जैनाचार्यों ने समान्यत: धर्म उसे कहा है, जो संसारिक दु;खें से उठाकर उत्तम वीतराग सुख में पहुँये।
यथा- १. संसारदु:खत: सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे
२. इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म:
३. यस्माज्जीव नारक-तिर्यग्योनि-कुमानुष-देवत्वेषु प्रपततां धारयतीति धर्म:
जैनाचार्यों की धर्म की इन परिभाषाओं को देखकर ऐसा लगता है कि वे व्यक्ति को प्रथमत: सांसारिक दु:खा से मुक्त होकर परमात्मा-पद को प्राप्त करने का आह्वान करते हैं। बार-बार दु:ख का साक्षात्कार करने से बीमार रोग की प्रगाढ़ता ये परिचित हो जाता है, वस्तु-स्थिति को स्वयं जानने लगता है और फिर उसह आत्मा में वास करने वाले परमात्मा स्वरूप को प्राप्त करने का लक्ष्य बना लेता है। तथाकथित ईश्वररूप परमात्मा का भाव उसके मन में आता ही नहीं; है भी नहीं। इसलिए जैनधर्म को नकारात्मक और दु;खवादी नहीं माना जाना चाहिए। जैनधर्म संसार को स्वप्न और माया भी नहीं कहना चाहता। वह तो हमें उसकी यथार्थता से परिचित कराता है। इसलिए धर्म की यह परिभाषा बड़ी व्यावहारिक है और जैनधर्म भी उसी व्यवहारिक दृष्टिकोण के साथ संसारियों को दु:ख से मुक्त कराने का प्रयत्न कराने का प्रयत्न करता है। उसे वह उन दु:खों से पलायन करने की सलाह नहीं देता, बल्कि जुड़ने और संघर्ष करने की प्रेरणा देता है तथा आगाह करता है कि इन संसारिक दु:खों के मूलकारण राग और द्वेष हैं। कर्म ‘मोह’ की प्रबलता से उत्पन्न होते हैं। वह जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण के चक्कर में सुख होगा भी कहाँ ? इसलिए यदि हम यर्थाथ सुख पाना चाहते हैं, तो जन्म-मरण के भव-चक्कर से मुक्त होना आवश्यक है। उपादेय भी यही है। इस घोषणा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता उद्घोषित है। उसे स्वयं विचार करने और ध्यान करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसके ऊपर ईश्वर जैसा कोई तनाव नहीं है। वह स्वयं अपने कर्म का निर्माता और भोक्ता है। इस चिन्तन से वैराग्य का जागरण होता है, सचेतनता आती है, क्रान्ति होती है, रूपान्तरण होता है और समता का जन्म हो जाता है। समता आने से साधक के चैतन्य की दशा विरागता से भर जाती है। वह संसार में रहते हुए भी उसी प्रकार वहाँ रहता है, जिस प्रकार पोखर में खिला हुआ कमल; जो जल में रहता हुआ भी जल उसका स्पर्श भी कर पाता।
भावे विरत्तो मणिओ विसोगो, एएण दुक्खोहरपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोखरणि पलासं ।।
जैनधर्म के चिन्तन का केन्द्रीभूत तत्त्व आात्मा है। आत्मा के अतिरिक्त उसमें न संसार का मूल्य है और न परमात्मा का । वह स्वार्थ की बात करता है, स्वयं के कल्याण की, मंगल की, आत्महित की बात करने वाला ही परहित की बात सोच सकता है।
इस परिभाषा के अन्तर्गत वस्तु और व्यकित के स्वभाव की ओर संकेत किया गया है। वस्तु का असाधारण धर्म ही उसका स्वभाव है, उसके भीतरी गुण का उसका स्वरूप है। उत्पाद, व्यय और स्थिति में पदार्थ अपना स्वरूप बनाये रखता है। इसमें स्वभाव की दृष्टि से आत्मा के सवरूप पर भी विचार किया गया है, जो समतामूलक है। जैसे –
(१) धम्मो वत्थुसहावो
(२) स्वंसवेद्यो निरुपाधिको हि रूपं वस्तुत: स्वभावोऽभिधीयते
(३) मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो
(4) धर्म: श्रुत-चारित्रात्मको जीवस्यसत्मपरिणाम: कर्मक्षयकारणम्
(५) सम्यग्दर्शनाद्यात्मपरिणामलक्षणो धर्म:
संकल्प के समक्ष सत्य रहता है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती। असत्य की तो सीम रहती है। संकल्पी व्यक्ति सत्य की खोज में रहता है। परमात्मावस्था को वापिस पाने की तलाश में एकाकी बन जाता है और समत्व-योग की साधना करता है। यही समता व्यक्ति का वास्तविक धर्म है, स्वभाव है; जो पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाता है। ‘धर्म’ तथा ‘समता’ को राग-द्वेषादिक विकारी भावों की अभावात्मक स्थिति कहा जाता है। ममत्व का विसर्जन और सहिष्णुता का सर्जन उसके आवश्यक अंग हैं। मानसिक चंचलता को संयम की लगाम से वशीभूत करना तथा भौतिकता की विषादाग्नि को आध्यात्मिकता के शीतल जल से शमन करना समता की अपेक्षित तत्त्व-दृष्टि है। सहयाबेग, सद्भाव, समन्वय और संयम उसके महास्तम्भ हैं। श्रमण का यही सही रूप है इसी को आचार्य कुन्कुन्द ने इस प्रकार कहा है –
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिद्दिट्ठो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो ।। सुविदिदपयत्थ-सुत्तो संजम-तव-संजुदो विगदरागो । समणा समसुह-दुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।।
समता आत्मा का सच्चा धर्म है। इसलिए आत्मा को ‘समय’ भी कहा जाता है। ‘समय’ की गहन और विशद व्याख्या करने वाले समयसार आदि ग्रन्थ इस संदर्भ में द्रष्टव्य हैं। सामायिक जैसी क्रियायें उसके ‘फील्डवर्क’ हैं। अहिंसा उसी का एक अंग है वह तो एक निद्र्वन्द्व और शून्य अवस्था है; जिसमें व्यक्ति निष्पक्ष, वीतराग, सुख-दु:ख मे निर्लिप्त, प्रशंसा-निन्दा में निरासक्त, लोष्ठ-कांचन में निर्लिप्त तथा जीवन-मरण में निर्भय रहता हैं, -यही श्रमण अवस्था है।
धर्म वस्तुत: आत्मा का स्पन्दन है; सिमें कारुण्य, सहानुभूति, सहिष्णुता, परोपकार वृत्ति, संयम, अहिंसा, अपरग्रिह जैसे गुण विद्यमान रहते हैं। वह किसी जाति, या सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध नहीं। उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोक-मांगलिक है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा में संभव है। धर्म के इस गुणात्मक स्वयप की परिभाषायें इस प्रकार मिलती हैं –
१. धम्मो दया-विसुद्धो
२. धम्मो मंगलमुक्किट्ठं अहिंसा संजमो तवो
३. क्षान्त्यादि-लक्षणो धर्म:
धर्म और अहिंसा में शब्दभेद है, गुण भेद नहीं। धर्म अहिंसा है और अहिंसा धर्म है। क्षेत्र उसका व्यापक है। अहिंसा एक निषेधार्थक शब्द है। विधेयात्मक अवस्था के बाद ही निषेधात्मक अवस्था आती है। अत: विधिपरक हिंसा के अन्तर इसका प्रयोग हुआ होगा। इसलिए संयम, तप, दया आदि जैसे विधेयात्मक मानवीय शब्दों का प्रयोग पूर्वतर रहा होगा। पर्यावरण भी इसी से संबद्ध है। समस्त प्राणियों के प्रति संयमभाव ही अहिंसा है – ‘‘अहिंसा-निउणं दिट्ठा सव्वभूयेसु संजमो।’’ उसका सुख संयम में प्रतिष्ठित है। मन, वचन, काय से संयमी व्यक्ति स्व-पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का आगार होता है। शील, संयमादि गुणों से आपूर व्यक्ति ही सत्पुरुष है। जिसका चित्त मलिन और दूषित रहता है, वह अहिंसा का पुजारी कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना और रगढ़ना – इन चार उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है। उसी प्रकार श्रुत, शील तप और दया रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति की परीक्षा की जाती है-
धम्मो मंगल-मुक्किट्ठं अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सया मणो ।। (प्रतिक्रमण सूत्र ८ पृ. २५९) संजमु सीलु सउज्जु तवु सूरि हि गुरु सोई। दाहक-छेदक-संघायकसु उत्तम कंचणु होई ।। (भावपाहुड – १४३)
जैन संस्कृति मूलत: अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निग्र्रन्थ, वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक हैं। ‘मूर्छा’ परिग्रह की पर्यायार्थक है। यह मूर्छा प्रमाद है और प्रमाद कषायजन्य भाव है। राग-द्वेषादि भावों से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती है। मिथ्यात्व, कषाय, नोकषाय आदि भाव अन्तरग परिग्रह है और धन-धान्यादि बाह्यपरिग्रह है ये आस्रव के कारण है आस्रव का कारण आसक्ति है, परिग्रह है परिग्रह का मूल साधन हिंसा है: झूठ, चोरी, कुशील उसके अनुवर्तक है और परिग्रह तथा प्रदूषण उसके फल हैं। परिग्रही वृत्ति व्यक्ति को हिंसक बना देती है। इस हिंसक वृत्ति से व्यक्ति तभी विमुख हो सकता है, जब वह अपरिग्रह या परिग्रह-परिमाणव्रत का पालन करे। क्षमा, मार्दव आदि दस धर्मों का पालन भी धर्म है। मनुष्य अनेक चित्तवाला है। क्रोधादि विकरों के कारण वह बहुत भूलें कर डालता है। इन क्षमादि-दस धर्मों का पालन करने से संकल्प-शक्ति का विकास होता है और साधक ध्यान-साधनाकर आत्मस्वरूप के चिन्तन में डूबने लगता है।
तीर्थंकर महावीर ने साधना की सफलता के तीन कारणों का निर्देश किया है -सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। इन तीनों तत्त्वों को समवेत रूप में ‘रत्नत्रय’ कहा जाता है। ‘दर्शन’ का अर्थ श्रद्धा अथवा व्यावहारिक परिभाषा में ‘आत्मानुभूति’ कह सकते हैं। श्रद्धा और आत्मानुभूति पूर्वक ज्ञान और चारित्र का सम्यक् योग्ही मोक्षरूप साधना की सफलता में मूलभूत कारण है। मात्र ज्ञान अथवा चारित्र से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए इन तीनों की समन्वित अवस्था को ही मोक्षमार्ग कहा गया है- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग- (तत्त्वार्थसूत्र १.१)। रत्नत्रयं का पालन ही धर्म है। इसप्रकार की परिभाषायें देखिए –
१. सद्दृष्टि-ज्ञानवृततानि धर्मं धर्मेश्वरा विदु:
२. धममो णाम सम्मद्दंसण-णाण-चरित्ताणि
३. सम्यग्दृग्प्राप्तिचारित्रं धर्मो रत्नत्रयात्मक:
मोक्ष-प्राप्ति का रत्नत्रय के साथ अविनाभाव-सम्बन्ध है। जिस प्रकार औषधि पर सम्यक् विश्वास, ज्ञान और आचरण किये बिना रोगी रोग से मुक्त नहीं हो सकता; उसी प्रकार संसार के जन्म-मरण रूपी रोग से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का सम्यक् योग होना आवश्यक है –
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हताचाज्ञानिनां क्रिया । धावन् किलान्धको दग्ध: पश्चन्नपि च पंगुल: ।। संयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञ ह्येकचव्रेण रथ: प्रयाति । अन्धश्च पंगुश्च वने प्रविष्टौ तो सांप्रयुक्तौ नगरे प्रविष्टौ ।।
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष – इन सात तत्त्वों और पुण्य- पाप को मिलाकर नव पदार्थों में रुचि होना सम्यग्दर्शन है। तच्चरुई सम्मत्तं (मोक्खपाहुड, ३८)। सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का ज्ञान होना भी सम्यग्दर्शन है। वह परोपदेश से अथवा परोपदेश के बिना भी प्रगट होता है। इन दोनों प्रकारों में आत्मप्रतीती होना मूल कारण है। आत्मप्रतीती में सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्ज्ञान वह है, जिसमें संसार के सभी पदार्थ सही स्थिति में प्रतिबिम्बित हों। प्रमाण और नय इसी सीमा में आते हैं। सम्यक आचरण को सम्यक्चारित्र कहा जाता है: जिसमें कोई पाप-क्रियायें न हो कषाय न हो, भाव निर्मल हों तथा पर-पदार्थों में रागादिक विकार न हो। यह सम्यक्चारित्र दो प्रकार का होता है – गृहस्थों के लिए और मुनियों के लिए। एक अणुव्रत है, दूसरा महाव्रत है। इन व्रतों की संख्या बारह है – अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह। दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत इन पंचव्रतों को पालन करने में सहायक बनते हैं और सामायिक, प्रोषधोपवास, – भोगोपभोग-परिणाम तथा अतिथि- संविभाग- इन चार व्रतों का पालन करने से सामाकिता का पालन होता है।
जैनागम-ग्रन्थों में धर्म की इन चारों परिभाषाओं को एक स्थान पर भी एकत्रित किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी ये परिभाषायें मिलती हैं। उनका सुन्दर एकत्रीकरण आचार्य कार्तिकेय ने किया है –
धम्मो वत्थु-सहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ।।
उत्तरकालीन आचार्यों ने भी आचार्य कार्तिकेय का अनुकरण किया है। वस्तुत: ये परिभाषायें धर्म के विविधरूपों को उजागर करती हैं। उनमें कोई भेद नहीं है, वर्णन करने का तरीका अवश्य अलग-अलग है। इन सारी परिभाषाओं की आधार-शिला है –
‘जं ठच्छसि अप्पणत्तो, जं च णेच्छसि अप्पणत्तो । तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं ।।’’
अर्थात् अपने लिय वही चाहो, जो तुम दूसरों के लिए भी चाहते हो और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी मत चाहो। -यही जिनशासन है। जैनधर्म में धर्म की ये सारी परिभाषायें ‘समता’ को केन्द्र में रखकर बनाई गई हैं। समता पाने का इच्छुक साधक परम्परा का पालन नहीं करता। वह तो अपने में हर पल क्रान्ति देखता है, नयी ज्योति पाता है। इसलिये धर्म वैयाक्ति है, सामूहिक नहीं। उस ज्योति को पाने म ेंउसे स्वाध्याय सबसे बड़ा सहयोगी तत्त्व सिद्ध होता है और उसी तत्त्व से वह सत्य को जाता है। जैनधर्म भावप्रधान धर्म है, इसलिए वहाँ ऊँच-नीच सभी के लिए समान स्थान रहा है। वैदिक संस्कृति में प्रस्थापित जातिवाद की कठोर शृंखलाओं को काटकर महावीर ने जन्म के स्थान प कर्म का आधार लिया। उन्होंने कहा कि उच्च कुल में उत्पन्न होने मात्र से व्यक्ति को ऊँचा नहीं कहा जा सकता। वह ऊूंचा तभी हो सकता है, जबकि उसका चरित्र या कर्म ऊँचा हो। इसलिए महावीर ने समानता के आधार पर चारों जातियों की एक नई व्याख्या की और उन्हें एक मनुष्य जाति के रूप में देखा – ‘‘मनुष्य जातिरेकेव।’’
कम्मुणा बम्मणो होई कम्मुणा होई खत्तियो । वइस्सो कम्मुणो होई सुद्दो होई कम्मुण ।। (उत्तरा० २५.१९) ब्राह्मणक्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तत्तवत: । एकेव मानुषा जातिराचारेण विभज्यते ।। (माहपुराण)
वस्तुत: जैनधर्म ने समाज और देश को अभ्युन्नत करने के लिए सभी प्रकार से प्रयत्न किया। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र से भ्रष्टाचार दूर कर सर्वोदयसवादी और अहिंसावादी विचारधारा को प्रचारित करने का अथक प्रयत्न किया, धनोपार्जन के सिद्धान्तों की न्यायवत्ता की ओर मोड़ा, मूक प्राणियों की वेदना को अहिंसा की चेतनादायी संजीवनी से दूर किया, सामाजिक विषमता की सर्वभक्षी अग्नि को समता के शीतल जल और मन्द वयार से शान्त किया। जीवन के हर अंग में अहिंसा के महत्त्व को प्रदर्शित कर मानवता के संरक्षण में जैनधर्म ने सर्वाधिक योगदान दिया। यह उसकी गहन चारित्रिक निष्ठ का परिणाम था। ‘पर्यावरण’ धर्म की इन सभी परिभाषाओं से आबद्ध है। वह मानवता का पाठ पढ़ाकर समातमूलक अहिंसा की प्रतिष्ठा करता है और प्राणिमात्र को सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में जैनधर्म ने जो महनीय योगदान दिया है, वह अपने आप में अनूठा है। इस दृष्टि से धर्म की परिभाषा में और पर्यावरण की सुरक्षा में जैनधर्म जितना खरा उतरता है, उतना अन्य कोई धर्म दिखाई नहीं देता। यही उसकी अहिंसा है, यही उसका कारुणिक रूप है और इसी से पर्यावरण की सुरक्षा होती है। अहिंसा, संयम, समता, और करुणा मानवता के अंग हैंं, पर्यावरण के रक्षक हैं। जैनधर्म सर्वाधिक मानवतावादी धर्म है, अहिंसा का प्रतिष्ठापक है। इसलिए पर्यावरण की समग्रता को समाहित किये हुए है।