भारतीय परम्परा में भरतमुनि द्वारा लिखा गया नाट्यशास्त्र एक बहुचर्चित एव प्रतिष्ठित गंथ है इसमें अनेक विषयों को समाहित किया गया है । नाट्यविद्या का तो यह आकर ग्रन्थ ही है । अत: नाट्य प्रयोगों के लिए परवर्ती नाट्याचार्यो ने प्राय: इसी गंथ का अनुसरण किया है । फलस्वरूप सभी नाट्याचार्य जहाँ आचार्य भरतमुनि के अनुयायी हैं, वहीं वे उनके ऋणी भी हैं । रंगमंचों की शोभा रूपकों से होती है दशरूपककार ने रूपकों के दश भेदों का निरुपण किया है परवर्ती आचार्य रामचन्द्र-गुणभद्र ने रूपक के बारह भेदों का उल्लेख किया है इन रूपकों में सस्कृत नाटक सर्वोपरि है । आचार्य भरतमुनि ने संस्कृत रूपकों में प्रयुक्त होने वाली भाषाओं के चार भेद किये हैं – अतिभाषा आर्यभाषा, जातिभाषा और योन्यन्तरी भाषा ।नाटयशास्त्रम (द्वितीयो भाग:) श्री बाबूलाल शुक्ल शास्त्री, प्रका चौखम्भा संस्कृत संस्थान वाराणसी, प्र थम संस्करण, वि स 2०35, अध्याय 18 /72 इनमें वैदिक शब्द बहुल भाषा को अतिभाषा, श्रेष्ठजन की भाषा आर्यभाषा और मनुष्येत्तर अथवा पशु-पक्षियों की भाषा योन्यन्तरी भाषा है । जातिभाषा के दो भेद हैं संस्कृत और प्राकृत । इन दोनों भाषाओं का प्रयोग रूपकों किंवा सस्कृत नाटकों में पात्रों के अनुसार किया जाता है । इन रूपकों अथवा संस्कृत नाटकों में भी मात्रा की दृष्टि से देखा जाये तो सस्कृत की अपेक्षा प्राकृत भाषा का प्रयोग प्रचुर मात्रा में पाया जाता है अत: प्राकृत भाषा बहुल होने के कारण इन्हें भाषा की दृष्टि से प्राकृत नाटक कहा जा सकता है, किन्तु इनकी प्रकृति सस्कृत नाटकानुरूप है ।
अतएव इन्हें सस्कृत नाटक कहना ही उचित है । संस्कृत नाटककारों ने स्वतत्र रूप से प्राकृत भाषा में लिखे गये रूपकों कीएक विधा को सट्टक के नाम से स्वीकार किया है कर्पूर मञ्जरी विलासवती, चदलेहा, आनन्दसुदरी, सिगारमजरी और रम्भामजरी आदि रूपक नथ सट्टक के रूप में प्रसिद्ध हैं । आचार्य भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में प्राकृत भाषा के जिन सात भेदों का उल्लेख किया है, वे हैं- १ मागधी, २ अवन्तिजा, ३ प्राच्या, -8 शौरसेनी, ५. अर्धमागधी, ६ बाह्मीका और ७ दाक्षिणात्या”नाट्यशास्त्रमू 18 / 47 ये प्राकृत भाषाएँ प्राय: क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में प्रतिष्ठित हैं । इनके अतिरिक्त शकार, आभीर, चाण्डाल, शबर, द्रविड और वनेचरों आदि की भाषाएँ भी हैं, जो देश, काल और पात्रों के अनुरूप सस्कृत रूपकों अथवा नाटकों में प्रयुक्त की गई हैं । मुखसुख की दृष्टि से भाषाएँ सदैव प्रवहमान रही हैं इनके रूप देश, काल और व्यक्ति के आधार पर बदलते रहे हैं अत: भाषाशास्त्रियों ने इन्हें बोलचाल की भाषा अथवा बोली के रूप में प्रतिष्ठित किया है । किन्तु जब ये बोलियाँ साहित्य का रूप धारण कर लेती हैं और लिखित रूप में आ जाती हैं तो इन्हें कुछ विशेष नियमों में जकड दिया जाता है, जिससे आगामी पीढी उन्हीं’ शब्दों का प्रयोग करे जो पूर्व में प्रतिष्ठित हो गये हैं इससे अर्थ में प्राय: एकरूपता बनी रहती है) पूर्वापर शब्द रूखे में एकता बनाये रखने के लिये जिन विशेष नियमों को विद्वज्जन स्थापित करते हें, वे ही नियम कालान्तर में व्याकरण का रूप धारण कर लेते हैं । व्याकरण के कठोर नियमों में बंध जाने के कारण संस्कृत भाषा उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम एव विदेशों में भी एकरूपता धारण किये हुऐ हैं अत: किसी भी देश अथवा किसी भी काल में प्रयुक्त सस्कृत भाषा एक ही अर्थ को व्यक्त करती है । हजारों वर्ष पूर्व संस्कृत में लिखे गये शिलालेखों अथवा सस्कृत-कन्धों में आज भी सस्कृत व्याकरण की कठोरता के कारण एकरूपता है अर्थात्( एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं प्राकृत भाषा को भी जब व्याकरण के नियमों में जकड़ दिया गया तो प्राकृत भाषा भी देश-काल की परिधि से बाहर निकल गई और उसमें भी पूर्वापर शब्द प्रयोगों में एकरूपता आ गई । यत: प्राकृत भाषा जनसामान्य की भाषा है, बोलचाल की भाषा है, अत: इसमें नित्य परिवर्तन होते गये और आचार्य भरतमुनि ने भी उन परिवर्तनों को देश-कालज के अनुरूप स्वीकार कर उसके पूर्वोका सात भेदों का निरूपण किया है जैसे बाँध हमेशा पानी को आगे बढ़ने से रोकता है और उसे स्थिर कर देता है वैसे ही व्याकरण हमेशा भाषा के विकास को रोक देती है और उसे स्थिर करने का प्रयास करती है । यद्यपि प्राकृत भाषा को समय-समय पर व्याकरण के कठोर नियमों से बाँधा अवश्य गया है, किन्तु उसका प्रवाह रोकने में वैयाकरण पूर्णत: सफल नहीं हो सके हैं और यदि वे सफल भी हुये हैं तो उनकी सीमा साहित्यारुढ प्राकृत भाषा तक ही रही है बोलचाल के रूप में प्रयुक्त प्राकृत भाषा आज भी प्रवहमान है यत: प्राकृत भाषा आज भी प्राकृत भाषा ही है । अथवा प्राकृत भाषा का विकास है आज जिन भी भारतीय आर्यभाषाओं का विकास हुआ है, वह प्राकृत भाषा से ही हुआ है । प्राकृत भाषा के विविध रूपों को समेटना एक मुश्किल कार्य है, अत: संस्कृतज्ञों ने संस्कृत भाषा की तरह प्राकृत भाषा के विकास को रोकने के लिये प्राकृत सम्बन्धी व्याकरण शास्त्रों को रचना की है । यत: संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त होने वाली प्राकृत भाषा से जो संस्कृतज्ञ अनभिज्ञ थे और सस्कृत रूपक अथवा नाटक लिखना चाहते थे, उनके लिये भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में यह बतलाने का प्रयास किया है कि जो भी सस्कृतज्ञ प्राकृतभाषा से अपरिचित पैं और सस्कृत नाटकों के लेखन में अभिरूचि रखते हैं, वे सस्कृत नाटकों में प्रयुक्त अधम एवं स्त्रीपात्रों के मुख से बोले जाने वाले सवाद तदनुकूल प्राकृत भाषा में ही लिखें, इसके लिए भरतमुनि ने संस्कृत भाषा में चिन्तित सवादों को प्राकृत भाषा में कैसे परिवर्तित करें 7 इसके कुछ नियम बनाये हैं, जिनका विवेचन इस प्रकार है :- सर्वप्रथम यहीं यह ज्ञातव्य है कि भरतमुनि ने प्राकृत भाषा को संस्कारगुणवर्जित विशेषण से अभिहित किया है।नाट्यशास्त्रमू 18 / 2 इसका सामान्य अर्थ यह है कि जो भाषा सस्कार गुणों से सम्पन्न है अर्थात्( सस्कारित है, वह भाषा सस्कृत है और उससे इतर प्राकृत भाषा संस्कार गुणों से रहित है। सस्कृत नाटकों में प्राकृत भाषा के तीन रूप दिखलाई देते हैं- तत्सम, तद्भव और देशजवही 18 /3 कमल, अमल, रेणु, तरग, लोल, सलिल आदि शब्द रूप तत्सम हैं ।वही 18 / 4 क्योंकि ये शब्द संस्कृत भाषा और प्राकृत भाषा में समान रूप धारण करते हैं प्राकृत भाषा में किन-किन वर्णो का प्रयोग होता है और किन-किन वर्णो का ग्रयोग नहीं होता है? इसका भी उल्लेख भरतमुनि ने किया है वे लिखते हैं कि- सस्कृत भाषा में प्रयुक्त ए और ओ स्वर के पश्चात् परिगणित ३ और औ तथा अनुस्वार (-) के पश्चात् प्रयुक्त होने वाले विसर्ग (:) का प्राकृत भाषा में प्रयोग नहीं किया जाता है । इसी प्रकार ऋ, ऋ लू और लधु – इन चार वर्णो तथा व और स के मध्य रहने वाले श और ष का, साथ ही कर्का, चवर्ग और तवर्ग के अन्तिम वर्णो अर्थात् ड, ञ और न इन तीन वर्णो का प्रयोग नहीं होता है ( अर्थात् भरतमुनि के अनुसार प्राकृत भाषा में ऐ औ, विसर्ग (2, ऋ, ऋ लू, लृ, श, ष, ड, ञ और न इन बारह वणों का प्रयोग नहीं होता है”4 वही 18 / 6 प्राकृत भाषा में, क, ख, ग, त, द, य और व का लोप हो जाता है और उक्त वर्णो का लोप होने के पश्चात् उन वर्णो के जो स्वर शेष रहते हैं, उनसे वही अर्थ निकलता है, जो उन वर्णो के रहने पर निकलता था । ख, घ, थ, ध और भ को ह आदेश होता यै । यहाँ पर भी इस .आदेश अथवा परिवर्तन के कारण अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता ।’वही 18 / 7 प्राकृत भाषा में वर्ण के ऊपर स्थित अर्ध रकार अथवा रेफ, या वर्ण के नीचे प्रयुक्त द का प्रयोग नहीं होता है किन्तु यह नियम मद्र, वोदह, हद, चंद और धात्री में लागू नहीं होता है ।’वही 18 / 8 प्राकृत भाषा में ख, घ, थ, ध और भ को हकारादेश होने पर मुख का मुह, मेघ का मेह, कथा का कहा, वधू का बहु, प्रभूत का पहुअ हो जाता है । इसी प्रकार क, ग, द और व- इन चार वर्णो के प्रतिनिधि द्वितीय स्वर के रूप में रहते हैं वही 18 / 9 षट्पद आदि में रहने वाले मूर्धन्य षकार को नित्य छकार आदेश होता है और उसका प्राकृत रूप बनता है- छतपद । किल के ल को र होकर किर बनता है । कु को खु (खकार आदेश) हो जाता है । वही 18 / 10 इसी प्रकार टकार को डकार हो जाता है, अत: भट, कुटी और तट के क्रमश: भद्र, कुडी ओर तड रूप बनते हैं । श और ष के स्थान पर सर्वत्र सकारा हो जाता है, अत: विष को विस और शंका का सका रूप बनता है ।’वही 18 / 11′ शब्द के प्रारंभ में स्थित न रहने वाले इतर आदि शब्दों में स्थित तकार को दकार हो जाता है नडवा और तडाग में स्थित डकार को लकार हो जाता है और उनके क्रमश: रूप बनते हैं बलवा और तलाग ।’ वही 18 / 12 धकार को ढकार हो जाता है सभी प्रयोगों में नकार के स्थान पर णकार हो जाता है । जैसे आपान को आवाण” वही 18 / 13 इसी प्रकार पकार को वकार हो जाता है, जैसे आपान को आवाण ।यथा और तथा शब्दों में प्रयुक्त यकार को छोड्कर शेष सभी स्थानों पर यकार को धकार हो जाता है ।” वही 18 / 14 पकार को फकार आदेश भी होता है, जैसे परुसं का फरुसं । मृग और मृत – इन दोनों शब्दों का प्राकृत में मओ रूप बनता है ।”वही 18 / 15 औषध आदि के औ का ओकार हो जाता है तथा औषध का प्राकृत रूप बनता है ओसढ । प्रचय, अचिर ओर अचल शब्दों में स्थित चकार का यकार हो जाता है और उनके क्रमश. रूप बनेंगे पयय, अयिर और अयल ।” वही 18 / 16 यहाँ तक भरतमुनि ने असयुक्त वणों का प्राकृत भाषा में कैमे परिवर्तन होता है, यह बतलाया है । अब आगे संयुक्त वर्णो में किस प्रकार का परिवर्तन होता है, इसका विवेचन किया हे, जो इस प्रकार है – श्च, प्स, त्थ और थ्य को छकार, म्य, हच और ध्य को झकार आदेश होता है । ष्ट को ट्ठ, स्त को त्थय, ष्य को म्ह, छन को ण्ह, ण्ण को पह, ण्ह, क्ष को रुख रूप बनता है ।”वही 18 / 18 इन नियमों को ध्यान में रखकर जो रूप बनते हैं, वे इस प्रकार हैं- आश्चर्य को अच्छरिय, निश्चय को णिच्छय, वत्स को बच्छ अप्सरसं को अच्छरअं उत्साह को अच्छाह और पथ्य को प्रच्छ ।”वही 18/19 इसी प्रकार तुभ्यं को तुज्झ, महय को मच्छ, विन्ध्य को बिंज्झ दष्ट को दट्ठ, और हस्त को हत्थ रूप बनता है ।”वही 18 / 20 ग्रीष्म को गिम्ह, श्लक्षा्ण को सण्ह, उण्ण को उण्ह, कृष्ण को कण्ह यक्ष को जक्ख तथा पर्यङ्क को पल्लक रूप बनता है वही 18 / 21′ बह्मा आदि शब्दों में ह और म के योग में ये दोनों वर्ण परस्पर एक दूसरे का स्थान ग्रहण कर लेते हैं । फलस्वरूप ब्रह्मा का बम्हा रूप बनता है बृहस्पति शब्द में पकार का फकार होकर बुहफ्फई रूप बनता है? इसी प्रकार यज्ञ का जण्ह, भीष्म को भिम्ह रूप बनता है ।”वही 18/2 2 जब क किसी वर्ण के साथ संयुक्त हो या वर्ण ऊपर रेफ आदि अन्य वर्ण हो तो उच्चारण के कम मे इनका रूप संयोग रहित होता है, जैसे शक्र को सक्क और आर्क को अक्क आदि ।’ वही 18 / 23सस्कृत रूपकों अथवा नाटकों में प्रयुक्त होने वाली जिन चार भाषाओं का प्रारभ में उल्लेख किया गया है, उनमें देवगण की भाषा अतिभाषा, राजाओं अथवा शिष्ट जन की भाषा आर्यभाषा होती है । जाति भाषा के दो भेद हैं अनार्य और म्लेच्छ ?’वही 18/28 भरतमुनि का मत है कि नाटकों में जात्यन्तरी भाषा का प्रयोग ग्राम तथा जगल में रहने वाले पशु-पक्षियों के मुख से बुलवाने में करना चाहिए वही 18 / 29 भरतमुनि के अनुसार सामान्य रूप से धीरोद्धत, धीरललित, धीरोदात्त ओर धीरप्रशान्त- इन चार प्रकार के नायकों के मुख से सस्कृत भाषा का ही प्रयोग करना चाहिये, किन्तु आवश्यकतानुसार प्राकृत भाषा का भी प्रयोग किया जा सकता है विशेषकर उस परिस्थिति में जब कोई राजा आदि उत्तम पात्र ऐश्वर्य पाकर मदोन्मत्त हो जाये अथवा दारिदय से ग्रस्त हो जाये जो पात्र किसी कारण विशेष से साधू- सन्यासी का वेष धारण करते हैं अथवा वाजीगर के रूप में सस्कृत नाटकों में अपनी भूमिका निभाते हैं अथवा बालक हैं, भूत-पिशाच से ग्रस्त हैं, स्त्री प्रकृति के पुरुष हैं, नीच जाति के पुरुष हैं, कफनी-झोलाधारीं पाखण्डी साधु हैं तो इनके मुख से भी प्राकृत भाषा में सवाद प्रस्तुत करना चाहियेवही 18 / 31 / 35 आचार्य भरतमुनि के अनुसार संस्कृत नाटकों में अप्सराओं आदि के सवाद सामान्यत. सस्कृत भाषा में रखने का विधान है, किन्तु जब वे अप्सराएँ आदि पृथिवी पर विचरण कर रही हों तो उनके सवाद स्वाभाविक या स्वेच्छापूर्वक प्राकृतभाषा में ही रखना चाहिये । हाँ ‘ जब ये किसी मानव की पत्नी के रूप में रहें तब अवसरानुकूल संस्कृत अथवा प्राकृत भाषा में सवाद रखना चाहिए ।” वही 18 / 43 बर्बर, किरात, आन्ध और दविड जाति से सम्बन्धित पात्रों के मुख से केवल शौरसेनी प्राकृत से मिलती-जुलती भाषा का ही प्रयोग करना चाहिये वही 18 / 45 ‘ प्राकृत भाषा के जिन सात भेदों की चर्चा प्रारभ में की गई है, उनमें से राजा के अन्तपुर के रक्षक और सेवक मागधी प्राकृत तथा राजपुत्र, चेट और श्रोठिजन के मुख से अर्धमागधी प्राकृतभाषा का प्रयोग कराने का विधान है वही 18 / 49 विदूषक और उनके जैसे अन्य पात्रों की भाषा प्राच्या, धूतवृत्ति के पात्रों की भाषा अवन्ती रखी जाये । यदि कोई दिक्कत न हो तो नायिका और उनकी सखियों की भाषा में शौरसेनी प्राकृत भाषा का प्रयोग किया जाये हं”वही 18 / 50 सैनिकों, जुआरियों और नगर के उत्तरभाग में रहने वाले खसों अर्थात् पहाडी प्रदेश के निवासी लोगों की अपनी देशभाषा बाढ़ीकी प्राकृत रखी जाये वही 18 / 51 सस्कृत नाटकों में शाखार, शक और शबर जाति के या उनके अनुरूप स्वभाव वाले लोगों की भाषा शाकारी रखना उचित है ?’वही 18 / 52 उदाहरण के लिये आप देखें कि नाटयशास्त्र के नियमों को आधार बनाकर मृच्छकटिक में शूद्रक ने शकार के मुख से शाकासे भाषा का ही प्रयोग कराया है ‘वही 18 / 52 की टिप्पणी पुल्कस-डोम और उसके समान अन्य नीच जातियों के लोगों की भाषा चाण्डाली रखनी चाहिये ?’वही 18 / 52 कोयले के व्यवसायी, बहेलिया (व्याध), लकड़ी और पत्तों को जगल में ढोकर अपनी आजीविका चलाने वाले श्रमिकों तथा जंगल के निवासी लोगों की भाषा शकार भाषा होनी चाहिये जहाँ सभी, घोड़े, बकरे, भेड़, ऊँट, बैल अथवा गायों को बाँधा जाये अथवा रखा जाये, उन स्थानों के निवासियों की भाषा आभीरी अथवा शाबरी भाषा रखी जाये द्रविड़ आदि देशों के व्यक्तियों या वनवासियों की भाषा द्राविड़ी भाषा रखी जाये सुरंग आदि खोदने वाले मजदूर, जेलों के पहरेदार, घोड़ों के सईस (या ऊँटों के रेवारी) या आपत्ति में पडा नायक, या उसके सदृश जो भी अन्य पात्र हैं, वे अपने स्वरूप के दक्षणार्थ अथवा अपने स्वरूप को छिपाने के लिये उनके मुख से मागधी प्राकृत में सवाद प्रस्तुत किये जायें ?’वही 18 / 53 / 54 भारत की गंगा नदी और सागर के मध्यवर्ती प्रदेशों की भाषा एकार बहुला, विन्ध्याचल और सागर के मध्यवर्ती पात्रों की भाषा नकार बहुला, वेत्रवती नदी के उत्तरवर्ती प्रदेशों तथा सौराष्ट्र एव अवन्ती देशों की भाषा चकार बहुला, हिमाचल पर्वत, सिन्धु तथा सौवीर देश के समीपवर्ती रहने वाले पात्रों की भाषा उकार बहुला, चम्बल नदी के उस पार .अरावली पर्वत अर्थात् मेवाड और मारवाड़ आदि प्रदेशों से सम्बन्धित पात्रों की भाषा ओंकार (या तकार) बहुला भाषा रखने का विधान है ।” वही,18/56/60 ये सभी भाषा रूप विविध प्राकृत भाषाओं के ही रूप हैं । उपर्युक्त के अतिरिक्त भरतमुनि का मत है कि- भाषागत जो बातें उक्त नियमों में सकलित न हो पाई हों, उन्हें पात्रानुसार लोकाचार अथवा सामान्य व्यवहार से संग्रहीत कर लेना चाहिये । यहां भी सामान्य लोगों की भाषा अर्थात् प्राकृत भाषा के सवाद रखने का विधान है ।”वही,18/61 इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य भरतमुनि ने संस्कृत रूपकों अथवा नाटकों में प्रयुका होनी वाली विविध प्राकृत भाषाओं का विधान किया है और अन्त में यह भी लिख दिया है कि जिन भाषागत नियमों का उपर्युक्त नियमों में समावेश न हुआ हो उन्हें लोकाचार अथवा सामान्य रूप से व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली भाषा को आधार बनाकर तत् तत् पात्रों के संवादों का सयोजन करना चाहिये । आचार्य भरतमुनि के अनुसार सस्कृत रूपकों अथवा नाटकों में प्रयुक्त होने वाली उपयुक्त प्राकृत भाषाओं के संदर्भ में विचार करने पर दो बातें बहुत स्पष्ट होती हैं । प्रथम यह कि संस्कृत रूपकों अथवा नाटकों में प्राकृत भाषा का समावेश अवश्यम्भावी है क्योंकि प्राय: सामान्यजन एव स्त्री पात्र सुसंस्कृत न होने से सस्कृत नाटकों में भी अपनी स्वाभाविक बोलचाल की भाषा प्राकृत ही बोलेंगे । अत: उन्होंने सस्कृत नाटककारों को पहले ही सावधान कर दिया है कि नाटकों में सवाद लिखते समय पात्रों की योग्यता का परीक्षण अवश्यम्भावी है । द्वितीय यह कि जो भी नाटक लिखे जाते हैं उनका एक उद्देश्य दृश्य काव्य के रूप में जन सामान्य के समक्ष प्रस्तुत करके रसास्वादन कराना भी है अत: ऐसे प्रसंगों में सामान्य मजदूर आदि लोगों के संवाद भी यदि सस्कृत भाषा में रखे जायेंगे तो वे संवाद स्वाभाविक न होकर कृत्रिम प्रतीत होंगे और कृत्रिम प्रतीत होने पर सामान्य दर्शक को जो रसास्वादन होना चाहिये, वह न हो सकेगा । इन सबके अतिरिक्त जो पात्र जिस भाषा का ज्ञाता होता है, उसी भाषा का समावेश संस्कृत नाटककारों को उनके संवादों में करना चाहिये जिससे दृश्यकाव्यों में स्वाभाविकता बनी रहे जब कोई भी संस्कृत नाटककार संस्कृत नाटकों की रचना करेगा तो वह एक ही स्थान पर बैठकर करेगा, न कि नाटक में प्रयुक्त तत् तत् स्थानों पर जाकर करेगा । अत: आचार्य भरतमुनि ने उन उन पात्रों द्वारा प्रयुक्त भाषा का निर्माण कैसे किया जाये, उसका उल्लेख अपने नाट्यशास्त्र में किया हे यत: सस्कृत नाटक देश-कालातीत हैं, अत: उनकी प्राकृत भाषा भी एकसूत्र में बँधी रहे इसके लिये भरतमुनि ने प्राकृत भाषा के व्याकरण सम्बन्धी नियमों का उल्लेख किया है । इससे अर्थो में एकरुपता बनाये रखने में सुविधा रहेगी ।