जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र सम्बन्धी अङ्गदेश में एक चम्पापुरी नाम की नगरी है। उसी नगरी में एक सोमदेव ब्राह्मण रहता था, उसकी भार्या का नाम सोमिला था। उन दोनों के सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति ये तीन पुत्र थे जो कि वेदवेदांगों में पारगामी थे। सोमिला के भ्राता अग्निभूति की अग्निला स्त्री से तीन कन्यायें हुई थीं जिनका नाम धनश्री, मित्रश्री और नागश्री था। अग्निभूति ने अपनी तीनों कन्याओं का क्रम से तीनों भानजों के साथ विवाह कर दिया। किसी एक समय सोमदेव ब्राह्मण ने विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। अनंतर एक दिन आहार के समय धर्मरुचि नाम के महातपस्वी मुनिराज को अपने घर की तरफ आते देखकर सोमदत्त ने अपने छोटे भाई की पत्नी से कहा कि हे नाग श्री! तू इन मुनिराज का पड़गाहन कर इन्हें विधिवत् आहार करा दे। नागश्री ने मन में सोचा कि ‘‘यह सदा सभी कार्य के लिये मुझे ही भेजा करता है। यह सोचकर वह बहुत ही व्रुâद्ध हुई और उसी व्रुâद्धावस्था में उन तपस्वी मुनिराज को विष मिला हुआ आहार दे दिया। मुनिराज ने संन्यास धारण कर आराधना पूर्वक मरण किया। जिससे वे सर्वार्थसिद्धि नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो गये। जब सोमदत्त आदि तीनों भाइयों को नागश्री के द्वारा किये हुए इस अकृत्य का पता चला तब उन्होंने वरुणार्य नाम के महामुनि के पास जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। इस प्रकार ये पाँचों ही जीव आराधनाओं की आराधना करते हुए अंत में मरण कर आरण और अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हो गये। इधर नागश्री भी पाप के फल से कुत्सित परिणामों से मरण कर पाँचवें नरक में चली गई। वहाँ पर असंख्य दु:खों को भोगकर निकली तो स्वयंप्रभा द्वीप में दृष्टिविष नाम का सर्प हो गई। फिर मर कर दूसरे नरक में गई वहाँ पर तीन सागर तक दु:ख भोगती रही। वहाँ से निकलकर दो सागर तक त्रस-स्थावर योनियों में परिभ्रमण करती रही। इस प्रकार संसार सागर में भ्रमण करते-करते जब उसके पाप का उदय कुछ मंद हुआ तब चंपापुर नगर में चाँडाली हो गई। किसी एक दिन इसने समाधिगुप्त मुनिराज को देखकर उन्हें नमस्कार किया। मुनिराज ने करुणा से उसे उपदेश दिया जिससे उसने मधु और माँस का त्याग कर दिया। इस त्याग के निमित्त से वह उस पर्याय से छूटकर वहीं के सुबन्धु सेठ की धनदेवी स्त्री से पुत्री हुई। उसका नाम सुकुमारी रक्खा गया। यहाँ पर भी उसके पाप का उदय शेष रहने से उसके शरीर से बहुत दुर्गन्ध आती थी। जब वह युवावस्था में आई तब माता-पिता को उसके विवाह की चिंता हो गई। इसी नगर में एक धनदत्त सेठ रहता था उसकी अशोकदत्ता स्त्री से दो पुत्र हुए थे। बड़े का नाम जिनदेव और छोटे का नाम जिनदत्त था। सुबन्धु के आग्रह से धनदत्त अपने पुत्र जिनदेव के साथ सुकुमारी का विवाह करना चाहता था किन्तु जिनदेव को इस बात का पता चलते ही वह वहाँ से चला गया और सुव्रतमुनि के पास उसने मुनि दीक्षा ले ली। माता-पिता के आग्रह से जिनदत्त ने उस दुर्गंधित सुकुमारी के साथ विवाह तो कर लिया किन्तु उसकी दुर्गंधि से घृणा करता हुआ वह स्वप्न में भी उसके निकट नहीं गया। इस प्रकार पति के विरक्त होने से सुकुमारी सदा ही अपने पूर्वकर्मों को निन्दा किया करती थी। एक दिन इस सुकुमारी ने उपवास किया था। उसी दिन उसके यहाँ आहार के लिए आर्यिकाओं के साथ सुव्रता नाम की आर्यिका आई थीं। सुकुमारी ने उनकी वंदना कर प्रधान आर्यिका से पूछा कि हे माताजी! इन दो र्आियकाओं ने किस प्रकार से दीक्षा ली है। तब प्रधान आर्यिका ने कहा कि-‘‘ये दोनों पूर्वजन्म में सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की विमला और सुप्रभा नाम की प्रिय देवियाँ थीं। किसी दिन ये दोनों सौधर्म इन्द्र के साथ नंदीश्वर-द्वीप में जिनेन्द्र देव की पूजा करने गई हुई थीं। वहाँ इनका चित्त विरक्त हो गया तब इन दोनों ने आपस में यह संकल्प किया कि ‘‘हम दोनों इस पर्याय के बाद मनुष्य पर्याय पाकर तप करेंगी।’’ आयु के अंत में वहाँ से च्युत होकर ये दोनों साकेत नगर के स्वामी श्रीषेण राजा की श्रीकान्ता रानी से हरिषेणा और श्रीषेणा नाम की पुत्रियाँ हो गर्इं। यौवन अवस्था में इन्हें देखकर राजा श्रीषेण ने इन दोनों के लिए स्वयंवर मण्डप बनवाया और उसमें अनेक राजपुत्र आकर बैठे गये। ये दोनों कन्यायें अपने हाथ में माला लेकर स्वयंवर मण्डप में आई ही थीं कि इन्हें अपने पूर्वभव की प्रतिज्ञा का स्मरण हो आया। उसी समय इन दोनों ने अपने पिता को पूर्व भव की बात बताकर तथा समस्त सुख वैभव का त्याग कर, आकर आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली है। यह कारण सुनकर सुकुमारी बहुत ही विरक्त हुई। उसने सोचा-देखो, इन दोनों सुकोमलगात्री राजपुत्रियों ने तो सब सुख छोड़कर दीक्षा ले ली है और मुझे तो यहाँ सुख उपलब्ध भी नहीं है। शरीर में दुर्गंधि आने से कोई पास भी नहीं बैठता। इत्यादि प्रकार से चिन्तन करके उसने अपने कुटुम्बी जनों से आज्ञा लेकर उन्हीं आर्यिका के पास दीक्षा ले ली१। किसी एक दिन वन में वसंतसेना नाम की वेश्या आई हुई थी। बहुत से व्यभिचारी मनुष्य उस वेश्या को घेरकर उससे प्रार्थना कर रहे थे। सुकुमारी आर्यिका ने यह देखा तो उसके मन में ऐसा भाव आया कि मुझे भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो। पश्चात् अपनी गणिनी के पास जाकर आलोचना करके प्रायश्चित ग्रहण कर लिया। कालांतर में आयु पूरी कर अच्युत स्वर्ग में जो इसके नागश्री भव के पति ब्राह्मण सोमभूति देव हुए थे उनकी देवी हो गई। उन तीनों ब्राह्मणों के जीव स्वर्ग से चयकर क्रम से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन हो गये। तथा धनश्री, मित्रश्री के जीव नकुल और सहदेव हो गये। सुकुमारी का जीव देवी पर्याय से च्युत होकर कांपिल्य नगर के राजा दु्रपद की रानी दृढ़रथा के द्रौपदी नाम की पुत्री हुई। यही द्रौपदी अर्जुन की रानी हुई है। पूर्व जन्म में जो इसने वसंतसेना वैश्या जैसा सौभाग्य प्राप्त करने का भाव कर लिया था उसी से द्रौपदी पर्याय में पंचभर्तारी का असत्य आरोप लगा है। वास्तव में द्रौपदी सती थी। युधिष्ठिर और भीम उसके जेठ थे और नकुल, सहदेव देवर थे। फिर भी पूर्वकृत कर्म के उदय से उसे अकारण ही अवर्णवाद-निन्दा को सहना पड़ा है। अंत में द्रौपदी ने भगवान नेमिनाथ के समवसरण में गणिनी राजीमती आर्यिका से दीक्षा लेकर स्त्री पर्याय छेदकर अच्युत स्वर्ग में देवपद को प्राप्त कर लिया है।