मरण का भय प्राप्त होने पर इंद्र सहित सुर और असुर भी रक्षा नहीं कर सकते हैं। जिनेन्द्र द्वारा कथित एक धर्म ही रक्षक है, शरण है और गति है-उसी का आश्रय लेने से उत्तम गति है। इस प्रकार अशरण अनुप्रेक्षा का चिंतवन करना चाहिए।
यह जीव अकेला ही शुभ-अशुभ कर्म करता है, अकेला ही इस दीर्घ संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही जन्म धारण करता है और अकेला ही मरण करता है, ऐसी एकत्व भावना का चिंतवन करो।
यह शरीर, इंद्रियां और मन आदि भी जब मेरे से अन्य-भिन्न हैं, तो पुन: जो बाह्य द्रव्य-घर, पुत्र, धन आदि हैं, वे तो अन्य हैं ही किन्तु ज्ञान-दर्शन ही अपने आत्मा के हैं, वे भिन्न नहीं हैं, ऐसा अन्यत्व भाव का चिंतवन करो।
मिथ्यात्वरूप अंधकार से व्याप्त हुआ यह जीव जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट मार्ग को नहीं देख पाता है अत: अत्यन्त भयंकर इस संसाररूपी वन में भ्रमण कर रहा है।
एवं बहुप्पयारं संसारं विविहदुक्खथिरसारं। णाऊण विचिंतिज्जो तहेव लहुमेव णिस्सारं।।७१२।।
इस प्रकार यह संसार नाना प्रकार का है और अनेक प्रकार के दु:ख ही इसमे स्थिर हैं, ऐसा यह संसार है उसको जानकर इस संसार के नि:सार स्वरूप का शीघ्र ही विचार करना चाहिए।
यह लोक अकृत्रिम है, अनादि अनिधन है, स्वभाव से बना हुआ है, जीव-अजीव द्रव्यों से परिपूर्ण-भरा हुआ है, नित्य है और तालवृक्ष के समान आकार वाला है अर्थात् पुरुषाकार है।
सुर-असुरों में, तिर्यंचों में, नारकी और मनुष्यों में, सर्वत्र इस संसार में जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित धर्म को छोड़कर और कुछ भी शुभ नहंीं है। मात्र एक धर्म ही शुभ है ऐसा चिंतवन करना अशुभ अनुप्रेक्षा है अथवा शरीर के अशुचिपने का विचार करना अशुचित्व अनुप्रेक्षा है।
जिसमें दु:ख और भय को करने वाले बहुत से मत्स्य-मीन भरे हुए हैं, जो बहुत ही भयंकर-घोर है, ऐसे संसाररूपी महासमुद्र में यह जीव डूब रहा है, उसमें कर्मों का आस्रव ही कारण है।
जिन्होंने आस्रव के कारणों को रोककर संवर किया है, तपश्चरण से युक्त ऐसे मुनि के कर्मों की निर्जरा होती है। उसके दो भेद हैं-कर्मैकदेश निर्जरा और सर्वकर्म निर्जरा। एकदेश निर्जरा होते-होते जब सर्वकर्म निर्जरा हो जाती है व मोक्ष हो जाता है, ऐसा चिंतवन करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है।
उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म सर्व जगत् का हित करने वाला है, यह धर्म तीर्थंकरों के द्वारा कथित है। इस धर्म को जिन्होंने विशुद्ध चित्त से ग्रहण किया है, वे धन्य हैं, ऐसा चिंतवन करना धर्म अनुप्रेक्षा है।
यह बोधि (रत्नत्रय) भव-संसार के भय को नष्ट करने वाली है, गुणों से विस्तृत है-सर्व गुणों का आधार है, ऐसी बोधि-रत्नत्रय या सम्यग्दर्शन मुझको प्राप्त हो गया है। यदि पुन: यह बोधि मुझसे गिर जायेगी-नष्ट हो जाएगी, तो पुन: इस संसार में सुलभ नहीं है-बहुत ही दुर्लभ है इसलिए मुझे प्रमाद नहीं करना चाहिए। ऐसा चिंतवन करना बोधिदुर्लभ भावना है।
यह बारह अनुप्रेक्षाएं वैराग्य की जननी-माता हैं-
दस दो य भावणाओ एवं संखेवदो समुद्दिट्ठा। जिणवयणे दिट्ठाओ बुहजणवेरग्गजणणीओ।।७६५।।
ये बारह भावनाएँ इस प्रकार यहाँ संक्षेप से कही गई हैं। ये जिनेन्द्रदेव के आगम में विद्वानों के लिए वैराग्य को उत्पन्न करने में माता के समान देखी-मानी गई हैं।
अणुवेक्खाहिं एवं जो अत्ताणं सदा विभावेदि। सो विगदसव्वकम्मो विमलो विमलालयं लहदि।।७६६।।
इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं के द्वारा जो अपनी आत्मा को सदा भावित करता रहता है-आत्मा की भावना करता है, वह विमल आत्मा सर्व कर्मों से छूटकर विमलस्थान-मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यह बारह भावनाएँ वैराग्य को जन्म देने के लिए माता हैं। तीर्थंकरों ने भी विरक्त होते ही इन बारह भावनाओं का चिंतवन किया है। यहाँ मूलाचार में वैराग्य को प्राप्त दीक्षित हुए मुनियों के लिए मध्य में इनका उपदेश है अत: ये वैराग्य को दृढ़ करने, बढ़ाने व परीषह-उपसर्ग को सहन कराने में समर्थ हैं। संवर के कारणों में श्री उमास्वामी आचार्य ने इन्हें लिया है। यथा-
इस अनुप्रेक्षा अधिकार के बाद अनगार भावना अधिकार और समयसार अधिकार है जिनमें श्री वट्टकेर स्वामी ने जिनकल्पी महामुनियों की चर्या का प्रधानरूप से कथन किया है। स्थविरकल्पी-संघ में रहने वाले मुनि भी उन भावनाओं को भाते हुए यथाशक्ति उनका पालन करते हैं।