जीवन का अमृत है। आत्मा का स्वभाव धर्म है। क्षमा भी है। उत्तम क्षमा, मार्दव आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, अकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये धर्म हैं आत्म स्वभाव है, आत्म परिणाम है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने भावपाहुण में कहा है—मोह—क्षोभ विहीन परिणाम आत्मा का धर्म है। इसके कारण से साधक अतिशय विशुद्ध, अनुपम, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य को प्राप्त होता है। शुभ स्थान में स्थित साधक इन्द्र, नरेन्द्र, मनुजेन्द्र आदि होता है। इसी से तप, त्याग, दान, शील एवं भावनामयी श्रावक होता है।
वह सब जीवों, भूतों, सत्त्वों एवं प्राणियों को आत्म समान मानता है। वह मैत्री भाव युक्त इष्ट कार्य करता है, और आत्मा की निर्मल भावना युक्त श्रेय सुख की ओर गतिशील होता है।
धर्म एक प्रदीप है, वह शुद्ध चैतन्य रूप भास्कर है, जो स्व—पर वस्तुओं का प्रकाशक है, आत्मा का आत्मा में दृष्टि वाला है। जहाँ समत्व धर्म होता है वहाँ मोह—राग नहीं होता है। सकल दोषों से रहित धर्म सागर से पार ले जाने के लिए तरणी है।
समाज, परिवार एवं राष्ट्र की अपेक्षा से दया करना धर्म है। आत्म समान दृष्टि सभी जीवों के प्रति होना चाहिए। दर्शन/सम्यग्दर्शन ही प्रधानता रत्नत्रय, चारित्र, आत्म परिणाम, एवं उत्तम सुख की ओर ले जाता है वह धर्म है।
ये क्षमा, मार्दव आदि धर्म जैसे श्रमणों के संवर या कर्मों के आगमन के रोकने में सहायक होते हैं वैसे ही ये श्रावकों के लिए भी उपयोगी है।
मिच्छत्त—परिणामं कसायादि कारणं च भूमिगाणुसारेण सावगा समणा वि संवरणं कुणेंति।
मिथ्यात्व परिणाम, कषायादि परिणामों का श्रावक और श्रमण दोनों अपनी भूमिकानुसार संवरण करते हैं।
समयाणं उत्तम—खमादि—धम्मो अणंताणुबंधी—पच्चक्खाण अपच्चकखाण—विविध—कसाय अभावं च होिंहति। विरदाविरद—गुणद्वाण—वट्टी सम्मणाणी—सावगाणं च अणंताणुवंध—पच्चक्खाण—कसाय, खयत्थं च। मिच्छादिद्दिणो णो हुंति ते।
श्रमणों के उत्तमक्षमादि धर्म अनंतानुबंधी, प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान त्रिविध कषायों के अभाव को प्राप्त होंगे। ये विरताविरत गुणस्थानवर्ती सम्यग्ज्ञानी श्रावकों के लिए अनंतानुबंध और प्रत्याख्यान कषाय के क्षयार्थ होंगे। मिथ्या दृष्टियों के ये नहीं होते हैं।
दस विध धर्म आत्मशुद्धि कारक, पापनिवारक, मोह क्षोभ परिणाम विघातक, मिथ्यात्वभाव नाशक, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य आदि परिशामक एवं कषाय—नो कषाय को शान्त करने वाले हैं।
क्रोधान्त, प्रशमभाव, प्रदोष निग्रह आत्म स्वभाव शुद्धभाव एवं अनंत की भावना अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्य की भावना क्षमा होने पर आती है। किं कं कदा क्षमा ?
क्षमा क्या क्यों और कैसे—अपने आत्म स्वभाव में स्थित रहना क्षमा, उत्तम क्षमा है। प्रशान्तमना, महाव्रती, महायोगी, समत्वदर्शी, समदर्शी क्या, क्यों और कैसे से उपरत आत्मा—परिणाम का चिंतन करते हैं।
सावगा बारहविध—सावग—वदे रहा एगदेसविरदा हुंति ते वि किं कंकदा ? पण्हाणि गिण्हिदूण आ हु अणचरेंति ते तु विराग—भाव—इच्छमाणा तेिंस पसंतं इच्छेंति। तम्हा अणुव्वदं गुणवदं सिक्खावदं च अंगीकरदूण णिदण—हास—परिहास—पहार—घाद—विघाद—वेर— विरोह—विवाद कलह—आदिणो संतं पसंत—संत—चरणेसुं च णम्मीभूदा रागं दोसं मोहं आवेसं पसमणे उज्जदा हुंति।
श्रावक बारह प्रकार के श्रावक व्रतों में रत—एकदेश विरत होते हैं। वे भी क्या, क्यों और कैसे ? प्रश्नों को लेकर न ही विचरण करते हैं, वे भी विराग भावों की इच्छा करते हुए उनके शमन को चाहते हैं। इसलिए वे अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत को अंगीकार करके वे निंदा, हास, परिहास, प्रहार, घात, विघात, बैर, विरोध, विवाद, कलह आदि से दूर प्रशान्तमूर्तिमना संतों के चरणों में नम्रीभूत राग, द्वेष, मोह एवं आवेश को प्रशमन में उद्यत रहते हैं।
उत्तम क्षमा क्या है ?—सम में स्थित होकर क्षान्ति, शान्ति एवं उत्तम भावना को जो भाता है, जो अपने गुण का आश्रय लेता है, वह स्थिर भूत महाव्रती उत्तम क्षमा वाला है।
सव्वेिंस जीवाणं सव्वेिंस भूदाणं, सव्वेिंस सत्ताणं सव्वेिंस पाणीणं पाणं जीवणं च आद—तुल्लं मण्णे। जो एरिसो मण्णे दि सो एवं उत्तम—खम—सहाव—आदासयं गिण्हिदूण चिंतेदि अणुविंचतेदि।
जो सब जीवों, भूतों, सत्त्वों और प्राणियों के प्राण जीवन का आत्म समान मानता है। जो ऐसा मानता है वही उत्तम क्षमा स्वभावी आत्मा के आश्रय को लेकर क्रोधावेग मेरा नहीं है चिंतन करता और अनुभव करता है।
सावगो वा समणो वा सव्वे हिदं अणुसीलेंति सव्वे जीविउं इच्छे ण मरिज्जउ।
श्रावक हो या श्रमण, सभी हित का अनुशीलन करते हैं। सभी जीवन चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता है।
समं समत्तं सन्ति च इच्द्दमाणं खमा उत्तम क्षमा।
सम, समत्व और शान्ति की इच्छा करने वालों की क्षमा उत्तम क्षमा है।
मे आदा उत्तमो मे सहावो उत्तमो मे णाणं उत्तमो मे दंसणं उत्तमो, मे चारित्रं उत्तमो तवो संजमो सीलहे चागो बंहचेरो ति एरिस दूरा तच्चन्भासे रहो साहगो साहुति। तस्स खमा उत्तमो।
मेरा उत्तम आत्मा, मेरा स्वभाव उत्तम, मेरा ज्ञान उत्तम, मेरा दर्शन उत्तम, मेरा चारित्र उत्तम, मेरा तप, संयम, शील, त्याग, ब्रह्मचर्य आदि उत्तम है, इससे दूर तत्त्वाभ्यास में रत साधक साधु उत्तम है। उनकी क्षमा उत्तम है।
सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती, महाव्रती, सुख—दु:ख, इष्ट—अनिष्ट, अनुकूल—प्रतिकूल स्थिति में भी समस्त जीवों पर मैत्रीभाव रखता है। कं— ? आद—सहावो सव्वेिंस एगसमा। अर्थात्—आत्म स्वभाव सभी का एक समान है। कदा—
क्षमाशील जन गंभीर एवं शान्त होता है संकट उपस्थित होने पर भी वह आत्म स्वभाव का चिंतन करता है। कायर व्यक्ति भयभीत, चंचल एवं उद्विग्न होता है।
खमा कस्सिं अविरद—सम्मदिद्विम्हि उत्तम—खमा होदि। सा वि अणंताणुबंधी—कोह—कसाय—समणेणं च अणुव्वदी सावगो अप्पच्चक्खाण—कोह—कसाय— अभावेणं च उत्तम खमासीलो जादि। महव्वदि द्वि पच्चक्खाण—कोह—कसाय—संतेण च।
अविरत सम्यग्द्रष्टि में भी क्षमा होती है। वह भी अनंतानुबंधी क्रोध कषाय के शमन से। अणुव्रती श्रावक अप्रत्याख्यानी क्रोध कषाय के अभाव से क्षमाशील होता है। और महाव्रती प्रत्याख्यानी क्रोध कषाय के शान्त होने से क्षमाशील होता है।
अद्वम—गुणद्वाण—उवरि सव्व—गुणद्वाणेसुं च संजलण—कोई—कसाय—अभावेण उत्तमखमा जायदे।
अष्ठम गुणस्थान से ऊपर सभी गुणस्थानों में संज्वलन क्रोध—कषाय के अभाव से उत्तमक्षमा उत्पन्न होती है।
मान का/अभिमान रोकना मार्दव है। मान, अभिमान, अहंकार, अहंभाव मानोदय आदि जो हैं, उनका निर्हरण—मार्दव है। मृदुता का भाव मार्दव है। मृदुपरिणाम, कोमलभाव, विनय संपन्नता, मदविहीनता, अहंकार का अभाव आदि मृदुभाव है। जहाँ मृदुकर्म, मृदुभाव, मान निग्रह या मृदुता है वहां मार्दव धर्म हैं
जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत ऐश्वर्य एवं लाभ मद हैं उनके प्रति गर्व से रहित श्रमण जो होता है, उसका मार्दव धर्म होता है। उत्तम ज्ञान, उत्तम तप, उत्तम चरण, उत्तम करण, उत्तम शील आदि को जो आत्मा का आधार बनाता है, उसका मार्दव रत्न होता है।
अहंकार एवं ममता मार्दव नहीं है न ही हीनता एवं न दीनता भी मार्दव है। न कर्कशता, कटुता, रूक्ष—भाव एवं अवमानता भी मार्दव है। जो दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र में विशुद्ध होता है, जो मानकषाय की मलिनता को नष्ट करता है, वही विनय है। जहाँ विनय का गौरव है, वहां मार्दव धर्म हैं
मार्दव धर्म का अधिकारी—जो जाति, बल, तप, श्रुत आदिमद से मुक्त, ममकार रहित साधक होता है वह आत्म—गुणों का अवलोकन करता है और उन्हीं की अनुप्रेक्ष्या भी करता है।
सम्मक्ष—णाण—चारित्र—गुणेिंह गुणी सो एव जो होदि विदु क्षि। मदादो विमुक्षो।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणों से गुणी वही होता है जो मृदु हो। मद आदि से विमुक्त हो।
मान गर्व परिणाम है पुरुष होने पर मन का मान निर्दय एवं परमर्दन वाला होता है। जिसके परिणाम स्वरूप अपनी जाति, अपना कुल, बल, तप, ज्ञान, रूप, लाभ एवं ऐश्वर्य को महनीय मानता है।
जीव, जीव है वह हीन या दीन नहीं है, ऐसा भूल जाता है। मार्दव गुण में स्थित साधक दुरभिनिवेश को छोड़ देता है। वह विभाव को छोड़कर सदैव आत्मा के विशुद्ध—स्वभाव की आराधना करता है।
करता हूँ, कराता हूँ, यह भी अहंकार भाव है, उसका उन्मूलन करना मार्दव है। ज्ञानियों, साधुओं, यतियों, श्रुतधारकों या तपस्वियों का समागम ‘अहं’ के परित्याग से प्राप्त हुआ, ‘अहं’ अभाव मार्दव है। द्रव्य मार्दव से मृदुता, और भाव कारण से नम्रता आती है। आत्मा में प्रसन्नता एवं आत्म—गुणों का पूर्ण आनंद थी।
सम्मान और असम्मान में समता धारण करे एवं मृदुता को दर्शाए। व्यक्ति जन, परिजन एवं स्वजन को सहज रूप में छोड़ सकता है, किन्तु आत्म–प्रतिष्ठा को नहीं। मान का आधार ‘पर’ नहीं, अपितु ‘पर’ को अपना मानना है। अणुव्रती के प्रत्याख्यान, संज्वलन मान, महाव्रती के संज्वलन मान रहता है पर वह स्थायी नहीं, वह भी मार्दव गुण से छूट जाता है।
३. उत्तम—अज्जवो उज्जुणक्षण—अज्जवं। उज्जगुक्षणं अकुडिलक्षणं अवक्कक्षणं अमाइत्तं माया—रहिदक्षणं च अज्जवं। उत्तम आर्जव
ऋजुता होना/सरल परिणाम होना आर्जव है। ऋजुता, अकुटिलता, अवक्रता, अममत्व, माया रहित्व आदि होना आर्जव है।
अवक्रता, काय, वचन और मन की होना, योग का ऋजुभाव है जो माया कषाय के उदय का निग्रह भी है। ऋजुभाव, आत्मा निर्मल भाव ममत्व रहित स्वभाव आर्जव है। माया—ममत्व का परित्याग अवक्रता एवं योग निग्रह आर्जव है। ऋजुता का भाव होना आर्जव धर्म है। ऋजु का अर्थ है सरल परिणाम। मायाचार रहित परिणति रूप भाव, आर्जव है। जो श्रमण कुटिल भाव को छोड़कर निर्मल हिय से गतिशील रहता है, उसका नियम से आर्जव धर्म है।
माया का अभाव होना आर्जव है— माया का अर्थ है कुटिल वक्रता, छल एवं कपट, उसका परित्याग आर्जव है माया का अभाव है। जो न वक्र सोचता, न वक्र करता, न वक्र बोलता, और न अपने दोष को छिपाता है, उसका आर्जव धर्म होता है।
सहज—सरल—विसुद्ध—परिणामी सोही अत्थि। जो आद—सोही होदि तस्स विढदि धम्मो। सो दंसण—णाण—पहाण—आसमे ठिदो समासेज्ज चारित्तं सम्मचारित्तं। चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णि णिद्दिट्ठो। दंसण—णाण—चारित्तं च समो अप्पणो परिणामो सो।
सहज, सरल एवं विशुद्ध परिणामी सोधी होता है। जो आत्मा सोधी होता है, उसके धर्म ठहरता है। वह दर्शन, ज्ञान प्रधान आश्रम में स्थित चारित्र/सम्यक्चारित्र की ओर प्रवृत्त होता है। चारित्र धर्म है, जो यह धर्म है वही ‘सम’ कहा जाता है। दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकरूपता का नाम सम/समत्व है जो आत्मा का परिणाम है।
रोहेज्ज दुग्गिंद विड्ढिं जम्म—मरणं पुण पुणेव वंक परिणामेण जायदे। जं कि जगे मणसा वंकंचतेदि वयसा वंवंकंपेदि काएण कुणेदि वंकं। तेण कारणेण तिरिच्छ—गिंद पत्तेदि। तच्चत्थसुत्ते पण्णेक्षो—माया—तिरिच्छ—जोणिणो। माया—छल—कपडो च तत्ते आसवो बंधो वितिरिच्छ गदीए। जो माया—ममत्तािंद इज्जेदि सो पुणो पुण जम्म—मरणं पत्तेति दुग्गदीए विड्ढिं च बेड्ढेदि।
आर्जव धर्म दुर्गति और जन्म—मरण की वृद्धि को रोकता है। पुन: पुन: जन्म—मरण वक्र परिणाम से होता है। क्योंकि इस जगत् में जो मन से वक्र सोचता है, वचन से वक्र बोलता है और काया से वक्र करता है। उस कारण से तिर्यंचगति को प्राप्त होता है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा—माया तैर्यग्योनस्य १६/१७) माया छल—कपट है, उससे आश्रव और बंध होता है। तिर्यचगति का। जो माया—ममत्व का आचरण करता है, वह बार—बार जन्म–मरण को प्राप्त होता है और दुर्गति की वृद्धि को बढ़ाता है।
माया— वत्थु—सरूव—अण्णधा—मुणणं आद—सहावं जध तध ण मुणणं ण जाणणं अण्हधा परिणमणं अणहधा इच्छणं च अणंत कुडिलक्षणं। तम्हा कारणादु आद—सहावं वत्थं—सरूवं ण जाणेदि। आद—विपरीद—भावो वंकत्तं विरूवत्तं आदिं कुव्वेदि, जो अणंताणुबंधी माया—कसाय—परिणामो। वस्तु स्वरूप का अन्यथा मानना
आत्मा का जैसा स्वभाव है, वैसा न मानना, न जानना, अन्यथा परिणमन एवं अन्यथा इच्छा करना अनंत कुटिलता है, उस कारण से आत्म स्वभाव, वस्तु स्वरूप आदि नहीं जान पाता है। आत्मा का विपरीत भाव वक्रता विरूपता आदि उत्पन्न करता है। जो अनंतानुबंधी माया कषाय का परिणाम है।
कस्सिं कियत्तु माया मिच्छत्त—परिणाम—सहावम्हि अणंताणुबंधी मायाए अभावो णो, सम्मादिटिठ जादि। अणुव्वदी—सावगम्हि अप्पच्चक्खाण माया णो। महव्वदिम्ह पच्चक्खाण माया भावो, संजलण—सव्भावो जहक्खाद—चारित्तस्स संजलण मायाकसाया भावो। जाए जाए मायाए अभावो तेसुं अंसेसुं च अज्जवधम्मो
किसमें कितनी माया ? मिथ्यात्व परिणाम स्वभाव वाले में अनंतानुबंधी माया का अभाव नहीं होता, अपितु सम्यक्दृष्टि के होता है। अणुव्रती श्रावक के अप्रत्याख्यान माया नहीं। महाव्रती में प्रत्याख्यान माया का अभाव होता है, संज्वलन माया कषाय का सद्भाव होता है, यथाख्यान चारित्र के संज्वलन माया कषाय का अभाव होता है। जितने अंशों में माया कषाय का अभाव है उतने अंशों में आर्जव धर्म होता है।
अज्जवधम्मजणस्स बहिर अिंव्भतर—रिजुसणं। जोगे वि तं गुणं भावे वि। जो मणे सो वाए जो वाए सो देहे वि। सो लेगिग लोगोत्तर—उहय—दिट्ठिणा उज्जत्तु—भावी। तत्तो होदि असुहकम्माणं संवरो जादि।
आर्जव धर्म वाले व्यक्ति के बाहर और भीतर ऋजुता रहती है योग में ऋजुता और भाव में भी ऋजुता। जो मन में वह वचन में, जो वचन में वह तन में। वह लौकिक और लोकोत्तर दोनों दृष्टियों से ऋजुता भावी होता है। उससे अशुभ कर्मो का संवर होता है।
अज्जवधम्मी मायाचागी। सो सम्मपउत्ती—जुत्तो चरेदि अस्सिं लोए सुहं
आर्जव धर्मी माया का परित्यागी होता है। वह सम्यक् प्रवृत्ति युक्त इस लोक में सुख पूर्वक विचरण करता है।
शुचिता/पवित्रता का भाव होना शौच है। द्रव्य से निर्लेपता, परवस्तु की आकांक्षा से उपरम या परद्रव्य की इच्छाभाव को नहीं करना शुचिधर्म है।
पुग्गलिक—पर—वत्थु—कंखाभावो लोए अत्थि सव्वाणि दव्वाणि सव्वे पदत्था पुग्गला तं पडि आकंख—विरहिदो जो होदि सो पवित्त—साहगो। णिल्लेवी उवरदो पर—पदत्थ—इच्छािंहतो।
पौद्गलिक पर वस्तुओं का आकांक्षा न होना— लोक में सभी द्रव्य, सभी पदार्थ जो पुद्गल हैं, उनके प्रति जो आकांक्षा रहित होता है, वह पवित्रसाधक, निर्लेपी एवं पर—पदार्थों की इच्छाओं से रहित है।
सम—संतोस—जलेणं जो धोवदि तिव्व—मोह—मलपुंजं। भोयण—गिद्धि—विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं।।
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३९७) जो सम संतोषरूपी जल से तीव्र मोहमल समूह को धोता है जो भोजन की गृद्धता से रहित होता है उसकी विमल शौच है।
सुकोसल चरिउं पभासिदो। जो पय संजमु सुद्धउ पालइ सील—सलिल—अप्पउ पक्खालइ। आवंतउ भवमलु पुण रुज्झइ सो सच्चउ पंचमगुण कुज्झइ।
(कवि रइधु. सं. ३/१५) सुकौशल चरित्र में कहा है—जो शुद्ध संयम पद पालता है, आत्मा को शील रूपी जल से प्रक्षालित करता है और जिससे आता हुआ भवमल रुक जाता है वह शौचधर्म है।
सम्यग्दर्शन के साथ उत्कृष्ट पावन भावना होती है। ममत्व से विरत होने से जो लघुता भाव होता है वह आत्मा के शुद्ध भाव की ओर ले जाता है। जो परम गुणी, वैरागी, आत्मविशुद्ध साधक आकांक्षाओं के पूर्ण प्रवाह को रोकता है, वही शुचिधर्मी होता है। सुचिधम्मो कदा ?—शुचि धर्म कब होता है ?
अतितृष्णा, आकांक्षा, अभिलाषा, लालसा, इच्छा, मूर्छा, वासना, कामना, राग, द्वेष, मोह एवं आसक्ति के कारण से शुचिधर्म का अभाव होता है जहाँ लोभ होता है, वहाँ सभी होते हैं। लोभ की समाप्ति होने पर सभी कषायों का अंत हो जाता है। वैराग्य भावना भी इसके अंत होने पर होती है।
शौच धर्म केवल पवित्र नहीं करता, अपितु वीतराग भाव को भी उत्पन्न करता है। भोगोपभोग सामग्रियों का अभाव तब तक नहीं जब तक लोभ है। लोक में धन का उपभोग जहाँ होता है देव पर्यायों में भी भोगोपभोग की आकांक्षा, इंद्रिय अभिलाषा आदि रहती है।
विसएसु रागो पसत्थो वा अपसत्थो वा रागो रागो त्ति। सो उवभोग—परिभोग—रागो इंदिय—विसएण जायदं।
विषयों में राग प्रशस्त हो या अप्रशस्त राग, राग ही है। वह उपभोग एवं परिभोग राग इंद्रिय विषय से ही उत्पन्न होता है।
मिगो कण्णपिय—सुद्धेणं (मृग कर्ण प्रिय शब्द से) हत्थी फािंसदिएणं (हाथी स्पर्शन इंद्रिय से) पतंगा तेज रूवेणं (पतंगा तेज रूप से/अग्नि से) भमरो गंधेणं (भ्रम गंध से) मच्छो दु जिब्भरसेणं च (मत्स्य जिह्वारस के लोभ से) खीयदे जीवण—अंतं च पत्तेज्ज। (जीवन के अंत को प्राप्त होते हैं।) लोह—कसायंतो सुचित्तणं (लोभ का अंत होना शुचिता है।) पवित्रणं। एस आद—सुची। (पवित्रता है। यही है आत्मशुद्धि।) सुचिधम्महूस पत्ती— णाणेण झाण—सुदेहणं सज्झाय—तव—कम्मणा। महव्वद—समालं के समिदि—धम्म—धारणे।। तव—संजम—सुद्धेणं सुचि धम्मो सदा हवे।
शौच धर्म की प्राप्ति—ज्ञान, ध्यान, शुद्ध भावना, स्वाध्याय एवं तपकर्म से शौच धर्म की प्राप्ति होती है। यह महाव्रतों से अलंकृत, समिति एवं धर्म के धारण पर भी तप और संयम की शुद्धता से शुचिधर्म होता है।
सत्यधर्म—सत्य अमृत भावना है। स्व—पर हितकारक, आनंददायक, परिमित पावन एवं अमृत तुल्य वचन सत्य है वे भगवन् हैं। सत्य के निवास होने पर पूर्णता है, इसे ऐश्वर्य एवं परम धन भी कहते हैं। इसलिए वचन में सत्य, मन में सत्य और देह में सत्य साधुता को लाती है।
सत्य/यथार्थ के प्रयोजन युक्त वचन होना सत्य है। उत्तम वचन व्यवहार सत्य है। उसको अवितथ, सद्भूतार्थ प्रतिपत्तिकारि वचन कहते हैं।
अत्थाणं पदत्थाणं वा जधवट्ठिद विवक्खिद—पडिपादणं सच्चं। अर्थ या पदार्थो का यथावस्थित, विवक्षित प्रतिपादन होना सत्य है। पर—संतावय—कारणवयणं मोत्तूण स—पर—हिद—वयणं। जो वददि भिक्खू तुरियो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं।। (द्वा. ७४)
दूसरे के संताप देने वाले वचन को छोड़कर स्वहित और परहित के वचन बोलना सत्यधर्म है।
असदहिद्धाणा दो विरदी सच्चं असद् अभिधान से विरति सत्य है। सुत्तत्थ—कधण सच्चं अजधज्झयणं हिदं। स—पर—तोस—दायत्थी अमिद—सरिसं वदे।। पसत्थ—आद—तोसं च दाएज्ज पुण्ण—णंदणं।
सूत्रार्थ का यथार्थ कथन, यथार्थ अध्ययन, हित युक्त एवं स्व एवं पर को आनंद देने वाले अमृत सदृश वचन सत्य कहे जाते हैं। जो वचन प्रशस्त, आत्मसंतोष एवं पूर्ण आनंद देने वाले होते हैं, वही सत्य है।
श्रावकों का सत्य—श्रावक अणुव्रती होता है, वह हिंसाजनक, कटु एवं निष्ठुर वचन नहीं बोलता, दूसरों के रहस्य को प्रकट नहीं करता, अपितु वह हित—मित—प्रियवचन बोलता है, वह संतोषकारक वचन एवं धर्म अनुशीलन प्रकाशन हेतु विचरण करता है।
सत्यस्थान—सभी को उपकारी शारदा को यदि प्राप्त हैं सरस्वती सुधारूप हित मितकारी वाणी को बोले एवं उसका सभी के उपकार के लिए प्रयोग करें। सत्यस्थान हैं—महाव्रत, अणुव्रत, भावसमिति और वचनगुप्ति। एक सुष्ठु प्रयुक्त शब्द कामधेनु के समान है। वचन का संवर उचित संवर इस लोक और परलोक में भी उत्तम होता है। दोषारोपण, द्वेषभाव, कलह, ईर्ष्या युक्त वचन आदि इस संसार में भी साधु नहीं कहे जाते हैं। उन वचनों को कोई स्थान नहीं। हित, मित, प्रिय, सत्य एवं असंदिग्ध वचनों का सभी जगह स्थान है। प्रज्ञावंत साधक विकथाओं से विरत जो बोलता है सभी का हित होता है।
उत्तम संयम— सावद्यविरति संयम है। सावद्य का अर्थ सकल इन्द्रिय व्यापार है, उसका निरोध सावद्याविरति है वह संयम है। संयमन/नियंत्रण करना संयम है, चारित्र मोह का उपशम होना संयम है। कषाय, इन्द्रिय विषय आदि के व्यवसाय या दंड का परिहार करना संयम है। पाँच इंद्रियजय का नाम संयम है। सम्यक् शमन होना संयम है। पाँच महाव्रत धारण, पंचसमिति पालन, पच्चीस कषाय निग्रह, माया, मिथ्या, निदान, दण्ड त्रय त्याग एवं पञ्चेन्द्रियजय संयम है।
सव्वमुत्ति—कारगो। मिच्छ—दिठिणो संजमो उत्तमसंजमो णत्थि। समिति, महाव्रत एवं अणुव्रत का होना संयम है। व्रत (अणुव्रत, महाव्रत) समिति के व्यापार में रत, कषाय निग्रही माया, मिथ्या एवं निदानजयी एवं त्यागी साधक के संयम है। सम्यक् यम, नियंत्रण या निग्रह होना संयम है। यह संयम सम्यक्त्व का अविनाभावी है, वह सम्यग्दर्शन सहित होता है। यह सर्व मुक्ति का उपाय है। मिथ्यादृष्टियों का संयम उत्तम संयम नहीं है।
नाना प्रकार के संयमों में प्राणी संयम और इंद्रिय संयम भी है। जीवसंयम—स्थावर, विकलेन्द्रिय, एवं पाँच इन्द्रिय जीवों का रक्षण। अजीव संयम—वस्त्र, पात्र, आसन, शैय्या आदि पुद्गल साधनों को यत्नपूर्वक रखना उठाना।
प्रेक्षासंयम—अनुप्रेक्षण पूर्वक वस्तुओं को रखना—उठाना एवं उपयोग करना। उपेक्षासंयम—सावद्य कार्यों में उपेक्षाभाव, उसमें भाग न लेना और न अनुमोदना करना। अपहृत्यसंयम—विधिपूर्वक मल—मूत्र आदि का परिष्ठापन। प्रमार्जन संयम—यत्नपूर्वक उपकरणों को प्रमार्जित करना। वचनसंयम—हित—मित—प्रिय—वचन बोलना। कायसंयम—यत्नपूर्वक शरीर चेष्टा करना।
मनसंयम—मन में दुर्भाव नहीं होना। इंदियसंजमो पाणिसंजमो य। उहयोत्थि आद—आणंदो जदा सडजीवणिकाय—संरक्खणं कुणेदि जणो साहगो। मणसंजमो वयसंजमो कायसंजमो सम्मदंसणं विणा ण संजमो आदिणो संवरं कुणेंति कम्माण आगद—पवाहं संवरेंति। आद—संमुही तेण कारणेण होदि।इन्द्रियसंयम और प्राणीसंयम ये दोनों से ही आत्म आनंद तब होता है जब वह षट्काय जीव निकाय का साधकजन संरक्षण करता है। मनसंयम, वचनसंयम, उपकरणसंयम और प्रेक्षासंयम आदि संवर करते हैं। कर्मों के आगम प्रवाह को रोकते हैं। उसी से आत्मसम्मुखी होता है।
उत्तम तप धर्म—चारित्र के प्रति उद्यम होना तप है। तपाना, संयमन करना और निजात्म के शुद्ध स्वरूप की ओर अग्रसर होना तप है। जो आत्म स्वभाव जानने के लिए अर्हत् को ध्याता, कषाय, इन्द्रिय विषय में शमनार्थ संयम पालन करना, ज्ञान निलय को जानने के लिए स्वाध्याय तथा धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान की प्राप्ति को रत्नत्रय धर्म में प्रविष्ट होता है।
भगवदी आराहणाए पण्णत्तो— चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य आउंजणा य जो होदि। सो एव जिणेहि तवो भणिदो असढं चरंतस्स। (भ. आ. १०)
भगवती आराधना में कहा गया है—चारित्र में जो उद्यम शील होता है, उसका तप धर्म होता है।
जो सम्मदसणं रित्तो कोडि–तवं—तवेज्जदे। णत्थि तं बोहि लाहो वि इच्दाणिरोह—संवरो।।
जो सम्यग्दर्शन के बिना करोड़ों वर्षों तक तप करता है, उसको बोधिलाभ नहीं होता है। तप इच्छाओं के निरोध का नाम है।
सुद्धोवजोग विसुद्ध आदे संलीणत्तणं च भासदे तवो। सो दुविधो पण्णत्तोअणसणोमोदरिय—वित्ति—परिसंखाण रस—परिच्चाग—विवित्तसेज्जासण—कायकिलोसा। पायच्छित्त—विणय—वेय्यावच्च—सज्झाय—उस्सग्ग—झाणं च। तावएज्ज अट्ठविध कम्मं च तवो। कम्मक्खयत्थं तप्पदे साहगो।।
शुद्धोपयोग विशुद्ध आत्मा में संलीनता को भी तप कहते हैं। वह दो प्रकार का कहा गया—अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शैयासन और कायक्लेश से छह बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अंतरंग तप हैं। जो आठ प्रकार के कर्म को तपाता है वह तप है। साधक कर्मक्षयार्थ तपता है।
उत्तमचागो— संविभागो त्ति चागो। आइरिय—उवज्झाय—साहुणो सम्मं विहिं पुव्वगं संविभागो आहारादीणं उत्तम चागो। उत्तमत्याग—संविभाग करना त्याग है। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को आहारादि का सम्यक् विधिपूर्वक संविभाग करना/दान देना उत्तम त्याग है। संजदस्स सुजोग्गं च णाणादिदाण—सत्तिणा। जधाविहि—पजुज्जंतं तस्स चागो हवेदि हि।। चागो णिउत्ति—संगत्तो बहिरिंब्भतरो त्ति। कत्तिकेय मुणिणा पण्णत्तो— जो चयदि मिट्ठभोज्जं उवयरणं राय—दोस—संजणयं। वसिंद ममत्तहेदुं चायगुणो सो हवे तस्स।। (र्काितकेयानुप्रेक्षा. ४०१)
संयत के योग्य ज्ञानादि का यथाशक्ति, यथाविधि युक्त दान देना त्याग है। परिग्रह—बाह्य और आभ्यंतर होते हैं, उनकी निवृत्ति त्याग है। र्काितकेय मुनि ने कहा—जो मिष्ठभोजन, उपकरण, राग—द्वेष की प्रवृत्ति, वसति एवं ममत्व के कारणों को छोड़ता है उसका त्याग गुण होता है।
शक्ति से दान देना त्याग है। वह आहार, अभय और ज्ञान रूप है। स्व—पर उपकार या अनुग्रह के लिए त्याग करना दान है। जो अपने श्रेय एवं आत्मकल्याण में रत साधक हैं, उन साधकों के रत्नत्रय विकास हेतु अपने द्रव्य का अतिसर्जन, दान देना त्याग है।
अपने धन का परित्याग दान है। त्याग की महिमा—जो मनुष्य बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से निवृत्त होता है, उसका त्याग होता है। त्याग से पारिवारिक सुख, सामाजिक सुख शान्ति होती है, इससे राष्ट्रीय जीवन भी विकसित होता है।
त्याग में सुख है और भोग में दु:ख। राग—द्वेष के परित्याग होने पर अपना और दूसरे का हित होता है। अनुपयोगी, अहितकारी आदि वस्तुओं के परित्याग को त्याग नहीं कहते। वह तो विधि पूर्वक दाता के द्वारा पात्र की विशेषता से यदि दिया गया है, उससे वह त्याग सुख उत्पन्न करता है। त्याग वस्तु के संविभाग से भी होता है।
उत्तम साहगो पत्तो सो रदणत्तय मग्गगामी पडिदिणं अप्पहिदं परिहिदं च कुव्वेदि। णो केवलं पर दव्वाणं दाणं चागो, अवित्तु परदव्वाण्ािं पडि जायमाणं रागस्स दोसस्स मोहस्स होदि। णियप्प—सुद्धप्पा विहावादो अदिदूरो। सो सहावेण णिम्मलो णिरंजणो त्ति। दाणे होदि परुवयारभावो, चागे आदहिदो।
उत्तम साधक पात्र हैं, वह सदा रत्नत्रय मार्गगामी अपना हित और दूसरे का हित भी करता है। न केवल परद्रव्यों को देना त्याग है, अपितु पर द्रव्यों के प्रति उत्पन्न होने वाले राग, द्वेष एवं मोह का त्यागना/छोड़ देना त्याग है। निजात्म शुद्धात्मा विभावों से अतिदूर है। वह स्वभाव से निर्मल एवं निरंजन भी है। दान में परोपकार भाव होता है और त्याग में आत्महित।उत्तम आिंकचण्ह धम्मो णिस्संग णिय—अप्पाणं णिप्परिग्गहसंलहे। आिंकचण्ह समो धम्मो वत्थु गहण मुत्तिणो।।
उत्तम अकिंचन्य धर्म—जो निस्संग अपने आत्म स्वरूप को परिग्रह से रहित देखता है जो वस्तु ग्रहण से रहित हैं। उन श्रमण का अकिंचन्य धर्म है।
सयलगंथ चागो आिंकचण्हधम्मो। गंथो त्ति परिग्गहो सो बहिरब्भिंतरो दुविधो। तत्तो णिस्संगो होदूण जो साहगो आदसहावं झाएदि तस्स वट्टदि अकिंचण्हधम्मो।
जहाँ सकल ग्रंथ/परिग्रह का त्याग है वहाँ अकिंचन्य धर्म है। ग्रंथ का अर्थ परिग्रह है जो बाह्य और आभ्यंतर दो प्रकार का है। उसका निस्संग होकर जो साधक आत्म स्वभाव को ध्याता है, उसका भाव अकिंचन्यधर्म होता है।
जिसके कुछ नहीं, उसे आकिंचन्य कहते हैं। अकिंचन्य अर्थात् सकलग्रंथत्याग, सर्वलोक व्यवहार से विरत निष्परिग्रह, निरारंभ एवं शरीर संस्कार से रहित होना है। कुछ भी नहीं होना आकिंचन है, उसका भावकर्म अकिंचन्य है। जो अनगार नि:संग होकर अपने सुख—दु:ख के निजभाव को ग्रहण करके निद्र्वन्दभाव से युक्त होना अकिंचन्य है। आदभाव अणुसीलणं (द्वादशानुप्रेक्षा ७९)
आत्मभाव का अनुशीलन —बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह का पूर्ण त्याग करके जो आत्मभाव में रमण करता है, उसका अकिंचन्य धर्म होता है। आसक्ति, ममत्व एवं मूच्र्छा परिग्रह है। मेरा उसके लिए कुछ भाव नहीं।
काय, कर्म और उपाधि से सभी बाह्य परिग्रह हैं। आभ्यन्तर परिग्रह राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध एवं लोभ आदि हैं। उनके छोड़ने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है। बाह्य और आभ्यंतर संग से जहाँ दूरी है वहाँ है अकिंचन्यधर्म। भावपाहुड में कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा—भाव विशुद्धि के निमित्त बहिरंग ग्रंथ/परिग्रह का त्याग किया जाता है, परन्तु रागादि भाव रूप आभ्यंतर परिग्रह के त्याग बिना यह विफल है।
मूर्छा परिग्रह है। वस्तु, पदार्थ, अर्थ के प्रति मूर्च्छा, आसक्ति, आकांक्षा, अभिलाषा, संग्रह की इच्छा एवं परपदार्थ के ग्रहण की भावना परिग्रह है। यह मेरा है, ऐसी बुद्धि करना परिग्रह है। पर पदार्थों के प्रति ममत्व भाव होना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के अभाव से अकिंचन्य धर्म है। जस्स णो किचणं अत्थि सो त्ति आिंकचणो हवे। तस्स भावो अकिंचण्हं सम्मत्त—पडिभावणा। उपादेयो त्ति सम्मत्तो रदणत्तय—भावणा। अप्पणो परिणामो त्ति मुणेज्ज मुणि—माणवा।। जिसका कुछ नहीं, वह आिंकचन है, उसका भाव (त्याग का भाव) अकिंचन्य है, जो सम्यक्त्व की उत्तम भावना है। जो मुनि या मननशील व्यक्ति होते हैं, वे अपने आत्म परिणाम युक्त रत्नत्रय की भावना सम्यक्त्व है, ऐसा सोचकर उसे उपादेय मानते हैं।
उत्तम ब्रह्मचर्य—जो ब्रह्म रूप में अपने आत्मा में विचरण करता है वह ब्रह्मचर्य है। सभी परिग्रह से विमुक्त आत्मा है, वही आत्मा ब्रह्म है, उसमें ही विचरण करना ब्रह्मचर्य है। ज्ञान स्वरूप आत्मा ब्रह्म है, उसमें सम्यक्ऱूप में स्थित होना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म ब्रह्म है, उस ब्रह्म में स्थित होना ब्रह्मचर्य कहलाता है। अहिंसादि गुण जिसमें बढ़ते हैं उसका नाम ब्रह्म है, उसमें जो विचरण करता है, उसका ब्रह्मचर्य धर्म होता है। स्त्रियों के सभी अंगों को देखता हुआ, जो उनमें दुर्भाव/कामना को छोड़ता है, उसमें मुग्ध नहीं होता है, वही दुर्धर ब्रह्मचर्य धारण करने में समर्थ होता है। जो इत्थी विसयाहिलासं परिचत्तिदूण बंहणि अप्पणि अप्पे सुद्ध—बुद्ध—पबुद्ध—चरिए चरेज्जं तं बंहचेरं वंदते एवं साहगा पत्तेंति। जो स्त्रियों की विषयाभिलाषा को छोड़कर अपने ब्रह्म स्वरूप शुद्ध, बुद्ध एवं प्रबुद्ध आत्मा में विचरण करता है, उस ब्रह्मचर्य व्रत को वे ही साधक प्राप्त करते हैं।
दार — संतोष — अंगनाओं के प्रत्येक अंग, मद, मोह, आसक्ति एवं काम भावना को उत्पन्न करते हैं। उन्हें प्राप्त या अप्राप्त न होने पर भी उसमें आसक्ति न होना ब्रह्मचर्य है, जिसके उसमें आसक्ति नहीं होती, उसका ब्रह्मचर्य धर्म है। वह स्वदार—संतोषी है।
ब्रह्मचर्य अध्यात्म विकास का मेरुदंड है। पर द्रव्यों से विगत शुद्ध, बुद्ध, ज्ञान स्वरूप निर्मल आत्मा में जो संलग्न होता है, उसका ब्रह्मचर्य धर्म हैं आत्मा परब्रह्म स्वरूप है, शुद्ध है, निर्मल बोध का निलय है। यह सर्वव्रतों में उत्कृष्ट अतीन्द्रिय आनंद देने वाला है। जो देह से विरक्त, देहासक्ति रहित सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान सहित आत्माश्रित आराम स्थान है वह ब्रह्मचर्य है। अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख एवं शान्तियुक्त आत्मा का स्वभाव है, उस आत्म स्वभाव में जो रत होता है, उसका ब्रह्मचर्य धर्म है। यह सम्यक्त्व का मूल है, यह नियम का आराम है, ज्ञान, दर्शन और चारित्र का रमणीय उद्यान है। साधक साधु इसमें अच्छी तरह लीन होते हैं।
बंहचेरोत्थि अज्झप्प देदिप्पमाणमणी जा धम्मिगाणं देहिग—माणासिग—णेदिग—गुणं पडि आकस्सेदि।
ब्रह्मचर्य अध्यात्म की दैदीप्यमान मणि है, जो धार्मिकजनों को शारीरिक, मानसिक दृष्टि से भी नैतिक गुणों की ओर ले जाती है।