ध्यानी मुनि के साम्यभाव से जन्मजात विरोधी प्राणी भी शान्त हो जाते हैं।
आचार्य श्री शुभचन्द्रजी मुनियों के साम्यभाव का बहुत ही सुन्दर वर्णन करते हैं— आजकल प्रायः कुछ लोगों को यह भ्रान्ति हो जाती है कि मुनिगण सम्मोहन आदि के द्वारा अपने पास आए हुए प्राणी को शांत करके अपनी महिमा प्रर्दिशत करते हैं इस भ्रान्ति का निराकरण करते हुए आचार्यश्री कहते हैं कि—
शाम्यति योगिभिः जन्तवो नेति शंक्यते।
दावदीप्तमिवारण्यं यथा वृष्र्टैबलाहवै।।
अर्थात् योगीगण जीवों को उपाय करके शान्त करते हैं ऐसी शंका कदापि नहीं करनी चाहिए क्योंकि जैसे दावानल से जलता हुआ वन स्वयमेव मेघ बरसने से शान्त हो जाता है उसी प्रकार मुनियों के तप के प्रभाव से स्वयं ही जीव समतारूप प्रवर्तने लग जाते हैं, योगीश्वर उनको प्रेरणा कदापि नहीं करते।
इसी बात को अन्य उदाहरणों के माध्यम से भी कहते हैं— जिस प्रकार शरदऋतु में अगस्त्य तारा के संसर्ग होने से जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार समतायुक्त योगीश्वरों की संगति से जीवों के मलिन चित्त भी प्रसन्न हो जाते हैं अथवा जिस प्रकार चन्द्रमा जगत में किरणों से सघन झरता हुआ अमृत बरसाता है,
सूर्य तीव्र किरणों के समूह से अन्धकार का नाश करता है, पृथ्वी समस्त भुवनों को धारण करती है तथा पवन इस समस्त लोक को धारण करता है उसी प्रकार मुनीश्वर महाराज भी साम्यभावों से जीवों के समूह को साम्यभावरूप करते हैं। इतना ही नहीं, आचार्यश्री कहते हैं कि इन मुनियों की शरण में आकर जन्मजात वैरी जन्तु भी आपस में एक दूसरे पर अनुग्रह करने लगते हैं यथा—
अर्थात् क्षीण हो गया है मोह जिसका और शान्त हो गया है कलुष कषायरूप मैल जिसका, ऐसे सम भावों में आरूढ़ हुए योगीश्वर को आश्रय करके हरिणी तो सिंह के बालक को अपने पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती व प्यार करती है और गाय व्याघ्र के बच्चे को पुत्र की बुद्धि से प्यार करती है, मार्जारी (बिल्ली) हंस के बच्चे को स्नेह की दृष्टि से वशीभूत हो स्पर्शती है तथा मयूरनी सर्प के बच्चे को प्यार करती है इसी प्रकार अन्य प्राणी भी जन्मजात वैर को छोड़कर मदरहित हो जाते हैं, यह साम्यभाव का ही प्रभाव है।
इन साम्यभावधारक मुनियों की ऐसी साम्य प्रवृत्ति होती है कि चाहे कोई इनकी पूजा करे या कोई इनका अनादर करे, सबके प्रति इनका समान आशीर्वाद रहता है। छहढाला में भी हम पढ़ते हैं—‘‘अर्घावतारन असिप्रहारन में सदा समता धरन’’। इन्हींं भावों को इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है—
एकः पूजां रचयति नरः पारिजातप्रसूनैः,
कण्ठे क्षिपति भुजगं हन्तुकामस्ततोन्यः।
तुल्या वृत्तिर्भवति च तयोर्यस्य नित्यं स योगी,
साम्यारामं विशति परमज्ञानदत्तावकाशम्।।२७।।
अर्थात् जिस मुनि की ऐसी वृत्ति हो कि कोई तो नम्रीभूत होकर पारिजात के पुष्पों से पूजा करता है और कोई मनुष्य होकर मारने की इच्छा से गले में सर्प की माला पहनाता है, इन दोनों में ही जिसकी सदा रागद्वेषरहित समभावरूप वृत्ति हो, वही योगीश्वर समभावरूपी क्रीड़ावन में प्रवेश करता है और ऐसे समभावरूप क्रीड़ावन में ही केवलज्ञान के प्रकाश होने का अवकाश है। इसका एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण आप लोग पढ़ते, सुनते और जानते ही हैं कि एक बार राजा श्रेणिक ने जैनधर्म के विद्वेषवश एक दिगम्बर जैन महामुनि के गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया।
कुछ समय पश्चात् रानी चेलना ने जब यह दृश्य देखा तो वह बहुत दुखी हुई और उन्होंने शीघ्र ही मुनि के गले से सर्प को निकालकर अलग किया और शुद्ध प्रासुक औषधि के द्वारा मुनि का उपचार किया। रानी ने राजा श्रेणिक को उनकी गलती का एहसास कराया, राजा श्रेणिक को बहुत पश्चाताप हुआ।
मुनिराज का ध्यान समाप्त होने के बाद राजा श्रेणिक और रानी चेलना दोनों ही मुनिराज के समीप पहुँचे, उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया तब मुनि ने उन दोनों को वात्सल्यमयी समान आशीर्वाद प्रदान किया।
राजा श्रेणिक को बहुत ही अधिक आश्चर्य हुआ, वे तो सोच रहे थे कि मैंने मुनिराज के गले में सर्प डाला है तो मुनिराज अवश्य ही मुझसे नाराज होंगे लेकिन जब उन्होंने उन महानात्मा का ऐसा सरल समतारूप देखा तो वे बार-बार उनके चरणों में नतमस्तक हुए तथा जैनधर्म के परम भक्त बन गए।
वास्तव में धन्य हैं ऐसे साधुओं का धैर्य, उनकी सहनशीलता! राग द्वेष आदि विकार जिनसे कोसों दूर हैं ऐसे महामुनियों को बारम्बार नमन।