परमपूज्य चारित्रश्रमणी आर्यिका श्री अभयमती माताजी द्वारा रचित कतिपय विधानों की शृँखला में ‘‘धर्मचक्र विधान’’ एक सुन्दर कृति है।
तीर्थंकर भगवान के केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् कुबेर द्वारा समवसरण की रचना होती है, उस समवसरण में चारों दिशाओं में सर्वाण्हयक्ष अपने मस्तक पर धर्मचक्र को धारण करते हैं तथा तीर्थंकर के श्रीविहार के समय यह धर्मचक्र आगे-आगे चलता है, ऐसे उस महिमाशाली धर्मचक्र नाम से ही इस विधान का ‘‘धर्मचक्र विधान’’ यह नामकरण किया गया है।
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से रचित इस विधान में ३२ पूजा, ४३८ अघ्र्य, १४ पूर्णाघ्र्य और ३२ जयमालाएँ हैं। सर्वप्रथम धर्मचक्र पूजा में अष्टक के पश्चात् बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ हैं-
मानुष नरतन पाय कर, कर लीजे दो काम।
देने को है दान भला, लेने को प्रभु नाम।।
इसका अर्थ तो सहजता से ही समझ में आ जाता है कि संसार में मनुष्यपर्याय प्राप्त करके प्राणियों को दो कार्य करने चाहिए-एक देने का अर्थात् दान और दूसरा लेने का अर्थात् भगवान का नाम।
इस प्रकार कम शब्दों में बड़ी बात को कह देना ही रचना की बहुत बड़ी विशेषता होती है। इस विधान में पूज्य माताजी ने ‘‘ॐ ह्रीं श्री धर्मचक्राय नम:’’ इस मंत्र का जाप्य करने की प्रेरणा दी है।
द्वितीय समवसरण पूजा में समवसरण की महिमा का सुन्दर वर्णन किया है। पुन: क्रम-क्रम से रत्नत्रय पूजा आदि को करके चौबीसों भगवान की अलग-अलग पूजाएँ हैं जिसमें २४ तीर्थंकर भगवन्तों के पंचकल्याणक तिथि आदि के बारे में वर्णन है।
३२ पूजाओं के बाद बड़ी जयमाला में सभी पूजाओं का सार सुन्दरता से गर्भित किया है तथा अन्त में प्रशस्ति के माध्यम से विधान रचना के कारण को बताते हुए अपनी गुरुपरम्परा का उल्लेख किया है तथा यह भावना भाई है कि-
यावत् रवि शशि मेदिनी, देव धर्म गुरुवास।
धर्मचक्र का पाठ भी, तावत् करे प्रकाश।।
इस प्रकार इस धर्मचक्र विधान को करके सभी भाक्तिकजन धर्मरूपी ध्वजा को फहराने में सफलीभूत हों, यही मंगलकामना है।