चंपापुरी में नागशर्मा ब्राह्मण की एकमात्र लाडली नागश्री कन्या एक दिन सहेलियों के साथ वन में नागपूजा करने गई थी। वहाँ पर दो जैन मुनि मिल गये। उन्हें नमस्कार करके उनके पास बैठ गई। तब मुनिराज ने उसे धर्मोपदेश सुनाया, पुन: पाँच अणुव्रत भी उसे प्रदान कर दिये। आगे क्या होता है, सो वही पढ़िये। नागश्री अपनी सहेलियों के साथ घर पर पहुँचती है। उस समय एक सहेली उसके पिता से कह देती है कि इसने दिगम्बर मुनि के पास में कुछ व्रत ग्रहण किये हैं।
नागशर्मा-बेटी नागश्री! क्या तुझे मालूम नहीं है कि अपने पवित्र ब्राह्मण कुल में उन नंगों के दिये हुए व्रत नहीं लिये जाते हैं। चूँकि वे अच्छे लोग नहीं होते इसलिये तू उनके व्रत छोड़ दे।
नागश्री-पिताजी! उन मुनियों ने आते समय मुझे कह दिया था कि तेरे पिताजी इन व्रतों को छोड़ देने को कहें तो तू हमारे इन व्रतों को हमें ही वापस कर जाना। अत: आप चलिये मैं उन मुनियों को ही ये व्रत वापस कर आती हूँ।
नागशर्मा-हाँ-हाँ बेटी चल, मुझे तो उन मुनियों पर बहुत ही गुस्सा आ रहा है। बालिका का हाथ पकड़े नागशर्मा ब्राह्मण घर से निकल पड़ता है और शहर में होते हुये जा रहा है। मार्ग में एक स्थान पर शोरगुल अधिक हो रहा था।
नागश्री ने पूछा- नागश्री-पिताजी! यहाँ क्या हो रहा है? नागशर्मा ने आगे बढ़कर सारी स्थिति समझ ली और कहा-
नागशर्मा-बेटी! एक आदमी को बाँधकर लोग डंडे से पीट रहे हैं।
नागश्री-क्यों पिताजी! इसने क्या अपराध किया है?
नागशर्मा-एक व्यापारी ने अपना रुपया इससे माँगा, किन्तु यह देने की हालत में नहीं था। तब इसने क्रोध से उसको मार डाला और इस हिंसा के अपराध से ही राजा ने इसे प्राणदण्ड देने की सजा दी है। लोग इसे बाँधकर मारते हुए ले जाकर मृत्युदण्ड देंगे।
नागश्री-तब पिताजी, मुझे भी तो मुनि ने हिंसा के त्यागरूप अहिंसा अणुव्रत दिया है तो उसे क्यों छोड़ दूँ? वह व्रत तो अच्छा ही है।
नागशर्मा-(कुछ सोचकर) अच्छा बेटी! उस एक व्रत को तो तू रख ले, बाकी के व्रत तो मुनि को वापस करना ही है। आगे बढ़ते हुये नागश्री ने देखा कि एक मनुष्य को लोग बाँधे हुये लिये जा रहे हैं। पिता से पूछने पर यही मालूम हुआ कि यह झूठ बोलकर लोगों को ठगा करता था, इसके अपराध में इसे दण्ड दिया जायेगा।’
नागश्री-पिताजी! मुझे भी मुनि ने झूठ बोलने के त्यागरूप सत्य अणुव्रत दिया है अत: मैं उसे भी क्यों छोड़ दूँ? नागशर्मा-ठीक है बेटी! तू उस व्रत को भी रख ले, बाकी के शेष व्रत तो छोड़ना ही होगा।
इस प्रकार से आगे भी चोरी के पाप से, परस्त्री सेवन के पाप से एवं अति परिग्रह के पाप से दण्डित होते हुये लोगों को देखकर नागश्री ने पिता से यह कहला लिया कि ये शेष व्रत भी तू रख ले। तब अन्त में वह नागशर्मा बोलता है-‘‘देख बेटी! इन पाँच अणुव्रतों को तो तू मत छोड़, चूँकि ये तेरे लिये हितकर ही हैं किन्तु फिर भी तू मेरे साथ उन मुनियों के पास तक चली चल। मैं उनको ऐसी फटकार सुनाउँगा कि जिससे वे आगे कभी किसी भी कन्या को ऐसे बिना पूछे व्रत न दिया करें। दोनों गुरू के पास पहँुचते हैं। नागश्री तो मुनियों को नमस्कार करती है किन्तु नागशर्मा नमस्कार न करके खड़े-खड़े ही क्रोध में जोर से बोलने लगा।
नागशर्मा-अरे नंगों! तुमने मेरी लड़की को व्रत देकर क्यों ठग लिया? बताओ, तुम्हें इसे व्रत देने का क्या अधिकार था? उसका क्रोध देखकर बड़े मुनि सूर्यमित्र शांतिपूर्वक बोले-‘‘भाई! मैंने इसे व्रत दिये हैं अपनी लड़की समझकर, चूँकि यह मेरी लड़की है, तेरा तो इस पर कुछ भी अधिकार नहीं है। बेटी नागश्री! इधर आ जा!’’ इतना सुनते ही नागश्री जाकर मुनियों के चरण सानिध्य में बैठ गई। तब तो ब्राह्मण देवता घबराये और ‘‘अन्याय, अन्याय’’ चिल्लाते हुए राजा के पास पहुँचे, सारी स्थिति सुना दी। राजा भी अतीव कौतुक के साथ वहाँ आ गये। तमाम भीड़ इकट्ठी हो गई। ब्राह्मण कहता था कि यह लड़की मेरी है और मुनिराज कहते थे कि यह लड़की मेरी है। राजा वहाँ आकर मुनियों को नमस्कार कर बैठ गये। उनके सामने भी यही विसंवाद चलने लगा।
तब राजा बोले-‘‘भगवन्! यह लड़की आपकी सही, पर कैसे? सो आप हम लोगों को विश्वास दिलाइये।’’
मुनिराज ने कहा-‘‘बेटी नागश्री! मैंने तुझे पूर्व जन्म में जो भी शास्त्र पढ़ाये हैं, तू उन्हें इन सभी के सामने सुना दे।’’ इतना सुनते ही नागश्री ने जन्मांतर में गुरू सूर्यमित्र से पढ़े हुए सारे शास्त्रों को फटाफट सुनाना शुरू कर दिया। राजा आदि सभी लोग सुनकर आश्चर्यचकित हो गये और पूछने लगे-‘‘हे गुरुदेव! यह क्या चमत्कार है? सो हम लोगों को स्पष्ट बतलाइये।’’ तब अवधिज्ञानी मुनिराज सूर्यमित्र ने कहना शुरू किया-‘‘राजन्! कौशाम्बी नगर में अग्निभूति और वायुभूति ये दो ब्राह्मण रहते थे। ये मेरे गृहस्थाश्रम के भान्जे थे। इन्होंने मेरे पास में सम्पूर्ण विद्या ग्रहण की थी। किसी समय विरक्त होकर मैंने दीक्षा ले ली और विहार करते हुए कौशाम्बी पहुँच गया। वहाँ पर अग्निभूति ने तो मेरी वन्दना की और भाई के बहुत कुछ कहने पर भी वायुभूति ने मेरी निन्दा करके बहुत कुछ भला-बुरा कह डाला। इस निमित्त से अग्निभूति विरक्त होकर मुनि हो गया जो कि यह मेरे साथ में है। जब अग्निभूति की पत्नी सोमदत्ता को यह विदित हुआ कि मेरे देवर के निमित्त से मेरे पति दीक्षित हो गये हैं, तब उसने देवर से कहा कि-‘‘वायुभूति! आपने मुनि को नमस्कार नहीं किया जिससे दु:खी होकर मेरे पति मुनि हो गये हैं। अत: चलो, उन्हें वापस घर ले आयें। इस बात पर वायुभूति ने भावज के प्रति भी भला-बुरा कहकर उसे एक लात मार दी और आप बाहर चला गया।
मुनिनिंदा के पाप से वायुभूति को कुष्ठ रोग हो गया। वह बड़े कष्ट से मरकर नट के यहाँ गधा हुआ। वहाँ से मरकर जंगली सूअर हुआ। पुन: मरकर कुत्ता हुआ और इस पर्याय से छूटकर चाँडाल कन्या हुआ। वहाँ पर वह कन्या जन्म से अन्धी थी और उसके शरीर से बहुत ही बदबू आ रही थी। माता-पिता ने भी उसे घर से निकाल दिया। तब यह जंबू वृक्ष के नीचे रहकर जामुन फल खा रही थी कि उसी समय हम दोनों मुनि उधर से निकले। इस दु:खी कन्या को देखकर मेरे इस अग्निभूति मुनि को अकारण ही स्नेह उमड़ पड़ा। इसका कारण पूछने पर मैंने बताया कि यह तुम्हारे भाई वायुभूति का जीव है। तब अग्निभूति मुनि ने उसे संबोधन कर पाँच अणुव्रत दिये जिसके फलस्वरूप वह यह नागशर्मा के घर में नागश्री कन्या हुई है। राजन्! जो मैंने वायुभूति की पर्याय में इसे वेद-वेदांग पढ़ाये थे, आज यह उसी को तुम सबके समक्ष सुना रही थी। इस कारुणिक घटना को सुनकर राजा को वैराग्य हो गया। वे उसी समय अनेक राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। सोमशर्मा ब्राह्मण भी मुनि बन गया और नागश्री कन्या सम्यक्त्व और तपस्या के प्रभाव से स्त्रीलिंग छेदकर सोलहवें स्वर्ग में महद्र्धिक देव हो गई। वह देव वहाँ ये च्युत होकर सुकुमाल हुआ है पुन: जैनेश्वरी दीक्षा लेकर सियारिनी के द्वारा किये गये उपसर्ग को जीतने वाले सुप्रसिद्ध सुकुमाल मुनि हुए हैं।