इस अनादि निधन विश्व में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल ये छहों द्रव्य निरन्तर अपना कार्य निष्पन्न करते रहते हैंं इन्हीं के समुदाय को विश्व संज्ञा प्राप्त है। ये द्रव्य परस्पर उपग्रह करके कार्य रूप परिणत होते हैं। प्रत्येक कार्य कारणों पर अवलम्बित होता है। ‘कारण’ शब्द की परिभाषा, ‘‘अन्यथानुपपत्तित्वं हेतोलक्षणमीरितम्’’ के अनुसार, जिसके बिना कार्य न हो उसे ‘कारण’ कहते हैं, निश्चित होती है।
इसका तात्पर्य यह है कि कारण अथवा कारणों के प्रयुक्त होने पर कार्य होता भी है और नहीं भी, किन्तु बिना उसके कार्य सिद्धि नहीं होती है। सामान्य कारण के प्रसंग के सर्वत्र यह ध्यान में रखना आवश्यक है। उदाहरणार्थ सूर्य कमलों के विकास का कारण है तथापि ऐसा भी दृष्टव्य है कि कुछ कमल उसके प्रकाश के सद्भाव में नहीं भी खिलते, इस प्रकार की नियामकता न होने पर भी सूर्य को कमल के खिलने में कारण मानना ही पड़ता है।
जिसके द्वारा कार्य अवश्यमेव हो उसे ‘करण’ कहते हैं इसे ‘नियामक कारण’’ भी कह सकते हैं। जैसे सूर्य के उदय होने पर दिन का अस्तित्व अवश्यम्भावी है। फलितार्थ यह है कि सभी करण अनिवार्य रूप से कारण होते हैं किन्तु सभी कारण, करण नहीं होते।
जैसे सम्यक्दर्शन प्राप्ति में क्षयोपशम, विशुद्धि, देखना और प्रायोग्य लब्ध्यिाँ कारण हैं इनके सद्भाव में सम्यक्त्व हो भी सकता है और नहीं भी किन्तु पाँचवी करण लब्धि के होने पर सम्यक्त्व अवश्य उत्पन्न होता ही है इसी हेतु से उसे ‘कारण’ संज्ञा सार्थक है। उपरोक्त कथन का सार यह है कि ‘कारण’ की मीमांसा करते समय यह दृष्टि में रखना चाहिये कि जिसके द्वारा ही कार्य होगा। जिसके द्वारा होगा ही, ऐसा नहीं सभी प्रकार के निमित्त व उपादान दोनों कारणों पर यह बात समान रूप से लागू होती है। मूल रूप से ‘कारण’ दो प्रकार के हैं—
१. उपादान, २. निमित्त।
उपादान
जो स्वयं कार्य रूप परिणत होता है, वह द्रव्य सामान्य रूप से उपादान कारण होता है, पदार्थ की निजी शक्ति को भी उपादान कहते हैं जैसे सोना स्वयं कुण्डल रूप में निष्पन्न होता है अत: ‘कुण्डल’ पर्याय का उपादान कारण सोना है। द्रव्य पर्याय का कारण है। उपादान दृष्टि से कार्य कारण भाव पर्याय और द्रव्य में अभिन्न रूप से होता है।
पूर्वक्षणवर्ती पर्याय परिणत द्रव्य उपादान कारण है और उत्तर पर्याय परिणत द्रव्य उपादेय अथवा कार्य है। न्याय ग्रंथों में इसका सम्यक् वर्णन है। और उत्तर पर्याय परिणत द्रव्य उपादेय अथवा कार्य है।
न्याय ग्रंथों में इसका सम्यक् वर्णन है। पूर्व क्षणवर्ती जननीय शक्ति ही उपादान है जैसे सामान्य मिट्टी घड़े का उत्पादन नहीं कर सकती किन्तु स्थासु, कोश के बाद कुशून पर्याय परिणत मिट्टी ही घट की उपादान कारण है उन कुथूल में ही तत्काल घड़े को उत्पन्न करने की शक्ति है। इस शक्ति को हम दो रूपों में पाते हैं।
(१) सामान्य अर्थात् सार्वकालिक
(२) विशेष या तात्कालिक।
शक्ति को योग्यता भी कहते हैं। प्रत्येक द्रव्यों में नाना प्रकार की अनन्त शक्तियाँ या कार्योत्पादक स्वत्व विद्यमान हैं, उनको जैसे निमित्त कारण उपलब्ध होते हैं तदनुरूप पर्याय उत्पन्न हो जाती है। उपादान कारण को मुख्य, अभ्यन्तर कारण भी कहते हैं। द्रव्य का स्वभाव कारण है और पर्याय कार्य है अभिन्न उपादान कारण और कार्य की दृष्टि से वर्तमान पर्याय ही कारण है और वही कार्य है।
उपादान कारण के सदृश कार्य होता है जैसे सफेद चावल से सफेद भात तथा गुलाब की कली से गुलाब फूल उत्पन्न होता है। अन्य अपेक्षा से कार्य, उपादन कारण से भेद भी रखता है उत्पद्यमान पर्याय तो कार्य है और उसको उत्पन्न करने वाला द्रव्य का आत्मा कारण है इसलिये एक ही द्रव्य में कारण कार्य भाव का भेद विरुद्ध नहीं है।
कारण कार्य से एक देश भिन्न होता है। दूध के दही बन जाने पर उसके रस व मूल्य आदि में अन्तर स्पष्ट सिद्ध है। अत: उपादान स्वयं कार्य रूप हो जाता है अत: इस दृष्टि से उपादान के सदृश कार्य होता है।
निमित्त—‘निमेद्यते निमीयतेऽनेन वा इति निमित्तम् ।
जो कार्य में सहायता प्रदान करता है वह निमित्त है। सहकारी, सहयोगी, उपग्रही कारण निमित्त कारण हैं। जैसे स्वर्णपाषाण की शुद्ध स्वर्ण रूप होने में अग्नि सहायक है अत: वह निमित्त कारण है। निमित्त शब्द का अर्थ कारण भी है ‘प्रत्यय: कारणं निमित्तमित्यर्थान्तरम्’।
(सर्वार्थसिद्धि १–२१) प्रत्यय, कारण और निमित्त एकार्थवाची हैं। निमित्त कारण, बहिरंग, अन्तरंग, उदासीन, प्रेरक भेदों से दो दो प्रकार के हैं। चूँकि निमित्त भी कारण है अत: स्पष्ट है कि निमित्त के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। दोनों कारणों की समग्रता कार्य को उत्पन्न करती है। आ. समन्तभद्र स्वयंभू स्तोत्र में कहते हैं—
वाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतस्वभाव:।
कार्यों में बाह्य और अभ्यन्तर दोनों कारणों की यह जो पूर्णता है वह आपके मत में द्रव्यगत स्वभाव है अन्यथा पुरुषों के मोक्ष की विधि ही नहीं बन सकती। एवं मोक्षमार्ग में भी क्षयोपशयम विशिष्ट भव्य आत्मा उपादान कारण होता है और देव—शास्त्र—गुरु उसमें निमित्त होते हैं।
यद्यपि रत्नत्रय आत्मा में ही प्रकट होता है तथापि सम्यग्दर्शन के लिए देव, ज्ञान के लिये शास्त्र और चारित्र के लिये गुरु निमित्त कारण हैं। इसीलिये ये उपास्य हैं। इनके बिना किसी जीव को मोक्ष नहीं प्राप्त हुआ। भगवान् की दिव्य ध्वनि कभी निष्फल नहीं जाती। स्पष्ट है कि उसका फल स्वयं उनके उपादान के लिये नहीं अपितु अन्य जीवों के लिये बोधि प्राप्ति के रूप में होता है।
हाँ यदि जीव ही भव्य एवं तीव्र कर्मभार रहित नहीं हो अर्थात् उसमें उपादान या शक्ति न हो तो देव—शास्त्र—गुरु का सानिध्य निमित्त कुछ न कर सकेगा। परिणाम तो उपादान का ही है। वर यात्रा में अनेक यात्री होते हैं किन्तु विवाह का फल तो वर को ही प्राप्त होता है। क्वचित् कदाचित् एकान्त रूप से उपादान कारण को ही कारण रूप से स्वीकार करने वाले लोग आगम के निम्न प्रकार के वक्तव्यों को अज्ञानता से माध्यम बना लेते हैं।
एक्कस्स दु परिणामो पोग्गलदव्वस्स कम्म परिणामो।
ता जीव भाव हेदूिंह विणा कम्मस्स परिणामो।।६४०।।
समयप्राभृत।इस गाथा में ‘विणा’ शब्द का अर्थ बिना मात्र कर देने से कर्म का परिणाम बिना जीव भाव के निमित्त से होने लगेगा जो कि स्वयं आ. कुन्दकुन्द स्वामी को इष्ट नहीं है। इस गाथा की टीका करते हुए आ. अमृतचन्द्र जी ने ‘विणा’ का अर्थ पृथक् लिया है जो समीचीन है जिसका तात्पर्य यह है कि जीव भाव रूप निमित्त का अस्तित्व कर्मरूप परिणत पुद्गल द्रव्य से पृथक् है, भिन्न है।
दोनों के गुण परस्पर में संक्रमित नहीं होते। किन्तु यह बात तो मानने योग्य ही है कि जीव भाव के निमित्त से ही कर्म उत्पन्न होता है। निमित्त को कारण रूप स्वीकृति को पराधीन दृष्टि मानना मिथ्यात्व है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समय प्राभृत के ही कत्र्तृ कर्माधिकार में कहा है—
जीव परिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमन्ति।
पुग्गल कम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ।।
जीव भावों के कारण (निमित्त कारण) से पुद्गल कर्मरूप में परिणमित हो जाते हैं और उसी पुद्गल कर्म के निमित्त से जीव भी (विकारी भावों में) परिणमित हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि वे पुद्गल व जीव को परस्पर विकारी कार्य के उत्पादन में अविनाभावी रूप से (निमित्त) कारण मानते हैं।
बिना एक दूसरे के निमित्त कारण से कर्म और चैतन्य के रागद्वेष आदि विकृत पर्याय उत्पन्न नहीं हो सकते। वर्तमान में निमित्त व उपादान के विषय में चर्चाओं का बाजार गर्म है। किसी भी स्वाध्याय—प्रसंग में इनकी विस्तार से विवेचना की जाती है। उपादानवादी और निमित्तवादी अपने ही आग्रह पर एकान्त पक्ष के रूप में दृढ़ दिखाई पड़ते हैं।
उपादान वाद का दुराग्रह अपेक्षाकृत अधिक पक्षपात पूर्ण मंच बनाये हुये हैं। समस्त जिज्ञासाओं को दृष्टिगत कर अनेकान्त के परिप्रेक्ष्य में स्याद्वाद शैली से कुछ बिन्दुओं पर यहाँ हम चर्चा करेंगे।
निमित्त—नैमित्तिक सम्बन्ध
निमित्त—नैमित्तिक सम्बन्ध—जिसे निमित्त का प्रयोजन होता है व जिसका निमित्त से सम्बन्ध होता है या जो निमित्त से उपकृत है उसे नैमित्तिक कहते हैं या उपादान कहते हैं। जैसे सूर्य के उदय होने पर चकवा—चकवी परस्पर मिल जाते हैं, यहाँ सूर्य का उदय निमित्त है और पक्षियों का मिलना नैमित्तिक है।
निमित्त, कारण होता है व नैमित्तिक कार्य होता है। निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध लोक में सर्वत्र दृश्यमान हैं। जीव और कर्म का भी निमित्त—नैमित्तिक सम्बन्ण्ध है। इस सम्बन्ध को व्यवहारनय से ही कारण—कार्य सम्बन्ध कहते हैं। निश्चयनय से कारण—कार्य सम्बन्ध एक ही द्रव्य के साथ उसकी पर्याय का होता है। जैनागम में भिन्न कारण—कार्य भाव व अभिन्न कारण—कार्य भाव दोनों सापेक्षता से स्वीकार किए गये हैं।
निमित्त—नैमित्तिक सम्बन्ध दो पृथक् द्रव्यों में भी होता है तथा गुणों व पर्यायों की अनेकता की दृष्टि से एक द्रव्य में भी होता है तथा गुणों व पर्यायों की अनेकता की दृष्टि से एक द्रव्य में भी होता है। जैसे सूर्य अन्य द्रव्य है तथा चकवा—चकवी अन्य द्रव्य हैं। यहाँ परस्पर में अन्य द्रव्य सम्बन्धी निमित्त—नैमित्तिक सम्बन्ध है। एक ही द्रव्य में निमित्त—नैमित्तिक सम्बन्ध भी अविरुद्ध है।
जीव के श्रद्धा गुण को स्वभाव पर्याय अर्थात् सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में ज्ञान गुण की यथार्थ परिणति व विशुद्ध परिणाम आदि निमित्त कारण पड़ते हैं। यह द्रव्य में भेद कल्पना करने वाले व्यवहारनय से निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। दोनों की समग्रता होने पर ही सम्यक्त्व उत्पन्न होता है।
जीव में सम्यक्त्व की योग्यता होने पर भी सम्यक्त्व की उत्पत्ति बिना विशुद्ध परिणामों (रागद्वेष की मंदता) के नहीं देखी जाती। श्रद्धा गुण जब विशुद्ध परिणामों आदि भावों से प्रभावित होता है तभी वह सम्यक्त्व बन जाता है प्रभाव डालने वाला ही निमित्त होता है। कुछ लोग निमित्त—नैमित्तिक सम्बन्ध को स्वीकार करते हैं, किन्तु उनमें किसी भी अपेक्षा कारण कार्यभाव या कत्र्ता कर्म सम्बन्ध स्वीकार नहीं करते। उन्हें निश्चयनय का एकान्तपक्ष प्रबल है।
क्योंकि निश्चयनय से तो जो द्रव्य कत्र्ता या कारण है वही कार्य है, अभिन्न कारण कार्य—भाव हैं निश्चय नय से तो दिव्यध्वनि भी जिनवाणी नहीं है, क्योंकि शब्द पुद्गलों की वाणी रूपी उत्पत्ति में जिनेन्द्र भगवान् निमित्त करता है, उपादान नहीं है। फिर भी आचार्यों ने सर्वज्ञ भगवान् को मूल ग्रंथकर्ता कहा है।
बजाय निमित्त के उन्होंने कत्र्ता शब्द का प्रयोग किया है। जिनवाणी को भी नकारा जावेगा उसे वास्तविक न जाना जावेगा तो समस्त तत्त्व और तीर्थ दोनों का लोप हो जावेगा जो कि इष्ट नहीं है। भले ही व्यावहारनय का आश्रय लेकर सत्य रूप से जिनवाणी का श्रद्धानकर कल्याण करना पड़े।
यही होता भी है और सर्वत्र सब काल में होता है। भगवान् की देशना तो दोनों नयों के आधार पर है। आचार्य अमृतचन्द्र जी ने कहा है— ‘‘उभयनयायत्ता हि पारमेश्वरी देशना।’’ (आत्मख्याति) आप्त के सभी वचन सत्य हैं, चाहे निश्चय हो या व्यवहार इसकी स्वीकृति ही निशंकित अंग है। कहा भी है—
सकलमनेकान्तात्मकमिदमुत्तं वस्तुजातमखिलज्ञै:।
किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शंकेति कत्र्तव्या।।
(पुरुषार्थसिद्धिउपाय)व्यवहारनय से निमित्त—नैमित्तिक सम्बन्ध को कत्र्ता—कर्म सम्बन्ध स्वीकृत है। क्या निमित्त उपस्थित मात्र रहता है ?— निमित्त मात्र उपस्थित नहीं रहता अपितु प्रभाव भी डालता है, सहायता करता है। विश्व में छहों द्रव्य परस्पर प्रभावित करते हैं इसीलिए इसका नाम विश्व है।
उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थ सूत्र में— ‘गतिस्थित्युपग्रहौधर्माधर्मयोरुपकार:’’ आदि अनेकों सूत्र लिखकर निमित्त—नैमित्तिक संबंध को प्रभावक—प्रभाव्य व उपग्रही—उपकृत रूप में प्रस्तुत किया है। द्रव्य संग्रहकार ने कहा है—
‘‘गइपरिणयाणधम्मो पुद्गल जीवाण गमण सहयारी।
तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो णेई।।
गति परिणत जीव व पुद्गलों को जो चलने में सहायता प्रदान करता है वह धर्मद्रव्य है जैसे पानी मछलियों को चलने में सहायता प्रदान करता है किन्तु जो ठहरे हुए हैं अथवा गतिपरिणत नहीं है उन्हें विवश करके नहीं चलाता। अर्थात् उदासीन निमित्त कारण है। यह गाथा अति स्पष्ट सापेक्षता (निश्चय—व्यवहार की) को लिए हुए हैं तात्पर्य यह है कि जो चलने के अभिमुख हो तदुपयोगी शक्ति से सम्पन्न हो अर्थात् जिनका उपादान समर्थ हो उनको सहायता प्रदान करता है जैसे जल के बाहर मछली तड़फती रहती है, बिना जल की सहायता से नहीं चल सकती।
यद्यपि उसमें चलने की शक्ति है तथापि उस शक्ति की व्यक्ति बिना जल के निमित्त के नहीं होती, इस प्रकार भी कह सकते हैं कि विवक्षित निमित्त उपादान की योग्यताओं को जागृत करता है। प्रेरक निमित्त कारण तो प्रेरणा करके कार्य करता ही है व उदासीन निमित्तों की िंकचित्करता भी युक्ति सिद्ध है। जैसे पेट्रोल बस की गति में उदासीन निमित्त है उसमें शक्ति निहित है जब वह जलती है, तब शक्ति प्रकट उत्पन्न करती है।
वह केवल उपस्थित ही नहीं रहती, अपितु वह शक्ति का प्रयोग बस की गति हेतु करती है तो बस चल पड़ती है। कतिपय जन इस तर्क को प्रस्तुत करते हैं कि यदि पैट्रोल से बस चलती हो तो प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक बस चलनी चाहिए अत: हम पैट्रोल को बस की गति में कारण नहीं मानते। किन्तु इस तर्क में बल नहीं है, क्योंकि हमने कारण की परिभाषा में यह स्पष्ट किया है।
उसके आधार पर यह उक्ति बनती है कि बस पैट्रोल के बिना नहीं चलती या अन्य साधक कारणों के सद्भाव में तथा बाधक कारणों के अभाव में मोटर पैट्रोल से ही चलती है। ज्ञातव्य है कि एक कार्य में अनेक कारण होते हैं। मोटर पैट्रोल से चलती ही है, यह अभीष्ट नहीं है क्योंकि यह तो कारण का लक्षण है। करण के न होने पर तो कार्य होता ही नहीं है तथा उसके होने पर अवश्य होता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने तो समय प्राभृत में निमित्त कारण की उपयोगिता या किञ्चित् करता का उल्लेख किया है।
उन्होंने कहा है कि मात्र कुम्भकार की उपस्थिति से घट का निर्माण नहीं होता, किन्तु उसके योग तथा उपयोग घट का उत्पाद करते हैं। ये निमित्त कारण ही तो हैं। यदि केवल निमित्त की उपस्थिति मात्र से कार्य हो जाता हो तो कर्म की सत्ता ही पर्याप्त है, वह जीव के लिए पूर्ण निमित्त बन जाती।
किन्तु जीव के लिए कर्म की बन्ध, उदय, सत्ता, उपशम, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, निधन्त और निकाचित् ये दस अवस्थायें भिन्न—भिन्न प्रकार से जीवन—मरण, दु:ख—सुख आदि प्रदान करती हैं। अनिच्छापूर्वक कार्य करने वाले जीव—अजीव दोनों कत्र्ता होते हैं, जैसे—
अनात्मार्थं विना रागै: शास्ता शास्ति सतो हितम्।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरज: किमपेक्षते।।
(रत्नकरण्ड)उपस्थि होते हुए भी सब पदार्थ निमित्त नहीं होते, कुछ ही होते हैं, वे जो उपयोगी होते हैं उनकी उपयोगिता का ही मूल्य हम चुकाते हैं, हर उपस्थित वस्तु का नहीं। प्रेरक निमित्त कारण तो नैमित्तिक को प्रबलता से भी अपने अनुकूल कर लेता है जैसे कोई गुरु शिष्य को अपने अनुकूल बना लेता है।
वायु विरुद्ध हो तो साइकिल या नाव की गति कम होती है और यदि अनुकूल हो तो उनकी गति तीव्र हो जाती है। सड़क पर यदि चढ़ाई हो तो मोटर को अधिक पैट्रोल खर्च करना पड़ता है तथा यदि सड़क में ढाल हो तो कम तेल व्यय होता है और बिना तेल के भी मात्र ढाल के कारण मोटर तेज चली जाती है। क्या निमित्त सदैव स्वयं उपस्थित हो जाता है ?—यह एक र्चिचत जिज्ञासा है। किन्तु ऐसा है नहीं। प्यासा कुएं के पास जाता है।
कुआं प्यासे के पास नहीं। हम आत्म विशुद्धि के लिये जिनेन्द्र भगवान रूपी निमित्त के पास जाते हैं। छाया के लिये हमारा उपादान वृक्ष निमित्त के पास जाता है, आदि। इसके अतिरिक्त उपादान अपने लिये निमित्त को आमंत्रित या आर्किषत करता है। गर्भस्थ शिशु रूप उपादान अपने शरीर रचना योग्य नोकर्म वर्गणा को आर्किषत करता है।
कर्म परमाणुओं को तो न कुछ ज्ञान है, न कुछ इच्छा है। इस प्रकरण में कर्मवर्णणाओं के आर्किषत, आस्रवित होने में वह उपादान भी निमित्तपने को प्राप्त होता है। यहाँ निमित्त की िंकचित्करता सिद्ध है। कभी—कभी ऐसा भी होता है कि बिना प्रयत्न के अनायास ही निमित्त उपस्थित होता है। यह संयोग ही है।
राजमार्ग नहीं है। पुरुषार्थ की हानि रूप है। इस विषय में भगवान् महावीर का जीव, जो पूर्व भव में िंसह था, चर्चा का विषय है, कतिपय जन कहते हैं कि िंसह को (उपादान को) प्रतिबुद्ध करने के लिये आकाश से चारण साधु िंसह के उपादान की तैयारी से अपने आप िंखचकर उतर आये। बन्धुओं, इस उदाहरण से निमित्त की अिंकचित्कर सिद्ध नहीं होती, अपितु उसकी कार्य करता ही पुष्टी होती है।
क्योंकि साधुओं के आर्किषत होने रूप कार्य में िंसह प्रबल निमित्त कारण ठहरता है। जिसे आप तैयार उपादान कहते हैं, वह निमित्त भी तो है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि चारण मुनिराज तो अपने कार्य हेतु विहार कर रहे थे, उनके पर—कल्याण की भावना भी तो थी, जिससे वे िंसह को सम्बोधित करने आये। यदि वे यह मान लेते कि एक द्रव्य दूसरे का कुछ नहीं करता तो वे निरर्थक क्रिया क्यों करते।
आचार्य कुन्दकुन्द ने तो यह कहा था कि एक द्रव्य दूसरे में गुणों का उत्पाद नहीं करता (अण्ण दव्वेण अण्णदव्वस्स ण करिए गुणुप्पादो)। उनको यह मान्य है। कि एक द्रव्य दूसरे को प्रभावित करता है, निमित्त कारण होता है।
आगम के परिप्रेक्ष्य में
१. ‘‘धर्मास्तिकायाभावात्’’ (तत्त्वार्थ सूत्र)—मुक्त जीव (सर्वशक्तिमान् होते हुए भी ऊध्र्वगमन स्वभाव होने पर भी) धर्मास्तिकाय निमित्त के आलोक में अभाव के कारण लोकाकाश तक ही गमन करता है, आगे अलोकाकाश में नहीं।
२. ‘‘गणहराभावादो’’ (धवल)—भगवान् महावीर की देशना ६६ दिन तक क्यों नहीं खिरीं ? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि गणधर के अभाव के कारण नहीं खिरी। योग्यता निमित्त गणधर के निमित्त से ही कार्य कर सकी।
(समयसार कलश)आत्मा रागादि विकारी भावों का स्वयं ही निमित्त कारण नहीं हो सकता। उसमें परसङ्ग (कर्मपुद्गल) ही निमित्त कारण है। विकारी भाव किसी द्रव्य में हो उसमें परद्रव्य ही कारण होता है यह वस्तु का स्वभाव है। इसमें तर्क नहीं चलता।
गौणता एवं मुख्यता
आगम में कहीं उपादान की मुख्यता से तथा कहीं निमित्त की मुख्यता से वर्णन है, दूसरा गौण हो जाता है। अभाव रूप नहीं होता। उपादान की मुख्यता में निश्चयनय का कथन होता है। तथा निमित्त को मुख्यता में व्यवहारनय का कथन होता है। विषय बहुत विस्तृत है। आगम को स्वयं सावधानी से पढ़ना चाहिये और अमृतचन्द्र आचार्य की जैनी नीति का अवलम्बन लेना चाहिए। कहा भी है—
‘एकेना कर्षन्ती श्लथन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी।।
(पुरुषार्थ)
इस संक्षप्ति लेख का उपरोक्त ही अभिप्राय हैं यश्चानुश्रूयते हंर्तुमापद: पापप्रक्रिया।
उपाय: पुण्यसदूबंधुं सोऽप्युत्थापयितुं परम्।।५९।।
पाप कर्म के उदय से प्राप्त हुई आपत्तियों को दूर करने के जो उपाय सिद्ध मंत्रादि के प्रयोग आप्त भगवान् की उपदेश परम्परा के अनुसार सुनने में आते हैं, वे भी केवल उस बिना कारण के समीचीन बन्धु पुण्य कर्म को ही जाग्रत करने के लिये हैं। (अनगारधर्मामृत)