ञान, हो जावे तो भी जन्म धन्य।।
यह जिन आगम की भक्ती ही, निज पर का भान कराती है।
यह भक्ती ही श्रुतज्ञान पूर्णकर, श्रुतकेवली बनाती है।।७।।
श्रुतज्ञान व केवलज्ञान उभय, ज्ञानापेक्षा हैं सदृश कहे।
श्रुतज्ञान परोक्ष लखे सब कुछ, बस केवलज्ञान प्रत्यक्ष लहे।।
अंतर इतना ही तुम जानो, इसलिए जिनागम आराधो।
स्वाध्याय मनन चिंतन करके, निजआत्म सुधारस को चाखो।।८।।
इन ढाईद्वीप में कर्मभूमि में, इक सौ सत्तर जिन होते हैं।
उन सबकी ध्वनि जिन आगम है, इससे जन अघमल धोते हैं।।
जिनवचवंदन जिनवंदन सम, यह केवलज्ञान प्रदाता है।
नित वंदूं ध्याऊँ गुण गाऊँ, यह भव्यों को सुखदाता है।।९।।
है नाम भारती सरस्वति, शारदा हंसवाहिनी तथा।
विदुषी वागीश्वरि और कुमारी, ब्रह्मचारिणी सर्वमता।।
विद्वान जगन्माता कहते, ब्राह्मणी व ब्रह्माणी वरदा।
वाणी भाषा श्रुतदेवी गौ, ये सोलह नाम सर्व सुखदा।।१०।।
हे सरस्वती! अमृतझरिणी, मेरा मन निर्मल शांत करो।
स्याद्वाद सुधारस वर्षाकर, सब दाह हरो मन तृप्त करो।।
हे जिनवाणी माता मुझ, अज्ञानी की नित रक्षा करिये।
दे केवल ‘‘ज्ञानमती’’ मुझको, फिर भले उपेक्षा ही करिये।।११।।
भूत भविष्यत् संप्रति, त्रैकालिक जिनशास्त्र।
श्रुतस्वंकंध है कल्पद्रुम, नमत सिद्धि सर्वार्थ।।।१२।।
तीर्थंकर को नित नमूँ, नमूँ सरस्वति मात।
गौतमादि गणधर नमूँ, नमूँ साधु जग तात।।१।।
कुन्दकुन्द आम्नाय में, गच्छ सरस्वति मान्य।
बलात्कारगण ख्यात में, हुये सूरि जग मान्य।।२।।
इस युग के चूड़ामणी, शांतिसागराचार्य।
चारितचक्री धर्मधुरि, हुये प्रथम आचार्य।।३।।
इनके पट्टाधीश थे, वीरसागराचार्य।
मुझे आर्यिका व्रत दिया, नाम ज्ञानमति धार्य।।४।।
वीरशासन जयंती, जैनपर्व विख्यात।
श्रावणकृष्णा प्रतिपदा, मन में कर श्रुत वास।।५।।
द्वादशांग वाणी स्तवन, पूर्ण किया श्रुतप्रीति।
हे श्रुतमात:! दो मुझे, जिनवर वच नवनीत।।६।।
जब तक श्रीजिनधर्म यह, जग में करे प्रकाश।
तब तक गणिनी ज्ञानमति, कृत स्तोत्र सुखराशि।।७।।
इस जग में जिनभक्त के, मन में करे प्रमोद।
द्वादशांग स्तोत्र यह, जग को दे आलोक।।८।।
१. प्राकृत श्रुतभक्ति (श्री कुन्दकुन्द देव विरचित का पद्यानुवाद)। २. प्रतिष्ठातिलक पृ. ३३७।