ऊनाधिक्यविशुद्ध्यर्थं सर्वत्र प्रियभक्तिका ।।१/२।।
तीनों सन्ध्या सम्बन्धी जिनवन्दना में चैत्यभक्ति और पञ्चगुरुभक्ति तथा सभी बृहद्भक्तियों के अन्त में वन्दनापाठ की हीनाधिकता रूप दोषों की विशुद्धि के लिये प्रियभक्ति-समाधिभक्ति करना चाहिये । इस देववन्दना में छह प्रकार का कृतिकर्म भी होता है।
(४) तीन निषद्या-ईर्यापथ कायोत्सर्ग के अनन्तर बैठ कर आलोचना करना और चैत्यभक्ति संबंधी क्रिया विज्ञापन करना १, चैत्यभक्ति के अन्त में बैठकर आलोचना करना और पञ्चमहागुरुभक्ति संबंधी क्रिया विज्ञापन करना २, पञ्चमहागुरुभक्ति के अन्त में बैठ कर आलोचना करना “