जो प्रमाद से हुए बहुत से, दोष जीव में आते हैं।
इस प्रतिक्रमण के करने से, वे सभी नष्ट हो जाते हैं।।
इसलिए मुनी बोधनहेतू, मल विरहित प्रतिक्रमण विधि को।
मैं कहूँ विविध जो कर्म हुए, उन सबके ही प्रक्षालन को।।१।।
मुझ पापिष्ठ दुरात्मा जड़-बुद्धी मायावी लोभी ने।
राग व द्वेष मलिन मन से, जो भी दुष्कर्म निर्मिते हैं।।
हे त्रिभुवन के स्वामिन् ! जिनवर! अब तुम पाद निकट में मैं।
निन्दा करके त्याग रहा हूँ, नित सत्पथ का इच्छुक मैं।।२।।
सभी जीव पर क्षमा करूँ मैं, सब मुझ पर भी क्षमा करो।
सभी प्राणियों से मैत्री हो, बैर किसी से कभी न हो।।३।।
राग बंध अरु प्रदोष हर्ष, दीन भाव उत्सुकता को।
भय अरु शोक, रती अरती को, त्याग करूँ दुर्भावों को।।४।।
हा! दुष्कृत्य किये हा! दुश्ंचिते, हा! दुर्वचन कहे मैंने।
कर-कर पश्चाताप हृदय में, झुलस रहा हूँ मैं मन में।।५।।
द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव से, कृत अपराध विशोधन को।
निन्दा गर्हा से युत हो, प्रतिक्रमण करूँ मन वच तन सों।।६।।
एकेन्द्री द्वीन्द्री त्रयइन्द्री, चउइन्द्रिय पंचेन्द्री जो।
भू जल अग्नी वायु वनस्पति, त्रसकायिक इन जीवों को।।
मारा ताप दिया पीड़ा दी, घात किया व कराया हो।
करते को अनुमोदा वह सब, दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।७।।
व्रत समिति इन्द्रियनिरोध छह, आवश्यक आचेलक लोच।
भूमिशयन अस्नान अदंतधावन, स्थितिभुक्ति भक्तैक।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के, प्रमाद से इनमें अतिचार।
उनसे दूर हुआ हूँ मेरा, छेदोपस्थापन हो नाथ!।।८।।
१पंचमहाव्रतपंचसमिति-पंचेन्द्रियरोध-लोच-षडावश्यक क्रियादयोऽष्टा-विंशति-मूलगुणाः, उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि दशलाक्षणिको धर्मः, अष्टादशशील-सहस्राणि चतुरशीतिलक्षगुणाः, त्रयोदशविधं चारित्रं, द्वादशविधं तपश्चेति सकलं संपूर्णं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसाक्षिकं सम्यक्त्वपूर्वकं दृढ़व्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु। अथ सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं दैवसिक (रात्रिक) प्रतिक्रमणक्रियायां कृतदोषनिरा-करणार्थं पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं आलोचना-सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं२।
(३ आवर्त १ शिरोनति करके सामायिक दण्डक आदि पूर्ण विधि से कायोत्सर्ग करके थोस्सामि पढ़कर वंदनामुद्रा से सिद्धभक्ति पढ़ें।)
श्रीमन् वद्र्धमान को प्रणमूँ, जिनने अरि को नमित किया।
जिनके पूर्ण ज्ञान में त्रिभुवन, गोखुर सम दिखलाई दिया।।१।।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयमसिद्ध चरित सिद्धा।
ज्ञान सिद्ध दर्शन से सिद्ध, नमूँ सब सिद्धों को शिरसा।।२।।
हे भगवन्! श्री सिद्धभक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसका।
आलोचन करना चाहूँ जो, सम्यग् रत्नत्रय युक्ता।।१।।
अठविध कर्म रहित प्रभु ऊध्र्व-लोक मस्तक पर संस्थित जो।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयमसिद्ध चरित सिध जो।।२।।
भूत भविष्यत वर्तमान, कालत्रय सिद्ध सभी सिद्धा।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ भक्ति युक्ता।।३।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।४।।
हे भगवन् ! इच्छा करता हूँ, चारित्राचार त्रयोदशविध।
वह पांच महाव्रत पांच समिति, अरु तीन गुप्तिमय जिनभाषित।।
इनमें हिंसा का त्याग महाव्रत, प्रथम कहा है जिनवर ने।
भूकायिक जीव असंख्याता-संख्यात व जल कायिक इतने४।।
अग्नीकायिक भि असंख्याता-संख्यात पवनकायिक इतने५।
जो वनस्पतीकायिक प्राणी, वे सभी अनंतानंत भणें।।
ये हरित बीज अंकुर स्वरूप, नानाविध छिन्न-भिन्न भी हों।
इन सबको प्राणों से मारा, संताप दिया पीड़ा दी हो।।
उपघात किया मन वच तन से, या अन्यों से करवाया हो।
या करते को अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१।।
दो इन्द्रियजीव असंख्याता-संख्यात कुक्षि कृमि६ शंख कहे।
क्षुद्रक कौड़ी व अक्ष अरिष्टय७, गंडबाल लघु शंख कहे।।
जो सीप जोंक आदिक इनको, मारा या त्रास दिया भी हो।
पीड़ा दी या उपघात किया, या पर से भी करवाया हो।।
या करते को अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२।।
त्रय इन्द्रिय जीव असंख्याता-संख्यात कुंथु२ देहिक बिच्छू।
जूँ गोजों खटमल इन्द्रगोप, चिउंटी आदिक बहुविध जन्तू।।
इनको मारा संताप दिया, पीड़ा दी घात किया भी हो।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३।।
चउ इंद्रिय जीव असंख्याता-संख्यात उन्हों में डांस मशक।
बहु कीट पतंगे भ्रमर मधू-मक्खी गोमक्खी आदि विविध।।
इनको मारा परिताप विराधन, या उपघात किया भी हो।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।४।।
पंचेन्द्रिय जीव असंख्याता-संख्यात इन्हों में अंडज हैं।
पोतज व जरायुज रसज पसीनज, सम्मूर्छिन उद्भेदिम हैं।।
उपपाद जन्मयुत भी चौरासी, लाख योनि वालों में जो।
इनको मारा संताप दिया, पीड़ा दी घात किया हो जो।।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।५।।
भगवन् ! दैवसिक (रात्रिक) सभी, दोष विशोधन हेत।
चाहूँ आलोचन करन, श्रद्धा भक्ति समेत ।।१।।
हैं पाँच महाव्रत उनमें प्रथम, महाव्रत प्राणीवध विरती।
दूजा महाव्रत असत्यविरती, तीजा अदत्त से है विरती।।
चौथा महाव्रत मैथुन विरती, पंचम परिग्रह से विरती है।
छट्ठा अणुव्रत रात्री भोजन, विरती पुनि पांच समिती हैं।।१।।
ईर्यासमिती भाषासमिती, एषणसमिती भोजन की है।
आदान व निक्षेपण समिती, रखने व ग्रहण करने की है।।
मलमूत्र थूक नासामल विकृति, त्यजन प्रतिष्ठापन समिती।
मन वचन काय गुप्ती इन सबमें, हुए दोष की हो शुद्धी।।२।।
सद्दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, बाईस परीषह मुनि के हैं।
पच्चीस भावना१ क्रिया२ पचीस, व शील अठारह सहस कहें।।
चौरासी लाख सुगुण बारह, संयम बारह तप भी वर्णे।
बारह अंग चौदह पूर्व मुंड३-दश श्रमण४ धर्म भी दश वर्णे।।३।।
दश१ धर्मध्यान नव ब्रह्मचर्य-गुप्ती२ नव नोकषाय भी हैं।
सोलह कषाय अठ कर्म आठ, प्रवचनमाता३ अठ शुद्धी४ हैं।।
भय सात सात५ संसार जीव, षट्काय व छह आवश्यक हैं।
इंद्रियां पांच महाव्रत सुपांच, पण समिती चारित पांचहि हैं।।४।।
चउ संज्ञा६ प्रत्यय७ चार तथा, उपसर्ग८ चार भी कहे गये।
अठबीस मूलगुण उत्तरगुण, बहुविध उन सबमें दोष हुए।।
जो अशुभराग से महिलादी को, अवलोका९ स्पर्शा१० हो।
मन वचन काय की दुष्ट क्रिया११, परितापन की१२ किरिया की हो।।५।।
इन सबमें क्रोध मान माया, या लोभ राग या द्वेष निमित।
या मोह हास्य या भय प्रदोष, व प्रमाद प्रेम गृद्धी१३ निमित्त।।
लज्जा से या गारव से जो, व्रत आदी में आसादन की।
उसका आलोचन करके मैं, दैवसिक दोष को हरूँ अभी।।६।।
त्रयदंड१ अशुभत्रय लेश्यायें, त्रय गारव-ऋद्धि स्वाद रस के।
दो आर्त रौद्र संक्लेश भाव, त्रय अप्रशस्त२ संक्लेशहिं के।।
मिथ्या कुज्ञान मिथ्या दर्शन, मिथ्याचारित मिथ्याभिप्राय३।
असंयम व कषाय योग माने, इन तीनों के प्रायोग्य४ भाव।।७।।
अप्रायोग्य सेवन-निंह करने, योग्य कार्य को किया यदी।
प्रायोग्य५-योग्य सम्यक्त्व आदि, भावों की निंदा किया यदी।।
इनसे जो कुछ भी दिन भर में, (रात्री में) अतिक्रम६ व्यतिक्रम७ अतिचार८ किया।
या अनाचार९ आभोग१० व अनाभोग११ करके बहुदोष किया।।८।।
हे भगवन्! उसका प्रतिक्रमण, करता हूँ ऐसे मेरा प्रभु।
सम्यक्त्वमरण१२ व समाधि व पंडित-मरण१३ वीर्ययुतमरण१४ प्रभू।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे प्रभु बोधिलाभ होवे।
हो सुगतिगमन व समाधिमरणं, जिनगुण की संप्राप्ती होवे।।९।।
व्रत समिती इन्द्रिय निरोध छह आवश्यक आचेलक लोच।
भूमिशयन अस्नान अदंत-धावन स्थितिभुक्ती भक्तैक।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के, प्रमाद से इनमें अतिचार।
उनसे दूर हुआ हूँ मेरा, छेदोपस्थापन हो नाथ।।
अथ सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं दैवसिक (रात्रिक) प्रतिक्रमणक्रियायां कृतदोष-निराकरणार्थं पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं प्रतिक्रमणभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। (पूर्ववत् सामायिक दण्डक, ९ जाप्य, थोस्सामि……..पढ़ें) =
णमो अरिहंताणं,
णमो सिद्धाणं,
णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं,
णमो लोए सव्व साहूणं।।
नमो जिनेभ्यः ३, नमो निषीधिकायै२ ३, नमोऽस्तु ते ३।
हे अर्हंत सिद्ध बुद्धा, नीरज निर्मलसम मन सुमना।
हे सुसमर्थ परम शमयोग, शमभावी हे भवशमना।।
शल्यदुखित के शल्यविनाशन, हे निर्भय निराग निर्दोष।
हे निर्मोह विगत ममता निःसंग तथा निःशल्य विरोष।।१।।
मद माया असत्य के मर्दक, तप:प्रभावी हे परमेश।
गुण-शीलादिरत्नत्रयसागर, हे अनंत अप्रमेय महेश।।
महति पूज्य महावीर वीर, हे वर्धमान हे बुद्धि ऋषीश।
नमस्कार हो नमस्कार हो, नमस्कार हो तुम्हें हमेश।।२।।
मेरा मंगल करें सर्व, अर्हंत सिद्ध बुद्धा जिनराज।
केवलि जिन अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी ऋषिराज।।
चौदश पूर्व अंग पारंगत, अंगबाह्य श्रुतसंपन्ना।
बारह तप तपसी गुण और, गुणोंयुत महाऋद्धि शरणा।।३।।
तीर्थ और तीर्थंकर प्रवचन, प्रवचनयुत व ज्ञान ज्ञानी।
सद्ददर्शन सम्यग्दृष्टी, संयम व संयमी मुनिध्यानी।।
विनय तथा सुविनययुत साधू, ब्रह्मचर्य व्रत ब्रह्मचारी।
गुप्ति गुप्तिधर मुक्ति मुक्तियुत, समिति और समितिधारी।।४।।
स्वमत और परमत के ज्ञाता, क्षमाशील अरु क्षपक मुनी।
क्षीणमोह यति बोधितबुद्ध, बुद्धिऋद्धीयुत परममुनी।।
चैत्यवृक्ष जिनबिम्ब अकृत्रिम-कृत्रिम जितने त्रिभुवन में।
मेरा मंगल करें सभी ये, ये मंगलप्रद तिहुँजग में।।५।।
ऊध्र्व अधो अरु मध्यलोक में, सिद्धायतन नमूँ उनको।
सिद्धक्षेत्र अष्टापद सम्मेदाचल ऊर्जयन्त गिरि को।।
चंपा पावा नगरि मध्यमा, हस्तिबालिका मंडप में।
और अन्य भी मनुज लोक में, तीर्थ क्षेत्र सबको प्रणमें।।६।।
मोक्षशिला को प्राप्त सिद्ध, जिनबुद्ध कर्म से मुक्त महान।
विगत कर्मरज नीरज विरहित, भावकर्ममल से अमलान।।
पांच भरत पांच ऐरावत, पांचों महाविदेहों में।
सूरि उपाध्याय गुरू प्रवर्तक, स्थविर और कुलकर जितने।।७।।
चर्तुवर्णयुत श्रमण संघ के, साधू जितने इस जग में।
संयम तपसी ये सब मेरे, पावन मंगल हेतु बनें।।
भावसहित मैं त्रिविधशुद्धियुत, अंजलि मस्तक पर धरके।
त्रिविधक्रिया में शीश झुकाकर, सबको वंदूँ रुचि करके।।८।।
हे भगवन् ! दिन में (रात्रिक) व्रतों में, जो अतिचार अनाचार दोष हुए।
उन सबका मैं प्रतिक्रमण करूँ, चारित में जो अतिचार हुए।।
मन का दुश्चरित वचन दुश्चारित, काय दुश्चरित यदी हुए।
ज्ञानातिचार१ दर्शन-तप में, अतिचार वीर्य अतिचार हुए।।
जो पाँच महाव्रत पाँच समिति, त्रयगुप्ति षडावश्यक व्रत हैं।
छह जीव निकाय कहे इन सबकी, मैंने विराधना की है।।
इन जीवों को पीड़ा की मैंने या पर से करवायी हो।
करते को भी अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१।।
हे भगवन् ! शीघ्र गमन करने, निर्गमन क्रिया व ठहरने में।
जो गमन किया अरु व्यर्थ गमन, उद्वर्तन अरु परिवर्तन में।।
हस्तादि संकुचन फैलाने, आमर्शन१ तनु२ स्पर्शन में।
पूत्कार किये कक्रश३ बोले, चलने में तथा बैठने में।।
सोने में सोकर उठने में, उठकर सोने इन किरिया में।
एकेन्द्री द्वीन्द्री त्रीन्द्री चउ – इन्द्रिय पंचेन्द्रिय जीव हने।।
जीवों का परस्पर संघट्टन, पुंजीकरने व मारने से।
परिताप विराधन करने से, दिनभर में (रात्री में) जो कुछ दोष लगे।।
व्रत में कुछ भी हो अतिक्रम व्यतिक्रम, अतिचार अनाचारादी जो।
इन सबका मैं प्रतिक्रमण करूँ, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२।।
हे भगवन् ईर्यापथिक दोष का, प्रतिक्रमण करता हूँ मैं।
ऊपर मुखकर नीचे मुखकर, तिरछे मुख करके चलने में।।
चउदिश में मुखकर या विदिशाओं, में मुख करके चलने से।
दो त्रय चउ इंद्रिय जीव उपरि, अरु बीज हरित पर चलने से।।
उतिंग१ पणय२ हिमकण जल अरु, मट्टिय३ मकड़ी तंतू४ ऊपर।
पृथ्वी जल अग्नि वायु कायिक, चउ सत्त्वों५ ऊपर चलने पर।।
पृथ्वीकायिक संघटन किया, जलकायिक का संघटन किया।
अग्नीकायिक संघटन किया, वायूकायिक संघटन किया।।
संघटन वनस्पतिकायिक का, त्रसकायिक का संघटन किया।
इन सबका प्राण वियोग किया, परिताप विराधन यदी किया।।
इस ईर्यापथ से चलने मेें, मुझसे अतिचार हुए कुछ जो।
या अनाचार भी हुए प्रभो! वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३।।
हे भगवन्! मैं प्रतिक्रमण करूँ, मलमूत्र थूक नासामल को।
या अन्य विकृति६ को तजने में, हुए दोष प्रतिष्ठापन में जो।।
विकलत्रय प्राण७ व भूत वनस्पति, जीव पंचेंद्रिय सत्त्व चऊ।
भू उदक अग्नि अरु वायु इन्हों का, संघट्टन संघात कियो।।
मारण या परितापन से इन, सबमें दिनभर में (रात्री में) कुछ भी जो।
अतिचार अनाचारादि हुए, वह दृष्कृत मेरा मिथ्या हो।।४।।
हे भगवन्! मैं प्रतिक्रमण करूँ, एषण समिति में दोष हुए।
पानक भोजन पुष्पित भोजन, अरु बीज हरित भोजन जु किये।।
जो अधःकर्म१ निर्मित भोजन, पश्चात्२ अरु पुराकर्म३ कीया।
उद्दिष्टदोष४ निर्दिष्टदोष५, जलसंश्रित रससंसृष्ट६ लिया।।
करपुट से गिरा-गिरा खाया७, व प्रतिष्ठापनिका८ दोष किया।
उद्देशिक९ निर्देशिक१० व क्रीतकृत११, मिश्रजात१२ थापित१३ भि लिया।।
अनिसृष्ट१४ रचित१५ बलिप्राभृत१६ प्राभृत१७, घट्टित१८ अतिगृद्धी१९ करके।
अतिमात्र किया आहार एषणा-समिती में दूषण करके।।
इस गोचरिचर्या में कुछ भी, अतिचार व अनाचार हुए जो।
इन दोषों का शोधन करता, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।५।।
हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करूँ, स्वप्ने में किया विराधन जो।
स्त्री में विपर्यास२० बुद्धी, दृष्टी२१ से अशुभभाव हुए जो।
मन में विपरीतभाव१ वच के, कुत्सित व काय के कुत्सित जो।
भोजन का विपर्यास२ शुक्रच्युति३, स्वप्नदर्श४ कुत्सित भी जो।।
पूरबरत पूरबक्रीडत नाना-चिंता५ निद्रादिक में जो।
दिन में (रात्रिक) अतिचार अनाचार हुए, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।६।।
हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करूँ, जो दोष लगे विकथाओं से।
स्त्री संबंधी राग कथा, भोजन नृप चोर कथाओं से।।
पाखंडी गुरु अरु देश व भाषा-कथा६ तथा अकथा७ विकथा८।
निष्ठुरवच परपैशून्य व कांदर्पिक९ कौत्कुच१० कलहादि११ कथा।।
मौखर्य१२ व आत्मप्रशंसा पर-आरोप व परनिंदादि कथा।
पर की पीड़ादि कथा तथैव, सावद्यदोष अनुमती कथा।
इन विकथाओं के करने से, दिनभर में (रात्री में) मुझ से कुछ भी जो।
अतिचार अनाचार किये गये, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।७।।
हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करूँ, जो आर्त रौद्र दुध्र्यान किया।
इस भवसंज्ञा परभवसंज्ञा, आहार व भय मैथुन संज्ञा।।
परिग्रह संज्ञा१ पुनि क्रोधशल्य, अरु मानशल्य माया शल्या।
की लोभ अरु प्रेम शल्य व पिपासा-शल्य तथा निदान शल्या।
की मिथ्यादर्शनशल्य२ क्रोध मद, माया लोभ कषाय किया।
काली लेश्या नीली लेश्या, कापोत अशुभ लेश्यादि किया।।
आरंभ-परीग्रह परीणाम, प्रतिश्रय३ अभिलाषा भाव किये।
मिथ्यादर्शन परिणाम असंयम, अरु कषाय परिणाम किये।।
किये पापयोगपरिणाम४ कायसुख, अभिलाषा परिणाम किये।
किये शब्द रूप रस गंध स्पर्श५, कायिक सदोष६ अधिकरण किये।।
प्रादोषिक७ परिद्राविणी८ क्रिया, प्राणातिपात९ कुछ भी किये जो।
दिन भर में (रात्री में) अतिचार अनाचार, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।८।।
हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करूँ, है एक भाव जो अनाचार।
दो रागद्वेष त्रय गुप्ति त्रिदंड, त्रिगारव और कषाय चार।।
चउ संज्ञा पांच महाव्रत पण, समिती छह जीव निकाय कहे।
छह आवश्यक भय सात आठ-मद ब्रह्मचर्यगुप्ती नव हैं।।
दश श्रमण धर्म ग्यारह प्रतिमा, बारहविध भिक्षू१ प्रतिमा हैं।
तेरह विध२ क्रियास्थान चतुर्दश, भूत३ व प्रमाद४ पंद्रह हैं।।
सोलह प्रवचन५ सत्रहों असंयम६ असंपराय७ अठारह हैं।
उन्नीस नाथ अध्ययन८ कथा असमाधिस्थान९ सुबीस कहें।।
इक्कीस सबल१० बाइस परिषह तेईस सूत्रकृत११ अध्ययन हैं।
चौबिस अरहंतदेव पचीस भावना पृथ्वी१२ छब्बिस हैं।।
सत्ताइस विध अनगार सुगुण१ अरु मूलसुगुण अट्ठाइस हैं।
उनतीस पापसूत्रं२ प्रसंग मोहनीय३ थान भी तीस कहे।।
इकतीसहिं कर्मोदय विपाक४ बत्तिस विध जिन उपदेश५ कहे।
तेतिस अत्यासादना६ दोष इन सबमें जो कुछ दोष हुए।।
संक्षेप से आसादना सात में जीवों के आसादन से।
अजीव के आसादन ज्ञानासादन दर्शन सादन से।।
चारित आसादन तप का आसादन वीर्यासादन से भी।
मैं सबकी गर्हा करता हूँ दुश्चरित किये पहले जो भी।।
मैं वर्तमान के दोषों को प्रतिक्रमण विधी से दूर करूँ।
आगे होने वाले दोषों का भी मैं प्रत्याख्यान करूँ।।
जिन दोषों की गर्हा निंह की, मैं उनकी गर्हा करता हूूँ।
जिन दोषों की निंदा नहिं की, अब उनकी निंदा करता हूँ।।
जिनका आलोचन नहीं किया, उनका आलोचन करता हूँ।
आराधन चउ स्वीकार करूँ विराधन का प्रतिक्रम करता हूँ।
मुझ से इन सबमें जो कुछ भी दिनभर में (रात्री में) अतीचार हुए हों।
या अनाचार भी हुए प्रभो! वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।९।।
हे भगवन्! इच्छा करता हूँ, ऐसे निग्र्रंथरूप की ही।
जिन आगम१ कथित अनुत्तर यह केवलिसंबंधी२ पूर्ण३ यही।।
रत्नत्रयमय नैकायिक सम-एकत्वरूप सामायिक४ है।
संशुद्ध शल्ययुतजन का शल्यविघातक और सिद्धिपथ है।।
यह श्रेणिमार्ग५ अरु क्षमामार्ग मुक्तीपथ६ तथा प्रमुक्तिपथ७ है।
यह मोक्षमार्ग८ व प्रमोक्षमार्ग९ निर्यानपथ१०रु निर्वाणपथ११ है।।
यह सर्वदुःखपरिच्युतीमार्ग सुचरित्रपरिनिर्वाणमार्ग१२।
अविसंवादक१३ प्रवचन उत्तम आश्रयते१४ इसको मुनीनाथ।।
इसकी मैं श्रद्धा करता हूँ, इसकी ही प्राप्ती करता हूँ।
इसमें ही मैं रुचि रखता हूँ, इसका ही स्पर्श करता हूँ।।
इससे बढ़कर नहिं अन्य कोई नहिं हुआ न होगा आगे भी।
सुज्ञान से दर्शन से चरित्र से सूत्र से मुनि धरते यह ही।।
इससे ही जीव सिद्ध होते बुद्ध१ होते-ऋद्धी पाते।
मुक्ती पाते निर्वाणप्राप्त२-कृतकृत्य निजात्मसौख्य पाते।।
शारीरिक मानस आगंतुक सब दुःखों का क्षय कर देते।
संपूर्ण चराचर त्रिभुवन को वे ही साक्षात् जान लेते।।
मैं श्रमण-मुुनी हूँ संयत हूँ मैं उपरत३ हूँ उपशांत४ भि हूँ।
परिग्रह वंचन५ व मान माया अरु असत्य से अतिविरक्त हूँ।।
मिथ्या अज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्याचरित्र से विरक्त हूँ।
सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सम्यक् चारित में रुचि रखता हूँ।।
जो जिनवर भाषित हैं इनमें, मुझसे दिनभर में (रात्री में) कुछ भी जो।
अतिचार अनाचार दोष हुए, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१०।।
हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करूँ, सब सार्वकाल६ के दोषों में।
ईर्या भाषा एषणा और, आदान निक्षेपण समिती में।।
मल मूत्र थूक नासिकामल, विकृति को तजने समिति में।
मनगुप्ति वचनगुप्ति व काय-गुप्ती प्राणीवध विरती में।।
असत्यविरती अदत्तविरती, मैथुन व परिग्रह विरती में।
रात्रीभोजन विरती समस्त, जीवादि विराधन करने में।।
सम्पूर्ण धर्म आवश्यक्रियादी, का अतिक्रमण७ भि करने में।
सब ही मिथ्या आचरणों से, बहु दोष उपार्जित करने में।।
मुझसे जो कुछ भी दिनभर में (रात्रि में) अतिचार अनाचार हुए हों।
हे भगवन् ! उनकी शुद्धी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।११।।
हे भगवन् ! मैं इच्छा करता हूँ वीरभक्ति के व्युत्सर्ग१ की।
जो मुझसे दिनभर में (रात्री में) अतिचार, अनाचार आभोग२ यदी।।
हुए अनाभोग३ कायिक४ वाचिक५ मानस६ तथैव दुशचिन से।
दुर्भाषण से दुष्परिणामों द्वारा तथैव दुःस्वप्नों से।।
सुज्ञान में दर्शन में चरित्र में जिन सूत्रों में सामायिक में।
पांचों महाव्रत पण समिति तीन गुप्ती छह जीव निकायों में।।
छह आवश्यक किरिया इन सबके दोष विशोधन हेतु मैं।
अरु आठ प्रकार कर्म के घातन हेतु करूँ तनुसर्गं मैं।।
बहु अन्य प्रकारों से उच्छ्वास तथा निःश्वास के लेने से।
अरु आंख खोलने पलक झपकने खांसी छींक जंभाई से।।
बहु सूक्ष्म अंग के हिलने डुलने नेत्र चलाचल करने से।
जो दोष किये इन सब असमाधी७ कारक बहु आचरणों से।।
मैं जब तक अर्हन्, भगवन्तों, की पर्युपासना करता हूँ।
तब तक तो पापकर्म दुश्चारित इन सबको मैं तजता हूँ।।१२।।
व्रत समिती इंद्रिय निरोध छह आवश्यक आचेलक लोच।
भूमिशयन अस्नान अदंतधावन स्थितिभुक्ती भक्तैक।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के प्रमाद से इनमें अतिचार।
उनसे दूर हुआ हूूँ मेरा छेदोपस्थापन हो नाथ।।१।।
अथ सर्वातिचारविशुद्धयर्थं दैवसिक (रात्रिक) प्रतिक्रमणक्रियायां कृतदोषनिराकरणार्थं पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं निष्ठितकरणवीरभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। (पुनः सामायिक दण्डक पढ़कर दैवसिक प्रतिक्रमण में ३६ बार महामंत्र का जाप्य १०८ उच्छ्वासों में करें और रात्रिक प्रतिक्रमण में १८ बार महामंत्र का जाप्य ५४ उच्छ्वासों में करें उसके बाद थोस्सामिस्तव पढ़ें।
जो विधिवत् सब लोक चराचर, द्रव्यों को उनके गुण को।
भूत भविष्यत् वर्तमान, पर्यायों को भी नित सबको।।
युगपत समय-समय प्रति जाने, अतः हुए सर्वज्ञ प्रथित।
उन सर्वज्ञ जिनेश्वर महति, वीर प्रभु को नमूँ सतत।।१।।
वीर सभी सुर असुर इन्द्र से, पूज्य वीर को बुध सेवें।
निज कर्मों को हता वीर ने, नमः वीर प्रभु को मुद से।।
अतुल प्रवर्ता तीर्थ वीर से, घोर वीर प्रभु का तप है।
वीर में श्री द्युति कांति कीर्ति, धृति हैं हे वीर! भद्र तुममें।।२।।
जो नित वीर प्रभू के चरणों, में प्रणमन करते रुचि से।
संयम योग समाधीयुत हो, ध्यान लीन होते मुद से।।
इस जग में वे शोक रहित हो, जाते हैं निश्चित भगवन् ।
यह संसार दुर्ग विषमाटवि, इसको पार करें तत्क्षण।।३।।
व्रत समुदाय मूल है जिसका, संयममय स्कंध महान् ।
यम अरु नियम नीर से सिंचित, बढ़ी सुशाखाशील प्रधान।।
समिति कली से भरित गुप्तिमय, कोंपल से सुन्दर तरु है।
गुण कुसुमों से सुरभित सत्तप, चित्रमयी पत्तों युत है।।४।।
शिवसुख फलदायी यह तरुवर, दयामयी छाया से युत।
शुभजन पथिक जनों के खेद, दूर करने में समरथ नित।।
दुरित सूर्य के हुए ताप का, अन्त करे यह श्रेष्ठ महान् ।
वर चारित्र वृक्ष कल्पद्रुम, करे हमारे भव की हान।।५।।
सभी जिनेश्वर ने भवदुःखहर, चारित को पाला रुचि से।
सब शिष्यों को भी उपदेशा, विधिवत् सम्यक् चारित ये।।
पाँच भेद युत सम्यक् चारित, को प्रणमूँ मैं भक्ती से।
पंचम यथाख्यात चारित की, प्राप्ति हेतु वंदूँ मुद से।।६।।
धर्म सर्वसुख खानि हितंकर, बुधजन करें धर्म संचय।
शिवसुखप्राप्त धर्म से होता, उसी धर्म के लिए नमन।।
धर्म से अन्य मित्र नहिं जग में, दयाधर्म का मूल कहा।
मन को धरूँ धर्म में नित, हे धर्म! करो मेरी रक्षा।।७।।
धर्म महा मंगलमय है यह, कहा वीर प्रभु ने जग में।
प्रमुख अिंहसा संयम तपमय, धर्म सदा उत्तम सब में।।
जिसके मन में सदा धर्म है, सुरगण भी उसको प्रणमें।
मैं भी नमूं धर्म को संतत, धर्म बसो मेरे मन में।।८।।
हे भगवन् ! श्री वीर भक्ति का, कायोत्सर्ग किया जो मैं।
प्रतिक्रमण के अतिचारोें की, आलोचन करता हूँ मैं।।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित तप, वीर्य पांच आचारों में।
संयम नियम शील यम में औ, मूलगुणों उत्तर गुण में।।
जितने भी अतिचार हुए औ, पापयोग भी जो मुझसे।
उन सबसे मैं विरक्त होकर, आलोचन करता रुचि से।।
असंख्य लोकसम अध्यवसाय, स्थान योग अप्रशस्त कहे।
संज्ञा इन्द्रिय कषाय गारव, किरियाओं में जो कि हुए।।
मन वच तन के अशुभयोग से, चिंते कृष्ण नील कापोत।
लेश्या विकथा उत्पथ ग्लानी, हास्य रती अरती भय शोक।।
वेद विजृंभित आर्तरौद्र, संक्लेश भाव से किये गये।
अनिभृत कर पग मन वच तन से, इंद्रिय विषयों में अति से।।
स्वर व्यंजन पद परिसंघात के, उच्चारण में हानी से।
अन्य रूप प्रवृत्ती से मिथ्या, मेलित आमेलित विधि से।।
किया अन्यथा दिया अन्यथा, लिया तथा आवश्यक में।
हानी कृत कारित अनुमति से, सब दुष्कृत मिथ्या होवें।।
व्रतसमिती इन्द्रियनिरोध छह आवश्यक आचेलक लोच।
भूमिशयन अस्नान अदंतधावन स्थितिभुक्ती भक्तैक।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के, प्रमाद से इनमें अतिचार।
उनसे दूर हुआ हूँ मेरा छेदोपस्थापन हो नाथ!।।१।।
अथ सर्वातिचार विशुद्धयर्थं दैवसिक (रात्रिक) प्रतिक्रमणक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। (पृष्ठ ५ से सामायिकदण्डक पढ़कर ९ जाप्य करके पृष्ठ ६ से थोस्सामिस्तव पढ़ें।)
वृषभदेव से वीर प्रभू तक, चौबीस तीर्थंकर वंदूँ।
गणयुत सब गणधर देवों को, सिद्धों को शिर से प्रणमूँ।।१।।
जो इस जग में सहस आठ, लक्षणधर ज्ञेयसिंधु के पार।
जो सम्यक् भवजाल हेतु, नाशक रवि शशिप्रभ अधिक अपार।।
जो मुनि इन्द्र देवियों शत से, गीत नमित अर्चित र्कीितत।
उन वृषभादिवीर तक प्रभु को, भक्ती से मैं नमूँ सतत।।२।।
देवपूज्य वृषभेश अजित, जिनवर त्रैलोक्य प्रदीप महान।
संभव जिन सर्वज्ञ मुनीगण, पुंगव अभिनंदन भगवान।।
कर्म शत्रुहन सुमति नाथ, वर कमल सदृश सुरभित पद्मेश।
श्री सुपाश्र्व शमदमयुत शशिवत्, पूर्णचंद्र जिन नमूं हमेश।।३।।
भव भय नाशक पुष्पदंतजिन, प्रथित सु शीतल त्रिभुवन ईश।
शीलकोश श्रेयांस सुपूजित, वासुपूज्य गणधर के ईश।।
इंद्रिय अश्व दमनकृत ऋषिपति, विमल अनंत मुनीश नमूं।
सद्धर्मध्वज धर्मशरणपटु, शमदमगृह शांतीश नमूं।।४।।
सिद्धगृहस्थित कुंथु अरहप्रभु, श्रमणपती साम्राज्य त्यजित।
प्रथितगोत्र मल्लिप्रभ खेचरनुत, सुखराशि सु मुनिसुव्रत।।
सुरपति अर्चित नमिजिन हरिकुल, तिलक नेमि भव अंत किया।
फणिपति वंद्य पाश्र्व, भक्तीवश वद्र्धमान तव शरण लिया।।५।।
हे भगवन् ! चौबीस भक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से।
उसके आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।
अष्ट महा प्रातिहार्य सहित जो, पंच महाकल्याणक युत।
चौंतिस अतिशय विशेषयुत, बत्तिस देवेन्द्र मुकुट चर्चित।।
हलधर वासुदेव प्रतिचक्री, ऋषि मुनि यति अनगार सहित।
लाखों स्तुति के निलय वृषभ से, वीरप्रभु तक महापुरुष।।
मंगल महापुरुष तीर्थंकर, उन सबको शुभ भक्ती से।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूं, वंदूं नमूं महारुचि से।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपति होवे।।
व्रत समिति इन्द्रिय निरोध छह आवश्यक आचेलक लोच।
भूमिशयन अस्नान अदंतधावन स्थितिभुक्ती भक्तैक।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के प्रमाद से इनमें अतिचार।
उनसे दूर हुआ हूं मेरा छेदोपस्थापन हो नाथ ! ।।१।।
अथ सर्वातिचार विशुद्ध्यर्थं दैवसिक (रात्रिक) प्रतिक्रमणक्रियायां श्रीसिद्धभक्ति-प्रतिक्रमणभक्ति-निष्ठितकरणवीरभक्ति-चतुर्विंशतितीर्थंकरभक्तीः कृत्वा तद्धीनाधिकदोष-विशुद्ध्यर्थं आत्मपवित्रीकरणार्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। (पृष्ठ ५ से सामायिक दण्डक पढ़कर ९ जाप्य करके पृष्ठ ६ से थोस्सामिस्तव पढ़कर समाधिभक्ति पढ़ें।
अथेष्टप्रार्थना-प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः१।
शास्त्रों का अभ्यास, जिनेश्वर नमन सदा सज्जन संगति।
चरितवान् के गुण गाऊँ और दोष कथन में मौन सतत।।
सबसे प्रियहित वचन कहूँ निज आत्म तत्त्व को नित भाऊँ।
जब तक मुक्ति मिले तब तक, भव-भव में इन सबको पाऊँ।।१।।
तव चरणांबुज मुझ मन में, मुझ मन तव लीन चरणयुग में।
तब तक रहें जिनेश्वर जब तक, मोक्ष प्राप्ति नहिं हो जग में।।२।।
अक्षर पद से हीन अर्थ, मात्रा से हीन कहा मैं जो।
हे श्रुतमातः! क्षमा करो सब, मम दुःखों का क्षय कीजो।।३।।
भगवन् ! समाधि भक्ति अरु, करके कायोत्सर्ग।
चाहूँ आलोचन करन, दोष विशोधन हेत ।।१।।
रत्नत्रय स्वरूप परमात्मा, उसका नाम समाधि है।
नित प्रति उस समाधि को अर्चूं, पूजूँ वंदूँ नमूँ उसे।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।२।।
इस प्रकार पद्यानुवादरूप दैवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण पूर्ण हुआ।।