सिद्धों का वंदन इस जग में, आतम सिद्धी का कारण है।
इनकी भक्ती से भक्त करें, दुर्गति का सहज निवारण है।।
सब तीर्थंकर भगवंत एक दिन, सिद्धिप्रिया को पाते हैं।
इसलिए सभी ग्रह की शांती में, वे निमित्त बन जाते हैं।।१।।
नभ में जो सूर्य, सोम, मंगल, बुध, गुरु व शुक्र, शनि ग्रह माने।
राहू केतू मिलकर नवग्रह, ज्योतिषी देव के ग्रह माने।।
मानव के जन्म समय से ये सब, जन्मकुण्डली में रहते।
शुभ-अशुभ आदि फल देने में, राशी अनुसार निमित बनते।।२।।
जब ग्रह अनिष्टकारी होवें, तब प्रभु भक्ती रक्षा करती।
जिनसागर सूरि ने बतलाया, नवग्रह में नव प्रभु की भक्ती।।
श्रीपद्मप्रभ भगवान सूर्य-ग्रह के अरिष्ट को शांत करें।
ग्रह सोम का जब होवे प्रकोप, तब भक्त चन्द्रप्रभु याद करें।।३।।
निज मंगल ग्रह की शांति हेतु, प्रभु वासुपूज्य को नमन करो।
बुधग्रह जब देवे कष्ट तुरत, प्रभु मल्लिनाथ अर्चन कर लो।।
महावीर प्रभू गुरु ग्रह से होने, वाले कष्ट मिटाते हैं।
निज गुरुबल तेजस्वी करने हित, वर्धमान को ध्याते हैं।।४।।
श्री पुष्पदंत भगवान शुक्र-ग्रह के शांतीकारक माने।
शनिग्रह अति उग्र हुआ तो भी, मुनिसुव्रत प्रभु उसको हानें।।
ग्रह राहु अगर होवे अरिष्ट, तो नेमिनाथ का मंत्र जपो।
प्रभु पाश्र्वनाथ के चरणों में, ग्रह केतु शांति हेतू प्रणमो।।५।।
ये नव तीर्थंकर नवग्रह की, शांती में हेतू माने हैं।
है दुख का मूल असाता ही, पर बाह्य निमित ग्रह माने हैं।।
जिन भक्ति असाता कर्मों को, साता में परिवर्तित करती।
ग्रह से उत्पन्न सभी बाधा, तब ही तो शांत हुआ करती।।६।।
पूजन-अर्चन के साथ-साथ, ग्रहशांति मंत्र का जाप करो।
जितनी संख्या जिस मंत्र की है, उसको कर मन संताप हरो।।
अपने प्रभु के अतिरिक्त कहीं, मिथ्यामत में मत भरमाना।
दुख संकट आने पर भी कभी, जिनधर्म को भूल नहीं जाना।।७।।
नवग्रहशांती की पूजन कर, नवग्रह का कभी विधान करो।
तीर्थंकर प्रभु के गुण गाकर, निज आतम गुण भंडार भरो।।
निज जन्मकुण्डली में स्थित, ग्रह को भी उच्चस्थान करो।
फिर सूर्य-चन्द्र सम शुभ प्रकाश से, जीवन का उत्थान करो।।८।।
बीसवीं सदी की प्रथम बालसति, गणिनी माता ज्ञानमती।
उनकी शिष्या ‘‘आर्यिका चन्दनामति’’ ने यह स्तुती रची।।
पच्चिस सौ तीस वीर संवत्, तिथि फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी।
निजशांति हेतु ग्रहशांति हेतु, प्रभु पद में अर्पित काव्यकृती।।९।।