१.१ भारत एक धर्म प्रधान देश है। आदिकाल से ही यहाँ के अनेक तत्त्व चिंतकों ने जीवन और जगत् के संबंधों को पहचाना है। उसके रहस्य को समझा है। व्यक्ति के सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जीवन-मरण, संयोग-वियोग के कारणों पर उनका ध्यान गया। उन्होंने व्यक्ति के राग द्वेषादिक द्वंदों तथा उसके जन्म और मृत्यु के चक्र से ऊपर उठने के मार्ग की गवेषणा की है। जिस प्रकार अपने दीर्घकालीन जीवन के अनेक प्रयोगों के बाद कोई निष्पत्ति वैज्ञानिकों के हाथ लगती है, वे वस्तु की तह में जाकर उसके मर्म को पकड़ते हैं, तब उन्हें कोई सूत्र मिलता है। ठीक उसी तरह ऐहिक चिन्ताओं से मुक्त तत्त्व दृष्टाओं ने अपनी आत्मा के अंतर्मंथन से जो नवनीत प्राप्त किया है, धर्म उसकी ही अभिव्यक्ति है। उसी के निरूपण के लिए विविध दर्शनों की उद्भूति हुई है। ‘दर्शन’ का अर्थ होता है ‘दृष्टि’। दर्शन विभिन्न दृष्टि बिन्दुओं के वैचारिक पक्ष का नाम है, जबकि धर्म उसके आचारात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है। आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? विश्व क्या है ? ईश्वर क्या है ? आदि जिज्ञासाओं का समाधान दर्शन से ही किया जाता है। दर्शन के ही माध्यम से जीवात्मा अपनी अनंत शक्ति को पहचानकर परमात्मा दशा को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है। यद्यपि धर्म और दर्शन अलग-अलग हैं, फिर भी इन दोनों में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। विचारों का प्रभाव मनुष्य के आचरण पर अवश्य पड़ता है तथा व्यक्ति का आचार ही व्यक्ति के विचारों को अभिव्यक्ति दे सकता है। आचार के बिना विचार साकार रूप ग्रहण नहीं कर सकता। एक-दूसरे के अभाव में दोनों अधूरे और एकांगी हैं। व्यक्ति के आचार और विचारों का सम्यक् समायोजन ही धर्म का परम ध्येय है।
आचार और विचार की इसी अन्योन्याश्रिता को दृष्टिगत रखते हुए भारतीय तत्त्व चिंतकों ने धर्म और दर्शन का साथ-साथ प्रतिपादन किया है। उन्होंने एक ओर जहाँ तत्त्वज्ञान की प्ररूपणा कर दर्शन की प्रस्थापना की है तो वहीं दूसरी ओर आचार शास्त्रों का निरूपण कर साधना का मार्ग प्रशस्त किया है। भारतीय परम्परा में आचार को धर्म तथा विचार को दर्शन कहा गया है। जब मानव विचारों के गर्भ में प्रवेश करता है तब दर्शन जन्म लेता है तथा जब विचारों को आचरण में ढालता है, तब धर्म प्रकट होता है। धर्म तथा दर्शन परस्पर पूरक है। एक के बिना दूसरा एकांगी और अपूर्ण है। दर्शनरहित आचरण अंधा है। जिस आचरण में विवेक की जगमगाती ज्योति नहीं है वह सही और गलत की अंध गलियों में भटकता रहेगा। आचार का मार्गदर्शक विचार है। विचार ही आचार को सन्मार्ग पर चलाता है। दूसरी ओर आचार-रहित विचार पंगु है। मुक्ति के साधना पथ पर आचार रहित साधक आगे नहीं बढ़ सकता। दीपक के बारे में विद्वत् चर्चा से प्रकाश प्रगट नहीं होता, प्रकाश तो दीप जलाने की क्रिया (आचरण) से ही प्रगट होता है। इस तरह आचार रहित विचार और विचाररहित आचार दोनों ही निरर्थक हैं। दोनों का समन्वय ही सच्ची धर्म साधना है जिसके द्वारा मुक्ति की मंजिल प्राप्त की जा सकती है।
जिसके द्वारा देखा जावे अर्थात् जीवन व जीवन-विकास का ज्ञान प्राप्त किया जावे, उसे दर्शन (झ्प्ग्त्देदज्प्ब्) कहते हैं। युक्तिपूर्वक तत्त्व-ज्ञान को प्राप्त करने के प्रयत्न को ही दर्शन कहते हैं। दर्शन में आत्मा, परलोक, विश्व, ईश्वर आदि गूढ़ विषयों को समझने का प्रयत्न किया जाता है। धर्म में आत्मा को परमात्मा बनने का मार्ग बताया जाता है। धर्म प्रवर्तकों ने केवल आचार-रूप धर्म का ही उपयोग नहीं किया है, अपितु स्वभाव-रूप धर्म का भी उपदेश दिया है, जिसे दर्शन कहा जाता है।
जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित दर्शन ही जैन दर्शन है। छ: द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ आदि का इसमें मुख्यतया वर्णन है। जैन धर्म आत्मा, परमात्मा व पुनर्जन्म में विश्वास करता है।
यद्यपि दर्शन और धर्म (वस्तु स्वभाव-आचार-रूप धर्म) दोनों अलग अलग विषय हैं, फिर भी दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह सर्वविदित है कि विचार के अनुसार ही मनुष्य का आचार भी होता है। जैसे जो व्यक्ति आत्मा, परलोक और पुनर्जन्म को नहीं मानता है, उसकी प्रवृत्ति व आचार भोगवादी होगा और जो इन्हें मानता है, उसकी प्रवृत्ति और आचार इसके विपरीत (निवृत्ति की ओर) होगा। इस प्रकार विचारों का प्रभाव मनुष्य के आचार पर गहरा पड़ता है। अत: दर्शन का प्रभाव धर्म पर भी गहरा पड़ता है और एक को समझे बिना दूसरे को समझा नहीं जा सकता है। जैन धर्म भी एक दर्शन है। चूँकि वह वस्तु स्वभाव-रूप धर्म में ही अन्तर्भूत हो जाता है, अत: उसे भी हम धर्म का ही एक अंग समझते हैं। अत: जैन दर्शन से अभिप्राय ‘‘जिन’’ द्वारा कहे गये विचार और आचार दोनों ही लेना चाहिए।
जैन दर्शन के मूल सिद्धान्त अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह, छ: द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ आदि हैं। इनका विवरण आगे यथास्थान दिया गया है। लेकिन जैन दर्शन की कुछ अन्य विषेशताओं का वर्णन यहाँ दिया जा रहा है:-
जैन धर्म ईश्वर की सत्ता को तो स्वीकार करता है, मगर अन्य धर्मों की भाँति ईश्वर को इस सृष्टि का बनाने वाला (कर्ता), पालने वाला (पालक) और नाश करने वाला (हर्ता) नहीं मानता है। जो आत्मा मोक्ष प्राप्त करके लोक के शिखर पर विराजमान होकर अनन्त सुख भोग रही है, वे ही जैन धर्म के अनुसार ईश्वर, भगवान, सिद्ध आदि नामों से जाने जाते हैं। ये किसी भी कार्य के कर्ता या हर्ता नहीं हैं अपितु मात्र ज्ञाता व दृष्टा हैं। इनका अब इस संसार के किसी भी कार्य से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहा है। ये कृतकृत्य हैं अर्थात् कोई भी कार्य इनके करने हेतु बाकी नहीं रहा है। वे किसी का भी हित या अहित नहीं करते हैं। इस प्रकार वे सृष्टि के कर्ता, पालक या हर्ता नहीं हो सकते हैं।
जैन धर्म यह भी नहीं मानता कि किसी दुष्ट व्यक्ति को दण्डित करने तथा सज्जन व्यक्ति की रक्षा करने वाली कोई शक्ति (ईश्वर) होती है। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीव स्वयं के द्वारा किये गये कर्मों के अनुसार ही विभिन्न योनियाँ धारण करता है और सुख.दु:ख उठाता है। ऐसी कोई अन्य शक्ति नहीं है जो उसे सुख या दु:ख दे सके।
जैन धर्म के अनुसार जीव-अजीव द्रव्य का कर्म-प्रकृति अनुसार एक देश संयोग ही जगत् का कर्ता-हर्ता है। इनके द्वारा संसार अनादि काल से रचा हुआ है। इन्हें किसी ने बनाया नहीं है और संसार में स्वतंत्र हैं। ये ही संसार की सबसे बड़ी ताकतें हैं जो संसार में कार्य कर रही हैं। इनके अलावा अन्य कोई शक्ति नहीं है। जीव-अजीव द्रव्यों का यह खेल अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता र हेगा।
जैन धर्म का यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। संसारी जीव अनादि काल से कर्मो से संयुक्त है और इन कर्मों के कारण जन्म-मरण के चक्र में फंसा हुआ है। जब पूर्व में बँधे कर्म उदय में आते हैं तो जीव उनके फल को समतापूर्वक नहींसहता है और उसके परिणाम राग-द्वेषरूप होते हैं, जिससे नये कर्म बँधते हैं। कर्मों के बँधने से गतियों में जन्म लेता है और जन्म लेने पर शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियां होती हैं जो अपने विषयों को ग्रहण करती हैं। विषयों के ग्रहण करने से इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष उत्पन्न होते हैं और फिर रागी-द्वेषी परिणामों से नवीन कर्म बँधते हैं और इस प्रकार कर्म बँधने का यह चक्र चलता ही रहता है। यह चक्र अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। यदि जीव ऐसे सार्थक प्रयास करके आत्मा के साथ बँधे कर्मों का सर्वथा नाश (अभाव) कर देता है, तो उसे शुद्ध अवस्था प्राप्त हो सकती है, जिसे मोक्ष कहा जाता है। जीव द्वारा मोक्ष प्राप्त करना जैन दर्शन का सर्वोच्च लक्ष्य है।
जीव द्वारा मन-वचन-काय से की गई क्रियाओं से प्रभावित होकर कुछ पुद्गल वर्गणा जीव के प्रदेशों में प्रवेश करती हैं। यह बात केवल जैन दर्शन में ही है, अन्य दर्शनों में नहीं है। जैन धर्म कर्म-सिद्धान्त पर ही टिका हुआ है। जैन धर्म प्रत्येक जीव के कर्मों को ही उसका विधाता मानता है। जब तक ये कर्म जीव के साथ लगे हुए हैं, वह जीव संसार में विभिन्न योनियों में भ्रमण करता रहता है और सुख-दुःख उठाता है। अन्य धर्मों में भी कर्मों की प्रधानता को माना गया है। तुलसीदास जी ने भी इसी सिद्वान्त को स्वीकारा है-
‘‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा ।
जो जस करहिं, सो तस फल चाखा ।।’’
जीव इन कर्मों का नाश करके अपने को कर्मों से सर्वथा मुक्त कर लेता है तो वही जीव परमात्मा (ईश्वर) बन जाता है। इस प्रकार जैन दर्शन इस कर्म सिद्धान्त के माध्यम से आत्मा से परमात्मा बनने की कला सिखाता है। प्रत्येक जीव अपने आत्म-पुरुषार्थ से आत्मा की इस परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकता है।
जैन धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है। जैन धर्म के अनुसार जब तक जीव कर्मों से मुक्त नहीं हो जाता है, अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक उसका पुन:-पुन: जन्म विभिन्न योनियों में होता रहता है। मोक्ष पद प्राप्त करने के पश्चात् उस जीव का पुन: जन्म नहीं होता है।
आज के वैज्ञानिक युग में पुनर्जन्म के समाचार यदा-कदा प्रकाशित होते रहते हैं। कुछ बच्चे अपने पूर्व जन्म के माता, पिता, पति, गाँव, मित्र आदि के नाम बता देते हैं और सम्बन्धित ग्राम में जाकर उन्हें पहचान भी लेते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पुनर्जन्म होता है। यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य मर कर मनुष्य गति में ही जन्म ले। वह अपने कर्मों के अनुसार किसी भी गति में जन्म ले सकता है।
जैन धर्म यह भी सिखलाता है कि पुन:-पुन: जन्म से मुक्ति कैसे प्राप्त हो। इस हेतु जैन आगम में एक सिद्धान्त प्रतिपादित है-
‘‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः’’।
इसके अनुसार सम्यक् रूप से दर्शन, ज्ञान व चारित्र के होने से ही जीव को मुक्ति मिल सकती है और यही मोक्ष का एक मात्र मार्ग है। आत्मा के उद्धार के लिये अन्य कोई रास्ता नहीं है। हिन्दू धर्म में भक्ति मार्ग, ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग अलग-अलग मोक्ष के मार्ग हैं, मगर जैन धर्म में सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकरूपता ही एकमात्र मोक्ष का मार्ग है।
अहिंसा जैन धर्म का आधार स्तम्भ है। जैन धर्म में प्राणी मात्र के कल्याण की भावना निहित है। जैन धर्म में मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े.मकोड़े के अलावा पृथ्वी, जल, अग्नि वायु और वनस्पति को भी जीव माना गया है। जैन धर्म के अनुसार इन जीवों को न मारना अहिंसा है। किसी का दिल दुखाना तथा अपने अन्दर राग-द्वेष जनित विकारी भावों की उत्पत्ति को भी हिंसा माना गया है। भगवान महावीर के प्रमुख संदेश
‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ तथा ‘‘जीओ और जीने दो’’
भी अहिंसा पर आधारित हैं।
जैन धर्म के अनुसार कालचक्र एक बार उत्सर्पिणीरूप और एक बार अवसर्पिणीरूप में परार्वतन करता है और इनमें २४-२४ तीर्थंकर होते हैं जिनके द्वारा जैन धर्म प्रकाशित व उपदिष्ट हुआ है। भविष्य में भी इसी प्रकार २४-२४ तीर्थंकर होते रहेंगे।
अन्य धर्मों की भांति जैन धर्म में अवतार लेने की परम्परा नहीं है। जैन धर्म के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपनी कठोर तप-साधना से भगवान बन सकता है और जो भगवान बन जाता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। इस प्रकार भगवान बनने वाले व्यक्ति (आत्मा) का पुन: भगवान के या अन्य रूप में अवतरित होना संभव ही नहीं है।
जैन धर्म में ऋषियों की परम्परा, उनकी चर्या, धार्मिक साहित्य, तीर्थ, आत्मा व परमात्मा का स्वरूप, मूर्तियों की मुद्रा, उपासना-क्रिया आदि अन्य धर्मों से भिन्न हैं। पूज्य व पूज्यता में भी अन्तर है। जैन धर्म में वीतरागी देव और वीतरागता ही पूज्य है।
इस प्रकार जैन धर्म अन्य धर्मों से भिन्न व स्वतंत्र धर्म है जो अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा।
जैन शब्द जिन से बना है।
जिन (Jin)- जयति इति जिनः जीतने वाले को जिन कहते हैं। अर्थात् जिन्होंने अपने राग, द्वेष, कामादिक, विकारी भावों को जीत लिया है वह जिन हैं।
धर्म (Dharam)- वस्तु के शुद्ध स्वभाव को धर्म कहते हैं। धरति इति धर्मः जो धारण किया जाये वह धर्म है। (धर्म व्यवस्थित, व्यवहारिक और वैज्ञानिक हो)
जैन धर्म दो शब्दों से बना है-जैन और धर्म। जैन से अभिप्राय जिन के उपासक से है।
‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’’
अर्थात् जिसने काम, क्रोध, मोह आदि अपने विकारी भावों को जीत लिया है, वह ‘‘जिन’’ कहलाता है।
‘‘जिनस्य उपासक: जैनः’’
अर्थात् ‘जिन’ के उपासक को जैन कहते हैं। जो व्यक्ति ‘जिन’ के द्वारा बताये मार्ग पर चलते हैं और उनकी आज्ञा को मानते हैं, वे जैन कहलाते हैं। ऐसे जैन के धर्म को जैन धर्म कहते हैं। यह जैन धर्म का शाब्दिक अर्थ है।
जैन धर्म का एक अन्य अर्थ है- ‘‘जिन’’ द्वारा कहा गया धर्म। जीवात्मा काम, क्रोध आदि से घिरा होता है। अत: आत्मा के स्वाभाविक गुण (अनन्त ज्ञान, दर्शन सुख, वीर्य) प्रकट नहीं हो पाते हैं। जब जीव अपने पुरुषार्थ से कर्मोेंं की निर्जरा कर देता है तो वही जीव परमात्मा बन जाता है। वह सर्वज्ञ और वीतरागी होता है तथा वह जो भी उपदेश देता है, किसी वर्ग या सम्प्रदाय विशेष के लिये नहीं होता है अपितु प्राणी मात्र के हित के लिये होता है। अत: ऐसे ‘‘जिन्’’ (सर्वज्ञ, वीतरागी व हितोपदेशी) द्वारा कहा गया जो धर्म है वही जैन धर्म है। इसे श्रमणधर्म अथवा जिनधर्म भी कहते हैं।
विभिन्न धर्मों में धर्म की व्याख्या अलग-अलग की गई है। जैन धर्म के अनुसार
‘‘वत्थु सहावो धम्मो’’
अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई स्वभाव होता है। जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णता है और जल का स्वभाव शीतलता है। प्रत्येक वस्तु अपने मूल स्वभाव को कभी नहीं छोड़ती है। अन्य वस्तु का संयोग पाकर स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है। जब यह संयोग नहीं रहता है तो वह वस्तु अपने मूल स्वभाव में लौट आती है। जैसे पानी का स्वभाव शीतल है। यदि इसे अगि् का संयोग प्राप्त हो जावे तो इसके स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है अर्थात् गर्म हो जाता है और जब संयोग समाप्त हो जाता है, तो पानी अपने मूल स्वभाव शीतलता में लौट आता है। इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञाता-दृष्टा है व मूल में शुद्ध है, मगर कर्मों के संयोग से यह अशुद्ध होकर संसार में भ्रमण कर रही है। जब कर्मों का संयोग समाप्त हो जावेगा तो यह आत्मा अपने मूल स्वभाव अर्थात् शुद्धता को प्राप्त कर लेगी और सिद्धालय में विराजमान हो जावेगी।
‘‘खमादिभावो य दसविहो धम्मो’’
अर्थात् क्षमा आदि १० भावों को भी धर्म कहते हैं। क्षमा आदि दस भावों से ही शुद्धात्म स्वभाव को जानकर उससे लिप्त वैभाविक परिणामों (विभाव) से मुक्त हो पाते हैं। इसलिये क्षमा आदि दस भाव धर्म हैं।
‘‘उत्तमे सुखे धरतीति धर्मः’’
अर्थात् धर्म वही है जो उत्तम सुख (मोक्ष) में पहुँचा दे। आचार्य समंतभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा भी है-
‘‘देशयामि समीचीनं धर्मं कर्म निवर्हणम् ।
संसार दुःखत: सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।।’’
अर्थात् प्राणियों को सांसारिक दुःख से छुड़ाकर उत्तम सुख में पहुँचाने वाला धर्म ही ‘‘समीचीन धर्म’’ है।
‘‘चारित्तं खलु धम्मो’’
चारित्र को भी धर्म कहा गया है। चारित्र को निश्चय से धर्म कहा है क्योंकि चारित्र धारण किये बिना आत्मा से बद्ध पुद्गल कर्मों की निर्जरा सम्भव नहीं है। चारित्र भाव से क्रियात्मक होना चाहिए अर्थात् शुद्ध भाव पूर्वक आचरण में महाव्रत रूप लेना आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने ‘प्रवचनसार’ में ‘‘चारित्तं खलु धम्मो’’ से यही निर्देशित किया है।
इस प्रकार धर्म शब्द से दो अर्थों का बोध होता है। एक वस्तु का स्वभाव और दूसरा चारित्र या आचार का । संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका कोई स्वभाव नहीं हो। जबकि चारित्र केवल चैतन्य आत्मा में ही पाया जाता है। इस प्रकार धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है।
वास्तव में धर्म तो वस्तु का स्वभाव ही है और उसकी प्राप्ति के कारणों को भी कथंचित् धर्म कहा जाता है, क्योंकि कारण के बिना कार्य की निष्पत्ति नहीं होती है।
धर्म एक ऐसा विज्ञान है जिसके माध्यम से मानव अपनी चेतना को, मन को केन्द्रित करता है, व्यवस्थित करता है। धर्म के माध्यम से मानव अपने विक्षिप्त मन को शांत करता है और आत्मा में शांति का अनुभव करता है। धर्म प्राणियों को उत्तम सुख में पहुँचाता है।
(१) व्यवहार धर्म (Practical Dharma)-दान, जप, तप, त्याग आदि व्यवहार धर्म है। अणुव्रत धारण करना व्यवहार धर्म है। पूजा-उपासना करना धर्म का साधन मात्र है। हिंसा नहीं करना, चोरी नहीं करना, झूठ नहीं बोलना आदि भी व्यवहार धर्म है। यह निश्चय धर्म का कारण है।
(२) निश्चय धर्म (Absolute or Ideal Dharma)-परिणामों (भावों) की निर्मलता, समता या वीतरागता निश्चय धर्म है। निश्चय धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है, उसकी सुख-शांति से है, वह कषाय मुक्ति स्वरूप है। जितनी मात्रा में कषाय मुक्ति होगी, उतनी मात्रा में समता भाव होकर आत्मिक सुख-शांति भी अवश्य मिलेगी। यह निश्चय धर्म है। व्यवहार धर्म पालने से निश्चय धर्म की प्राप्ति होती है और निश्चय-धर्म मोक्ष का कारण है।