देवगढ मध्य रेलवे के झांसी—बीना सेक्शन पर जाखलौन और ललितपुर स्टेशनों से लगभग ३०—३२ कि.मी. दूर बेत्रवती (वेतवा) नदी के तट एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित एक सुन्दर सुरम्य पूजा स्थल है। यहां की प्राकृतिक सुषमा और हरीभरी पहाडियां अनायास ही मन को मुग्ध कर लेती हैं। यहां इतिहास, कला एवं संस्कृति का अद्भुत समन्वय हुआ है। यहां पर जो जैनेतर विशाल प्रस्तर मंदिर बने हैं वे भारतीय सहिष्णुता और सह अस्तित्व के ज्वलन्त प्रमाण हैं। यहां पर नागर शैली में विकसित स्थापत्य और र्मूितकला निश्चय ही भारत की अनोखी धरोहर है जो भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक समूर्त वरदान है। देवगढ़ का प्राचीन नाम लुअच्छगिरि (सं. ९१९) तथा कीर्तिगिरि (सं. ११५४).। कालान्तर में राजनैतिक या अन्य कारणों से अथवा यहां देव मूर्तियों की बहुलता के कारण इस पूज्य स्थल का नाम देवगढ़ (देवों का किला) पड़ा गया, जैसे पटना को पाटलिपुत्र, दिल्ली को योगिनीपुर. इन्द्रप्रस्थ, शाहजहांनाबाद, चंडीपुर, आदि अयोध्या को साकेत, उज्जैन को अवन्तिक, ग्वालियर को गोपाचल, गोपाद्रि मंदसौर को दशपुर, भेलसा को विदिशा, कोलारस (शिवपुरी) को कविलासनगर, चन्देरी को चन्द्रपुर या कीर्तिदुर्ग, कन्नौज को कान्यकुब्ज या गांधिनगर, ओंकारेश्वर मान्धाता को महिष्मती, गुजरात को आनदृ, गुर्जर या लाट देश, ब्रहपुत्र को लौहित्य, मांडू को मंडपगढ़, बुन्देलखंड को जेजाक भुक्तिया चेदि, चम्बल नदी को चर्मणवती या तंवरधार, सांभर (राजस्थान) को शाकम्भरी, भडौंच को भृगुकच्छ, राजपूताना को मत्स्य देश, लंका को सिंहल द्वीप आदि कहते थे। जैसे ये पुराने ऐतिहासिक नाम थे, उसी तरह देवगढ़ का ऐतिहासिक नाम लुअच्छगिरि और कीर्तिगार था, ऐसे ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। देवगढ़ में प्राप्त शिलालेखों, मूर्तिलेखों एवं अन्य ऐतिहासिक प्रमाणों से यह स्पष्ट रूप से विदित हो जाता है कि यह तीर्थस्थल अब से हजार, बारह सौ वर्ष पूर्व तक तो निश्चय ही सुविकसित सम्पन्न और समृद्धिपूर्ण स्थिति में विद्यमान था। भगवान शांतिनाथ के प्रसिद्ध मंदिर के समक्ष स्थित स्तम्भ लेख से इस पुण्य स्थली की प्राचीनता का प्रबल प्रमाण उपलब्ध होता है। इसी स्तम्भ लेख से इस नगर का प्राचीनतम नाम ‘‘लुअच्छगिरि’’ था ऐसा स्पष्ट होता है। इस स्तम्भ लेख को सं. ९१९ शाके ७८४ में श्री कमलदेव आचार्य के शिष्य श्री देव ने उत्कीर्ण कराकर प्रतिष्ठित कराया था, उस समय यहां महाराज भोज देव का शासन था। स्तम्भ लेख मूल पाठ निम्न प्रकार है— ‘‘ओ परम भट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर श्री भोजदेव मही प्रबद्र्धमान, कल्याण विजय राज्ये, तत्प्रदत्त पंच महाशब्द महासामान्त श्री विष्णु राम परिभुज्य या (के) लुअच्छगिरे श्री शान्त्यायतन संन्निधे श्री कमल देवाचार्य शिष्येण श्री देवेन कारापितं इदम् स्तम्भं। सं. ९१९ अश्वयुज शुक्ल पक्ष १४ चतुर्दश्यां वृहस्पति दिने उत्तर भाद्रपदा नक्षत्रे इदम् स्तम्भं घटितमिति। शक काल (शब्द) सप्तशतानि चतुराशीत्यधिकानि ७८४।। वाजुआगगाक गोष्ठभूतेनाऽयं स्तम्भं ’’ इस समय यहां का शासक विष्णु राम था जो पंच महाशब्द और महासामन्त की उपाधि से विभूषित था। यह स्तम्भ शान्तिनाथ जिनालय के समक्ष स्थापित किया गया था। इस स्तम्भ के निर्माता श्री गौष्ठिक वाजुआगगाक थे। इस समय शक संवत् ७८४ था, आश्विन शुक्ला चतुर्दशी तथा उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र था। प्रो. बुल्हर के अनुसार ‘‘गोष्ठिक’’ लोग उस समय धर्मदानों की प्रबंधक समिति के सदस्य कहलाते थे, जिन्हें आजकल की भाषा में ट्रस्टी कहा जा सकता है। इस तरह उपयुत्र्त स्तम्भ लेख से देवगढ़ के प्राचीनतम नाम ‘‘लुअच्छगिरि’’ शीर्षक की प्रमाणिकता स्पष्ट रूप से हो गई है। आगे चलकर १२ वीं शताब्दी में आकर देवगढ़ का नाम ‘‘कीर्तिगिरि’’ रखा गया, जो यहां के चंदेर शासक कीर्ति वर्मा ने यहां अपनी विजय के उपलक्ष्य में अपने ही नाम के प्रथमाक्षरों की पहिचान स्वरूप इसे प्रचलित कराया। सं. ११५४ में इस प्रदेश की विजय प्राप्ति के पश् चात् महाराजकीर्तिवर्मा ने अपनी प्रशस्ति स्वरूप जो शिलालेख प्रतिष्ठत कराया वह यहां प्राप्त हुआ है। जिसका मूल पाठ निम्न प्रकार है।
चंदेलवंश कुमुदेन्दु विशालकीर्ति:, ख्यातो बभूवनृपसंघतांध्रि पद्म:।
विद्याधरो नरपति कमलानिवासी, जातस्ततो विजयपाल नृपोनृपेन्द्र: ।।१।।
तस्याद्धर्मपर: श्रीमान् कीर्तिवर्मनृपोऽभवत्, अस्त कीर्ति सुधाशुभ्र: त्रैलोक्यं सौधतामगात्।
अगदं नूतनं विष्णु:माविर्भूतमाप्य यम्, नृपाब्धि तत्समाकृष्टा श्रीरस्थैर्य: प्रमार्जयेत्।।२।।
राजेन्द्र मध्यगतश्चन्द्र निभस्य यस्य, नूनं युधिष्ठिर सदा शिव रामचन्द्र:।
एते प्रसन्न गुणरत्न निधौ प्रविष्टा, यत्तद् गुणप्रकर रत्नमये शरीरे।।३।।
तदीयामात्य मंत्रीन्द्रो रमणीपुर विनिर्गत:, वत्सराजेति विख्यात: श्री मान्म हीधरात्मज:।
ख्यातो वभूब किल मंत्रपदैक मात्रे, वाचस्पतिस्तदिह मंत्रगुणै स्सभास्याम् ।।४।।
योऽयं समस्त मही मंडल माशुशत्रो, राच्छिद्य कीर्तिगिरि दुर्गमिदं व्यधन्त।
श्रीवत्सराज घट्टोऽयं नूनं ते नामकारित:, ब्रह्मांडमुज्जवलं कीर्तिरारोहतु ममात्मन: ।।५।।
सं.११५४ चैत्र वदी द्वितीय बुधौ।
उपर्युक्त शिलालेख के मूल पाठ से स्पष्ट ज्ञात होता है कि चन्देल वंशी राजा कीर्तिवर्मा के पिता का नाम विजयपाल था, जो बड़ा यशस्वी और प्रतापी था, उसका पुत्र कीर्तिवर्मा राम और युधिष्ठिर के गुणों समान गुणी था। तीनों लोकों में उसका यश फैला हुआ था। आधुनिक विष्णु जैसा अवतार धारण किये हुए था। राजाओं के बीच चंद्रमा जैसा दमकता था। इन्ही कीर्तिवर्मा के मंत्री का नाम वत्सराज था। जो श्रीमन् महीधर के पुत्र थे, रमणीपुर निवासी थे और गुणों बृहस्पति के समान ख्याति अर्जित की थी। इन्हीं के सहयोग से कीर्तिवर्मा ने शत्रुओं को पराजित कर कीर्तिनगर के दुर्ग को अपने आधीन किया था, तभी मंत्री वत्सराज ने सं. ११५४ चैत्र वदी द्वितीया बुधवार के दिन इस प्रशस्ति वाचक शिलालेख को उद्घाटित कराया था, जिससे अपनी और अपने आश्रयदाता कीर्तिवर्मा की कीर्ति चिरस्थायी बनी रहे। इस तरह देवगढ़ के लुअच्छगिरि और कीर्तिनगर नाम सूचक दो शिलालेखों के पश्चात् तीसरा विस्तृत शिलालेख ७६ श्लोकों वाला प्रस्तुत करते हैं जो हमारे इस लेख के प्रमुख पात्र संधाधिपति (सिंधई) होलीचन्द्र से संबंधित है यह विशाल शिलापट्ट कलकत्ता के म्यूजियम में सुरक्षित है। ियह मिस्टर एफ.सी. ब्लेक को देवगढ़ के भग्नावशेषों में मिला था। इसकी लम्बाई ६ फीट २ इंच तथा चौड़ाई २ फीट ९ इंच और मोटाई ३ इंच है। इसे तत्कालीन कवि वद्र्धमान की सलाह पर सं.१४८१ शाके १३४६ वैशाख सुदी वैशाख सुदी पूर्णिमासी गुरुवार को स्वाति नक्षत्र, सिंह लग्न के उदय पर प्रतिष्ठित कराया गया था। यह विस्तृत विशाल शिलालेख संस्कृत भाषा में है। जो अलंकारिक छटा से भरपूर है, भाषा क्लिष्ट और अर्थगांभीर्य से परिपूर्ण है इस समय देवगढ़ में गौरी कुलोत्पन्न शाह आलम्भक का राज्य था जिसे इतिहास में अलफ खां के नाम से जाना जाता है जो सुलतान हुशंग गौरी के नाम से भी प्रसिद्ध रहा। इसी के शासन काल में यहां एक बडे दानी एवं यशस्वी सिंधई होलीचन्द्र हुए जिन्होंने मुनि पदमनंदी और वसन्तकीर्ति की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित कराई, उसी उपलक्ष्य में यह विशाल शिलालेख प्रतिष्ठित कराया था। सम्पूर्ण शिलालेख का संक्षिप्त भावार्थ निम्नप्रकार है— प्रथम श्लोक से ग्याहरवें श्लोक तक शान्ति जिन एवं अन्य अर्हन्तों की अलंकारिक भाषा में स्तुति वंदना प्रस्तुत की गई है। बारहवें श्लोक में जिनवाणी सरस्वती की प्रार्थना की है। नवमें श्लोक में वेत्रवती (वेतवा) का उल्लेख हैं। सम्पूर्ण शिलालेख में ऋृटितांशों की बहुलता के कारण कई जगह भाव और अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाते तेरहवेें श्लोक में मूलसंघ नंदीसंघ, सरस्वती गच्छ (किसी ने इसे मदसारद गच्छ पढ़ा है) बलात्कारगण, कुन्दकुन्दान्वय में भ. धर्मचन्द्र का उल्लेख है चौदहवें छंद में भ. धर्मचन्द्र की प्रशस्ति अलंकारिक भाषा में गाई गई हैं। पन्द्रह से अट्ठारहवें छंद तक भ. धर्मचन्द्र के शिष्य रत्नकीर्ति का उल्लेख है। रत्नकीर्ति ने सात प्रतिष्ठाएं कराई थीं। उन्नीसवें छंद में भ. रत्नीकीर्ति के शिष्य भ. प्रभाचंद का उल्लेख है, जिनकी प्रशंसा में कई विशेषण जोड़े हैं। बीसवें छंद से सत्ताइसवें छंद तक भ. प्रभाचन्द्र के शिष्य मुनि पदमनंदी का उल्लेख है जिनकी प्रतिमा की प्रतिष्ठा सिंधई होलीचंद्र ने कराई थी। पद्मनंदी को अबज्नंदी, अम्बुज नंदी, पंकजनंदी आदि नामों से संबोधित किया गया है तथा उनकी प्रशंसा में अनेको विशेषणों सहित अंलकारिक भाषा का प्रयोग किया गया है। इनमें ज्ञानार्णव और समयसार जैसे ग्रंथों का भी उल्लेख है। उन्नीसवें छंद में इस शिलालेख का शक संवत् तथा विक्रम संवत् मास तिथि वार आदि का उल्लेख है जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है। तीसवें छंद में यहां के इस समय के शासक अलपखां (शाह आलम्भक) का उल्लेख है जो मंडपपुर (मांडु) का राजा था, उसकी प्रशंसा में कई अलंकारिक विशेषण जोड़े गये हैं। इक्तीसवें छंद से पैंतीसवें छंद तक सिंधई होलीचंद्र के माता—पिता का विवरण उत्कीर्ण है। इनके पिता का नाम त्रिभुवन पाल तथा माता का नाम अम्बिका था जो देवी अम्बिका की भांति गुणवती और सुन्दरी थी । पिता त्रिभुवन पाल की प्रशंसा में भी कई विशेषण लगे हुए हैं। छत्तीसवें छंद से चौनवनें (५४) छंद तक सिंधई होलीचंद्र की प्रशस्ति गाई गई है। जिससे ज्ञात होता है कि सिंधई होलीचंद्र अपार धन वैभव से सम्पन्न थे, बड़े उदार और प्रतापी पुरूष थे। उन्होंने कई जिनालयों का निर्माण कराया था। तथा जिनबिम्ब प्रतिष्ठित कराये थे । वे धर्मात्मा और दानी तो थे ही अनेकों गुणों के धारण करने वाले थे। कवि वद्र्धमान उनके सहोदर की भांति स्नेही थे, वे कल्पवृक्ष की भांति सभी को संतुष्ट करते थे। गल्हेश वंशी श्रेष्ठी की पुत्री कमला उनकी पत्नी थी जो कमला (लक्ष्मी) की भांति अपार धन सम्पत्ति की स्वामिनी थी ” वे संघाधिपति (सिंधई) की उपाधि से विभूषित थे। इतना धन वैभव होने पर भी निर्लोभीवृत्ति के धारक थे । उनका यश चारों दिशाओं में फैला हुआ था। पचपनवें छंद से लेकर साढवें छंद तक सिंधई होलीचंद्र के पारिवारिक जनों का विवरण है। इसमें साहु देट्टा के पुत्र वल्लदेव तथा पुत्रवधू वल्लण श्री का नामोल्लेख है। किसी लक्ष्मणपाल देव तथा अनेक पुत्र क्षेम राज का भी नाम है। किसी देवरति नामक व्यक्ति ने पद्मजी नामक पत्नी से णयनिंसह नाम का पुत्र प्राप्त किया था। जिसके रत्न नाम का पुत्र हुआ था । इसमें मल्हणदे के पुत्र अभय का तथा दिल्हणदे के पुत्र पद्मसिंह का नामोल्लेख है। इकसठवें छंद से अड़सठवें छंद तक सिंधई होलीचंद्र द्वारा मुनिपद्मनन्दी की और वसन्तकीर्ति की प्रतिमा प्रतिष्ठा की चर्चा है। इसके लिए श्री शुभसोम, श्री गुणकीर्ति, श्री वद्र्धमान कवि और श्रीमान् वरपति नामक चारों विद्वानों ने उन्हें इस शुभ कार्य में पूरा—पूरा सहयोग देने का वचन दिया। तब सिधई होलीचन्द्र ने दोनों प्रतिमाएं बनवाकर बड़े धूमधाम से उनकी प्रतिष्ठा कराई जिससे उनका यश चारों दिशाओं में व्याप्त हुआ और वे निष्कलंक चन्द्रमा की भांति पृथ्वी पर दैदीप्यमान हुए। इस तरह अलंकारिक संस्कृत में उनकी प्रशस्ति गाई गई है। उनहत्तरवें छंद से बहत्तरवें छंद तक यहां के अग्रवाल वंशी गर्गगोत्रिय साहु देहा के क्षीमा, हरु, गंग और अमर नामक चार पुत्रों के नामोल्लेख है। इनमें से क्षीमा की पत्नी महिल्का से वील्हा पुत्र हुआ था। हरु की पत्नीश्री से तल्हण नामक पुत्र हुआ था। श्री वोल्हण की पत्नी क्षाल्हीदे से वद्र्धमान का जन्म हुआ था। ऐसा उल्लेख है। लगता है यही वह वद्र्धमान कवि हैं, जिन्होंने इतनी लम्बी अलंकारिक प्रशस्ति रची ओर संघाधिपति होलीचन्द्र का नाम इतिहास में अमर कर दिया। वसन्तकीर्ति वलात्कारगण उत्तर शाखा के पट्टधर आचार्य थे तथा पद्मनन्दी उनके अंतिम शिष्य थे। तेहत्तरवें और चौहत्तरवें छंद में कवि वद्र्धमान ने प्रशस्ति रचना का उल्लेख करते हुए अपने कल्याण के लिए प्रभु से करबद्ध प्रार्थना की है और स्वयं को विद्धानों का चरण चन्चरीक लिखा है। अंतिम दो छंदों पचहत्तरवें एवं छिहत्तरवें में अपने शासक आलंभक (अलपखां) सुलतान के भावी मंगल की कामना करते हुए कवि वद्र्धमान ने उसके लिए चिरंजीवी होने की प्रार्थना की है। इस विस्तृत शिलालेख में संघातिपति होलीचन्द्र को विभिन्न विशेषणों से अलंकृत किया गया है जैसे—होलीश्वर, होली कल्पद्रुम, होलीशंकर, होली साधु, होलीकृति, होली संघाधिप, होलीचन्द्र, होली सार्थवाह, इनसे होलीचंद्र के विशिष्ट व्यक्त्वि का पता लग जाता है। देवगढ़ पिछड़े लगभग बारह—तेरह सौ वर्षों से जैन संस्कृति का सुदृढ़ केन्द्र बना चला आ रहा है। सं. १४९३ में यहां विशाल जिन प्रतिष्ठा हुई थी। सं. १५१६ में मंडलाचार्य रत्नकीर्ति ने बम्बगज में वृहत् पाश्र्वजिनालय का जीर्णोद्धार कराया था और धर्मात्मा श्रावकों के सहयोग से दस बसतिकाएं स्थापित कराई थीं। यह जनपद दि. जैन आम्नाय के काष्ठासंघ, नंदीसंघ एवं सेनसंघ के पृथक—पृथक पट्टों का वेंद्र रहा है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने यहां से लगभग दो सौ शिलालेख संकलित किए हैं जिनमें से लगभग साठ शिलालेख तो विभिन्न सुनिश्चित तिथियों से उत्कीर्णित हैं। इसका देवगढ़ नाम कैसे और कब प्रचलित हो गया इसके तथ्य अन्वेषणीय हैं। देवगढ़ निश्चय ही भारतीय इतिहास में अनुपम एवं सर्वश्रेष्ठ है। यहां की मूर्तिकला, स्थापत्य कला व सांस्कृतिक संपदा विश्व में बेजोड़ और बेमिसाल है। स्व.साहु शान्ति प्रसाद जी के सहयोग से यहां सांस्कृतिक सुरक्षा एवं जीर्णोद्धार का काम बड़े अच्छे ढंग से हो सका है। बहुत सी महत्वपूर्ण सामग्री लुप्त प्राय: हो गई हैं। उत्तर प्रदेश शासन तथा भारतीय पुरातत्व विभाग को इसके विकास और जीर्णोद्धार के और अधिक प्रयास करने चाहिए। पर्यटन विभाग भारत सरकार द्वारा इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल बना देने से इसकी उपयोगिता और अधिक बढ़ सकती है। विदेशी पर्यटक इसके सांस्कृतिक वैभव से प्रभावित हुए बिना न रहेंगे, प्राकृतिक सौन्दर्य तो विद्यमान है ही।