छठवीं शताब्दी ई० के महान् अध्यात्मवेत्ता सन्त आचार्य योगीन्द्रदेव ‘अपभ्रंश भाषा के कवि’ के रूप में जाने जाते हैं, किन्तु वे संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में भी काव्य-रचना करते थे। उनकी यशस्वी संस्कृतरचना ‘अमृताशीति’तो प्रकाशित हो चुकी है तथा अद्यावधि अप्रकाशित ‘स्रग्धरा’ छन्दोबद्ध प्राकृत-रचना ‘निजात्माष्टाम् ’ की कन्नड टीका-सहित प्रति कर्नाटक के ग्रंथ-भंडार में मिली हैं। यहाँ उसी प्रति के आधार पर मात्र मूलपाठ को हिन्दी अनुवाद-सहित ‘प्राकृतविद्या’ के जिज्ञासु पाठकों की ज्ञानपिपासा की तृप्ति के लिये प्रस्तु किया जा रहा है।
णिच्चं तेलोक्क-चक्काहिव-सय-णमिया जे जिणिंद य सिद्धा ।
अर्थ – जो तीनों लोकों से सौ चक्रवर्तियों (इन्द्रों) के द्वारा नित्य नमन किये गये हैं, ऐसे जिनेन्द्र (अर्हन्त परमात्मा) एवं सिद्ध परमात्मा हैं; तथा अन्य जो ग्रंथार्थरूप भावश्रुत एवं शास्त्रीरूपी द्रव्यश्रुत की आगम-परम्परा में अपने उपयोग को लगाने वाले आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी हैं; उन सभी ने (अपनी आत्मा को) शुद्ध जाना है एवं उसी का अनुसरण भी किया है। तथा इसी से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई है अथवा भविष्य में होगी। अतएव मैं भी ऐसे परमपद को प्राप्त निर्विकल्प निजात्मतत्त्व का नित्य ध्यान करता हूँ (करना चाहता हूँ, ताकि मुझे भी शीध्र मोक्ष की प्राप्ति हो)।
अर्थ –जो समस्त परिग्रहों से रहित है, मोक्षमार्ग (कारणसमयसार) स्वरूपी है, रूपातीत है, अनुपम है, अशरीरी (निष्कल) है, अव्याबाधतत्तव है, अनन्त है, अगुरुलघु गुण से युक्त है, आदि-मध्य-अन्त से राहित है, अपने स्वभाव में स्थित है, स्वयंभू है, समस्त कर्म-प्रकृतियों से रहित है, त्रिकाल शाश्वत तत्त्व है- ऐसे परमपद को प्राप्त निर्विकल्प निजात्मतत्त्व का मैं नित्य ध्यान करता हूँ (करना चाहता हूँ)।
अर्थ –जो एक (अखण्ड) है, सद्ज्ञान का पिण्ड है, आकाश के समान परिशुद्ध है, ऊर्ध्वगमन-स्वभावी है, नित्य उपादेयतत्त्व है, (अपने स्पर्श-अनुभव मात्र से भव्य जीवलोक का उद्धार करने वाला होने से) स्पर्श-सिद्ध से युक्त के समान है, प्राप्त शरीर के आकारवाला है, सिद्ध है, शुद्धस्वरूपी है, अचेतन गुणो से रहित है, अक्षय है, अक्षातीत (इन्द्रिय-अगोचर) है, – ऐसे परमपद को प्राप्त निर्विकल्प निजात्मतत्त्व का मैं नित्य ध्यान करता हूँ (करना चाहता हूँ)।
अर्थ –जो योगियों के ध्यानगम्य है, परमसुखमय है, कर्म और नोकर्म से रहित है, प्राप्त शरीर के आकारवाला होने पर भी शरीररहित है, कलिकाल के कालुष्य (मैल) के लेप से रहित है, पवित्र है, सम्यक्तवादि गुणों से समृद्ध है, – ऐसे परमपद को प्राप्त निर्विकल्प निजात्मतत्त्व मैं नित्य ध्यान करता हूँ (करना चाहता हूँ)।
अर्थ –जो स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसकवेद रूप नहीं हैं, निरतिशय-अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करने वाला है, अतुलनीय है, नाम-निर्देश से रहित है, विषाद-रहित है, मन-वचन को समारम्भकृत सम्बन्ध से च्युत (विरहित) है, लोकालोक को प्रकाशित करने वाला है, अविनाशी स्थानरुप है, विशेष (भेद) रहित है, निरीश (जिसका अन्य कोई स्वामी न हो ऐसा) है- ऐसे परमपद को प्राप्त निर्विकल्प निजात्मतत्त्व मैं नित्य ध्यान करता हूँ (करना चाहता हूँ)।
अर्थ –जो ज्ञायकतत्त्व असंख्यातपदेशी है, स्वसमय को प्राप्त है, अनन्तसुख का अवस्थान है, भूख-प्यास से रहित स्वभाव वाला है, संसार के भय से रहित है, बंध से मुक्त है, अमर्तिक है, अव्यक्त होते हुये भी ज्ञानगम्य है, जरा-मृत्यु से रहित है, परब्रह्म स्वयरूपी है – ऐसे परमपद को प्राप्त निर्विकल्प निजात्मतत्त्व मैं नित्य ध्यान करता हूँ (करना चाहता हूँ)।
अर्थ –जो सर्वज्ञस्वरूपी है, समस्त वर्ण-गंधादि विरीत भावों से रहित है, ममत्वरहित है, विकल्परूप विचार से रहि है, रूपातीत स्वरूपवाला है, पूणत: निर्मल सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान का बीजभूत है, इष्ट एवं अनिष्ट सयोगों को प्राप्त करने वाले शुभ और अशुभ विकल्पों के आश्रय के अभावस्वरूपी हैं, – ऐसे परमपद को प्राप्त निर्विकल्प निजात्मतत्त्व मैं नित्य ध्यान करता हूँ (करना चाहता हूँ)।
अर्थ –रूप में, पिण्ड में, पदार्थ में, कलाओं के भेद में, ज्योतिवृंद में, नाद में, अर्थ में, ग्रंथ में, शास्त्र में, इन्द्रिय-व्यापार में (निश्चय मोक्षमार्ग से भिन्न) अन्य किसी मार्ग में जो नहीं है, तथा जो छोटे-बड़े शरीरो में रहकर भी स्वसंवेदन-भावपूर्वक त्रिकाल आनन्दस्वरूपी है – ऐसे परमपद को प्राप्त निर्विकल्प निजात्मतत्त्व मैं नित्य ध्यान करता हूँ (करना चाहता हूँ)। ।।
इति श्री योगीन्द्रदेव-विरचितं ‘निजात्माष्टकं’ परिसमाप्तम् ।।
अर्थ :– इस प्रकार श्री योगीन्द्रदेव-विरचित ‘निजात्माष्टक’ नामक ग्रंथ समाप्त हुआ।