सुधेश- पिताजी ! आज मैंने पद्मपुराण में ऐसा पढ़ा है कि -“जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चिंतवन करता है वह बेला का,जो गमन का अभिलाषी होता है वह तेला का,जो जाने का आरम्भ करता है वह चार उपवास का,जो जाने लगता है वह पाँच उपवास का,जो कुछ दूर पहुँच जाता है वह बारह उपवास का,जो बीच में पहुँच जाता है वह पंद्रह उपवास का,जो मंदिर के दश॔न करता है वह मासोपवास का,जो मंदिर के प्रवेश करता है वह छह मास के उपवास का जो द्वार में प्रवेश करता है,वह एक वर्ष के उपवास का,जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के उपवास का,जो जिनेंद्रदेव के मुख का दश॔न करता है वह हजार वर्ष के उपवास का और जो स्वाभाव स॓ स्तुती करता है वह अनन्त उपवास का फल प्राप्त करता है । यथाथ॔ में जिनेन्द्रदेव की भक्ति से कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो जाते हैं,वह अनुपम सुख से सम्पञ परमपद को प्राप्त कर लाता है।”
पिताजी- हाँ बेटा ! यह ठीक ही हैं,इसिलिये तो हम लोग दाव दश॔न पर बहुत जोर देते हैं।
सुधेश- किन्तु पिताजी ! यह तो आचायो॔ ने बहुत बड़ा प्रलोभन दे दिया है। कहीं ऐसा भी सम्भव है? जैनधर्म तो भावों की प्रधानता रखता है।
पिताजी- सुधेश ! सर्वथा भावों का ही एकान्त नहीं है । धवला की छ्ठी पुस्तक में आचाय॔ देव ने सम्यक्त्व के उत्पति के कारण बतलाये हैं उनमें जिनबिम्ब का दर्शन यह भी एक कारणमाना गया है। वहाँ पर प्रश्न हुआ हैं कि जिनबिम्ब के दर्शन से प्रथमोपशम सम्यक्त्व कैसे हो सकता है? तब आचाय॔ ने उत्तर दिया है की जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त-निकाचित आदि मिथ्यात्व कर्मों का हो जाता है । और इसीलिए तो धवला में नैसगिर्क सम्यक्त्व कि उपत्ति के लिए भी गुरूपदेश को छोड़कर शेष दो कारण जातिस्मरण और जिन्बिम्ब दर्शन आवश्यक ही माने हैं । अर्थात उनका कहना है कि इनमें से एक कारण मिले बिना निसर्गज सम्यग्दर्शन भी उत्पञ हो सकना सम्भव है -नहीं हो सकता है । अतः उपर्युक्त कथन प्रलोभन नही है,प्रत्युत वास्तविक ही है। यदि भावों की ही महत्ता होती तो आचार्य यह भी कह सकते थे कि भावपूर्वक दर्शन करने से यह फल मिलेगा अन्यथा नहिं । उनकें पास शब्दों की तो कमी नहिं थी और यदि घर बैठे मूर्ति के चिंतवन से फल मिल सकता था तो आचार्य यह कह सकते थे कि “जिणबिंब चिनणेण” । पुनः “जिणबिंबदंसणेण” पाठ क्यों रखा? अतएव यह स्पष्टया समजना चाहये कि जिनबिंब दर्शन का जो महत्व है,वह एकाग्र में बैठकर चिन्तन का या भावों का नहीं है।
सुधेश- पिताजी ! हमने कई बार पणिडतों के मुख से अक कथा सुनी है और कहीं -कहीं प्रत्रिकाओं में पढ़ी भी है कि दो मित्र थे । अक मंदिर में जाने लगा तों दूसरा बोला कि में आज वेश्या के यहाँ जाऊँगा । जो मंदिर में गया था वह सेचने लगा कि अह ! मेरा मित्र वेश्या के यहाँ सुख का अनुभव कर रहा होगा और मैं यहाँ फाँस गया? वह ऊपर से दर्शन,भजन और आरती कर रहा था किन्तु उसका मन तो वेश्या के यहा लग रहा था अतः वह पाप का बंधकर कर रहा था किन्तु इससे विपरीत जो वेश्व के यहा था,वह सेक रहा था कि अहो ! मेरा मित्र ही पुण्यशाली है कि जो कि मंदिर में भक्ति भजन करके पुण्य लाभ ले रहा है और एकमें पापी हुँ,अतः इस भावना से वह वेश्या के यहाँ पर वेश्या के यहाँ दुश्र्वरित्र करते हुए भी पुण्य का बँध कर रहा है । इसलिए भावों की प्रतिमा है,यदि भाव शुद्ध नहीं है तो देव-दर्शन क्या लाभ देगा?
पिताजी- सुधेश! यह कथा कोई शास्त्र-सम्मत नहीं है और न प्रामारणिक ही है । यह तो किसी व्यसनी ने ही मनगढ़न्त बना लि है,ऐसा प्रतीत होता है । जो मनचले लोग होते हैं,वे ही ऐसा दन्त कथाओं से लोगों को धर्म से वंचित करके वैश्व-सेवन आदि पापों कि पुष्टि करते हैं और भावों का ढोल पिटते रहते हैं । भला वैश्व-सेवन करते हुए पुण्य बन्ध हो जावे और मंदिर में स्तुति-आरती करते हुए पाप बंद हो जावे क्या यह सम्भव है? कथमपि सम्भव नहीं प्रत्युत असम्भव ही हैं ।
हाँ,इतना अवश्य है कि वैश्व-सेवन करने वाला व्यक्ति यदि वहाँ पर अपने को पापी समझकर पापों का पश्र्चाताप कर रहा है तो उसके पाप का बन्ध कुछ हल्का अवश्य हो सकता है किन्तु बँधेगा तो पाप ही । वैसे ही जिनेन्द्र देव के दर्शन-स्तवन व आरती के समय तो किसी के परीणाम वेश्या-सेवन के होंगे भी नहीं,और यदि कदाचित्र पाप-वासना मन में आ भी गई तो उसके भी पुण्य के बंधन में कुछ हल्कापन आ सकता है,न कि पाप का बन्ध होगा ” अरे! जब अर्धनिमिष मात्र भी किया गया जिनेन्द्रदेव के गुणों का स्मरण अनन्त-अनन्त संसार में संचित पाप-समूह को अग्नि कि कणिका के समान भस्मसात करने में समर्थ है,तो भला दर्शन करने वाले व्यक्ति का एक क्षण के लिए भी जिन स्तवन में उपयोग नहीं लगेगा? अवश्य ही लगेगा ” जिन्बिम्ब दर्शन के लिए भावों की प्रधानता खेना व्यर्थ है,अपने आप की वंचनामात्र है।
अहो! जो जिन्बिम्ब के दर्शन आनादिकालीन मिथ्यात्व को नष्ट कर सम्यक्त्व को प्रगत करने में समर्थ है,उसकी महिमा अचिन्त्व ही है । सुधेश-पिताजी! यदि हम घर में महावीर भगवान की फोटो का कलेण्डर रहेकर उनका दर्शन कर लेते हैं,तो क्या बाधा है?वह भी तो जिन्बिम्ब दर्शन ही है । पिताजी-नहीं,सुधेश!कलेण्डर में भगवान का जो फोटो है वह जिन् बिम्ब का चित्र है ” उसकी प्राण-प्रतिष्ठा और पंचकल्याणक नहीं हो सकती है अतः वह चित्र कथमपि जिन्बिम्ब नहीं हो सकता है ” जिन्बिम्ब तो वह हैं जो धातु-पषाण आदि से निर्मित जिनप्रतिमाऐँ हैं और जिनकी प्रतिष्ठाचर्या ने विधिवत् पंचकल्याणक प्रतिष्ठा विधि,मंत्र-न्यास,प्राण-प्रतिष्ठा आदि करके जिन्हें पूजा योग्य बना दिया है ” प्रतिष्ठा से पहले भी वे मुर्तिया पूज्य नहीं हैं अन्यथा जयपुर,मकराना आदि स्थानों पर ही लोग तीर्थ मनाकर जाने लगते और उन गढी हुई मूर्तियों कि पूजा करने लगते किन्तु ऐसा नहीं होता है ” जब वे मूर्तियाँ प्रतिष्ठा विधि से प्रतिष्ट होकर मंदिर में विराजमान कि जाती हैं तभी वे पूजा के योग्य मानी जाती हैं । अतः देवदर्शन का नियम तो मंदिर में जाकर जिन प्रतिमा के दर्शन को करने से ही होता हैं ” देखो! भरत चक्रवर्ती,महाराजा रामचन्द्र आदि ने भी अनेक जिनमंदिर बनवाए हैं और अनेक प्रतिमाएँ विराजममान कराकर उनकी पूजा-भक्ति कि है और तो क्या चारण ऋद्धिधारी महामुनि भी कृत्रिम-अकृत्रिम जिन मन्दिरों की,पावापुरी,सम्मेदाचल आदि तीर्थों कि वन्दना किए करते है । ऐसा इतिहासकरों ने पूराणौं में किया है ” इसलिये सर्वविकल्प छोड़कर भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र देव का दर्शन किया करो,भले ही पाच मिनेट के लिए ही मंदिर जाओ,किन्तु अवश्य ही जाया करो।
सुधेश-अच्छा पिताजी! आज से में जिनमन्दिर रोज जाऊँगा,अनन्तर भी भोजन करुँगा, ऐसा नियम करता हूँ “