धांय! धांय! जंजीर खिंची, ट्रेन रुकी, और तीनों ने अपना काम शुरू किया। डिब्बे में बैठे सब काँप रहे थे। अपनी कला में कुशल उन तीनों की निगाह से भला कौन बच सकता था ? मिनटों में करोड़ों कर माल समेट, ट्रेन से कूद, जंगल के रास्ते इस तरह भागे कि पुलिस कॉम्बिंग भी बेकार रही उन्हें पकड़ने में।
यह तो बिल्कुल सुरक्षित स्थान है। यहाँ तो शौतन भी पर नहीं मार सकता। बेखटके यहाँ माल बाँटा जा सकता है। एक जगह रखा गया लूटे हुए अपार धन को, देखकर तीनों की नीयत बिगड़ गई, तीनों अलग—अलग सोचने लगे— ‘काश! यह धन मेरे अकेले का ही हो जाए तो जन्म—जन्म के पाप धुल जाएँ।’ और तीनों के दिमाग में उपाय भी एक ही आया कि दो को रास्ते से हटा दिया जाए तो धन मेरा, मेरे बाप का।
पहले तो तीनों में झक—झक हुई, फिर हाथापाई और फिर तीनों की पिस्तौल निकल आई। तब उनमें से सुरेश बोला— ‘‘ अरे! क्या करते हो ? इससे तो हम तीनों ही ऊपर पहुँच जाएँगे। हो सकता है मेहनत किसी की कुछ ज्यादा हो, परंतु बराबर—बराबर बाँटना ही ठीक रहेगा।’’ महेश और रमेश भी राजी हो गए।
‘‘बहुत भूख लगी है। धन तो हम तीनों का ही बराबर—बराबर है। बाँटने में जल्दी भी क्या है? पहले भोजन कर लिया जाए, फिर आराम से बाँट लेंगे।’’ सुरेश ने कहा।
‘‘ठीक है, ठीक है! अच्छा सुरेश,तुम बाजार जाकर भोजन ले आओ। डटकर भोजन करेंगे और फिर धन का बँटवारा।’’
सुरेश बाजार गया, भोजन खरीदकर लौट रहा था, शैतानियत ने मन पर कब्जा कर लिया, उसने भोजन में जहर मिलाया और उछल पड़ा अपनी युक्ति पर। बस दोनों खाना खाएँगे और मिनटों में सो जाएँगे हमेशा—हमेशा के लिए, और फिर धन मेरा, बस मेरा।
उधर दोनों में भी हैवानियत ने डेरा जमाया, हाथ में पिस्तौल भरकर बैठ गए।सुरेश भोजन लेकर आया, देखते ही गोली का निशाना बनाया और वह वहीं ढेर हो गया। दोनों खिल —खलाकर हँसे और महेश बोला—‘‘चलो अब हम दोनों बाँट लें इस अपार संपत्ति को।’’
रमेश ने कहा — ‘‘ अरे! मेरा तो भूख के मारे दम निकला जा रहा है। पहले पेट भर लें, फिर बँट जाएगा धन। यह कहीं भागा थोड़े ही जा रहा है ?’’
दोनों भोजन करने बैठे। खूब खाया, जहर ने रंग दिखाया और दोनों चोर चारों खाने चित्त। बीच में नकदी व आभूषणों का ढेर, तीनों और तीनों लाशें। मुट्ठी खुली, हाथ पसारे, चल दिए अपनी—अपनी यात्रा पर और पहुँच गए मंजिल पर, नरक में जहाँ हाथ फैलाएँ वहाँ की वेदना स्वागत के लिए खड़ी प्रतीक्षा कर रही थी। वह धन का अंबार मानों उनकी खिल्ली उड़ा—उड़ा कर कह रहा था—
‘‘मेरे दीवानों का अंजाम यही है । ऐ दुनियावालों ! आँख खोलकर देख लो, मैं बहुत सुंदर हूँ, आकर्षक भी बेहद, परंतु जिसने मुझसे प्यार जताया, छोड़ती नहीं उसे, डस ही लेती हूँ, अपने शिकंजे में कस ही लेती हूँ मैं तो ढोल बजा—बजाकर अपनी बेवफाई की घोषणा समय—समय पर करती रहती हूँ, कभी किसी के माध्यम से तो कभी किसी के, परंतु यदि फिर भी आँखें न खुलें, आँखें मूँदे मुझे तिजोरी में बंद करके रखना चाहे; तो उनकी यही दशा होगी, जान लो, समझ लो।’’