राज्यस्थान के उदयपुर जिला मुख्यालय से २२ कि.मी. की दूरी पर स्थित एकलिंगजी (कैलाशपुरी) नामक कस्बे के समीप नगदा नामक पुरातन स्थान है। नागदा वैष्णव, शैव और जैन संस्कृतियों के संगम तीर्थ रूप में प्रसिद्ध रहा है। वर्तमान में श्वेताम्बर जैनों का यहां अदभूतजी तीर्थ है। अदभूतजी के मंदिर में मूलनायक शान्तिनाथ भगवान की ९ फुट ऊंची श्याम पाषाण की विशाल प्रतिमा है इसी मंदिर के पास आलोक पार्श्वनाथ नाम से एक छोटा सा देवालय है। इसके अतिरिक्त अदभूत जी मन्दिर के समीप दो और पुरातन जैन मंदिर है जिनका जीर्णाद्धार श्वेताम्बर जैन समुदाय द्वारा कराया जा रहा है। इन मंदिरों के समूह से थोडी दूरी पर एकलिंगजी के रास्ते की ओर खिमजादेवी मंदिर की पहाड़ी के नीचे की ओर ढलान पर एक मंदिर जीर्ण-शीर्ण रूप में विद्यमान है। इस मंदिर के दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ मंदिर होने के स्पष्ट रूप से प्रमाण उपलब्ध हैं। जैन साहित्य की तीर्थ-वंदनाओं एवं अन्य कृतियों में नागदा नामक स्थान का विवरण – दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों मान्यताओं के जैनाचार्यों, साधुओं एवं कवियों अपनी वंदनाओं से सम्बन्धित एवं अन्य कृतियों में इस स्थान का तीर्थ के रूप में उल्लेख किया है। दिगम्बर जैन परम्परा की तीर्थ-वन्दनाओं से सम्बन्धित कृतियों में प्राकृत निर्वाण काण्ड का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अन्र्तगत अतिशक्ष क्षेत्रकांड की प्रथम गाथा में स्र्वप्रथम नागद्रह (णायद्दह) में स्थित भगवान पार्श्वनाथ एवं मंगलपुर स्थित भगवान अभिनंदनदेव की प्रतिमाओं की वंदना करते हुये लिखा है :-
पासं तह अदिणंदण णायद्दहि मंगलाउरे वंदे।
श्री मदनकीर्ति (१२-१३वीं सदी) ने अपनी कृति शासनचतुस्त्रिंशिका में नागहृदेश्वर कहकर यहां के पार्श्वनाथ का स्तवन किया है। डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर, तीर्थ वंदन संग्रह पृ. ३२ श्री उदयकीर्ति (१२-१३वीं सदी) ने अपनी अपभंश रचना तीर्थवंदना में नागद्रह के स्वयंभूदेव पार्श्व कहकर उनकी वंदना की है।वही पृ. ३९ दिगम्बर जैन परम्परा की उक्त कृतियों के उक्त उल्लेखों के अतिरिक्त इसी परम्परा के कुछ और रचनाकारों ने भी नागदा तीर्थ का उल्लेख किया है। श्री गुणकीर्ति (१५वीं सदी) ने नागद्रह नगर के पार्श्वनाथ एवं मेघराज (१६वीं सदी) के नागेन्द्र के पाश्र्व जिनेन्द्र के रूप में यहां के उल्लेख अपनी तीर्थ वंदनाओं सम्बन्धी कृतियों में किये हैं।वही पृ. ५० एवं ५३ जयसागर (१७वीं सदी) ने यहां का उल्लेख अपनी तीर्थ जयमाला में किया है। श्वेताम्बर जैन तीर्थमालाओं में नागहृद तीर्थ के उल्लेख हैं। तपागच्छीय मुनि सुन्दरसुरि (१५वीं सदी ई.) द्वारा नागहृद पार्श्वनाथ स्त्रोत की रचना की गयी है। श्री जिनतिलक सूरि एवं श्री शीलविजय की तीर्थमालाओं में नागद्रह का उल्लेख हुआ है। श्री शीलविजय की तीर्थमाला में नागद्रह के साथ एकलिंग महादेव का भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है। दिगम्बर परम्परा के आचार्य श्री मदनकीर्ति एवं श्वेताम्बर परम्परा के श्री शीलविजयजी के विवरणों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन जैन तीर्थ नागहृद अथवा नागद्रह नामक स्थान एकलिंगजी के समीप का ही यह स्थान रहा है।
विभिन्न इतिहासवेत्ताओं ने भी इस तीर्थ के इतिहास आदि के बारे में इतिहास सम्बन्धी पुस्तकों एवं लेखों में उल्लेख किया है। इन उल्लेखों के अनुसार यहां का पद्मावती मंदिर पूर्वकाल में प्रसिद्ध पार्श्वनाथ मंदिर था। यह मंदिर दिल्ली के बादशाह इल्तुतमिश के शासनकाल (१२१२-१२३६ई.) के समय ध्वस्त कर दिया गया। अलाउ (Alav) पार्श्वनाथ नाम के जिनालय में वि.सं. १३५६ (सन् १३००) एवं वि.सं. १३९१ (सन् १३३५) के लेख विद्यमान होना लिखा है।ढाकी, एम.एम.ए नागदाज एन्सिएन्ट जैन टेम्पल- संबोधि-४ (३.-४) पृ. ८३-८५ इन लेखों में जिनालयों के पुनरुद्धार का विवरण होना एवं वि.सं. १९५६ के लेख में दिगम्बर जैन परम्परा के मूलसंघ का उल्लेख होना बताया है। प्रोगे्रस रिपोर्ट ऑ द आर्विओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, वेस्टर्न सर्कल, १९०५-०६ पृ. ६३ पासड़देव और संघाराम ने १२९९ई. में पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा यहां स्थापित करवाई थी। १३३४ ई. में केल्हा ने पार्श्वनाथ गर्भगृह का जीर्णोद्धार करवाया। पार्श्वनाथ मंदिर के बारे में लिखा है – इस देवालय में एक बड़ी ही रूचिकर प्रतिमा है, जिसमें शिनाफलक के मध्य में आभा-मंडल युक्त ध्यानस्थ जिन, दोनों पाश्र्वों में तिकोनी टोपी वाले चंवरी धारक गणधर तथा हवा में उडते हुए देवादि उत्कीर्ण है।वही पृ. ६१ यहां अदभूतजी के मंदिर में सन् १४३७ई. में एक व्यापारी सारंग के द्वारा कुम्भा के शासनकाल में शान्तिनाथ की विशाल प्रतिमा स्थापित करवाई गई। दिगम्बर परम्परा की तीर्थ वंदनाओं एवं इतिहासवेत्ताओं के उक्त उल्लेखों के अनुसार नागदा तीर्थ दिगम्बर परम्परा का भी एक महत्वपूर्ण तीर्थ माना गया है- इस तथ्य को श्वेताम्बर परम्परा के तीर्थ विषयक आधुनिक साहित्य के लेखकों द्वारा भी स्वीकार किया गया है। इस विषय में एक विवरण में इस बारे में कई संदर्भ भी दिये गये हैं।डॉ. शिवप्रसाद जैन तीर्थें का ऐतिहासिक अध्ययन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम संस्थान, वाराणसी १९९१ पृ. १८९ से १९१
वर्तमान में दिगम्बर जैनों में नागदा जाति विद्यमान है इस जाति के अधिकाशत: लोग पूर्व में मेवाड़ क्षेत्र में निवास करते थे। इस जाति के बारे में यह मान्यता है कि नागदा में निवास करने वाले क्षत्रिय जाति के एक समूह विशेष ने दिगम्बर परम्परा के एक आचार्य से धर्मोपदेश सुनकर जैन धर्म के संस्कारों को अंगीकार किया। इसी समूह से दिगम्बर जैनों की नागदा नामक जाति का निर्माण हुआ। १५वीं शताब्दी मे भट्टारक श्री ज्ञानभूषण ने नागदा जाति के इतिहास से सम्बन्धित नागदारास नामक कृति की रचना की। तीर्थ वंदनाओं, इतिहासवेत्तओं इत्यादि के विवरणों का विश्लेषण – तीर्थ वंदनाओं इतिहासवेत्तओं इत्यादि के उक्त विवरणों का विश्लेषण करने पर निम्न बातें सामने आती है –
१. मध्यकाल में नागदा नामक यह स्थान जैन समुदाय की दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के का प्रमुख तीर्थ रहा है। यहां दिगम्बर जैन परम्परा का पार्श्वनाथ तीर्थ अधिक पुरातन रहा है। संभवत: यह इस नगर के प्रारम्भिक इतिहास से जुडा हुआ रहा हो।
२. प्राकृत निर्वाणकांड के इस स्थान के विवरण से यहां पार्श्वनाथ की प्रतिमा होनो के संकेत मिलते हैं, किन्तु श्री मदनकीर्ति ने यहां जिनेन्द्र भगवान की अलक्ष्य (अदृश्य)मूर्ति का नागहृदेश्वर कहकर स्तवन किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि मदनकीर्ति के समय यहां का पार्श्वनाथ मंदिर इल्तुतमिश के शासनकाल में ध्वस्त किये जाने के कारण ध्वस्तरूप में ही रहा हो। इनके समय के बाद में इसका पुनरुद्धार होना संभव है। पुनरुद्धार के विवरण विभिनन लेखों में विद्यमान रहे हैं।
३. मध्यकाल में नागदा नामक इस स्थान पर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैनों के कई मंदिर विद्यमान रहे थे।
भगवान पार्श्वनाथ से सम्बन्धित एक से अधिक जैन मंदिरों की मध्यकाल में यहां विद्यमानता ज्ञात होती है। ध्वस्त किये जाने पर पुनरुद्धार किया गया मंदिर कौनसा था यह कहना अत्यंत कठिन है। भगवान पार्श्वनाथ से सम्बन्धित जीर्ण-शीर्ण दिगम्बर जैन मंदिर की विद्यमानता – नागदा में खिमजदेवी के मंदिर वाली पहाड़ी के नीचे की ओर ढलान पर एक मंदिर जीर्ण-शीर्ण रूप में है जिसके बारे में ऊपर उल्लेख किया जा चुका हैं। यह मंदिर एकलिंगजी से रामागांव की ओर जाने वाले मार्ग के समीप बाघेला तालाब के दायीं ओर स्थित है।
इस मंदिर को देखने से इसके दिगम्बर जैन मंदिर होने से सम्बन्धित स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध होता हैं। इस मंदिर के दाँहिने, बायें एवं पीछे की बाहरी दीवारों पर जैन तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण है। मंदिर के बाहर और दायीं ओर की दीवार पर नीचे से ऊपर शिखर की ओर एक के ऊपर एक जैन तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। नीचे एवं मध्य की मूर्तियां पद्मासन स्थिति में हैं। दोनों ओर ऊपर वाली मूर्तियां नग्र कायोत्सर्ग मुद्रा में है जिनके सि के ऊपर फण्युक्त नाग है। मंदिर के पीछे की दीवार पर तीन खड़गासन नग्र मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इस मंदिर के गर्भगृह में कोई मूर्ति नहीं है, किन्तु गर्भगृह के बाहर स्तम्भ एवं दरवाजे पर तीर्थंकर मूर्तियां उत्कीर्ण है। कुछ लेख इत्यादि भी विभिन्न स्थानों पर उत्कीर्ण हैं। मुख्य लेख पुरातन होने एवं कुछ भाग मिट जाने के कारण पढ़े जाने जैसे नहीं हैं। नागदा के अन्य उक्त वर्णित शिलालेखों की तरह इस मंदिर से संबंधित लेख इत्यादि के विवरणों को भी इतिहासवेत्ताओं एवं विद्धानों द्वारा उल्लेखित किया जाना संभावित है, जिन्हें ज्ञात किया जा सकता है। सम्बन्धित कुछ विवरणों को खोजा गया है जिनसे मंदिर के इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है।
मंदिर के निर्माण की प्रेरणा एवं इसमें जिनबिंबों की संवत् १४३९ में प्रतिष्ठा करवाने वाले जैनाचार्य अथवा भट्टारक दिगम्बर जैन परम्परा के मूलसंघ- नंदीसंघ के बलात्कारगण के रहे हैं। प्रतिष्ठा समारोह में सान्निध्य प्रदान करने वाले संतों का नाम ज्ञात नहीं हो पाया है। मुख्य लेख में इन संतों के पूर्ववर्ती के रूप में माघनंदी का उल्लेख है। लेख से सम्बन्धित संस्कृत के विवरण का प्रारम्भिक पद दक्षिण के विजयनगर के एक शिलालेख के प्रारम्भिक पद का ही रूप है। मध्ययुगीन दिगम्बर जैन साधुओं के संघों के वृतान्त से सम्बन्धित एक पुस्तक में प्रकाशित संवत् १४४२ का यह शिलालेख विजय नगर के कुन्थनाथ के एक जिनालय के निर्माण से सम्बन्धित है। यह लेख नंदीसंघ बलात्कारगण की प्राचीन शाखा के भट्टारक धर्मभूषण के समय का है।भट्टारक संप्रदाय, डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर पृ. ४२-४३ विजयनगर के शासक हरिहर के शासनकाल में संवत् १४१२ में एक प्रतिष्ठित राजपुरुष द्वारा अनन्त जिनानय का निर्माण करवाकर उसे अपने गुरु माघनंदी को समर्पित करने का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहास एक दृष्टि (१९९२ संस्करण) पृ. २६९इन विवरणों से ज्ञात होता है कि नागदा के इस मंदिर एवं विजयनगर से सम्बन्धित उक्त मंदिरों के निर्माण एवं उनमें जिनबिबों की प्रतिष्ठा कार्य की प्रेरणा देने वाले भट्टारक अथवा संत एक ही परंपरा के होकर एक दूसरों के साथ घनिष्ठता के साथ संबद्ध रहे हैं। मंदिर के संवत् १७२५ के एक विवरण में मूलसंघ के साथ पार्श्वनाथ चैत्यालय का उल्लेख है। मंदिर के बारे में प्राप्त एक और उल्लेख से ज्ञात होता है कि इस मंदिर में मूलसंघ बलात्कारगण की अटेर शाखा के भट्टारक सुरेन्द्र भूषण के शिष्य ब्र. कपूरचन्द्र के द्वारा किसी धार्मिक विधान को संपन्न करवाया गया था। भट्टारक सुरेन्द्रभूषण की विद्यमानता संवत् १७५७ से १७९१ तक मानी गई है।डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर भट्टारक संप्रदाय पृ. १३४ ज्ञात होता है कि बीसवीं सदी र्इं. के पूर्वाद्र्ध तक यह मंदिर इस स्थान के दिगम्बर जैन समुदाय का पूजा स्थल रहा। कालान्तर में नागदा नामक इस स्थान पर जैन बस्ती नहीं रहने एवं उचित देखरेख के अभाव में यह जीर्ण-शीर्ण हो गया। जीर्ण-शीर्ण हो रहे इस मंदिर का तब पद्मावती मंदिर नामकरण हो गया था।
इसका कारण यह प्रतीत होता है कि पार्श्वनाथ मंदिर के समीपस्थ छोटे खंडहर मंदिर में संभवत: यक्षणी पद्मावती की मूर्ति विद्यमान रही थी। जागीर आयुक्त के सन् १९७२ के एक निर्णय के अनुसार खंडहरनुमा इस मंदिर, इसके समीप के छोटे खंडहर मंदिर एवं अदभूतजी के मंदिर को राजस्थान राज्य के देवस्थान विभाग के ऋषभदेव मंदिर की संपदा के रूप में माना गया। इस बारे में सन् १९८२ में गजट नोटीफिकेशन भी हुआ था। वर्तमान में अदभूतजी का मंदिर यति रत्नदेव सूरि एवं जैन श्वेताम्बर अदभूतजी तीर्थ ट्रस्ट के पास में है। सन् १९९९ में जैन समुदाय के दो वर्गों के प्रतिनिधियों के मध्य उक्त जीर्ण-शीर्ण पार्श्वनाथ मंदिर पर अधिकार जताने के प्रयासों को लेकर विवद उत्पन्न हुआ था। विवाद के समय पर भी मंदिर को राजस्थान राज्य के देवस्थान विभाग के ऋषभदेव मंदिर की संपदा के रूप में माना गया। जैन तीर्थ के रूप में नागदा का महत्व दिगम्बर जैन समुदाय के लिए श्वेताम्बर जैन समुदाय से किसी भी रूप में कम नहीं रहा है। सम्बन्धित जीर्ण-शीर्ण दिगम्बर जैन मंदिर के स्थल के आसपास लागों की बस्ती नहीं है एवं देवस्थान विभाग इत्यादि की ओर से चौीदारी जैसी कोई व्यवस्था भी यहाँ नहीं है। मंदिर क्षतिग्रस्त होता जा रहा है। नागदा के जैन मंदिरों के जिन लेख इत्यादि का इतिहासवेत्तओं एवं विद्वानों ने ऊपर विवरण दिया है वे लेख अब कहां किस रूप में है इसकी भी कोई जानकारी नहीं हो पाती है। प्रशासन एवं जैन समुदाय को सम्बन्धित जीर्ण-शीर्ण मंदिर, जो एक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक धरोहर है के संरक्षण हेतु आवश्यक उपाय करने होंगे।