नित्य निरंजन देव, परमहंस परमातमा।
करूँ चरण की सेव, तुम गुणमाला गायके।।१।।
चिन्मय ज्योति चिदंबर चेतन, चिच्चैतन्य सुधाकर।
जय जय चिन्मूरत चिंतामणि, चितितप्रद रत्नाकर।।
जब तुमको वैराग्य प्रकट हो, सुरपति आसन कंपे।
लौकांतिक सुरगण भी आते, पुष्पांजलि को अर्पें।।२।।
तीर्थंकर भगवान स्वयं ही दीक्षा लेते वन में।
सिद्धों की साक्षी से दीक्षा, गुरू निंह उन जीवन में।।
दीक्षा लेते सामायिक, संयम बस एक हि होवे।
त्रयज्ञानी प्रभु के मनपर्यय, के ज्ञान उसी क्षण होवे।।३।।
मौन धरें प्रभु मुनि जीवन में, दीक्षा भी निंह देते।
नहीं शिष्य परिकर रखते प्रभु, चतुर्मास निंह करते।।
नहिं अतिचार दोष हों प्रभु से, प्रायश्चित निंह उनके।
वस्त्ररहित निग्र्रंथ दिगंबर, अर्हत् मुद्रा उनके।।४।।
तीर्थंकर ‘जिन’ हैं साक्षात्, हि सर्वोत्तम चर्या है।
‘जिनकल्पी’ मुनि उन अनुसारी, जिनसम कहलाते हैं।।
जिस घर में आहार प्रभू का, अक्षय भोजन होवे।
पंचाश्चर्य वृष्टि सुर करते, रत्नन वर्षा होवे।।५।।
ध्यान धरें प्रभु कल्पवृक्ष सम, खड़े विजन वन में हों।
निज आतम अनुभव रस पीकर, परमानंद मगन हों।।
घोर तपश्चर्या करके प्रभु, शुक्ल ध्यान को ध्याते।
क्षपकश्रेणि आरोहण करके, घाती कर्म नशाते।।६।।
यद्यपि मैं व्यवहार नयाश्रित, कर्मकलंक सहित हूँ।
जन्म—मरण के दुख सह—सहकर, नित सुख से विरहित हूँ।।
फिर भी निश्चय नय आश्रय से, शुद्ध बुद्ध चिद्रूपी।
परमानंद अतींन्द्रिय सुखमय, दर्शन ज्ञान स्वरूपी।।७।।
वर्ण गंध रस स्पर्श शून्य मैं, चिदानंद शुद्धात्मा।
संसारी होकर भी निश्चय, नय से मैं परमात्मा।।
हे प्रभु ऐसी शक्ती दीजे, तपश्चरण कर पाऊँ।
‘‘ज्ञानमती’’ केवल करने को, निज आतम को ध्याऊँ।।८।।
तपकल्याणक को नमूं, स्वात्मनिधी के हेतु।
जिनपूजा चिंतामणी, अजर अमर पद देत।।९।।