संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होने के लिए या विरक्त होने पर उस भाव की स्थिरता के लिए जो प्रणिधान होता है, उसे धर्मध्यान कहते हैं। उसके चार भेद हैं-आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान। इनकी विचारणा के निमित्त मन को एकाग्र करना धम्र्यध्यान है। सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाण मान करके ‘यह इसी प्रकार है’ क्योंकि जिनेन्द्र भगवान अन्यथावादी नहीं है। इस प्रकार सूक्ष्मपदार्थों का भी श्रद्धान कर लेना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। मिथ्यादृष्टि प्राणी उन्मार्ग से वैसे दूर होंगे? इस प्रकार निरन्तर चिन्तवन करना अपायविचय धम्र्यध्यान है। ज्ञानावरणादि कर्मों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव निमित्तक फल के अनुभव के प्रति उपयोग का होना विपाक विचय धम्र्यध्यान है। लोक के आकार और स्वभाव का निरन्तर चिन्तवन करना संस्थानविचय धम्र्यध्यान है। अन्यत्र धम्र्यध्यान के दश भेद भी माने हैं। यथा- अपायविचय, उपायविचय, विपाकविचय, विरागविचय, लोकविचय, भवविचय, जीवविचय, आज्ञाविचय, संस्थान विचय और संसार विचय-ये धर्मध्यान के दश भेद हैं। मुख्यरूप से संस्थानविचय आदि धम्र्यध्यान के स्वामी१ मुनि ही हैं किन्तु गौणरूप से असंयत सम्यग्दृष्टि और देशविरत भी माने गये हैं अर्थात् यथाशक्ति श्रावकों को भी ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। आगे संस्थान धर्मध्यान के विशेष भेदों का वर्णन करते हैं।