कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रंथ में स्वामी कार्तिकेय ने धर्म को अनेक रूपों में परिभाषित किया है। मनुस्मृति एवं जैन परम्परा के सर्वप्रथम संस्कृत भाषामय सूत्रात्मक ग्रंथ तत्वार्थसूत्र में धर्म के दश लक्षण बताये गये हैं। इन सभी परिभाषाओं एवं लक्षणों में उपासना पद्धतियों या कर्मकाण्ड को कोई स्थान नहीं दिया गया अपितु इसके सर्वकालिक, सार्वभौमिक स्वरूप को ही बताया गया। धर्म के इसी स्वरूप का पल्लवन भारत के १६ महाजनपदों में से एक कुरु जनपद की राजधानी हस्तिनापुर में अनेक सहस्राब्दियों से हो रहा है। यद्यपि यह सत्य है कि हस्तिनापुर के मामले में इहितास की दृष्टि केवल ५००० वर्षों तक ही जाती है किन्तु पौराणिक आख्यानों से यह जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) के काल तक जा सकती है। तीर्थंकर आदिनाथ के जीवन एवं उस काल के भारत के सामाजिक, आर्थिक एवं राजैनैतिक जीवन तथा भूगोल का वर्णन करने वाले आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण एवं अन्य जैन एवं सनातन पुराणों में वर्णित १६ महाजनपदों में से एक कुरु जनपद का उल्लेख है। जिसकी राजधानी हस्तिनापुर, हस्तिनागपुर, गजपुर या नागपुर रही है। यह सभी पर्यायवाची शब्द एक ही नगर के नाम हैं। यही ऐतिहासिक हस्तिनापुर नगर सम्प्रति मेरठ में ३५ कि.मी. एवं राजधानी दिल्ली से १०० कि.मी. उत्तर की ओर बूढ़ी गंगा के तट पर अवस्थ्ति है। २९०३’ उत्तरी अंक्षाश एवं ७८०१’ पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित वर्तमान मेरठ जनपद एवं उसके ग्रामीण अंचल की ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर को जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों परम्पराओं में प्रमुख स्थान मिला है।
महाभारत काल में विशेष चर्चित रही इसी नगरी में जहाँ अनेक पुरावशेष आज भी मौजूद हैं वही इससे जुड़ी अनेक धार्मिक परम्परायें आज भी अतीत का स्मरण कराती हैं। सम्पूर्ण हिन्दू संस्कृति में समान रूप में मान्य आखा तीज पर्व मूलत: अक्षय तृतीया है जिसकी जड़े हस्तिपापुर से जुड़ी हैं। १ वर्ष के उपवास के बाद इसी हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस के घर बैसाख शुक्ल तृतीया को ऋषभदेव का आहार हुआ था। इस क्षेत्र में आज भी प्रचुरता से मिलने वाले इक्षुरस का आहार देकर राजा श्रेयांस ने दान तीर्थ का प्रवतर््न किया था तब से यह तिथि, बैसाख सुदी तीज, सम्पूर्ण देश में अक्षय तृतीया/आखातीज के नाम से प्रसिद्ध हो गयी। आज भी हजारों जैन धर्मावलम्बी अक्षय तृतीया के दिन हस्तिापुर आकर भगवान आदिनाथ की पूजन के साथ ही इक्षुरस का दान कर स्वयं को धन्य महसूस करते हैं।
रक्षाबन्ध का पर्व भी हस्तिनापुर से सम्बद्ध है। इस सन्दर्भ में जैन परम्परा में पूरा कथानक उपलब्ध है। यद्यपि यह सत्य है कि स्वतंत्रता के बाद से ही भारत के राजनेताओं का ध्यान इस महान ऐतिहासिक धार्मिक नगरी के पुरावशेषों के संरक्षण, उत्खनन एवं विकास की ओर आकृष्ट हुआ, कतिपय प्रयास भी किये गये किन्तु व्यवस्थित विकास विशेषत: धार्मिक पर्यटन के विकास एवं नवनिर्माणों की शृंखला का सूत्रपात परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के १९७४ में हस्तिनापुर आगमन से हुआ। उनके आगमन से न केवल जम्बूद्वीप रचना का निर्माण हुआ अपितु एक पूरे परिसर का भी नवनिर्माण हुआ। वर्तमान में यहाँ बहुजनोपयोगी निर्माणों का एक संकुल, जम्बूद्वीप, विकसित हो गया है, जहाँ धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक गतिविधियों की शृंखगलायें चलती रहती हैं। इसी के अनुक्रम में प्राचीन मन्दिर, श्वेताम्बर जैन मंदिर आदि में भी अनेक निर्माण एवं विकास कार्य सम्पन्न हो रहे हैं जिनका सम्यक विवरण प्रस्तुत शोध पत्र में प्रस्तुत किया गय। जम्बूद्वीप रचना को समाहित करने वाले ‘जम्बूद्वीप’ परिसर को तो उ. प्र. शासन ने Man Made Heaven की संज्ञा दी है। यहाँ की गतिविधियाँ राष्ट्रव्यापी हैं एवं समकालीन धार्मिक गतिविधियों में इनकी महती भूमिका है अत: यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि हस्तिनापुर अतीत से वर्तमान तक धर्म की धुरी बना हुआ है।
धर्म :
धम्मो वत्थु सहावो खमादिभावोय दसविहो धम्मो।
रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो।।
स्वामी कार्तिकेय (३ सरी श. ई.) ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रंथ में धर्म का विश्लेषण करने वाली उक्त गाथा दी है। जिसका अर्थ वस्तु अर्थात् आत्मा का स्वभाव धर्म है, क्षमादि दस भाव धर्म हैं, (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को मिलाकर बनने वाला) रत्नत्रय धर्म है तथा जीवों की रक्षा धर्म है। मनुस्मृति में भी कहा गया है कि—
शमोदमस्तप: शौच शान्त्यिार्जवमेव च।
ज्ञान विज्ञान मास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।
अर्थात् शम (कषाय का उपशम), दम (इन्द्रियों का दमन अर्थात् संयम), तप, शौच (निर्लोभता), शांति (क्षमाभाव), आर्जव, ज्ञान (विवेक), विज्ञान (सच्चरित्र), आस्तिक्य (पुण्य, पाप और परमात्मा के अस्तित्व की स्वीकृति) और ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मचर्य ये स्वभाव से उत्पन्न होने वाले धर्म हैं। आश्चर्यजनक रूप से धर्म के यही दस लक्षण भिन्न नामों से जैन परंपरा में भी मिलते हैं। दूसरी शताब्दी में रचे गये संस्कृत भाषा निबद्ध जैन परम्परा के सूत्र ग्रंथ तत्त्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वामी लिखते हैं।उत्तम क्षमा मार्दवार्जव शौच सत्य संयम तपत्यागाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि धर्म:। कहने का आशय यह है कि धर्म में उपासना पद्धति अथवा क्रिया काण्ड का कोई स्थान नहीं है। व्यक्ति विशेष की आराधना भी धर्म नहीं है। जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी, पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने शोभित वि. वि. के शोध केन्द्र गणिनी ज्ञानमती शोधपीठ, हस्तिनापुर में १५ फरवरी २००९ को कहा था ‘उत्तम सुखे धरति इति धर्म:’ अर्थात् जो उत्तम (श्रेष्ठ/शाश्वत) सुख में पहुँचाये वही धर्म है। इसी सार्वभौमिक धर्म के विकास में कुरु जनपद की राजधानी हस्तिनापुर की पावन धरा का योगदान महत्वपूर्ण है। इस संदर्भ में श्री विध्नेश त्यागी की पुस्तक मेरठ के पाँच हजार वर्ष ४ का उल्लेख करना चाहूँगा, जिसमें बहुत श्रमपूर्वक मेरठ जनपद एवं इस सम्पूर्ण अंचल के इतिहास को बहुत पीछे तक ले जाया गया है।
वैदिक वांगमय में कुरु जनपद एवं हस्तिनापुर :
कुरु जनपद के इतिहास के साथ ही साथ भारतीय धर्म, दर्शन, चिन्तन, मनन और विचारों के विकास की सुदृढ़ परम्पराएँ जुड़ी हुई है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति के अंग—प्रत्यंग पर इसका प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है। प्रागैतिहासिक युग में जिस इतिहास का निर्माण हुआ उसकी स्मृति आज भी भारतीय जनमानस में सजीव है। महाभारत का युद्ध सम्पूर्ण भारतवर्ष के इतिहास की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना है।
यद्यपि महाभारत युद्ध के काल— निर्धारण के विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं, तथापि इसकी सत्यता असंदिग्ध रूप से सभी ने स्वीकार की है। भारतीय शास्त्र—परम्परा के अनुसार यह महायुद्ध ईसा से लगभग ३१०२ वर्ष पूर्व हुआ था। इस महाभारत से अभिन्न रूप से जुड़ा है कुरु जनपद। ‘कुरु’ शब्द प्राचीन भारतीय साहित्य में एक चिर—परिचित शब्द है। संसार में सबसे पुराना ग्रंथ ऋग्वेद माना जाता है, उसमें यह शब्द निम्न प्रकार उल्लिखित है—कुरु शृवणमावृणि राजानं त्रासदस्यवम्। महिष्ठं वाधतामृथि।ऋग्वेद के अतिरिक्त अथर्ववेद में भी ‘कुरु’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। यथा—
कुलायन कृण्वन कौरव्य पतिरवदति जायया।
वैदिक साहित्य से लेकर यह परम्परा आगे के काल तक स्पष्ट रूप से चलती है। महाकाव्य—काल में भी इस शब्द और उसके स्वरूप को महत्व प्राप्त था। बाल्मीकि रामायण में ‘कुरु जांगल’ का उल्लेख मिलता है। यही नहीं, वरन् इसके साथ—साथ ‘पांचाल’ का भी उल्लेख है। ऐसा लगता है कि महाकाव्यकाल से ही उपर्युक्त दोनों राजनैतिक इकाइयों में पारस्परिक निकटता विद्यमान रही होगी। इस काल से लेकर पुराणों के युग तक ये दोनों शब्द साथ—साथ कई बार प्रयुक्त हुए हैं। इतना ही नहीं, वरन् ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद् आदि ग्रंथों में भी कुरु का उल्लेख विभिन्न स्थलों पर प्राप्त होता है। इस शब्द की सर्वाधिक आवृत्ति एवं उससे सबंधित विविध पक्षों की विस्तृत जानकारी महाभारत से प्राप्त होती है। महाभारत के अनेक श्लोकों तथा संस्कृत के अन्य प्राचीन ग्रंथों से हमें यह जानकारी मिलती है कि कुरु, कुरुक्षेत्र और कुरुजांगल, इस अति समृद्ध राज्य के तीन प्रमुख भाग थे। हस्तिनापुर कुरु जनपद का राज्यकेन्द्र था। बाल्मीकि रामायण के उल्लेख के अनुसार अयोध्या से वैकय देश (कश्मीर) की यात्रा में इस कुरु जनपद के राज्य केन्द्र हस्तिनापुर में गंगा नदी को पार करके दूत मालिनी नदी की ओर बढ़ जाते थे। संस्कृत साहित्य में हस्तिनापुर के तीन नाम हस्तिनापुर, गजपुर एवं नागपुर भी प्राप्त होते हैं। अग्निपुराण में उल्लेख प्राप्त होता है।
ऋषभो मरूदेव्यां च ऋषभाद् भरतोऽभवत्।
ऋषभोऽदात् श्री पुत्रे शाल्य ग्रामे हरि गत:।।
भरताद् भारतवर्ष भरतात् सुमतिस्त्वभूत।अर्थात् इस हिमवत् प्रदेश में जरा और मृत्यु का भय नहीं था, धर्म और अधर्म भी नहीं थे। उनमें समभाव था। वहाँ नाभिराज से मरुदेवी के ऋषभ का जन्म हुआ। ऋषभ से भरत हुए। ऋषभ ने राज्यश्री भरत को प्रदान कर सन्यास ले लिया। भरत से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। भरत के पुत्र का नाम सुमति था।
जैन परम्परा में भारत, कुरु जनपद एवं हस्तिनापुर
इतिहास की दृष्टि जब ओझल होती है तब पुराणों की आँखें हमें कुछ दृष्टि प्रदान करती हैं। इस दृष्टि से ९वीं शताब्दी के आचार्य जिनसेन ने पारंपरिक श्रुतज्ञान एवं तत्कालीन उपलब्ध साहित्य के आधार पर जिस आदिपुराण का सृजन किया है, उसमें जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) के जीवन और उस काल में वृहत्तर भारत की सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक स्थिति का विवेचन मिलता है। आदिपुराण में भारत वर्ष का निम्न प्रकार उल्लेख मिलता है।
अर्थात्तन्नाम्ना भारतं वर्शमिति हासीज्जनास्पदम्।
हिमाद्रेरासामुद्राच्च क्षेत्रं चक्रभृ तामिदम्।।
अर्थात् इहितास के जानने वालों का कहना है कि जहाँ अनेक आर्य पुरुष रहते हैं ऐसे इस हिमवान पर्वत से लेकर समुद्र पर्यन्त का चक्रवर्तियो का क्षेत्र भरत के नाम के कारण भारतवर्ष रूप में प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रकार के उल्लेख पदमपुराण, हरिवंशपुराण में भी मिलते हैं। तीर्थक्षेत्र हमारी धार्मिक आस्था, परम्परा, संस्कृति के ज्वलंत प्रतीक हैं तथा ऐसे पवित्र क्षेत्र है जहाँ हमारी आत्मा को असीम आनन्द की प्राप्ति होती है व आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। जैन परम्परानुसार तीर्थ वह स्थान विशेष है जहाँ साधक (एक या अधिक) साधना करते हुये आत्म सिद्ध हुए हों या तीर्थंकरों के कल्याणक स्थलों के रूप में पवित्र हुए हों। कल्याणक क्षेत्र वे क्षेत्र होते हैं जहाँ भगवान के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान या मोक्ष कल्याणक होते हैं। श्रमण संस्कृति की अमर परम्परा के प्रतीक हमारे वंदनीय जैन तीर्थ क्षेत्र हैं, जो त्याग व तपस्या का मार्ग तो बताते ही हैं साथ ही हमें उनके पुरातात्विक इतिहास का भी ज्ञान कराते हैं। उत्तर प्रदेश की जैन र्धािमक एवं सांस्कृतिक नगरियों में ऋषभ जन्मभूमि अयोध्या तथा पावन तीर्थ हस्तिनापुर का गौरवशाली स्थान है। महाभारत में कुरु प्रदेश की राजधानी हस्तिनापुर में ही इस युग के आदि में प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव जी का विहार हुआ था और उन्होंने यहीं पर प्रथम बार आहार स्वरूप इक्षुरस ग्रहण किया था। इनके उपरांत भगवान शांतिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ तीन तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप व केवलज्ञान रूप चार—चार कल्याणक इसी पवित्र धरा पर सम्पन्न हुए थे। यहाँ पर समय—समय पर अनेक तीर्थंकरों का समवसरण भी आया था। इस कारण हस्तिनापुर जैन परम्परा का पूज्यनीय तीर्थ हैं। जैन परम्परा में हस्तिनापुर का प्राचीनतम सन्दर्भ आदिपुराण में मिलता है, जिसके अनुसार भगवान ऋषभदेव से ८ भव पूर्व हस्तिनापुर का अस्तित्व था। पूरा विवरण निम्नवत् है।
हस्तिनाख्यापुरे ख्याते वैश्यात सागरदत्त:।
धनवत्यमभूत सुनरुग्रसेन समाह्वय।।
हे राजन! यह सिंह पूर्वभव में इसी देश के प्रसिद्ध हस्तिनापुर नामक नगर में सागरदत्त वैश्य एवं उसकी धनवती नामक स्त्री से अग्रसेन नामक पुत्र था। यह बात आकाश में गमन करने वाले श्री दमधर नामक मुनिराज ने सागरसेन मुनिराज से कही जो वङ्कासंघ के पडाव में पधारे। इसी सर्ग में आगे बताया गया कि वङ्कासंघ का जीव ८वें भव में ऋषभनाथ तीर्थंकर बनेगा।। श्वेताम्बर जैन ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार ऋषभ के १०० पुत्रों में इक्कीसवें पुत्र का नाम कुरु था, जिनके नाम पर कुरू नामक राष्ट्र प्रसिद्ध हुआ किन्तु दिगम्बर जैनाचार्य जिनसेन प्रणीत आदिनाथ पुराण के अनुसार ऋषभदेव ने सुशासन व्यवस्था हेतु नगर, वन और सीमा सहित गाँव तथा खेड़ों की रचना (संभवत: पूर्व का हस्तिनापुर इस काल तक नष्ट हो गया होगा) की और सम्पूर्ण भारत देश को ५२ जनपदों में विभाजित कर अपने पुत्रों को वहाँ का राजा बनाया।
इन्हीं जनपदों में एक जनपद था— कुरुजांगल। इस देश के बायीं ओर अनेक कोसों का मैदान था जिसे कुरु कहते थे। यह देश मिष्ट, मनोरम जल से युक्त सरोवर, धन धान्य से परिपूर्ण था। यह शिखर युक्त जिन मंदिरों से अति शोभायमान था तथा गजराजों का बाहुल्य था और इस के राजा थे सोमप्रभ। इनकी दूसरी संज्ञा कुरु होने से यह भू—भाग कुरुदेश कहलाया। श्वे. ग्रंथ विविध तीर्थकल्प में बताया है कि आदि तीर्थंकर के सौ पुत्रों में भरत और बाहुबली प्रधान थे। शेष ९८ भाई भरत के ही थे। जब भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा धारण की तो उन्होंने अयोध्या का राज भरत को किया और बाहुबली को तक्षशिला का। शेष पुत्रों को यथा योग्य राज्य प्रदान किये गये। अंगकुमार ने जिस देश का राज्य प्राप्त किया, वह अंग देश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुरु नामक पुत्र के नाम से कुरुक्षेत्र। कुरु का पुत्र हस्ति नामक राजा हुआ जिसने हस्तिनापुर बसाया।१३ यह समस्त प्रकार की शोभा का स्थान था और इसके अधिपति थे राजा श्रेयांस जो सोमप्रभ के भ्राता थे। सोमप्रभ की रानी लक्ष्मीमती और इसके ज्येष्ठ पुत्र का नाम जय था। यह है भारत वर्ष में हस्तिनापर, ब्रह्मस्थल, शान्तिनगर, वुंâजरपुर यह सभी नाम भी हस्तिनापुर में हुए परिवर्तन की गाथा अपने में समेटे हुए हैं। हस्तिनापुर को हम यदि तीर्थों का राजा भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होती। जैन पुराणों में हस्तिनापुर से सम्बद्ध अनेक प्रसंग मिलते हैं।
१. अक्षय तृतीया की कथा— ६ माह के योग निरोध के बाद महामुनि ऋषभदेव ने जब आहार के लिये विहार किया तब आहार एवं पड़गाहन विध ज्ञात न होने के कारण योग नहीं बन पा रहा था। राजा श्रेयांस को पूर्वभव के जाति स्मरण से यह विधि ज्ञात हुई तो उन्होंने विधिपूर्वक पड़गाहन कर भगवान को इक्षु रस का आहार इसी हस्तिनापुर नगरी में बैसाख शुक्ला तृतीया को दिया। तब से राजा श्रेयांस दान तीर्थ प्रवर्तक एवं यह तिथि अक्षय तृतीया बन गई क्योंकि राजा श्रेयांस की रसोई में उस दिन भोजन का भंडार अक्षय हो गया। सम्पूर्ण नगर के नर नारियों के भोजन करने के बाद भी वह अक्षय बना रहा।।
२. रक्षा बंधन की कथा— प्राचीनकाल में एक समय हस्तिनापुर में चक्रवर्ती महापद्म के पुत्र राजा पद्म का शासन था। उसी समय अकम्पनाचार्य आदि ७०० मुनि हस्तिनापुर नगर के बाहर आकर रुके। पूर्व बैर के कारण अपमान का बदला लेने हेतु राजा बालि ने राजा पद्म से वरदान रूप ७ दिन का राज्य ले लिया एवं यज्ञ के बहाने मुनियों के प्रवास स्थल के चारों ओर अग्नि जलाकर घोर उपसर्ग शुरु किया। मिथिला नगरी में वर्षायोगरत मुनि श्री श्रुतसागर द्वारा भेजे गये क्षुल्लक श्री पुष्पदंत के माध्यम से उज्जयिनी में विराजमान मुनि श्री विष्णुकुमार को जब यह संदेश मिला तो तीव्र वात्सल्य के वशीभूत आपने वर्षायोग में ही विहार कर विक्रिया ऋद्धि से वामन का रूप धारण कर राजा बालि से ३ पग जमीन मांगकर बाली को क्षमायाचना हेतु विवश किया। आपने अपने गृहस्थावस्था के भाई पद्म को डाँटते हुए मुनियों पर हो रहे उपसर्ग को दूर किया तथा पुन: मुनि दीक्षा धारण कर धर्म मार्ग पर प्रवृत्त हुए। मुनिरक्षा के प्रतीक रूप रक्षा बंधन पर्व जैन परम्परा में मनाया जाता है।
३. दर्शन प्रतिज्ञा को निभाने वाली मनोवती की कथा— गजमोती चढ़ाकर भगवान जिनेन्द्रदेव का दर्शन करके ही अन्न ग्रहण करने की प्रतिज्ञा मनोवती की थी। इस व्रत को निभाने के कारण मनोवती एवं उनके पति बुधसेन का तो भाग्योदय हो गया किन्तु दर्शन प्रतिज्ञा का विरोध करने वालों का पराभव। मनोवती इसी हस्तिनापुर से सम्बद्ध थी।
४. रोहिणी व्रत की कथा— जैन परम्परा में बहुत प्रचलित रोहणी व्रत की कथा जो जैन व्रत कथा संग्रह एवं आराधना कथा कोष में संकलित है, इसी हस्तिनापुर से सम्बद्ध है। स्वयंवर प्रथा का सूत्रपात करने वाले जयकुमार राजा सोमप्रभ के पुत्र थे। भरत के इस सेनापति का संबंध हस्तिनापुर से ही है। सम्राट सनतकुमार एवं सुभौम चक्रवर्ती भी हस्तिनापुर से सम्बद्ध हैं। हस्तिनापुराख्यान में रामजीत जैन ने दर्जनों पौराणिक सन्दर्भों को संकलित कर सिद्ध किया है कि ऋषभदेव से पूर्व भी यह क्षेत्र था एवं २४ तीर्थंकरों में से भी अनेक तीर्थंकरों के धर्मसंघ में हस्तिनापुर/कुरु जनपद के व्यक्ति मौजूद रहे। इन सभी से हस्तिनापुर का नाम जुड़ा है। जम्बूद्वीप के पीठाधीश क्षुल्लकरत्न श्री मोतीसागर जी भी प्रथमानुयोग से जुड़े अनेकों प्रसंग प्राय: अपने प्रवचनों में बताते हैं।
बौद्ध ग्रंथों में हस्तिनापुर
ब्राह्मण तथा जैन ग्रंथों के अतिरिक्त बौद्ध ग्रंथों में भी कुरु देश तथा उसकी राजधानी हस्तिनापुर के उल्लेख बड़ी महत्ता के साथ मिलते हैं। अंगुत्तर निकाय में ‘सोलह’ महाजनपदों की सूची में कुरु जनपद का नाम आता है जिससे बुद्ध एवं उनके पूर्ववर्ती समय तक इसकी महत्ता का प्रमाण मिलता है। जातक ग्रंथों में कुरु जनपद का विस्तार ३०० कोस बताया गया है। पपंचसूदनी के अनुसार जम्बूद्वीप के चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता के राज्यकाल में उत्तर—कुरु के निवासी इस भूभाग में आकर बसे थे, अत: इस क्षेत्र का नाम उन्हीं के नाम पर ‘कुरुट्टम’ पड़ा।२० एक अन्य प्रसिद्ध बौद्धग्रंथ में कुरुट्टम की राजधानी के रूप में ‘हत्थिपुर’ अर्थात् हस्तिनापुर का उल्लेख है जिसका पूर्वनाम ‘आसन्दीवत’२१ बताया गया है। कुरुटटम की राजधानी हस्तिनापुर का उल्लेख एक समृद्ध एवं वैभवशाली नगर के रूप में मिलता है। अधिकांश बौद्ध ग्रंथों में हस्तिनापुर को कौरवों की राजधानी कहकर उल्लिखित किया गया है। जबकि जातक ग्रंथों में ‘इन्द्रप्रस्थ’ को कुरु देश की राजधानी बताया है। ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि महात्मा बुद्ध ने भी हस्तिनापुर की यात्रा की थी।
हस्तिनापुर का प्रतिष्ठापूर्वक उल्लेख न केवल प्राचीन भारतीय साहित्य में ही मिलता है वरन् प्राचीन विदेशी साहित्य में भी इसकी प्रतिष्ठा के संकेत उपलब्ध हैं। आज से लगभग २००० वर्ष पूर्व यूनान के टालमी नामक सुप्रसिद्ध भूगोलवेत्ता ने भी बास्टिनोरा (हास्टिनोरा) कहकर हस्तिनापुर का उल्लेख किया है।वस्तुत: आधुनिक काल में इस नगर के इतिहास को प्रकाश में लाने का श्रेय रॉयल एशियाटिक सोसायटी के संस्थापक सर विलियम जोन्स और उनके सहयोगियों को जाता है। इनमें सर्वप्रथम बिलफोर्ड ने अपने शोधपत्र ‘अनुगंगम’ में इसके इतिहास पर प्रकाश डालते हुए लिखा है। ‘उस प्राचीन विशाल महानगर का जो कुछ अवशेष बचा है, वह मात्र एक छोटा—सा धर्मायतन है : शेष समस्त विस्तृत भूभाग बड़े—बड़े टीलों से घिरा हुआ है।’’ हेमिल्टन तथा रिट्टर जैसे विद्वानों ने भी प्राचीन हस्तिनापुर के ऐतिहासिक महत्व को निर्विवाद रूप से न केवल स्वीकार ही किया अपितु उसे लिपिबद्ध करने के प्रयास भी किये। विगत शताब्दी के महान् पुरावेत्ता किंनघम ने हस्तिनापुर की यात्रा की तथा ए. फूहरर ने भी उसका भ्रमण किया।
स्वतंत्रता के बाद ६ फरवरी १९५२ को भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने हस्तिनापुर में जंगलों की सफाई, बिजली, पानी की व्यवस्था करके एक भूभाग को आबाद किया। मन्दिरों से २ किमी. पर स्थित यह क्षेत्र वर्तमान में हस्तिनापुर टाउन के नाम से प्रसिद्ध है। सन् १९५२ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से श्री ब्रजवासी लाल के निर्देशन में हस्तिनापुर में विधिवत उत्खनन कराया गया। इसके फलस्वरूप वहाँ ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक काल के कई अति महत्वपूर्ण साक्ष्य मिलें।
हस्तिनापुर में परवर्ती ताम्रयुगीन संस्कृति, चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति व उत्तरी कृष्ण आपेयुक्त मद्भाण्ड संस्कृति के अतिरिक्त प्राक्मौर्य व मौर्य शुंगकालीन अवशेषों का भी पता चला । वहाँ यह उत्खनन वर्तमान में ‘उल्टाखेड़ा’ नामक विशाल व ऊँचे टीले पर कराया गया था वहाँ यह उत्खनन वर्तमान में उल्टाखेडा नामक विशाल व ऊँचे टीले पर कराया गया था जिसे ‘विदुर का टीला’ भी कहते हैं। स्थानीय जनश्रुति के अनुसार यह टीला महाभारत काल में कौरवों-पाण्डवों के चाचा विदुर का आवास स्थल रहा था।२७ वर्तमान हस्तिनापुर उत्तर प्रदेश के मेरठ जनपद का एक महत्वपूर्ण ग्रामीण आंचलिक क्षेत्र है जो २९० ३’ उत्तरी अक्षांश और ७८० २’ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। यहाँ दूर तक फेले-ऊँचे-ऊँचे टीलों और भग्नावशेषों की एक लम्बी श्रृंखला सहज ही देखी जा सकती है जिसे स्पर्श करती हुई गंगा की पुरानी धारा ‘बूढ़ी गंगा’ आज भी मन्थर गति से प्रवाहमान है। हस्तिनापुर के टीले अपने गर्भ में भारतीय इतिहास के अमूल्य साक्ष्य सँजोये खड़े हैं। प्राचीनकाल में गंगा की मुख्य धारा हस्तिनापुर नगर से सटकर बहा करती थी किन्तु अब यहाँु से कई मील उत्तर में खिसक गई है। मेरठ जिला मुख्यालय से हस्तिनापुर ३५ कि.मी. (उत्तर-पूर्व ) तथा भारत की राजधानी दिल्ली से इसी दिशा में लगभग १०० कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ पर एक प्राचीन शिव मंदिर हे जिसे पाण्डेश्वर महादेव कहा जाता है। लेखक ने स्वयं इस मंदिर के दर्शन किये हैं। पुजारियों ने बताया कि इसकी स्थापना पाण्डवों ने की थी। यहाँ हस्तिनापुर नगर और महाभारत युद्ध से जुड़ी अतीत की स्मृतियाँ आज भी भारतीय जनमानस में सजीव हैं।
उन्नीसवीं एवं बींसवी शताब्दी में हस्तिनापुर का विकास
अत्यन्त प्राचीन काल से ही अनेक मन्दिरों एवं स्तूपों के कारण हस्तिनापुर सदैव वन्दनीय रहा। महाकवि बनारसीदास ने सं. १६०० में इसकी सपरिवार यात्रा की थी किन्तु मन्दिर एवं नसियों की हालत बहुत जीर्ण हो जानें के कारण ई. सन् १८०१ में ज्येष्ठ बदी १३ मेले में दिल्ली निवासी राजा हरसुखराय जी, जो मुगल बादशाह शाह आलम के खजांची थे, ने मन्दिर निर्माण के लिये स्वीकृति दी। इसके बाद राजा हरसुख राय के धन से लाला जयकुमार मल की देखरेख में ५ वर्षों में एक टीले, जो पाश्र्वनाथ टीला कहलाता था, पर शिखरा बंद मन्दिर का निर्माण कराया गया। १८०६ ई. में कलशारोहण एवं वेदी प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। उस समय इस मन्दिर में भगवान पाश्र्वनाथ की बिना फण वाली प्रतिमा विराजमान कराई गई।१८४० ई. में लाला जयकुमारमल ने विशाल सिंहद्वार बनवाया। राजा हरसुख राय के पुत्र राजा सगुन चंद ने मन्दिर में काफी काम करवाया किन्तु १८५७ ई. के गदर में गूजर (गूर्जर) समाज के लोगों ने मंदिर को लिया। लूट में वे भगवान पाश्र्वनाथ की मूर्ति भी ले गये। बाद में भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा सन् सं. १२३१ में प्रतिष्ठित भगवान शांतिनाथ की मूर्ति विराजमान की गई। तब से यह मंदिर भगवान शांतिनाथ जिनालय ही कहलाता है।२८ वर्तमान में यह मंदिर हस्तिनापुर के जैन मन्दिरों में सबसे प्राचीन है एवं बड़ा मंदिर नाम से प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त २-३ कि.मी. की दूरी पर चार प्राचीन चरण चिन्ह भी विराजमान हैं जिन्हें भक्तगण निशीजी या नसिया जी कहते हैं। ये तीर्थंकरों के चरण चिन्ह हैं। आचार्य शांतिसागर जी (१९३० ई.) आचार्य नमिसागर जी (१९७४ ई.) ने भी इस क्षेत्र की वंदना की हैं। बडे मन्दिर के सामने ही श् वेताम्बर जैन मंदिर बना है । अक्षय तृतीय पर यहाँ वर्षी तप का पारणा होता है। इस अवसर पर पूरे देश से भक्त गण आते हैं। यह मंदिर छोटा मंदिर कहलाता है। स्वाधीनता के बाद १९५८ में बड़े मंदिर पर प्रथम पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ।
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज, क्षु. गणेशप्रसादजीवर्णी, बाबा लालमन दास का इस क्षेत्र में विहार १९५५ में मानस्तंभ का निर्माण लाला उग्रसेन शीतल प्रसाद जैन मेरठ द्वारा कराया गया। मुमुक्षु आश्रम की भी स्थापना की गई। किन्तु इस क्षेत्र पर विकास की गंगा का सतत प्रवाह जैन समाज की वरिष्ठतम साध्वी, परम पूज्य, गर्णिनीप्रमुख, आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के १९७४ में हस्तिनापुर में पदार्पण से हुआ। १९७२ में दिल्ली में गठित दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान के नेतृत्व में भारत की दि.जैन समाज द्वारा प्राचीन क्षेत्र के आगे लगभग ५०० मीटर की दूरी पर मंदिर एवं अकादमिक संस्थानों का परिसर विकसित किया गया है। जिसको जम्बूद्वीप क्षेत्र की संज्ञा दी जाती है। जम्बूद्वीप का निर्माण मानों इस क्षेत्र के लिए वरदान हो गया। इस संस्था के विकास कार्यों ने उत्प्रेरक का कार्य किया तथा सम्पूर्ण तीर्थ में विकास की धारा बह निकली। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों की पुरानी कमेटियों ने अपने-अपने मन्दिरों के चतुर्दिक एवं आन्तरिक परिसर में इतने विकास कार्य किये कि पूरे क्षेत्र का ही कायाकल्प हो गया है किन्तु जम्बूद्वीप परिसर की परिकल्पना, संयोजना, गुणवत्ता, रखरखाव सभी अनुपम है। जैन आगमों विशेषत: करणानुयोग के ग्रंथों में उपलब्ध विवेचनों को आधार बनाकर निर्मित की गई जम्बूद्वीप रचना विश्व में अद्वितीय है। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों परंपराओं के जम्बूद्वीप विषयक विवेचनों में बहुत साम्य है १२५० फीट व्यास के वृत्ताकार घेरे के मध्य में गुलाबी संगमरमर से निर्मित सुमेरु पर्वत की ऊँचाई ८४ फीट है। इसके चतुर्दिक जम्बूद्वीप रचना में विविध क्षेत्रों, पर्वतों, जिनालयों एवं देवप्रासादों की आकर्षक रचना है। जम्बूद्वीप को वेष्ठित करने वाले वलयाकार लवणसमुद्र आकर्षक विद्युत सज्जा, नदियों में होने वाला सतत जलप्रवाह, अकृतिम वृक्ष, जलचरो की उपस्थिति इतनी मोहक बन गई कि इस क्षेत्र पर १२ से अधिक अन्य जिन मंदिरों, पुस्तकालय, शोधपीठ, कलावीथिका, अतिथिनिवास, भोजनशाला, कार्यालय, उद्यान, झांकियाँ, आमोद-प्रमोद के साधन रेल, झूले, नौकाविहार आदि भी मौजूद होने के बाद भी इसका नाम ही जम्बूद्वीप पड़ गया है।
उ.प्र. पर्यटन ने तो इसे Men Made Heaven की संज्ञा प्रदान की है।२९ इस जम्बूद्वीप क्षेत्र पर बने ३ विशाल भव्य जिनालय निम्नवत् हैं :-
१. कमल मंदिर (भ. महावीर जिनालय)
२. ध्यान मंदिर (ह्रीं मंदिर)
३. स्वर्णिम तेरह द्वीप रचना (मध्यलोक के तेरहद्वीप के समस्त जिनालयों सहित) इसके अतिरिक्त गत ३ दशकों में निम्नांकित विकास कार्य/मंदिरों के निर्माण हुए हैं।
४. तीनमूर्ति मंदिर
५. भगवान वासुपूज्य मंदिर
६. सहस्त्रकूट जिनालय
७. अष्टापद जिनमंदिर
८. ॐ मंदिर
९. विद्यमान बीसतीर्थंकर जिनालय
१०. भगवान आदिनाथ जिनालय
११. भगवान शांतिनाथ जिनालय
१२. नवग्रह मंदिर (जिनालय)
१३. ऋषभदेव कीर्तिस्तम्भ
१४. कल्पवृक्ष द्वार सम्प्रति भगवान शांतिनाथ, भगवान कुन्थुनाथ एवं भगवान अरहनाथ की ३१ फीट उत्तुंग ग्रेनाइट की प्रतिमायें क्षेत्र पर बन चुकी हैं एवं १४-१९ फरवरी २००९ के मध्य उनकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा तथा १९-२१ के मध्य तीर्थंकर त्रय का महामस्तकाभिषेक होने जा रहा हे।
यहाँ तीन लोक का एक भव्य, विशाल एवं ज्ञानवद्र्धक मन्दिर भी लगभग तैयार है। क्षेत्र पर संतों के आवास,यात्री सुविधाओं के विकास एवं बाल गोपालों के मनोरंजन/ज्ञानवर्धन हेतु निम्नांकित सुविधाओं का भी विकास किया गया है।
१. रत्नत्रय निलय
२. पीठाधीश भवन
३. सर्वतोभद्र महल-अयोध्या
४. अखण्ड ज्ञान ज्योति
५. राजा श्रेयांस भोजनालय
६. जलपरी
७. सचल झाकियाँ
८. जम्बूद्वीप रेल (शैक्षणिक कला वीथिका)
९. जम्बूद्वीप उद्यान
१०.धर्मशालायें/अतिथिगृह/फ्लैट्स/ कोठी आदि
संस्थान की प्रेरिका गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रशस्त प्रेरणा एवं संस्थान के प्रबंधकों की सतत् अभिरूचि के कारण यहाँ प्रारम्भ से ही अकादमिक गतिविधियाँ संचालित हो रही हैं जो निम्नवत् हैं :-
१. वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला- इसके अन्तर्गत २५० ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है।
२. जम्बूद्वीप पुस्कालय- इसमें १५००० पुस्तके एवं ५०० पाण्डुलिपियों का दुर्लभ संग्रह है।
३. सम्यग्ज्ञान का प्रकाशन- १९७४ से सतत् प्रकाशित
४. गणिनी ज्ञानमती शोधपीठ- इसकी स्थापना तो १९८८ में ही हो गई थी किन्तु सम्प्रति यह शोभित वि.वि., मेरठ सम्बद्ध होकर विकास के नये आयामों को स्पर्श करने हेतु अग्रसर है।
यहॉ पर शोध संगोष्ठियों एवं सेमिनार भी सतत् होते रहते हैं। कतिपय प्रमुख अकादमिक संगोष्ठियों की सूची निम्नवत् है। ये सभी जम्बूद्वीप परिसर में ही हुए हैं।
१. जम्बूद्वीप सेमिनार (११-१५ अक्टूबर १९८१)
२. जैन गणित एवं त्रिलोक विज्ञान पर अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार (२६-२८ अप्रैल १९८५)
३. अन्तर्राष्ट्रीय चारित्र निर्माण संगोष्ठिी (८-१२ अक्टूबर १९९५)
४. आर्यिका ज्ञानमती साहित्य संगोष्ठी (४-७ अक्टूबर १९९५)
५. भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन (६ से ८ अक्टूबर १९९८)
६. जैन धर्म की प्राचीनता (इतिहासकार सम्मेलन ) (११ जून २०००)
७. विश्वशांति और अहिंसा सम्मेलन (२१-२२ दिसम्बर २००८)
मात्र जम्बूद्वीप ही नहीं इस हस्तिनापुर में कार्यरत २ अन्य सामाजिक संगठनों श्री दि. जैन हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र कमेटी (बड़ा मंदिर) द्वारा भी अनेक विकास कार्य हुये है।
१. अम्बिका देवी का मन्दिर
२. भगवान पाश्र्वनाथ
३. नंदीश्वर द्वीप रचना
४. श्री नेमिनाथ मन्दिर
५. श्री अरहनाथ मन्दिर
६. श्री आदिनाथ जिनालय
७. श्री तीन मूर्ति मन्दिर
८. समवशरण मन्दिर
९. श्री कुन्थनाथ मन्दिर
१०. बाहुबली मंदिर
११. जल मन्दिर
१२. कीर्ति स्तम्भ
१३. पांडुक शिला
१४. चौबीस टोंक
१५. कैलाश पर्वत की भव्य विशालकाय रचना एवं अन्य अनेक निर्माण कार्य किये गये हैं।
यहाँ पर स्थित श्वेताम्बर जैन मन्दिर, जो आजकल छोटा मन्दिर के नाम से जाना जाता है, का निर्माण १८७० ई. में हुआ था। इस मन्दिर में १५८८ ई. की विराजित मूर्ति विराजमान हैं। इसी मन्दिर में भगवान ऋषभदेव की इक्षुरस ग्रहण करती मुनि अवस्था की मूर्ति भी विराजमान है। श्वेताम्बर जैन कमेटी द्वारा अनेक यात्री सुविधाओं का विकास करने के साथ ही अद्वितीय १५ फीट ऊँचे विशाल अष्टापद मन्दिर का भी निर्माण किया गया है। कुछ अन्य नई संस्थाओं द्वारा मंदिर संकुल के आस-पास निर्माण किये जा रहे हैं। सभी के द्वारा धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों का संरक्षण किया जा रहा है अत: कहा जा सकता है कि अतीत से वर्तमान तक हस्तिनापुर, धर्म की धुरी रही है एवं भविष्य में यहाँ से नैतिक एवं मानवीय मूल्यों का प्रचार होता रहेगा।