मंगलाचरण
सिद्धवरसासणाणं, सिद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं।
काऊण णमुक्कारं, भत्तीए णमामि अंगाइं१।।१।।
पद्यानुवाद- जिनका वर शासन जग प्रसिद्ध, जो कर्मचक्र से रहित सिद्ध।
उनको कर नमस्कार भक्त्या, द्वादश अंगों को नमूँ नित्य।।१।।
आचार सूत्रकृत स्थान अंग, समवाय व व्याख्याप्रज्ञप्ती।
है ज्ञातृधर्मकथनांग छठा, औ उपासकाध्ययनांग कृती।।२।।
अंत:कृत्दश औ अनुत्तरोपपाददशक है अंगज्ञान।
है प्रश्न व्याकरण विपाकसूत्र, इन ग्यारह अंगों को प्रणाम।।३।।
परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग, पूर्वगत चूलिका पंचविधा।
इन युत बारहवां दृष्टिवाद, है अंग उसे प्रणमूँ त्रिविधा।।४।।
उत्पादपूर्व अग्रायणीय, औ वीर्य अस्तिनास्ति प्रवाद।
ज्ञानप्रवाद सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद कर्मप्रवाद।।५।।
औ प्रत्याख्यान पूर्व विद्यानुवाद कल्याण नाम पूरब।
जो प्राणवाद किरिया विशाल, औ लोकबिंदुसार पूरब।।६।।
दश चौदह आठ अठारह औ, बारह बारह सोलह व बीस।
है तीस व पंद्रह शेष चार में, दश दश वस्तू श्रुतप्रणीत।।७।।
चौदहपूर्वों में वस्तुनाम, अधिकारों की संख्या क्रम से।
इन पूर्वों की जितनी वस्तू, उन सबको प्रणमूँ भक्ती से।।८।।
एक एक वस्तु में बीस बीस, प्राभृत माने आचार्यों ने।
वस्तू तो विषम व सम भी हैं, प्राभृत सम संख्या में माने।।९।।
चौदह पूर्वों की एक शतक, पंचानवे वस्तू होती हैं।
सब प्राभृत संख्या तीन सहस, नव सौ पूर्वों की होती हैं।।१०।।
इस विध भक्ती राग से, स्तवन करूँ श्रुत शास्त्र।
जिनवर वृषभ मुझे तुरत, देवो श्रुत का लाभ।।११।।
जिनदेव के मुख से खिरी, दिव्य ध्वनी अनअक्षरी।
गणधर ग्रहण कर द्वादशांगी, ग्रंथमय रचनाकरी।।
उन अंग पूरब शास्त्र के ही, अंश ये सब शास्त्र हैं।
उस जैनवाणी को नमूँ, जो ज्ञान अमृत सार है।।
अंग तथा अंगबाह्य श्रुत, जिनवाणी है पूज्य।
अत: नमूँ मैं भक्ति से, जिनवच जिनसम पूज्य।।
मुनियों के आचार प्रधान, उनका पूरण करे बखान।
करो यत्नपूर्वक सब क्रिया, जिससे मिले शीघ्र शिवप्रिया।।
पद हैं आचारांग में, अठरह सहस प्रमाण।
जो वंदे नित भक्ति से, मिले सौख्य निर्वाण।।१।।
स्वसमय परसमयों को कहे, स्त्री के लक्षण वरणये।
सूत्रकृतांग दूसरा अंग, इसको नमत मिले सुख संग।।
इसी दूसरे अंग में, पद छत्तीस हजार।
वंदत ही भ्रम नाश के, मिले समय का सार।।२।।
जीव और पुद्गल के भेद, एक दोय त्रय आदि अनेक।
वर्णे स्थानांग सदैव, पूजत मिले ज्ञान स्वयमेव।।
तीजे स्थानांग में, पद ब्यालीस हजार।
जो वंदे वे शीघ्र ही, लहें स्वात्मनिधि सार।।३।।
द्रव्य अपेक्षा रहें समान, उसे कहें समवाय सुमान।
क्षेत्र काल अरु भाव समान, इनका भी यह करे बखान।।
एक लाख चौंसठ सहस, पद इसके हैं जान।
वंदत ही जिनके सदृश, मिलता स्वात्म निधान।।४।।
जीव अस्ति या नास्ती आदि, साठ हजार प्रश्न इत्यादि।
इनका उत्तर देवे नित्य, व्याख्या प्रज्ञप्ती वह सिद्ध।।
पद माने दो लाख अरु, अट्ठाईस हजार।
मन वच तन से नित नमूँ, मिले सुगुण भंडार।।५।।
तीर्थंकर की धर्म कथादि, दिव्यध्वनि से वर्णे सादि।
त्रय संध्या में खिरती ध्वनी, संशय आदि दोष को हनी।।
पांच लाख छप्पन सहस, पद हैं इसमें जान।
नाथ१ धर्म-कथांग यह, नमूँ इसे गुणखान।।६।।
पाक्षिक नैष्ठिक साधक भेद, श्रावक के प्रतिमादि अनेक।
इनका वर्णन करे अमंद, सो उपासकाध्ययन सुअंग।।
ग्यारह लख सत्तर सहस, पद हैं इसमें सिद्ध।
जो वंदे नित भाव से, वे पद लहें अनिंद्य।।७।।
प्रति तीर्थंकर तीरथकाल, दश दश मुनि निज आत्म संभाल।
घोर घोर उपसर्ग सहंत, केवलि हो निर्वाण लहंत।।
अन्त:कृत दश नाम यह, अंग नमूं धर नेह।
तेइस लख अठवीस सहस, पद से यह वर्णेय।।८।।
चौबिस तीर्थंकर का तीर्थ, उनमें हो दश दश मुनि ईश।
घोरोपसर्ग सहनकर मरे, अनुत्तर में इन्द्र अवतरे।।
अनुत्तरौपपादिक दशं, अंग नमूं सुखकार।
पद हैं बानवे लाख अरु, चव्वालीस हजार।।९।।
आक्षेपिणि विक्षेपिणि तथा, संवेदनि निर्वेदनि कथा।
नष्ट मुष्टि चिंतादिक प्रश्न, वर्णन करता है यह अंग।।
इसमें पद तिरानवे, लाख व सोल हजार।
प्रश्न व्याकरण अंग को, नमूं मिले सुखकार।।१०।।
शुभ अरु अशुभ कर्मफल पाक, वर्णन करता अंग विपाक।
द्रव्य क्षेत्र काल अरु भाव, इनके आश्रय कहे स्वभाव।।
इस विपाक सूत्रांग में, पद हैं एक करोड़।
लाख चुरासी भी कहें, नमूं सदा कर जोड़।।११।।
तीन शतक त्रेसठ मत भिन्न, उनका वर्णन करे अखिन्न।
नाना भेद सहित यह अंग, दृष्टिवाद नाम यह अंत।।
इक सौ आठ करोड़ अरु, पद हैं अड़सठ लाख।
छप्पन हजार पाँच भी, नमूं नमाकर माथ।।१२।।
इस दृष्टिवाद के पाँच भेद, परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग।
पूरबगत अरु चूलिका कही, इनमें भी कहे प्रभेद योग।।
पहले परिकर्म के पांच भेद, उनमें शशि प्रज्ञप्ती पहला।
उसमें पद छत्तिस लाख पांच, हज्जार नमत निज आत्म भला।।१३।।
दूजा सूरज प्रज्ञप्ति कहा, परिकर्म सूर्य से संबंधी।
आयू मंडल परिवार ऋद्धि, अरु गमन अयन दिन-रात विधी।।
इन सबका वर्णन करता यह, इसको भक्ती से पूजूँ मैं।
पद पांच लाख अरु तीन सहस, इन वंदत भव से छूटूँ मैं।।१४।।
प्रज्ञप्ती जंबूद्वीप नाम, यह मेरु कुलाचल क्षेत्रादिक।
वेदिका सरोवर नदी भोग, भू जिनमंदिर सुरभवनादिक।।
इस जंबूद्वीप के मध्य विविध, रचना का वर्णन करता है।
पद तीन लाख पच्चीस सहस, इनका वंदन भव हरता है।।१५।।
इस मध्यलोक में द्वीप और, सागर हैं संख्यातीत कहे।
किसमें क्या है? यह सब वर्णे, व्यंतर आदिक आवास कहे।।
इसमें पद बावन लाख तथा, छत्तीस हजार बखाने हैं।
हम भक्ती से वंदे इसको, जिससे भव भव दु:ख हाने हैं।।१६।।
व्याख्या प्रज्ञप्ती परीकर्म, जीवाजीवादिक द्रव्यों को।
भव्यों व अभव्यों सिद्धों को, वर्णे बहु वस्तू भेदों को।।
इसमें पद लाख चुरासी अरु, छत्तीस हजार बखाने हैं।
हम इसकी भक्ती करके ही, निज आत्मा को पहचाने हैं।।१७।।
उस दृष्टिवाद का भेद दूसरा, सूत्र नाम का माना है।
है जीव अबंधक अवलेपक, इत्यादिक करे बखाना है।।
यह क्रिया-अक्रियावादों को, अरु विविध गणित को वर्णे है।
पद हैं अट्ठासी लाख कहे, इसको वंदूं भवतरणी ये।।१८।।
तीर्थंकर चक्री हलधर अरु, नारायण प्रतिनारायण हैं।
त्रेसठ ये शलाकापुरुष कहे, इनके चरित्र को वर्णे ये।।
जिनवर विद्याधर ऋद्धीधर, मुनियों राजादिक पुरुषों को।
वर्णे पद इसमें पाँच सहस, प्रथमानुयोग वंदूं इसको।।१९।।
१४ पूर्व स्तव चौथा है भेद पूर्वगत जो, इसके भी चौदह भेद कहे।
उत्पाद पूर्व पहला यह भी, उत्पत्ति नाश स्थिति कहे।।
सब द्रव्यों की पर्यायों को, यह वर्णे इसको वंदूं मैं।
इसमें पद एक करोड़ कहे, वंदत भव दु:ख से छूटूँ मैं।।२०।।
अग्रायणीय पूरब दूजा, यह सुनय सात सौ अरु दुर्नय।
छह द्रव्य पदार्थों को वर्णे, इसमें पद छ्यानवे लाख अभय।।
इस द्वितिय पूर्व को वंदूं मैं, इसका कुछ अंश आज भी है।
षट्खण्डागम जो सूत्रग्रंथ, उन भक्ती भवभय हरती है।।२१।।
वीर्यानुवाद है तृतिय पूर्व, यह आत्मवीर्य परवीर्यों को।
तपवीर्यादिक को कहता है, पद सत्तर लाख इसी में हों।।
इसकी भक्ती से शक्ति बढ़े, फिर युक्ति मिले शिवमारग की।
फिर ज्ञान पूर्ण हो मुक्ति मिले, मैं भक्ती करूँ सतत इसकी।।२२।।
जो अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व, स्वद्रव्य क्षेत्र कालादिक से।
सब वस्तू का अस्तित्व कहे, नास्तित्व अन्यद्रव्यादिक से।।
यह दुर्नय का खंडन करके, नय द्वारा विधि प्रतिषेध कहे।
इसमें पद साठ लाख मानें, इसको वंदत सम्यक्त्व लहे।।२३।।
जो ज्ञानप्रवाद नाम पूरब, प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों का।
मतिश्रुत अवधी मनपर्यय अरु, केवल इन पांचों ज्ञानों का।।
बहुभेद प्रभेद सहित वर्णे, इसको वंदत हो ज्ञान पूर्ण।
इसमें पद इक कम एककोटि, इस वंदत हो अज्ञान चूर्ण।।२४।।
यह सत्य प्रवाद पूर्व दशविध, सत्यों का वर्णन करता है।
यह सप्तभंग से सब पदार्थ का, सुन्दर चित्रण करता है।।
इसके वंदन से झूठ कपट, दुर्भाषायें नश जाती हैं।
पद एककोटि छह हैं वंदूं दिव्यध्वनि वश हो जाती हैं।।२५।।
आत्मा निश्चय से शुद्ध कहा, फिर भी अशुद्ध संसारी है।
व्यवहार नयाश्रित ही कर्मों का, कर्ता है भवकारी है।।
यह आत्मप्रवाद पूर्व कहता, इसमें पद छब्बिस कोटि कहे।
इसको वंदत ही आत्मनिधी, मिलती है जो भव दु:ख दहे।।२६।।
यह कर्मप्रवाद पूर्व नाना, विध कर्मों का वर्णन करता।
ईर्यापथ कर्म कृतीकर्मों को, अध:कर्म को भी कहता।।
इसमें पद एक करोड़ लाख, अस्सी हैं इसको वंदूं मैं।
निज पर का भेद ज्ञान करके, इन आठ करम से छूटूँ मैं।।२७।।
जो प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व, वह द्रव्य क्षेत्र कालादिक से।
नियमित व अनियमित कालों तक, बहुत्याग विधी को बतलाके।।
वस्तू सदोष का त्याग करो, निर्दोष वस्तु भी तप रुचि से।
पद हैं चौरासी लाख कहें, वंदूं इसको मैं बहु रुचि से।।२८।।
यह विद्यानुप्रवाद रोहिणी, आदिक महविद्या पांच शतक।
अंगुष्ठ प्रसेनादिक विद्या, मानी हैं लघु ये सात शतक।।
इनके सब साधन विधी आदि को, वर्णे इसको नमूं यहाँ।
पद एककोटि दश लाख कहे, इस पढ़ च्युत हों कुछ साधु यहाँ।।२९।।
कल्याणप्रवाद पूर्व वर्णे, शशि सूर्य ग्रहादिक गमन क्षेत्र।
अष्टांगमहान निमित्तादिक, पद इसमें छब्बिस कोटि मात्र।।
तीर्थंकर के कल्याणक को, चक्री आदिक के वैभव को।
यह कहता इसको वंदें हम, इससे कल्याण हमारा हो।।३०।।
यह प्राणावाय प्रवाद पूर्व, इंद्रिय बल आयु उच्छवासों का।
अपघात मरण अरु आयुबंध, आयू अपकर्षण आदी का।।
यह आयुर्वेद के अष्ट अंग, का विस्तृत वर्णन है करता।
इसमें पद तेरह कोटि इसे, वंदत ही स्वास्थ्य लाभ मिलता।।३१।।
जो नृत्यशास्त्र संगीतशास्त्र, व्याकरण छंद अरु अलंकार।
पुरुषादी के लक्षण कहता, जिसमें नवकोटी पद विचार।।
सो है किरिया विशाल पूरब, इसको जो रुचि से नमते हैं।
वे सब शास्त्रों में हों प्रवीण, फिर स्वपर भेद को लभते हैं।।३२।।
परिकर्म और व्यवहार रज्जु-राशी गुणकार वर्ग घन को।
बहु बीजगणित को भी वर्णे, कहता है मुक्ती स्वरूप को।।
पद बारह कोटि पचास लाख, इसको वंदूं ले भक्ति भले।
यह लोकविंदुसार पूरब, इसके वंदत लोकाग्र मिले।।३३।।
दृष्टिवाद का भेद चूलिका, पांच भेद भी उसके हैं।
जलगता प्रथम जल में स्थलवत्, चलना इत्यादिक वर्णे हैं।।
जलस्तंभन के मंत्र तंत्र तप, आदि अग्नि भक्षण आदिक।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी, सहस द्विशत वंदूं नितप्रति।।३४।।
जो स्थलगता चूलिका है, मेरू कुलपर्वत क्षेत्रों को।
उन पर गमनादिक मंत्र तंत्र, तप आदिक बहुविधि कहती वो।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी, हजार दो सौ इसमें हैं।
इसको वंदू मैं भक्ती से, यह साधन भवदधि तरने में।।३५।।
जो मायागता चूलिका वह, माया का खेल सिखाती है।
बहु इन्द्रजाल क्रीड़ाओं की, मंत्रादि विधी बतलाती है।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी, हजार दो सौ इसमें हैं।
मैं नमूं इसे यह कुशल सदा, सब जग की माया हरने में।।३६।।
यह रूपगता चूलिका सिंह, गज घोड़ा मनुजादिक बहुविध।
रूपों को धरने के मंत्रों, तप आदिक को वर्णे नितप्रति।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी, हजार दो सौ माने हैं।
मैं नमूं मिले मुझ आत्मरूप, मुझको पररूप हटाने हैं।।३७।।
आकाशगता चूलिका सदा, नभ में गमनादि सिखाती है।
बहु विध के मंत्र तंत्र तपके, साधन की विधी बताती है।।
पद दो करोड़ नव लाख नवासी, हजार दो सौ है वर्णे।
मैं इस आशा से नमूं मिले, मुझ लोकाकाश अग्र क्षण में।।३८।।
अंगबाह्य के भेद हैं, चौदह शास्त्र प्रसिद्ध।
नाम प्रकीर्णक से यही, सामायिक आदीक।।
नियत काल सामायिक, त्रय संध्या में करना।
अनियत काल सदैव, रागद्वेष परिहरना।।
समताभावस्वरूप, सामायिक कहता है।
प्रथम प्रकीर्णकरूप, नमत मोक्ष मिलता है।।३९।।
चौबीसों तीर्थेश, इनकी स्तुति वंदन का।
उसका फल वर्णेय, वही प्रकीर्णक दूजा।।
जिन प्रतिमा जिनयज्ञ, बहुविधान यह वर्णे।
मैं वंदूं बहु भक्ति, जिनवर की ले शरणे।।४०।।
जिनवर या जिनगेह, एक एक का वंदन।
सिद्ध वंदना येह, करता पाप निकंदन।।
वंदन विधि फल आदि, सबका वर्णन करता।
वंदूं मन-वच-काय, महापुण्य यह भरता।।४१।।
दिवस रात्रि अरु पक्ष, चातुर्मास संवत्सर।
ईर्यापथ उत्तमार्थ, इन सबका आश्रय कर।।
प्रतिक्रमण के सात, भेदों का बहु वर्णन।
प्रतिक्रमण यह नाम, वंदूं शुचिकर तन मन।।४२।।
दर्शन ज्ञान चरित्र, तप उपचार विनय हैं।
इनके लक्षण भेद, फल आदिक वर्णन है।।
नाम वैनयिक येह, पंचम भेद कहाता।
वंदूं भक्ति समेत, मिले सर्व सुख साता।।४३।।
हो स्वाधीन करेय, प्रदक्षिणा त्रय अवनति।
त्रय उपवेशन और, भक्त्या चार शिरोनति।।
द्वादश हों आवर्त, बहु कृतिकर्म विधी से।
जिन सिद्धादि नमेय, नमूं इसे बहुरुचि से।।४४।।
दशवैकालिक ग्रंथ, मुनि के आचारों को।
भिक्षाटन विधि आदि, चर्या उसके फल को।।
वर्णे बहुत विशेष, उसे नमूं मन वच तन।
जिन सूत्रों की भक्ति, करे ज्ञान का वर्धन।।४५।।
चार तरह उपसर्ग, बाइस परिषह आदिक।
इनका सहन विधान, फल शिव या स्वर्गादिक।।
इन सबको वर्णेय, उत्तराध्ययन वही है।
वंदूं धर मन नेह, मिलती सौख्य मही है।।४६।।
ऋषियों को यदि दोष, लगे व्रतादिक में जो।
प्रायश्चित विधान, बहुविध से वर्णे जो।।
कहा कल्प्यव्यवहार, सूत्र प्रकीर्णक नामा।
वंदूं रुचि मन धार, मिले शीघ्र शिवरामा।।४७।।
साधू के यह योग्य, यह अयोग्य इस विध से।
द्रव्य क्षेत्र अरु काल, भाव निमित इन धर के।।
कल्प्याकल्प्य सुनाम, इन सबको कहता है।
वंदूं करूँ प्रणाम, मन पावन करता है।।४८।।
दीक्षा शिक्षा संघ, पोषण निजसंस्कारा।
सल्लेखन उतमार्थ, मुनि के छहों प्रकारा।।
द्रव्यादी के निमित्त, इन सबको वर्णे जो।
महाकल्प्य वह सूत्र, नमूं भक्ति धर उसको।।४९।।
चउविध देव व इंद्र, सामानिक इत्यादी।
इनके सुख विभवादि, इनके कारण आदी।।
पूजा दान तपादि, इन सबको कहता जो।
पुंडरीक है नाम, नमूं नमाकर शिर को।।५०।।
देव देवियों आदि, के उपपाद इत्यादी।
तप शीलादि निमित्त, कहें सदा सुख आदी।।
महापुंडरीकास्य, वर्णन करे निरन्तर।
वंदूं भक्ति संभाल, मिले शीघ्र शिवसुन्दर।।५१।।
ऋषिगण के बहुभेद, युत प्रायश्चित वर्णे।
निषिद्धिका है नाम, मुनिचर्या को वर्णे।।
चौदहवाँ अंगबाह्य, भेद प्रकीर्णक माना।
वंदूं भक्ति बढ़ाय, मिले शीघ्र निजधामा।।५२।।
यह द्वादश अंग व अंगबाह्य, इन रूप दिव्यध्वनि जिनवर की।
हैं जितने जैनशास्त्र अब भी, सब साररूप ध्वनि जिनवर की।।
गंगा का जल घट में भर लें, वैसे हि ग्रन्थ जिनवर वाणी।
मैं वंदूं मन वच तन से नित, इस युग में यह ही कल्याणी।।५३।।
सर्ववाङ्मय में कहे, चार अनुयोग प्रसिद्ध।
प्रथम करण अरु चरण अरु, द्रव्य नाम से सिद्ध।।
जो धर्म अर्थ अरु काम मोक्ष, पुरुषार्थ कहे अरु चरित कहे।
त्रेसठ शलाका पुरुषों के, आदर्श महान पुराण कहे।।
वह पुण्य रूप है रत्नत्रयमय, बोधि समाधि निधान महा।
मैं वंदूं उसको उसही का, प्रथमानुयोग यह नाम कहा।।५४।।
जो लोक अलोक विभाग कहे, षट्काल परावर्तन कहता।
चारों गति के संसरण कहें, भव पंच परावर्तन कहता।।
दर्पण समान वह त्रिभुवन का, सब चित्त सामने झलकाता।
मैं नमूं उसे करणानुयोग यह, नाम धरे भवि सुखदाता।।५५।।
श्रावक मुनि के आचाररूप, चारित्र सही जो बतलाता।
उसकी उत्पत्ती वृद्धी औ, रक्षा के साधन सिखलाता।।
चरणानुयोग है शास्त्र वही, जो मोक्ष महल में चढ़ने को।
चरणों को रखने हेतु सहज, सोपानरूप वंदूं इसको।।५६।।
जो जीव-अजीव सुतत्त्वों को, अरु पुण्य-पाप को बतलाता।
आस्रव-संवर अरु बंध-मोक्ष, तत्त्वों को विधिवत् समझाता।।
वह दीपसदृश द्रव्यानुयोग, द्रव्यों को प्रकट दिखाता है।
श्रुतविद्या का सुन्दर प्रकाश, मैं नमूं इसे सुखदाता है।।५७।।
चाल-हे दीनबंधु……
जो है कसायपाहुड़, गुणधर गुरू रचित।
क्रोधादि कषायों को, सब विध किया ग्रथित।।
जयधवल नाम टीका, गाथा दो सौ तेंतिस।
वंदूं मैं भक्ति करके, हो पूर्ण ज्ञान विकसित।।५८।।
धरसेन सूरिवर से, पाया जो ज्ञान मुनि ने।
श्री पुष्पदंत मुनिवर, अरु भूतबली मुनि ने।।
षट्खंड जिनागम की, रचना रची उभय ने।
धवला प्रसिद्ध टीका, वंदूं धरूँ विनय मैं।।५९।।
महाबंध ग्रंथ माने, टीका महाधवल युत।
उनको नमूं रुची से, हो ज्ञानवृद्धि संतत।।
कर्मों का बंध सत्ता, उदयादि को बखाने।
इसको नमें भविकजन, वे कर्मबंध हानें।।६०।।
श्रीयतिवृषभ रचना, तिलोयपण्णती है।
इससे त्रिलोक रचना, स्पष्ट झलकती है।।
इस ग्रन्थ के पढ़े से, होता त्रिलोक दर्शन।
मैं नमूं भक्ती धरके, होगा निजात्म दर्शन।।६१।।
जम्बुद्वीप की पण्णत्ति, इस द्वीप को दिखाती।
मेरू कुलाचलादिक, सब वस्तु को बताती।।
इसके पठन से जम्बू-द्वीपादि को समझ लो।
भक्ती से शीश नमते, निजलोक भी समझ लो।।६२।।
पंचास्तिकाय, प्रवचन-सारादि समयसारा।
चौरासि पाहुड़ादी, अरु ग्रन्थ नियमसारा।।
इन सबको भक्ति धरके, वंदूं निजात्म रुचि से।
अज्ञान भाव हटकर, निज ज्ञानज्योति चमके।।६३।।
आचारसार मूला-चारादि शास्त्र मुनि के।
जो रत्नकरंडादी, श्रावक क्रियादि कहते।।
आचारशास्त्र पूजा-दानादि को बखाने।
उनको नमूं रुची से, वे सर्वदु:ख हानें।।६४।।
जो महापुराणादी, बहु शास्त्र मान्य जग में।
हरिवंश पुराणादी, अरु पद्मचरित इनमें।।
तीर्थंकरों व चक्री, नारायणादिकों का।
वर्णे चरित्र सुंदर, उनको नमूं सुनीका।।६५।।
तत्त्वार्थसूत्र तत्त्वों, को वर्णता है सुन्दर।
गुरु गृद्धपिच्छ इसमें, भर दीना श्रुत समुंदर।।
सर्वार्थसिद्धि आदिक, टीका इसी पे बहुती।
हैं आप्तमीमांसादि, रचना नमूं सुभक्ती।।६६।।
गोमट्टसार जीवकांड कर्मकांड श्रुत।
त्रिलोकसार लब्धिसार, क्षपणसार श्रुत।।
ये पंचसंग्रहादि, ग्रंथ अर्थ पूर्ण हैं।
इनको नमूं इन्हीं से, अनेकांत पूर्ण हैं।।६७।।
जितने जिनश्रुत उपलब्ध आज, जिनमंदिर मठ ग्रंथालय में।
गुरुपरंपरा से प्राप्त लिखा, भवभीरु महाव्रति मुनिजन ने।।
सब अंग पूर्व के अंश-अंश, जिनवर की वाणी मानी है।
वैवल्यज्ञानमति हेतु नमूं, ये स्वात्म सुधारस दानी है।।६८।।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीं वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति ह्रीं नम:।