इस द्रव्यानुयोग के वर्णन में जिस महान ग्रंथ नियमसार को लिया जा रहा है, वह इस युग के सर्वाधिक पूज्य आचार्य कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचित हैं। ये वे ही कुन्दकुन्दाचार्य हैं, जिनका नाम समस्त जैन समाज में प्रत्येक मंगलमय अवसर पर अत्यंत श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं।।
आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने जिन पाँच सार रूप ग्रंथों को लिखा है, उन्हीं में से यह एक है। भगवान महावीर एवं गौतम गणधर के पश्चात् जिनका नाम हम परम आदरपूर्वक लेते हैं। उनकी महिमा शब्दों में वर्णित नहीं की जा सकती। जिन्होंने स्वयं अध्यात्म रस में निमग्न होकर अपनी अनुभव पूर्ण लेखनी से उस प्राप्त आनंद का अंश लिपिबद्ध किया है, उस रस का आस्वाद स्वयं चखने वाले को ही अनुभव में आ सकता है। जब आत्मा की बात पढ़ने व सुनने में ही सुखद लगती है, तो जो स्वयं उसमें सराबोर हो जाते हैं, उस रूप ही हो जाते हैं, उनके आनंद का तो कहना ही क्या है। वैसे तो सारा संसार आनंद की प्राप्ति के लिए अहर्निश प्रयत्नशील है, किन्तु उस जन्य पुरुषार्थ विपरीत दिशा में चल रहा है, जिसके कारण उस प्राप्ति की दूरी बढ़ती जा रही है। मैंने भक्ति रस में व अध्यात्म रस में गोते लगाकर जो रत्नकण एकत्रित किये हैं, उसी के फलस्वरूप उनमें से एक यह नियमसार ग्रंथ की ‘‘स्याद्वादचन्द्रिका’’ नाम की संस्कृत टीका एवं मेरे द्वारा लिखी गई हिन्दी टीका ‘नियमसार प्राभृत’’ ग्रंथ के रूप में आपके सामने आई है।
णमिऊण जिणं वीरं अणंतरवरणाणदंसणसहावं।
वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवली भणिदं।।१।।
नियमसार ग्रंथ के इस मंगलाचरण से ग्रंथ का विषय और ग्रंथकर्ता आचार्य कुन्दकुन्ददेव के भावों का अच्छी तरह से परिचय प्राप्त हो जाता है। ‘णमिऊण’ गाथा के इस प्रथम अक्षर से श्रद्धा भक्ति विनय के भाव प्रतिभासित होते हैं। जब नमस्कार किया जाता है, तो यह बात निश्चित हो जाती है कि जिसे नमस्कार किया है, वह महान है, गुणवान है, पूज्य है। नमसकार मन-वचन-काय तीनों से होता है। गुणों का अनुरागी ही गुणवान को नमस्कार करता है। यहाँ तो नमस्कार करने वाला स्वयं ही महान आचार्य हैं। इससे यह भी ज्ञात होता है कि जिन्हें नमस्कार किया है, वह उनसे भी अधिक महान है। आचार्य से महान तो अरहंत सिद्ध हो सकते हैं। आचार्यदेव ने अपने आराध्य का नाम भी स्पष्ट कर दिया है कि मेरी आराधना के पात्र वीर जिन हैं। कैसे हैं वे वीर महावीर ? अनंत ज्ञान दर्शन स्वभाव वाले हैं। नमस्कार सकारण ही किया जाता है, या अकारण भी ? अकारण नमस्कार भी सकारण ही होता है किन्तु सकारण में कोई विशेष विषय लक्षित रहता है। चूूँकि यहाँ आचार्यदेव नियमसार नामक ग्रंथ का सृजन कर रहे हैं। इसलिए सकारण नमस्कार है। यहाँ नमस्कार में यह भावना निहित है कि अभीष्ट की सिद्धि हो अर्थात् नियम का सार स्वपर हितकारी हो। मंगलाचरण में दिये गये ‘केवलिसुदकेवलीभणिदं’ शब्दों में ग्रंथकर्ता आचार्य के परिणामों की सुकोमलता एवं लाघवता भी दृष्टिगत होती है। साथ ही उन्होंने अपने आपको प्रतिज्ञाबद्ध भी किया है कि मैं इस ग्रंथ में उसी बात को कहूँगा, जिसे केवली एवं श्रुतकेवलियों ने कहा है। विषय की प्रमाणता उसके कहने वाले से जानी जाती है। यदि कहने वाला प्रामाणिक नहीं है, तो उसकी बात अप्रमाणीक ही होगी। इस प्रकार मंगलाचरण में आचार्य श्री ने सब बातों का स्वयं स्पष्टीकरण कर दिया है जिससे कि पाठक के मन में किसी प्रकार का कोई ऊहापोह न होने पावे। क्या कहेंगे यह भी बता दिया कि ‘नियमसार’ को कहूँगा। नियम ‘शब्द रत्नत्रय के अनुष्ठान में लिया गया है। रत्नत्रय भेद तथा अभेद दो रूप से है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव कृत इन गाथाओं पर मैंने विस्तारपूर्वक स्याद्वादचन्द्रिका नाम से संस्कृत टीका रची है तथा शब्दों की भावात्मक व्युत्पत्ति करते हुए विषय को स्पष्ट किया है। जैसे कि-
‘वीर’ शब्द का प्रयोग तीन प्रकार
से किया जा सकता है। ‘वि’-विशिष्ट ‘ई’-लक्ष्मी तां र-राति ददाति इति ‘वीर’। संसार जनों को सदा लक्ष्मी-धन-सम्पदा की अभिलाषा रही है। जहाँ धन प्राप्त होता है वहीं मनुष्य जाता है तथा जैसे भी धन प्राप्त हो, वह कार्य करता है। पारमार्थिक दृष्टि से अन्तरंग लक्ष्मी अनन्तदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनन्तवीर्य है तथा बहिरंग लक्ष्मी समवसरण आदि की विभूति है। उसे, जो देते हैं वे ‘वीर’ हैं। अत: भगवान महावीर का यह वीर नाम सार्थक ही है। जो उनका आश्रय करता है, भक्ति करता है, उनके गुणों में तन्मय होता है, उसे उपरोक्त दोनों प्रकार की लक्ष्मी की सहजरूप से प्राप्ति हो जाती है। लौकिक सम्पदा प्राप्ति के लिए जितना प्रयास संसारी जन करते हैं, वह वास्तव में निरर्थक है, क्योंकि वह तो भाग्याधीन है। यदि पूर्व पुण्य का उदय हुआ, तब तो लाभ होता है अन्यथा कितना भी परिश्रम किया जाये, निरर्थक ही जाता है। उसकी अपेक्षा पारमार्थिक पुरुषार्थ जितना अधिक किया जाता है, उतना अधिक आत्म शांति रूप लाभ भी मिलता है। अंतरंग लक्ष्मी की प्राप्ति से स्थाई सुख मिलता है, जबकि बाह्य सम्पत्ति क्षणिक सुख प्रदान करती है। ‘भुक्ति मुक्ति दातार, चौबीसों जिनराजवर’ जो अंतरंग अभ्युदय को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, उसे लौकिक सुख तो अनाज के साथ उत्पन्न हुए घास की तरह स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं। फिर सच्चा सुख तो मुक्ति में ही हैं सांसारिक सुख को आचार्यों ने सुखाभास कहा है। दूसरे अर्थ में जो ‘वी’ विशेष रीति से ‘ईर्ते’ अर्थात् जानने हैंं सम्पूर्ण पदार्थ और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायें जिनके ज्ञान में एक साथ झलकती रहती हैं, ऐसे वीर जिन हैं। अथवा जिन्होंने कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके अपना वीर नाम सार्थक किया है। ==गाथा में वीर के पहले ‘जिन’ == विशेषण उनके महान गुणों का द्योतक है। अनंतसंसार के कारणभूत सम्पूर्ण मोह, राग-द्वेष आदि का नाश करके जिन्हें यह जिन संज्ञा प्राप्त हुई है, घातिया कर्मों का नाश करके अनंतदर्शन, अनंतज्ञान अनंतसुख, अनंतवीर्य रूप महान गुणों के स्वामी बने। यहाँ अनंतज्ञान आदि गुणों के स्मरणरूप भाव नमस्कार किया गया है, जो कि अशुद्ध निश्चयनय से है। ‘नत्वा’ शब्द के द्वारा वचनात्मक नमस्कार व्यवहार नय की अपेक्षा से किया गया है। शुद्ध निश्चयनय से तो अपनी आत्मा में ही आराध्य आराधक भाव है। इस प्रकार नयों का अर्थ ग्रहण करना चाहिए। इनमें से आदि के दो नमस्कार तो छठे गुणस्थान तक होते हैं तथा शुद्ध निश्चयनय से जो नमस्कार किया जाता है, वह सातवें गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान पर्यंत होता है, उसके आगे तेरहवें, चौदहवें, गुणस्थानवर्ती केवली अर्हंत भगवान और गुणस्थान से परे सिद्ध भगवान हैं, वे तो नमस्कार के योग्य ही होते हैं। व्यवहार-निश्चय रत्नत्रय अवलम्बन से शुद्ध आत्मा का ज्ञान होना या शुद्ध आत्मा की प्राप्ति हो जाना ही इस ग्रंथ का प्रयोजन है। आगे आचार्य देव आत्मा का हित और उसकी प्राप्ति का उपाय बताते हैं। ==मार्ग व मार्ग का फल- ==मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं, जिणसासणे समक्खादं। मग्गो मोक्खउवायो तस्स फलं, होइ णिव्वाणं।।२।। (नियमसार) मारग व मार्गफल ये दो, प्रकार हैं यहां। जिनदेव के शासन में ये, गणधर ने है कहा।। जो मोक्ष का उपाय है, वो मार्ग कहाया। उसका है फल निर्वाण, ये ऋषियों ने बताया।।२।।==मार्ग और मार्गफल जिनशासन == में ये दो भेद कहे गए हैं। इसमें से मोक्ष के उपाय का नाम मार्ग है और उसका फल निर्वाण है। सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाना मोक्ष है अथवा अनंतचतुष्टय की प्राप्ति हो जाना मोक्ष है। सो ही वृहद्द्रव्यसंग्रह में कहा है- ‘‘यद्यपि सामान्य से सम्पूर्ण कर्म कलंक को जिसने दूर कर दिया है ऐसे अशरीरी आत्मा को आत्यंतिक, स्वाभाविक, अचिन्त्य, अद्भुत, अनुपम, सकल, विमल, केवलज्ञानादि अनंत गुणों के स्थानस्वरूप एक भिन्न अवस्था का हो जाना ही मोक्ष है तो भी विशेष की अपेक्षा से मोक्ष के दो भेद हैं-भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष। संपूर्ण द्रव्यरूप ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों के क्षय करने में निमित्तभूत निश्चय रत्नत्रयात्मक कारण समयसार रूप जो आत्मा का परिणाम है वह भावमोक्ष है। इसे ही सिद्धांत भाषा में शुक्लध्यान और अध्यात्म भाषा में शुद्धोपयोग कहते हैं। यहां बारहवें गुणस्थान का अंतिम क्षण ही विवक्षित है और अयोगकेवली के चरम समय में टंकोत्कीर्ण शुद्ध, बुद्ध, एक स्वभाव वाले परमात्मा के आयु आदि शेष अघाति कर्मों का भी आत्यंतिक पृथग्भाव हो जाना वह द्रव्यमोक्ष है१।’’ यद्यपि यहां पर घाति कर्म के क्षय में कारणभूत ऐसे निश्चयरत्नत्रय रूप परिणाम को भावमोक्ष कहा है जो कि क्षीणकषाय गुणस्थान के अंतिम क्षण में होता है अत: उसके पूर्व के-द्विचरम समय के रत्नत्रय को मोक्षमार्ग संज्ञा है तथापि केवली भगवान के अघातिया कर्मों के निमित्त से चारित्र गुणों में आनुषंगिक दोष माने जाते हैं और उनके सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती व व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान भी उपचार से कहे गये हैं इसलिए निश्चयनय से अयोगकेवली के अन्त्य समय का परिणाम भी रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग ही है। श्रीविद्यानंद महोदय ने कहा भी है- ‘निश्चयनयादयोगकेवलिचरमसमयवर्तिनोरत्नत्रयस्य मुत्तेर्हेतुत्वव्यवस्थिते:।’ निश्चयनय से अयोगकेवली के चरम समय में होने वाला, रत्नत्रय मोक्ष के हेतुरूप से व्यवस्थित है। इस कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक मोक्षमार्ग संज्ञा है और उसके आगे उस मार्ग का फल निर्वाण है। यहां तक मोक्ष का विचार किया अब उसके मार्ग का विचार करते हैं। ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।’’ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों का समुदाय ही मोक्षमार्ग है। यदि इन तीनों में एक-एक या दो-दो लिए जावें तो मोक्षमार्ग नहीं बन सकते हैं जैसा कि ==श्री अकलंकदेव ने कहा है- == ये तीनों मिलकर ही मोक्षमार्ग है, एक-एक या दो-दो से नहीं क्योंकि तीनों के बिना मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती है, रसायन के समान। ‘‘सम्यक्त्व और चारित्र का अभाव होने से मात्र मोक्षमार्ग के ज्ञान से जान लेने से ही मोक्ष नहीं मिल सकता है। श्रद्धान मात्र से ही मोक्ष मिल जाये सो भी नहीं है क्योंकि मोक्षमार्ग को जानना और उस ज्ञानपूर्वक क्रिया का अनुष्ठान करना ये दोनों ही उसके नहीं हैं।’’ वैसे ही क्रिया मात्र से ही मोक्ष हो सो नहीं कह सकते चूंकि ज्ञान और श्रद्धान का अभाव है तथा ज्ञान और श्रद्धान-विश्वास से रहित क्रिया निष्फल ही है और यदि ज्ञानमात्र से ही प्रयोजन की सिद्धि कहीं पर देखी गई हो तो आप कहिए ? किन्तु ऐसा तो है नहीं इसलिए तीनों के मिलने से ही मोक्षमार्ग होता है यही मान्यता श्रेयस्कर है१। लोकव्यवहार में भी देखा जाता है कि यदि किसी ने रसायनरूप औषधि को जान लिया किन्तु उसके प्रति न उसका विश्वास है, न सेवन ही करता है तो वह स्वस्थ नहीं हो सकता तथा यदि ज्ञान, श्रद्धान दोनों भी हैं किन्तु सेवन नहीं करता है तो भी श्रद्धान व जानने मात्र से वह रोगमुक्त नहीं हो सकता है। यही बात प्रवचनसार में भी कही गई है। यथा-ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं, जदि वि णत्थि अत्थेसु। सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि।।३७।।अर्थ-यदि उसका पदार्थों पर श्रद्धान नहीं है तो मात्र आगम के ज्ञान से वह सिद्ध नहीं हो सकता है और यदि अर्थों में श्रद्धान करता है किन्तु असंयत है तो भी वह निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता है। ==टीकाकार श्री अमृचंद्रसूरि अपने वचनों से अमृत झराते हुए कहते हैं- == ‘‘श्रद्धानशून्य आगम ज्ञान से कोई सिद्ध नहीं होता और यदि आगमजनित ज्ञान व श्रद्धान इन दोनों से सहित भी कोई है किन्तु संयम से शून्य है तो वह सिद्ध नहीं हो सकता है।’’ जो असंयत है उसका यथोक्त आत्मप्रतीतिरूप श्रद्धान अथवा यथोक्त आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान क्या कर सकेगा ? इसलिए संयमशून्य श्रद्धान से अथवा ज्ञान से सिद्धि नहीं है अत: आगमज्ञान, तत्वार्थ श्रद्धान और संयतत्व सम्यक्चारित्र ये तीनों यदि युगपत् नहीं हैं तो उसका मोक्षमार्गपना विघटित ही हो जाता है।१ इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो कोई जीव श्रद्धानशून्य हैं अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र में से किसी भी एक से या किन्हीं भी दो से मोक्ष की प्रािप्त मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि ही हैं और जो इन तीनों का समुदाय ही मोक्षमार्ग है, ऐसा श्रद्धान करते हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं। इन सम्यग्दृष्टि अथवा देशव्रती श्रावकों के मोक्षमार्ग उपचार से ही होता है क्योंकि अमृतचन्द्रसूरि के शब्दों में मोक्षमार्ग रत्नत्रयधारी मुनियों के ही होता है तथा उनके भी यह मोक्षमार्ग व्यवहारनय से ही समझना चाहिए। चूंकि वास्तव में मोक्षमार्ग तो अध्यात्म की दृष्टि से बारहवें गुणस्थान में है और सिद्धान्त की दृष्टि से चौदहवें गुणस्थान के अंत में है अत: छठे, सातवें आदि गुणस्थानों में मोक्षमार्ग परंपरा से ही माना जाता है। आज के युग के साधु छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती ही होते हैं। छठे गुणस्थान में भेद रत्नत्रय अथवा व्यवहार रत्नत्रय होता है जो कि नि:शंकित आदि गुणों से सहित सम्यग्दर्शन चारों अनुयोगोंरूप ज्ञान और अट्ठाईस मूलगुण रूप चारित्र पालन रूप है। अपने शुद्ध चिच्चैतन्य स्वरूप आत्मा का श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में स्थिर हो जाने रूप चारित्र, ऐसे इन तीनों की एकाग्र परिणति को अभेद रत्नत्रय अथवा निश्चय रत्नत्रय कहते हैं। यह सातवें से प्रारंभ होता है व बारहवें में पूर्ण होता है। ऐसे निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु व्यवहार रत्नत्रय को धारण करना अति आवश्यक है। आज तक बिना व्यवहार चारित्र के कोई भी जीव निश्चय चारित्र को प्राप्त नहीं कर सके हैं, न कर सकते हैं, न कर सवेंâगे ही। ऐसा दृढ़ विश्वास करके आपको सतत् महाव्रत ग्रहण करने की भावना करनी चाहिए और शक्ति के अनुसार देशव्रत, पांच अणुव्रत, सात शील, व ग्यारह प्रतिमा तक कुछ भी व्रत ग्रहण करने चाहिए और यदि आप देशव्रत ग्रहण नहीं कर सकते तो सम्यक्त्व के आठ अंगों को धारण कर नित्य ही देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छह आवश्यकों को करते हुए आपको देशव्रतों को प्राप्त करने की भावना भानी चाहिए क्योंकि क्रम से भाई गई भावनाएं ही सिद्धि को प्राप्त कराने में समर्थ हैं, अक्रम से नहीं। इसी प्रकार से सामायिक के समय तत्त्वों का विचार करते हुए ऐसा चिंतवन करना चाहिए कि निश्चयनय से मेरी आत्मा शुद्ध है, सिद्ध सदृश है। उसकी भावना में निम्न पाठ पढ़ते हुए उसके अर्थ का विचार करना चाहिए-मेरा तनु जिनमंदिर उसमें, मन कमलासन शोभे सुन्दर। उस पर मैं ही भगवान् स्वयं, राजित हूँ चिन्मय ज्योतिप्रवर।। मैं शुद्ध बुद्ध हूँ सिद्ध सदृश, कर्मांजन का कुछ लेप नहीं। मैं स्वयं स्वयंभू परमात्मा, मेरा पर से संश्लेष नहीं।।१।। मैं भावकर्म औ द्रव्यकर्म, नोकर्म रहित शुद्धात्मा हूँ। मैं अरस, अगंध, अरूपी हूँ, स्पर्श रहित सिद्धात्मा हूँ।। संस्थान शरीर वचन मन से, विरहित पुद्गल से भिन्न कहा। मैं आयू श्वासोच्छ्वास रहित, जीवन औ मरण विविक्त रहा।।२।। मैं आधि व्याधि शोकादि रहित, मद मोह विषाद विवर्जित हूँ। क्रोधादि कषायों से विरहित, विषयादिक सौख्य विवर्जित हूँ।। मैं निर्मम हूँ एकाकी हूँ, मेरा अणुमात्र नहीं कुछ भी। मैं ज्ञायक एक स्वभावी हूँ, पर में अनुराग नहीं कुछ भी।।३।। मैं वीतमोह मैं वीतराग, मैं वीतद्वेष मैं भवविरहित। मैं इन्द्रिय सुख और दु:खरहित, मैं इन्द्रिय ज्ञानरहित हूँ नित।। मैं सकल विमल केवलज्ञानी, परमाल्हादैक सुखास्वादी। मैं चिन्मयमूर्ति अमूर्तिक हूँ, निज समरस भाव सुधास्वादी।।४।। मैं हूँ अपने में स्वयं सिद्ध, पर की भक्ति का काम नहीं। मैं भक्त नहीं भगवान स्वयं, मेरा निज पद शिवधाम सही।। मैं हूँ अनंत गुणपुंज अतुल, अविनाशी ज्योतिस्वरूपी हूँ। मैं हूँ अखण्ड चित्पिंड परम, आनन्द सौख्य चिद्रूपी हूँ।।५।। व्यवहार रत्नत्रय उपादेय है या नहीं ? णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं। विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।।३।। जो करने योग्य है नियम से, वो ही ‘नियम’ है। वो ज्ञान दरस औ, चरित्र रूप धरम है।। विपरीत के परिहार हेतु, ‘सार’ शब्द है। अतएव नियम से, ‘नियमसार’ सार्थ है।।३।।अर्थ-नियम से जो करने योग्य है वह ‘नियम’ कहलाता है। वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही है। इसमें विपरीत को दूर करने के लिए ‘सार’ यह पद कहा गया है। (नियमसार-श्रीकुंदकुंददेव कृत) ==श्रीकुंदकुंददेव ने इस गाथा में रत्नत्रय को == ‘नियम’ शब्द से कहा है और उसमें विपरीत अर्थात् मिथ्यात्व को दूर करने के लिए ‘सार’ यह शब्द प्रयुक्त किया है। इस तरह ग्रन्थ का नाम ‘नियमसार’ रखने की सार्थकता व्यक्त की है। वास्तव में यह ‘सार’ शब्द ‘सम्यक्’ शब्द के स्थान पर प्रयुक्त किया गया है। जैसे ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ में सम्यक् शब्द मिथ्यात्व का परिहार करके सबके साथ लग जाता है उसी प्रकार से यहां पर सार शब्द से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का परिहार होकर ‘सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र’ का ग्रहण हो जाता है, ऐसा समझना चाहिए। शंका-मेरी समझ में यह ‘सार’ शब्द विपरीत-विकल्प अर्थात् भेद रत्नत्रय का परिहार करने के लिए दिया गया है क्योंकि इस ग्रन्थ में निर्विकल्परूप अभेद रत्नत्रय का ही प्रतिपादन किया गया है ? समाधान-आपका यह कथन नितांत गलत है क्योंकि इस तीसरी गाथा के अनंतर चौथी गाथा से ही लेकर आगे चतुर्थ अध्याय पर्यन्त गाथा ७५ तक व्यवहार रत्नत्रय को कहा है पुन: इस चतुर्थ अध्याय की अंतिम गाथा ७६ में स्पष्ट कर दिया है कि ‘मैंने यहां तक व्यवहारनय के चारित्र को कहा है अब इसके आगे निश्चयनय के चारित्र को कहूंगा’ इत्यादि। पुन: ये ही श्री कुंदकंददेव यहीं पर सार शब्द से उस भेद रत्नत्रय का परिहार करने के लिए कैसे कह सकते थे ? देखिए! अगली गाथा में ही श्री कुन्दकुन्द देव क्या कहते हैं- ‘‘नियम-ज्ञान, दर्शन, चारित्र ‘‘यह मोक्ष का उपाय है और इसका फल परमनिर्वाण है। अब यहां इन तीनों की-प्रत्येक की पृथव्-पृथक् प्ररूपणा होती है।’’ इस गाथा में श्री कुन्दकुन्ददेव ने भेद रत्नत्रय को कहने का संकल्प किया है, पुन: आगे क्रम से दर्शन, ज्ञान, चारित्र का वर्णन करते हैं। उसमें सबसे पहले सम्यक्त्व का लक्षण बतलाते हुए कहते हैं- ==‘‘आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है।’’ == यह सम्यक्त्व का लक्षण व्यवहारपरक ही है। यदि श्री आचार्य महोदय को ‘सार’ शब्द से व्यवहार सम्यक्त्व का परिहार करना इष्ट होता तो वे इस महान् ग्रन्थ में उसका लक्षण क्यों कहते ? पुन: आगे इसी गाथा के उत्तरार्ध में आप्त का लक्षण बताते हुए कहते हैं- ‘‘जो अशेष दोषों से रहित हैं और सकल गुणों से सहित हैं वे ही आप्त कहलाते हैं।’’ ‘‘अशेष दोष क्या हैं ?’’ ‘‘क्षुधा, तृषा, भय, रोष, राग, मोह, चिंता, जरा, रोग, मृत्यु, स्वेद, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और उद्वेग ये अठारह महादोष हैं। ये ही अशेष दोष कहलाते हैं क्योंकि अन्य जो भी दोष होंगे वे सब इन्हीं के अन्तर्गत आ जावेंगे। इन महादोषों के नष्ट हो जाने पर सर्व दोषों से रहित अरिहंत परमेष्ठी ही ‘आप्त’ कहलाते हैं। इस प्रकार से जो इन सर्व दोषों से रहित हैं और केवलज्ञान आदि परम वैभव से युक्त हैं वे ही परमात्मा कहलाते हैं किन्तु जो इनसे विपरीत होते हैं वे परमात्मा नहीं हैं।१’’ यह आप्त का लक्षण नियमसार में कहा गया है। इन दोनों गाथाओं में प्रकारांतर से वीतराग और सर्वज्ञ इन दो विशेषणों को पुष्ट किया गया है क्योंकि राग-द्वेष आदि अठारह दोषों के न होने से वीतरागता और केवलज्ञान आदि गुणों के होने से सर्वज्ञता प्रकट होती है, पुन: आगे आगम का लक्षण कहते हैं। ‘‘उन आप्त के मुख से निकले हुए वचन जो कि पूर्वापर विरोध दोष से रहित हैं और शुद्ध हैं, उन्हें ही ‘आगम’ यह संज्ञा है तथा इस आगम के द्वारा कहे गए पदार्थ ही तत्त्वार्थ कहलाते हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह तत्त्वार्थ इस नाम से कहे गए हैं। ये नाना गुण और नाना पर्यायों से संयुक्त हैं२।’’ आचार्य महोदय ने इस गाथा में आगम और तत्त्वों के लक्षण बता दिए हैं तथा प्रकारांतर से आप्त के गुणों में जो हितोपदेशपना गुण है, वह भी इस गाथा से लिया जा सकता है अत: आप्त का लक्षण जो अन्यत्र ग्रन्थों में देखने को मिलता है कि वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशता ये तीनों गुण यहां पर भी आप्त में घटित हो जाते हैं। सम्यग्दर्शन का लक्षण भी आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान रूप हैं। यह लक्षण व्यवहार सम्यग्दर्शन का ही है क्योंकि व्यवहार सम्यग्दर्शन के बिना निश्चय सम्यग्दर्शन अथवा व्यवहार रत्नत्रय के बिना निश्चय रत्नत्रय होना असंभव ही है इसीलिए व्यवहार रत्नत्रय हेय न होकर उपादेय ही है क्योंकि वह निश्चय रत्नत्रय के लिए कारण है और परम्परा से मोक्ष का भी कारण है न कि संसार का। ==यहां पर व्यवहार से व्यवहाराभास == या लोकव्यवहार को नहीं लेना चाहिए क्योंकि जिसके चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शनमोह ये सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय या क्षयोपशम के होने पर सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है उसी को आप्त, आगम और तत्त्वों पर सच्चा श्रद्धान हो सकता है अन्य को नहीं, ऐसा समझना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि ‘नियम’ शब्द से ‘दर्शन, ज्ञान, चारित्र’ को लेकर ‘सार’ शब्द से मिथ्यात्व का परिहार करके ‘सम्यक्’ अर्थ ग्रहण करना चाहिए, पुन: प्रत्येक का वर्णन करने में सबसे पहले सम्यक्त्व के लक्षण में सच्चे देव, शास्त्र और उनके द्वारा कथित तत्त्वों पर श्रद्धान करना चाहिए। यहां ‘तत्त्वार्थ’ से छह द्रव्य ही कहे गए हैं। इस व्यवहार रत्नत्रय को सर्वथा उपादेय ही समझना चाहिए क्योंकि जिसने एक बार भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है जब वह भी नियम से मोक्ष जाएगा ही जाएगा, तब जिसने तीनों रत्न प्राप्त कर लिए हैं वह निश्चय रत्नत्रय को प्राप्त कर मोक्ष का अधिकारी क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा। ==जीव का लक्षण- ==जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होई। णाणुवजोगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणं ति।।१०।।उपयोगमय लक्षण सहित है जीव जगत् में, उपयोग कहा ज्ञान व दर्शन है द्विविध में।। ज्ञानोपयोग दो प्रकार से हैं बताये, स्वभाव ज्ञान और विभावज्ञान हैं गाये।।१०।। जीव का लक्षण उपयोग है। वह उपयोग ज्ञानदर्शन स्वरूप है। ज्ञानोपयोग के दो भेद हैं-स्वभाव ज्ञान और विभाव ज्ञान। जो ज्ञान केवल इन्द्रियरहित और असहाय है, वह स्वभाव ज्ञान है अर्थात् ज्ञानावरण कर्म के पूर्णतया विनष्ट हो जाने से प्रकट होने वाला केवलज्ञान स्वभावज्ञान है। विभावज्ञान के दो भेद हैं-संज्ञान-सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान। इस विभाव संज्ञान के चार भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान। अज्ञान के तीन भेद हैं-कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान। उसी प्रकार से दर्शनोपयोग के भी स्वभावदर्शन और विभावदर्शन की अपेक्षा दो भेद होते हैं। जो दर्शन केवल इंद्रियरहित और असहाय है वह स्वभाव दर्शन है और चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा अवधिदर्शन के भेद से विभाव दर्शनोपयोग के तीन भेद हो जाते हैं। इस तरह से स्वभाव ज्ञान और स्वभावदर्शन से केवलज्ञान और केवलदर्शन विवक्षित हैं तथा विभाव ज्ञान से चार ज्ञान, तीन अज्ञान एवं तीन दर्शन मिलकर क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन के दश भेद हो जाते हैं। ==यहां पर केवलज्ञान और केवलदर्शन == को इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित तथा असहाय कहा गया है क्योंकि इन्द्रिय ज्ञान और इन्द्रियों से होने वाला दर्शन वर्तमानकालीन मूर्तिक पदार्थों को ही विषय कर सकता है, त्रिकालवर्ती अमूर्तिक या सूक्ष्मादि पदार्थों को नहीं। अतीन्द्रियज्ञान के विषय में अन्यत्र भी कहा है कि ‘जो ज्ञान कालाणु, परमाणु आदि अप्रदेशी को, जीव-अजीव आदि सप्रदेशी पदार्थों को, पुद्गल द्रव्य और अशुद्ध संसारी जीवरूप मूर्तिक को, शुद्ध जीव और धर्म-अधर्म आदि अमूर्तिक को तथा जो पर्यायें अभी उत्पन्न ही नहीं हुई हैं ऐसी भावी पर्यायों को व जो पर्यायें उत्पन्न होकर नष्ट हो गर्इं ऐसी भूतकालीन पर्यायों अर्थात् सभी ज्ञेय पदार्थों को जानता है वह ज्ञान अतीन्द्रिय कहलाता है। शंका-आपके सर्वज्ञ का अतीन्द्रियज्ञान सूक्ष्मादि पदार्थों को जानता है सो तो ठीक है किन्तु वह वर्तमानकालीन पदार्थों को ही जान सकेगा न कि भूत-भविष्यत्कालीन को क्योंकि भूतकालीन पदार्थ तो सर्वथा नष्ट हो चुके हैं और भावीकालीन पदार्थ तो अभी उत्पन्न ही नहीं हुए हैं पुन: उनको कैसे जान सकेगा ? समाधान-आपकी आशंका ठीक है किन्तु वे विनष्ट और अनुत्पन्न पदार्थ भी उस अतीन्द्रिय केवलज्ञान में वर्तमान के समान प्रतिभासित होते हैं जैसे कि दीवाल पर बनाये गये राम, रावण व महापद्म आदि के चित्र। ==श्रीकुन्दकुन्द देव ने स्वयं ही == इस बात को स्पष्ट किया है। यथा-अतीत और अनागत पर्यायें भी तात्कालिक इव अर्थात् वर्तमान पर्यायों के समान ही उस ज्ञान में झलकती हैं।१ जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं अथवा जो पर्यायें नष्ट हो चुकी हैं वे अविद्यमान भूत भावी पर्यायें भी सर्वज्ञदेव के ज्ञान में प्रत्यक्ष होती रहती हैं। यदि भावी पर्यायें तथा भूत पर्यायें केवलज्ञान के प्रत्यक्ष न होवें तो वह ज्ञान ‘दिव्य’ है ऐसा कौन कहेंगे ? अर्थात् वह ज्ञान दिव्य नहीं माना जा सकेगा।२ इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि केवलज्ञान स्वभावज्ञान है, वह सर्वथा पूर्ण ज्ञान है, उसमें तीन लोक और तीन कालवर्ती समस्त पदार्थ एक समय में प्रतिबिम्बित होते रहते हैं। यह स्वभाव ज्ञान संपूर्ण कर्मों के अभाव से प्रकट होता है। यद्यपि शुद्धनय से यह ज्ञान संपूर्ण संसारी जीवों में विद्यमान है अथवा शक्तिरूप से सर्व अशुद्ध जीवों में पाया जाता है फिर भी व्यक्तरूप से इस ज्ञान को प्रकट करने के लिए ही ज्ञानीजन व्रत, संयम, नियम आदि को धारण कर अथक परिश्रम करते हैं, तीर्थंकरों की उसी भव से मुक्ति निश्चित है फिर भी वे महापुरुष दीक्षा लेते हैं। सर्व सावद्य योग से निवृत्त होकर हजारों वर्ष तक घोर तपश्चरण करते हैं तब कहीं इस केवलज्ञान की प्राप्ति कर पाते हैं। वृषभदेव भगवान ने दीक्षा लेकर एक हजार वर्ष तक तपश्चरण किया था तब वे इस केवलज्ञान को प्रकट कर पाये थे। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि अपने स्वभाव ज्ञान को प्रकट करने के लिए हमें भी शक्ति के अनुसार व्रत, संयम को ग्रहण करना होगा। प्रमाद छोड़कर आचारसार में कहे अनुसार चारित्र को धारण करना ही होगा अन्यथा स्वात्मसिद्धि बहुत ही दूर है।णरणारयतिरियसुरा, पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा। कम्मोपाधि-विवज्जिय पज्जाया ते सहावमिदि भणिदा।।१५।।नर, नारकी, तिर्यंच, देव के जनम धरें, इनका विभाव पर्ययों से सब कथन करें। कर्मों की उपाधि से रहित जो हैं दशायें, उनको स्वभाव पर्ययों से साधु बतायें।।१५।। जीव की नर, नारक, तिर्यंच और देवरूप जो पर्यायें हैं वे विभाव पर्यायें हैं तथा कर्मों की उपाधि से रहित जो पर्यायें हैं वे स्वभाव पर्यायें हैं। कर्मों की उपाधि से रहित जो पर्याय है वह सिद्धों के ही होती है अत: वह स्वभाव पर्याय है तथा संसारी जीवों की जो चतुर्गति में परिभ्रमण करनेरूप अवस्थायें हैं, वे सब विभाव पर्यायें हैं क्योंकि वे कर्मों की उपाधि से ही निर्मित हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है- मनुष्य के दो भेद हैं-कर्मभूमिज और भोगभूमिज। इन कर्मभूमिज मनुष्यों के भी आर्य और मलेच्छ की अपेक्षा दो भेद हो जाते हैं इत्यादि तथा नारकियों के सात भेद हैं-सात प्रकार की नरक भूमियों की अपेक्षा से अर्थात् प्रथम, द्वितीय आदि से लेकर नरकभूमियां सात हैं उनकी अपेक्षा से नारकियों के यहां पर श्री कुन्दकुन्ददेव ने सात भेद किए हैं। तिर्यंचों के चौदह भेद हैं-एकेन्द्रिय के सूक्ष्म और बादर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के सैनी-असैनी, ये सब मिलकर सात भेद हुए। इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक ऐसे दो-दो भेद कर देने से तिर्यंचों के चौदह भेद हो जाते हैं। देवों के चार भेद होते हैं-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक। इनके अवान्तर भेद भी अनेक होते हैं। श्रीकुन्दकुन्ददेव का कहना है कि इन जीवों के भेदों का विस्तार लोक- विभाग ग्रन्थों से जान लेना चाहिए। यथा- ==‘एदेसिं वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं।’ == इस कथन से आचार्यदेव का लोकविभाग आदि करणानुयोग ग्रन्थों के स्वाध्याय करने का आदेश भी स्पष्ट हो जाता है। अन्यत्र ग्रन्थों में अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय ऐसे भी दो भेद पर्याय के माने गए हैं। उनमें से अगुरुलघुगुण के निमित्त से षट्गुणवृद्धि और षट्गुणहानिरूप जो सूक्ष्म परिणमन होता है जो कि प्रत्येक शुद्ध द्रव्यों में प्रतिसमय पाया जाता है वह मात्र आगमगम्य है चूंकि वचनों के अगोचर है, वही अर्थपर्याय है। जीव का नर, नारकादिरूप परिणत होना तथा पुद्गल का स्कंधरूप परिणत होना यह व्यंजन पर्याय है। यह अर्थ पर्याय ही स्वभाव पर्याय है क्योंकि यह कर्मों की उपाधि से रहित है। श्री कुन्दकुन्द देव के शब्दों में तो स्वभाव पर्याय पूर्णतया सिद्धों के ही होती है क्योंकि मनुष्यगति आदि औदयिक भावों का उदय चौदहवें के अन्त तक पाया जाता है अथवा ये औदयिक भाव मोहनीय के बिना अपना कुछ कार्य करने में असमर्थ हैं अत: सयोगकेवली के भी स्वभाव पर्याय परिणति मान लेने में कोई बाधा नहीं है। आगे ग्रन्थकार कहते हैं कि-कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा। कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो।।१८।।यह आत्मा व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता है तथा निश्चयनय से कर्मजनित भावों का कर्ता, भोक्ता है। अब यहां समझने की बात यही है कि यदि कोई अध्यात्मवादी आत्मा को सर्वथा अकर्ता और अभोक्ता ही मान लेवे तो संसार और मोक्ष की व्यवस्था ही समाप्त हो जावेगी अत: श्री कुंदकुंद देव की इस गाथा को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। सिद्धान्त के अनुसार यह जीव प्रतिसमय कर्मों को ग्रहण करता है, यही उन कर्मों का कर्तृत्व है और प्रतिसमय पौद्गलिक कर्म उदय में आते रहते हैं यही उनका भोक्तृत्व है। यथा-सत्तरसेकग्गसयं चउसत्तत्तरि सगट्ठि तेवट्ठी। बंधा णवट्ठवण्णा दुवीस सत्तारसेकोघे१।।१०३।।मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में क्रम से ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १, १, १ इतनी प्रकृतियों का बंध होता है, दूसरे में १०१ का, इसी तरह ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में १, १, १ का बंध होता है। चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगीजिन अबंधक हैं क्योंकि वहां बंध के कारणभूत योग का भी अभाव हो चुका है। ऐसे ही उदय में देखिए-सत्तरसेक्कारखचदुसहियसयं णगिसीदि छदुसदरी। छावट्ठि सट्ठि णवसगवण्णास दुदाल बारुदया।।२७६।।पहले गुणस्थान से लेकर क्रम से ११७, १११, १००, १०४, ८७, ८१, ७६, ७२, ६६, ६०, ५९, ५७, ४२ और १२ प्रकृतियों का उदय रहता है। ऐसे चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली के १२ प्रकृतियों का उदय रहता है। इस प्रकार से उपर्र्युक्त कथित प्रकृतियों के बंध को करते रहने से यह आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता है और गाथा २७६ कथित प्रकृतियों के उदय को प्राप्त करने से यह आत्मा ही इन पुद्गल कर्मों का भोक्ता है। ==इसी प्रकार से कर्मों के उदय == से होने वाले राग द्वेष, मोह, क्रोध, मानादि भावकर्मों का भी यह आत्म कर्ता है अथवा तत्प्रदोषनिन्हवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता: ज्ञानदर्शनावरणयो:।’’ इस सूत्र के अनुसार ज्ञान, दर्शन में दोष लगाना, छिपाना, मात्सर्य करना, अन्तराय करना, आसादना करना या उपघात करना आदि कारणों को करके यह जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण का बंध कर लेता है। इससे यह भाव भी भावकर्मरूप ही हैं। अशुद्ध निश्चयनय से यह जीव इन भावों का कत्र्ता है और उनके फलस्वरूप सुख-दु:खों का भोक्ता भी है किन्तु शुद्ध निश्चयनय से अपने शुद्ध भावों का ही कत्र्ता भोक्ता है। यहां पर यह निश्चित समझ लेना चाहिए कि व्यवहारनय से जो पुद्गल कर्मों का कत्र्ता, भोक्ता है उसमें तो निमित्तरूप से है न कि उपादानरूप से किन्तु अशुद्ध निश्चयनय से जो भावकर्मों का कत्र्ता, भोक्ता है उसमें उपादानरूप से है न कि निमित्तरूप से। ==आगे श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि- == द्रव्यार्थिकनय से सभी जीव पूर्वकथित स्वभाव-विभाव पर्यायों से रहित हैं तथा पर्यायाथर््िाक नय से दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित हैं। यहां पर भी सामान्य द्रव्यार्थिक नय से सिद्ध जीव अपनी शुद्ध पर्यायों से रहित हैं और संसारी जीव अपनी अशुद्ध पर्यायों से रहित हैं क्योंकि द्रव्यार्थिकनय का विषय मात्र द्रव्य ही है, पर्याय नहीं है। उसी तरह से पर्यायार्थिक नय से सिद्ध जीव शुद्ध पर्यायों से सहित है एवं संसारी जीव अशुद्ध पर्यायों से संयुक्त है क्योंकि यह नय पर्यायों को ही विषय करता है। इस नियमसार में श्री कुन्दकुन्ददेव ने नियम शब्द का अर्थ रत्नत्रय किया है, पुन: प्रत्येक की पृथव्â-पृथव्â प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा करके सम्यग्दर्शन का लक्षण बताया है। उस लक्षण में आप्त, आगम और तत्त्वों का श्रद्धान करना कहा है। आप्त का लक्षण बताकर उनके मुखकमल से विनिर्गत वचनों को आगम संज्ञा दी है पुन: उस आगम में कहे गए विषय को तत्त्वार्थ कहा है। उन तत्त्वार्थों में सबसे प्रथम जीवतत्त्व ही आता है अत: उस जीव का वर्णन करते हुए उसके स्वभाव विभाव गुण एवं स्वभाव विभाव पर्यायों का निरूपण किया है, पुन: नय विवक्षा से जीव के कर्तृत्त्व, भोत्तृâत्त्व को बतलाकर जीव को पर्यायरहित और पर्याय सहित भी सिद्ध किया है। इस जीव तत्त्व का श्रद्धान करके हमें यह समझना चाहिए कि हमारी आत्मा भी शुद्ध निश्चयनय से स्वभाव ज्ञान दर्शन से सहित है और स्वभाव पर्याय वाली है तथा अशुद्ध निश्चयनय से विभाव ज्ञानदर्शन से सहित और विभाव पर्याय वाली है। उसमें भी जो विभाव श्रुतज्ञान है और विभाव मनुष्य पर्याय है वह वर्तमान में हमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान और देश चारित्र के लिए साधक बना है अत: हमारे लिए उपयोगी है क्योंकि हमें इस विभाव गुण पर्याय से परिणत होते हुए ही स्वभाव गुण पर्यायों को प्रकट करना है, इसलिए हमें सतत ही अपने स्वभाव गुण पर्यायों को प्राप्त करने के लिए उद्यमशील रहना चाहिए। ==अजीव तत्त्व-अजीव द्रव्य के ५ भेद हैं- == पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। पुद्गलद्रव्य-अणु और स्कन्ध के भेद से पुद्गलद्रव्य के दो भेद हैं। उसमें से स्कंध के छह भेद हैं और परमाणु के दो भेद हैं। अतिस्थूल, स्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म, इस प्रकार से पृथ्वी आदि स्कंध के ये छह भेद होते हैं। घी, जल, तेल आदि स्कंध स्थूल होते हैं। छाया, आतप आदि स्थूल स्कंध हैं। नेत्र के अतिरिक्त चार इंद्रियों के विषय सूक्ष्मस्थूल हैं। कर्मवर्गणा के योग्य स्कंध सूक्ष्म हैं और इससे विपरीत स्कंध अतिसूक्ष्म कहलाते हैं। स्कंध के ये छह भेद हुए हैं। परमाणु के कारणपरमाणु और कार्यपरमाणु ऐसे दो भेद हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार धातुओं के लिए जो हेतु हैं वह कारण परमाणु हैं और स्कन्धों का जो अवसान (अंतिम हिस्सा) है वह कार्य परमाणु है। जिसका स्वयं स्वरूप ही आदि है, मध्य है और अंत है, जो इन्द्रियों से ग्रहण नहीं किया जा सकता है ऐसे अविभागी पुद्गलद्रव्य को परमाणु कहते हैं। एक रस, एक रूप, एक गंध और दो स्पर्श एक स्वभाव गुण हैं अर्थात् एक परमाणु में ये गुण हैं अत: ये स्वभाव गुण हैं। सभी रस, रूप, गंध, स्पर्शादि प्रकट हों वे विभावगुण हैं अर्थात् स्कंध में अनेक रस, रूपादि स्पष्ट रहते हैं अत: वे विभाव गुण हैं। अन्य द्रव्य से निरपेक्ष जो परिणाम है वह स्वभाव पर्याय है तथा स्कंध रूप से जो परिणमन है वह विभाव पर्याय है। अभिप्राय यह है कि जीवद्रव्य के सदृश पुद्गल द्रव्य के भी गुण और पर्यायें होती हैं तथा इसमें भी स्वभाव-विभाव गुण और स्वभाव-विभाव पर्यायें होती हैं। परमाणु के गुण और पर्यायें स्वभावगुण पर्यायें हैं तथा स्कंध की गुणपर्यायें विभाव पर्यायें हैं। नयों की अपेक्षा भी पुद्गलद्रव्य में घटित करते हैं-निश्चयनय से परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है किन्तु व्यवहारनय से स्कंध को भी पुद्गलद्रव्य कहते हैं। दो, तीन आदि अनेक अणुओं के मिलने से जो स्कंध बनता है वह अशुद्ध पुद्गलद्रव्य कहा है। ==धर्मद्रव्य-जो जीव और पुद्गलों के गमन में सहकारी है वह धर्मद्रव्य है। == अधर्मद्रव्य-जो जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहकारी है वह अधर्मद्रव्य है। आकाशद्रव्य-जो सर्व द्रव्यों को अवकाश देता है वह आकाश द्रव्य है। कालद्रव्य-जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहकारी है वह कालद्रव्य है। इस कालद्रव्य के समय और आवली की अपेक्षा दो भेद हैं अथवा, भूत, वर्तमान और भविष्य की अपेक्षा तीन भेद हैं। संख्यात आवली से गुणित सिद्धराशि के समान भूतकाल के समय हैं। सर्व जीवराशि और पुद्गल राशि से अनंतगुणा भावी काल है और एक समय मात्र वर्तमानकाल है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित हैं, ये असंख्यात कालाणु ही परमार्थ काल हैं। जीवादि सर्व द्रव्यों के परिवर्तन (परिणमन) में कारण यह कालद्रव्य है। इन धर्म आदि चारों द्रव्यों के स्वभाव गुण और स्वभाव पर्यायें ही होती हैं। उपर्युक्त गति, हेतु आदि लक्षण ही गुण हैं और स्वभाव में षट्गुणी वृद्धि, षट्गुणी हानिरूप से परिणमन होना स्वभाव पर्यायें हैं। अस्तिकाय-काल के अतिरिक्त जीव आदि पांच द्रव्यों को ‘अस्तिकाय’ यह संज्ञा है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है क्योंकि ये द्रव्य काय के समान बहुप्रदेशी हैं। पुद्गलद्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं। धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात प्रदेश होते हैं। लोकाकाश में भी असंख्यात प्रदेश हैं। (जितने आकाश में जीवादि पांचों द्रव्य पाये जाते हैं उतने का नाम लोकाकाश है) अलोकाकाश के अनंत प्रदेश हैं और कालद्रव्य एकप्रदेशी ही है अत: उसे कायपना नहीं होने से वह ‘अस्ति’ तो है किन्तु ‘अस्तिकाय’ नहीं है। मूर्त-अमूर्त द्रव्य-पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है, शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं। चेतन-अचेतन द्रव्य-जीव द्रव्य चेतन स्वभावी है और शेष द्रव्य चैतन्यगुण से शून्य अचेतन हैं। ==प्रश्न-इस प्रकार से अजीव द्रव्य को जानकर क्या करना है क्योंकि वह तो अप्रयोजनीभूत तत्त्व है ? == उत्तर-ऐसी बात नहीं है, बल्कि आगम में तो छहों द्रव्यों के विस्तार को जानने का विधान किया है। प्रमाण-नयों के द्वारा, नामादि निक्षेपों के द्वारा, निर्देश, स्वामित्व आदि के द्वारा तथा सत्, संख्या, क्षेत्र आदि के द्वारा छहों द्रव्यों को अच्छी तरह से समझना चाहिए और उन पर दृढ़ श्रद्धान करना चाहिए। इसके साथ-साथ यह भी समझना चाहिए कि एक जीव द्रव्य ही महान है और वही चिच्चैतन्य स्वरूप होने से अन्य संपूर्ण द्रव्यों का ज्ञाता, द्रष्टा है, अमूर्तिक है। इस अमूर्तिकपने के बारे में इतना अवश्य समझना कि संसारी जीवात्मा कर्मों के संबंधित होने से कथंचित् मूर्तिक भी है अन्यथा उसके कर्मों का बंध नहीं हो सकता है और वर्ण, रस, गंध तथा स्पर्श ये पुद्गल के गुण हैं, इनके न होने से जीव द्रव्य अमूर्तिक ही है। यद्यपि संसार में पुद्गल द्रव्य का तथा अन्य द्रव्यों का भी जीव द्रव्य पर उपकार है किन्तु उससे जीव को कोई लाभ नहीं है। लाभ है तो पुद्गल का संबंध छोड़ने में ही है और जब तक उसका सम्बन्ध नहीं छोड़ सकते तब तक उसको अपने से भिन्न-पर समझकर उससे ममत्त्व बुद्धि हटाना ही श्रेयस्कर है और इसी का नाम सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व की उत्पत्ति कैसे होती है ?-आप्त, आगम और तत्त्वों पर श्रद्धान करने के बाद सम्यग्दृष्टि जीव आत्मतत्त्व और परतत्त्वों का निर्णय करता है, वही सम्यग्ज्ञान है। श्रीकुंदकुंद देव ने पुनरपि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान का लक्षण पृथक्-पृथक् स्पष्ट किया है। पुन: व्यवहार और निश्चय चारित्र का वर्णन करने के लिए संकल्प सूचित किया है। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-विपरीत अभिप्राय से रहित तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। संशय, विमोह और विभ्रम से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। चल, मलिन, अगाढ़ दोष से रहित श्रद्धान करना सम्यक्त्व है तथा हेय और उपादेय तत्त्वों को जानना वह सम्यग्ज्ञान है। ==सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण- ==सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी।।५३।।जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित सूत्र और उसके जानने वाले पुरुष (महर्षिगण) सम्यक्त्व के लिए निमित्त कारण हैं ऐसा श्रीकुंदकुंद देव का कथन है। उसी प्रकार से उन सूत्रों के जानने वाले आचार्य, उपाध्याय और साधुगण यद्यपि ये जीव हैं तो भी अन्य जीव के लिए ये भी परद्रव्य हैं, फिर भी ये भव्य जीव के सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिए कारण हैं। ये बाह्य कारण हैं इनके होने पर ही अंतरंग कारण दर्शनमोहनीय का उपशम आदि होता है अन्यथा नहीं। हां, इन बाह्य कारणों के होने पर अंतरंग में दर्शनमोह का उपशम हो न भी हो किन्तु यदि उपशम आदि होगा तो नियम से इन बाह्य कारणों में से किसी न किसी के होने पर ही होगा। इसीलिए यह कारण कहलाता है करण नहीं। इसी बात को धवला ग्रन्थ में भी कहा है – ==‘‘जाइस्सरणजिणबिंबदंसणेहि विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो।।’’ == जातिस्मरण और जिनबिंबदर्शन, इनके बिना उत्पन्न होने वाला नैसर्गिक नामक प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन का होना भी असंभव है अर्थात् धवला में प्रथमोपशम सम्यक्त्व के उत्पत्ति के कारण बतलाकर अनंतर नैसर्गिक सम्यक्त्व के विषय में भी कह दिया है कि धर्मोपदेश श्रवण के अतिरिक्त जातिस्मरण या जिनबिंबदर्शन के बिना यह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन भी उत्पन्न नहीं हो सकता है-असंभव है। इससे मालूम होता है कि बाह्य कारणों के बिना सम्यक्त्व की उत्पत्ति असंभव है। जो बाह्य निमित्त कारणों की उपेक्षा करते हैं उन्हें इन कुंदकुंददेव और धवलाकार की पंक्तियों का अच्छी तरह से मनन करना चाहिए। पुन: आचार्यप्रवरकुंदकुंद देव कहते हैं- ‘‘मोक्ष के लिए सम्यक्त्व होता है और सम्यग्ज्ञान होता है तथा सम्यक्चारित्र होता है, इसलिए अब मैं व्यवहार और निश्चयनय से चारित्र को कहूँगा, सो सुनो। व्यवहारनय के चारित्र में व्यवहारनय का तपश्चरण होता है और निश्चयनय के चारित्र में निश्चयनय का तपश्चरण होता है।१’’ इस प्रकार से इस सम्यग्ज्ञान (शुद्ध भाव) नामक तृतीय अधिकार के अंतिम सूत्र में श्री कुंदकुंद देव ने कहा है कि व्यवहारनय का चारित्र और निश्चयनय का चारित्र, ऐसे चारित्र के दो भेद होते हैं। व्यवहारनय के आश्रय से होने वाला चारित्र जहाँ तक रहता है, व्यवहार तपश्चरण भी वहीं तक रहता है पुन: निश्चयनय का चारित्र जहां से प्रारम्भ होता है निश्चयनय का तपश्चरण भी वहीं से शुरू हो जाता है। आचार्यश्री के शब्दों में पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति यह तेरह प्रकार का चारित्र व्यवहारचारित्र है। पाँच परमेष्ठी की भक्ति व्यवहारचारित्र है। यह छठे गुणस्थान में मुनियों द्वारा आश्रयणीय होता है, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि छठे गुणस्थान से ऊपर ही निश्चयनय का चारित्र शुरू होता है जो कि ध्यानरूप है। इस बात का स्पष्टीकरण स्वयं ग्रन्थकार श्रीकुंदकुंद देव आगे सूत्रों द्वारा करेंगे ही। ==अत: श्रावकों का चारित्र तो व्यवहार चारित्र ही है। == वह विकल या एकदेश चारित्र है। वह चारित्र सकलचारित्र अर्थात महाव्रत के लिए कारण है और महाव्रतरूप चारित्र निश्चयचारित्र व निश्चय तपश्चरण के लिए कारण है, निश्चय रत्नत्रय केवलज्ञान के लिए कारण है और केवलज्ञान होने पर नियम से मोक्ष की प्राप्ति होती ही होती है ऐसा समझकर शक्ति के अनुसार चारित्र को ग्रहण करना चाहिए। सम्यक्चारित्र-श्रीकुन्दकुन्ददेव ने ‘नियम’ शब्द से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को कहा है। प्रथम और द्वितीय अधिकार में जीव-अजीव द्रव्य का वर्णन करके उन पर श्रद्धान करने का उपदेश दिया है। तृतीय अधिकार में हेय और उपादेय तत्त्व का ज्ञान कराकर अब चौथे अधिकार में सम्यक्चारित्र का वर्णन करते हैं- पांच महाव्रत-कुल, योनि, जीवसमास और मार्गणास्थान आदि में जीवों को जानकर उनके आरम्भ को त्याग करने का जो परिणाम है वह प्रथम व्रत है। राग से, द्वेष से अथवा मोह से असत्य भाषा के परिणाम को जो छोड़ देते हैं उन साधु के द्वितीय महाव्रत होता है। ग्राम में, नगर में अथवा वन में अन्य वस्तु को देखकर जो साधु उसको ग्रहण करने का भाव नहीं करते उनके तृतीय अचौर्यव्रत होता है। स्त्री के रूप को देखकर जो उनमें वांछाभाव को छोड़ देते हैं अथवा मैथुनसंज्ञा से रहित परिणाम को चतुर्थ महाव्रत कहते हैं। निरपेक्ष भावनापूर्वक जो संपूर्ण ग्रन्थ-परिग्रह का त्याग करते हैं ऐसे चारित्र के भार को धारण करने वाले साधु के पांचवां अपरिग्रह महाव्रत होता है। पांच समिति-जो श्रमण दिवस में प्रासुकमार्ग से सामने चार हाथ प्रमाण जमीन का अवलोकन करते हुए गमन करते हैं उनके ईर्यासमिति होती है। पैशून्य, हास्य, कर्वâश, परनिंदा और आत्मप्रशंसा के वचनों को छोड़कर जो स्वपर हितकर वचन बोलते हैं उनके भाषासमिति होती है। कृत, कारित और अनुमोदना से रहित तथा प्रासुक और प्रशस्त भोजन, जो कि पर के द्वारा दिया गया है उसको जो सम्यक् प्रकार से ग्रहण करता है उसके एषणासमिति होती है। पुस्तक, कमंडलु आदि के उठाने और धरने में जो प्रयत्नरूप परिणाम है उसे आदाननिक्षेपणसमिति कहते हैं। एकांत, अन्य के द्वारा रुकावट से रहित, प्रासुक भूमि प्रदेश में मल-मूत्रादि का त्याग करना प्रतिष्ठासमिति है। तीन गुप्ति-कालुष्य, मोह, संज्ञा और रागद्वेष आदि अशुभ भावों को छोड़ना यह मनोगुप्ति है जो कि व्यवहारनय से कही गई है। स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा और भोजनकथा आदि वचन जो कि पाप के हेतु हैं उनका परिहार करना वचनगुप्ति है। अथवा असत्य आदि वचनों से निवृत्त होना वचनगुप्ति है। बंधन, छेदन, मारण आदि तथा हाथ, पैर आदि का संकोचना, पैâलाना आदि जो काय की क्रियायें हैं उनसे निवृत्त होना सो कायगुप्ति है। रागादि भावों से निवृत्त होना सो मनोगुप्ति है ऐसा तुम समझो। असत्यादि वचनों से निवृत्त होना अथवा मौन धारण करना सो वचोगुप्ति है। काय की क्रियाओं से निवृत्त होकर कायोत्सर्ग करना सो कायगुप्ति है अथवा हिंसादि से निवृत्त होना सो काय गुप्ति है ऐसा समझना। यहां तक तेरह प्रकार के चारित्र का वर्णन हुआ। अब पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का वर्णन करते हैं- अरिहंत परमेष्ठी-जो अघाति कर्मों से रहित हैं, केवलज्ञान आदि परम गुणों से सहित हैं और चौंतीस अतिशयों से युक्त हैं ऐसे अरिहंत परमेष्ठी होते हैं। सिद्ध परमेष्ठी-जिन्होंने आठ कर्मों के बंध का नाश कर दिया है, जो आठ महागुणों से समन्वित हैं, परम-सर्वश्रेष्ठ हैं और जो लोक के अग्रभाग पर विराजमान हैं ऐसे वे सिद्ध परमेष्ठी हैं।आचार्य परमेष्ठी-जो पांच प्रकार के आचारों से सहित हैं, पंचेन्द्रियरूपी हाथी के दर्प का दलन करने वाले हैं, धीर हैं और गुणों से गंभीर हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। उपाध्याय परमेष्ठी-जो रत्नत्रय से संयुक्त हैं, जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित पदार्थों का उपदेश करने वाले हैं, शूर हैं, नि:कांक्ष भावना से सहित हैं, ऐसे उपाध्याय गुरु होते हैं। साधु परमेष्ठी-जो सर्व प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, चार प्रकार की आराधनाओं में आसक्त हैं, निग्र्रन्थ हैं और निर्मोही हैं ऐसे साधु परमेष्ठी होते हैं। अब श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि-एरिसय भावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं। णिच्छयणयस्स चरणं एत्तो उड्ढं पवक्खामि।।७६।।इस पूर्व कथित भावना में व्यवहारनय का चारित्र होता है तथा निश्चयनय के चारित्र को इसके अनन्तर मैं कहूँगा। ==सम्यग्ज्ञान का विषय- ==हेय-उपादेय तत्त्व- जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा। कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो।।३८।। जीवादि तत्त्व बाह्य हैं वे हेय बताये। आत्मा ही आत्मा को उपादेय कहाये।। कर्मों की उपाधि से हुए जो भी गुण कहें। पर्यायें भी उन सबसे भिन्न आत्म शुद्ध हैं।।३८।।जीवादि बाह्य तत्त्व हेय हैं और कर्मों की उपाधि से उत्पन्न हुए गुण पर्यायों से व्यतिरिक्त आत्मा ही आत्मा को उपादेय हैं। शुद्धात्मा का स्वरूप-जीव के स्वभाव स्थान नहीं हैं, मान-अपमान के भाव स्थान नहीं हैं, हर्ष भाव स्थान नहीं हैं और विषाद भाव भी स्थान नहीं हैं। स्थितिबंध स्थान, प्रकृति स्थान और प्रदेश स्थान नहीं हैं, अनुभाग स्थान नहीं हैं और उदय स्थान भी नहीं हैं। क्षायिकभाव स्थान, क्षायोपशमिकभाव स्थान, औदयिकभाव स्थान और औपशमिकभाव स्थान भी नहीं हैं। चर्तुगति भव का परिभ्रमण, जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक जीव के नहीं हैं तथा कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान भी जीव के नहीं हैं। यह आत्मा दण्डरहित, द्वन्दरहित, ममतारहित, शरीररहित, आलंबनरहित, रागरहित, दोषरहित, मूढ़तारहित और भयरहित है। यह आत्मा निग्र्रन्थ, नीराग, नि:शल्य, सर्वदोष से रहित, निष्काम है। क्रोधरहित, मानरहित और मदरहित है। वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेद, संस्थान तथा संहनन ये सभी कुछ जीव के नहीं हैं। तब जीव का स्वरूप है क्या ?-यह जीव अरस है, अरूप है, अगंध है, अव्यक्त है, चेतना गुण सहित है, अशब्द है, लिंग के द्वारा उसका ग्रहण नहीं किया जाता है और उसके आकार का भी कथन नहीं किया जा सकता है अर्थात् जीवात्मा रस, रूप, गंध से रहित है, व्यक्त नहीं है, शब्द से रहित है, किसी भी चिन्ह के द्वारा उसको ग्रहण नहीं किया जा सकता है, उसका कुछ भी आकार नहीं कहा जा सकता है और वह चेतना गुण से सहित है। पुनः उसका क्या स्वरूप है ?-जिस प्रकार के सिद्ध जीव हैं, संसार में रहने वाले जीव वैसे ही हैं, इसी हेतु से ये जरा, मरण और जन्म से मुक्त हैं और आठ गुणों से अलंकृत हैं। अशरीरी, अविनाशी, अनिन्द्रिय, निर्मल ऐसे विशुद्धात्मा जिस प्रकार से लोक के अग्रभाग में स्थित हैं वैसे ही संसार में रहने वाले संसारी जीव हैं, ऐसा जानना चाहिए। ‘‘पुनः संसार और मोक्ष की व्यवस्था ही क्यों हुई ?’’ ‘‘सो ही बताते हैं।’’ ये सभी भाव (प्रकृति स्थान आदि) व्यवहारनय की अपेक्षा से कहे गए हैं किन्तु शुद्धनय से संसार के सभी जीव सिद्ध स्वभाव वाले हैं। पूर्व में कहे गए संपूर्ण भाव परद्रव्य हैं और पर स्वभाव हैं इसलिए वे हेय हैं तथा स्वयं का द्रव्य ही उपादेय है वह अंतस्तत्व आत्मा ही है। ==प्रश्न-जीव के क्षायिकभाव स्थान नहीं हैं ऐसा जो कहा है सो कैसे ? क्योंकि क्षायिकभाव तो सिद्धों के भी पाये जाते हैं ? == उत्तर-आपका कथन ठीक है परन्तु इस अधिकार में श्री कुन्दकुन्द देव ने ‘शुद्धनय’ की अपेक्षा से जीव द्रव्य का वर्णन किया है जैसा कि गाथा नं. ४९ में कहा गया है। जीव सदाकाल से शुद्ध ही है, न कभी अशुद्ध हुआ था, न है उसके साथ अनादिकालीन कर्मबन्ध का सम्बन्ध शुद्धनय से नहीं है पुनः जब कर्म का बंध ही उसके नहीं था तो उनके क्षय से होने वाले क्षायिकभाव कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि ‘क्षायिक’ यह शब्द उपाधिरूप है, क्षय से प्रकट हुए भाव क्षायिक हैं अतः शुद्धनय क्षायिकभाव नहीं है। मात्र जीव के सहज, शुद्धज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुण ही जीव में हैं वही जीव तत्त्व अंतस्तत्त्वरूप है। यही सम्यग्ज्ञान का विषय है। हां, व्यवहारनय से ये सभी भाव जीव के ही हैं, ऐसा समझना। अतः नयों की विवक्षा से ही स्वद्रव्य उपादेय है और परद्रव्य तथा पर पुद्गल कर्मों के निमित्त से होने वाले भाव पर होने से वे सब हेय हैं ऐसा दृढ़ श्रद्धान करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव अपने इस हेयोपादेय ज्ञान के बल से ही परद्रव्य से ममत्व छोड़कर संयम आदि रूप चारित्र को ग्रहण करने में प्रमादी नहीं होता है प्रत्युत उत्साही होता है, ऐसा ही श्रीकुन्दकुन्ददेव का अभिप्राय है। निश्चय प्रतिक्रमण-संपूर्ण व्यवहार चारित्र तेरह भेद रूप या अट्ठाईस मूलगुण रूप है और उत्तर गुणों की अपेक्षा बहुत ही भेद रूप है, उसका फल स्वर्ग है और परंपरा से मोक्ष है तथा व्यवहार चारित्र से अतिरिक्त जो निश्चय चारित्र है वह साक्षात् मोक्ष का कारण है अत: निश्चय चारित्र के अंतर्गत ही प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, स्तव, वंदना आदि आवश्यक क्रियायें निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान आदि कहलाती हैं। इनका संबंध मात्र आत्मा से ही रहता है। उन्हीं निश्चय अर्थात् परमार्थ प्रतिक्रमण आदि का वर्णन इस प्रकार है- यह स्पष्ट है कि व्यवहार चारित्र के बिना निश्चयचारित्र सर्वथा असंभव है अत: व्यवहार चारित्र ही निश्चय चारित्र के लिए कारण है और वह व्यवहार चारित्र मुनियों के ही होता है क्योंकि स्वयं श्री कुन्दकुन्द देव ने व्यवहार चारित्र का वर्णन करते हुए चतुर्थ अध्याय में मुनियों के तेरह प्रकार के चारित्र का निरूपण किया है। गृहस्थ तो मात्र एकदेश रूप विकल चारित्र को ही धारण कर सकते हैं अत: वे निश्चय चारित्र को प्राप्त करने के अधिकारी कथमपि नहीं हो सकते हैं। यहां इस नियमसार के पंचम अध्याय में आचार्यदेव निश्चय अथवा परमार्थ प्रतिक्रमण का निरूपण करते हैं, उसमेंं सबसे पहले पांच गाथाओं द्वारा पंचरत्न का स्वरूप दिखलाते हैं- मैं नारक पर्याय नहीं हूँ, तिर्यंच पर्याय, मनुष्य पर्याय अथवा देव पर्यायरूप भी नहीं हूँ। इन पर्यायों का न मैं कत्र्ता हूँ, न कराने वाला हूँ और न करते हुए को अनुमोदना देने वाला ही हूँ। ==मैं मार्गणास्थान नहीं हूँ, == मैं गुणस्थान अथवा जीवसमास स्थान भी नहीं हूँ, न मैं इन अवस्थाओं का कत्र्ता हूँ, न कराने वाला हूँ और न अनुमति देने वाला ही हूँ। मैं बालक नहीं हूँ, वृद्ध नहीं हूँ तथा युवा भी नहीं हूँ। न मैं इन पर्यायों का कत्र्ता हूँ, न कराने वाला हूँ और न ही इनकी अनुमोदना करने वाला ही हूँ। मैं राग नहीं हूँ, द्वेष नहीं हूँ तथा मोह नहीं हूँ। इन भावों का न मैं कत्र्ता हूँ, न कराने वाला हूँ और न ही करने वालों को अनुमति देने वाला ही हूँ। न मैं क्रोध हूँ, न मान हूँ, न माया हूँ, न लोभ हूँ, इन कषायरूप परिणामों का न मैं कत्र्ता हूँ, न कराने वाला हूँ और न इन भावों के करने वालों को अनुमति देने वाला ही हूँ।१ इन पांच गाथाओं को टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने पंचरत्न यह संज्ञा दी है। इन गाथाओं द्वारा आचार्य महोदय ने शुद्ध आत्मतत्त्व का प्रतिपादन करते हुए उसमें द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म के निमित्त से हुई अवस्थाओं विशेष के कर्तृत्त्व का निराकरण किया है क्योंकि शुद्ध निश्चयनय से आत्मा में ये नरक, तिर्यंच आदि पर्यायें, मार्गणा, गुणस्थान आदि अवस्थायें, बाल, वृद्ध आदि दशायें एवं क्रोध मान आदि विभाव भाव कुछ भी नहीं हैं अत: यह शुद्ध आत्मा इनका न करने वाला है, न दूसरों द्वारा कराने वाला है और न करते हुए अन्य जनों को अनुमोदना देने वाला ही है। ==आगे आचार्य कहते हैं- == इस प्रकार से भेद के अभ्यास से जीव मध्यस्थ भाव को प्राप्त हो जाता है इसलिए उसके राग द्वेष रहित परम वीतराग चारित्र प्रगट होता है अत: उस चारित्र को दृढ़ करने के लिए मैं प्रतिक्रमण आदि को कहूँगा। इन्हीं कुन्दकुन्द देव ने अपने द्वारा रचित मूलाचार ग्रन्थ में मुनियों के लिए प्रतिक्रमण करने का विधान किया है। उसमें यह बताया है कि इस पंचमकाल में मुनियों को जिस किसी विषय में दोष नहीं भी लगे तो भी उन सब दोषों का प्रतिक्रमण प्रतिदिन करना ही चाहिए। उस व्यवहार प्रतिक्रमण में दत्तचित्त हुए मुनियों के ही यह निश्चय प्रतिक्रमण संभव है, अन्य के नहीं। ==आगे पुन: कहते हैं- == वचन रचना को छोड़कर और रागादि भावों का निवारण करके जो मुनि अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं उनके ही यह प्रतिक्रमण होता है अर्थात् ‘मिच्छा मे दुक्कडं’ आदि वचनों के उच्चारणरूप वचनों से परे रागादि विभाव भावों से रहित जो शुद्ध आत्मा का निर्विकल्प ध्यान है वही निश्चय प्रतिक्रमण कहलाता है। ऐसे ही जो विशेषरूप से विराधना (जीवों की विराधना) को छोड़कर दर्शन, ज्ञान आदि चतुर्विध आराधना में वर्तन करते हैं, वे मुनि ही प्रतिक्रमण कहलाते हैं क्योंकि वे उस समय प्रतिक्रमणमय हैं अर्थात् वे प्रतिक्रमणरूप परिणत हो जाने से स्वयं ही प्रतिक्रमण कहलाते हैं। जो मुनि अनाचार को छोड़कर अपने आचार में स्थिर भाव को प्राप्त हो गए हैं, वे मुनि ही प्रतिक्रमण कहलाते हैं क्योंकि वे उस समय प्रतिक्रमणमय हैं। जो मुनि उन्मार्ग-मिथ्यामार्ग को छोड़कर जिनेन्द्रदेव के बताये हुए निर्ग्रन्थरूप मोक्षमार्ग में स्थिर भाव को करते हैं वे मुनि ही प्रतिक्रमणमय हैं। जो साधु माया, मिथ्या, निदानरूप शल्य भावों को छोड़कर नि:शल्य भाव से परिणमन करते हैं, वे साधु ही प्रतिक्रमण कहलाते हैं क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हो चुके हैं।१ यहां पर इस गाथा में ‘साहू’ शब्द है जो कि मध्य दीपक है। अत: उसका पूर्व की गाथा और आगे की गाथाओं के साथ सम्बन्ध समझ लेना चाहिए क्योंकि प्रतिक्रमणरूप आवश्यक क्रिया मुनि के लिए ही है न कि श्रावकों के लिए। श्रावकों की आवश्यक क्रियायें तो देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये ही बताई गई हैं। जो साधु अगुप्तिभाव-गुप्ति रहित अवस्था को छोड़कर त्रिगुप्ति से गुप्त होता है वह प्रतिक्रमण कहलाता है क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है। यहां इस गाथा में भी ‘साहू’ शब्द से साधु को ही गुप्तियां होती हैं ऐसा स्पष्टीकरण हो जाता है। ==जो साधु आर्त, रौद्रध्यान को छोड़कर == धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्याता है वह प्रतिक्रमण कहलाता है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव के द्वारा निर्दिष्ट सूत्रों में कहा गया है। इस जीव ने पूर्व में चिरकाल तक मिथ्यात्व, असंयम आदि भावों को ही भाया है किन्तु इसने कदाचित् भी सम्यक्त्व, संयम आदि भावनाओं को अभी तक नहीं भाया है। इसलिए जो मुनि सम्पूर्ण रूप से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को छोड़कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को भाता है वह मुनि ही प्रतिक्रमणस्वरूप है। यह आत्मा ही उत्तम अर्थ है और इसमें स्थित हुए मुनिवर ही कर्मों का नाश करते हैं अत: ध्यान ही उत्तमार्थ का प्रतिक्रमण है। यहां इस गाथा में भी ‘हणदि मुणिवरा कम्मं’ पाठ में मुनिवर शब्द आया हुआ है अत: मुनिराज ही इस प्रतिक्रमण के अधिकारी होते हैं ऐसा स्पष्ट समझना चाहिए। यहां पर उत्तमार्थ प्रतिक्रमण को घटित किया है, मूलाचार में प्रतिक्रमण के सात भेद माने गए हैं-ईर्यापथिक, दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ। मार्ग में चलने से जो दोष लगता है उसके निराकरण हेतु ईर्यापथ प्रतिक्रमण किया जाता है। दिवस के अन्त में दैवसिक, रात्रि के अन्त में रात्रिक, पन्द्रह दिन में पाक्षिक, चार महीने में चार्तुमासिक, एक वर्ष में आषाढ़ शुक्ला चर्तुदशी या पूर्णिमा के दिन वार्षिक प्रतिक्रमण किया जाता है तथा मरण के काल में जब साधु सल्लेखना लेकर संस्तर ग्रहण कर लेते हैं तब संपूर्ण दोषों की शुद्धि के लिए गुरु के पादमूल में वे जो प्रतिक्रमण करते हैं उसका नाम ‘उत्तमार्थ’ है। यहां पर उसी को निश्चयरूप से घटित करते हुए बताया है कि यह आत्मा ही उत्तम अर्थ-पदार्थ है, उसमें तन्मयतारूप से स्थित हुए साधु ही कर्मों के नाश करने में समर्थ होते हैं अत: उनका वह ध्यान ही उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है। आगे पुन: कहते हैं- ध्यान में लीन हुए साधु ही सर्व दोषों का त्याग कर देते हैं इसलिए ध्यान ही सर्वातिचार का प्रतिक्रमण है। मूलाचार में संपूर्ण अतिचारों को दूर करने के लिए एक सर्वातिचार प्रतिक्रमण होता है। यहां पर उसी को लक्ष्य करके निश्चयपरक अर्थ घटाया है। यहां पर भी गाथा में ‘झाणणिलीणो साहु’ शब्द रखकर ध्यान के अधिकारी साधुओं को ही माना गया है अत: वे ही सर्वातिचार प्रतिक्रमण कर सकते हैं। ==अंत में आचार्यदेव कहते हैं कि- == प्रतिक्रमण नाम वाले सूत्र में जैसे प्रतिक्रमण का वर्णन किया गया है उसको जानकर जो मुनि उसको भाते हैं अर्थात् उन प्रतिक्रमण के दण्डकों का उच्चारण करते हुए प्रतिक्रमण करते हैं उनके ही उस काल में प्रतिक्रमण होता है क्योंकि जिन मुनियों ने सूत्र में कथित प्रतिक्रमण पाठ की उपेक्षा कर दी है वे मुनि कथमपि निश्चय प्रतिक्रमण को प्राप्त नहीं कर सकते हैं।व्यवहार प्रतिक्रमण कितना कार्यकारी है। उसके बिना निश्चय प्रतिक्रमण असंभव है और आज के युग में तो निश्चय प्रतिक्रमण की मात्र भावना ही की जा सकती है। क्रिया में तो व्यवहार प्रतिक्रमण ही करना होता है। आज जो मुनि व आर्यिकायें प्रतिक्रमण सूत्रों का पाठ करते हैं वह श्री गौतमस्वामी के मुखकमल से निकला हुआ है। निश्चय प्रत्याख्यान-जो मुनि समस्त जल्प को छोड़कर और अनागत शुभ-अशुभ का निवारण करके अपनी आत्मा को ध्याते हैं उनके ही यह प्रत्याख्यान आवश्यक होता है। टीकाकार कहते हैं-‘अत्र व्यवहारनयादेशात् मुनयो भुक्त्वा दैनं दैनं पुनर्योग्यकालपर्यन्तं प्रत्यादिष्ठान्न- पानखाद्यलेह्यरुचय: एतद् व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपं। निश्चयनयत: प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनाप्रपंच-परिहारेण शुद्धज्ञानभावनासेवाप्रसादादभिनवशुभाशुभद्रव्यभाव-कर्मणां संवर: प्रत्याख्यानं१।’ व्यवहार नय की अपेक्षा से मुनिगण दिन-दिन में आहार करके पुन: योग्य काल पर्यंत अन्न, पान, खाद्य, लेह्य इन चार प्रकार के आहार का त्याग कर देते हैं यह व्यवहार प्रत्याख्यान है पुन: निश्चयनय से प्रशस्त-अप्रशस्तरूप समस्त वचनों के विस्तार को छोड़कर शुद्ध ज्ञान की भावना के प्रसाद से जो नवीन शुभ-अशुभ द्रव्य कर्मों तथा भाव कर्मों का संवर होना सो निश्चय प्रत्याख्यान है। ==यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है == कि मुनिराज अपनी षट् आवश्यक क्रियाओं में इस प्रत्याख्यान क्रिया को पालते हैं। वे दिन में एक बार आहार लेकर पुन: सिद्धभक्तिपूर्वक अगले दिन आहार लेने पर्यन्त के लिए चतुराहार का त्याग कर देते हैं सो यह उनका व्यवहार प्रत्याख्यान है। पुन: जब वे शुभ-अशुभरूप अन्तर्जल्प से भी छूटकर श्रेणी में आरोहण कर शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हुए उसी में तन्मय हो जाते हैं उस समय उनके निश्चय प्रत्याख्यान होता है। उसी समय मुनि के समस्त कर्मों का संवर हो जाता है और वे केवली हो जाते हैं। यही बात टीकाकार ने अपने शब्दों में स्पष्ट की है। आगे देखिए- ज्ञानी मुनि ऐसा चिन्तवन करे कि जो केवलज्ञानस्वभावी, केवलदर्शनस्वभावी, पूर्ण सुखमयी और केवलशक्तिस्वभावी आत्मा है वह मैं हूँ अर्थात् मैं निश्चयनय की अपेक्षा से केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलशक्ति स्वभावी हूँ। जो आत्मा निजभाव को नहीं छोड़ता है तथा किंचित् भी परभाव को ग्रहण नहींr करता है, मात्र सर्व को जानता और देखता है, वह मैं हूँ ऐसा ज्ञानी मुनि चिन्तवन करे। जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार प्रकार के बन्धों से रहित आत्मा है, वह मैं हूँ। इस प्रकार से चिन्तवन करता हुआ मुनि उसी आत्मा में स्थिर भाव को करता है ==अर्थात् शुद्धोपयोग में लीन हो जाता है। == पुन: साधु निश्चय प्रत्याख्यानमय होने के लिए क्या-क्या भावना भाते हैं ? मैं ममत्व को छोड़ता हूँ और निर्ममत्व में स्थित होता हूँ। यह मेरा आत्मा ही मेरा अवलंबन है उससे अतिरिक्त अन्य सभी का मैं त्याग करता हूँ। वास्तव में मेरे ज्ञान में आत्मा है, मेरे दर्शन में आत्मा है, मेरे चारित्र में आत्मा है मेरे प्रत्याख्यान में आत्मा है, मेरे संवर में आत्मा है तथा मेरे योग-निर्विकल्प ध्यान में आत्मा है अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र प्रत्याख्यान संवर और ध्यान में मेरी आत्मा का ही अनुभव प्रधान है। यह जीव अकेला ही मरता है और स्वयं अकेला ही जन्मता है। इस अकेले जीव का ही जन्म और मरण होता है तथा यह एक ही कर्मरज से रहित होता हुआ सिद्धपद को प्राप्त करता है। मेरा आत्मा एक है, शाश्वत है और ज्ञानदर्शन स्वरूप है, शेष सभी संयोग से होने वाले जो भाव हैं वे सभी मेरे से भिन्न हैं। जो कुछ भी मेरा दुश्चरित्र है मैं उन सबको मन वचन कायपूर्वक छोड़ता हूँ और जो सामायिक चारित्र है, मैं उसको निराकार-निर्विकल्परूप करता हूँ। सर्व जीवों के प्रति मेरा साम्यभाव है, मेरा किसी के साथ वैर भाव नहीं है। मैं सर्व आशा को छोड़कर समाधि को प्राप्त होता हूँ अर्थात् निर्विकल्प ध्यान का आश्रय लेता हूँ। जो मुनि निष्कषाय-सम्पूर्ण कषाय रहित क्षीणमोह हो चुके हैं, पूर्ण जितेन्द्रिय हैं, शूरवीर हैं, व्यवसायी हैं-सिद्ध सुख को प्राप्त करने में उद्यमी हैं और संसार से पूर्णतया भयभीत हैं ऐसे मुनि के ही सुखपूर्वक प्रत्याख्यान होता है। ==अन्त में श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं- ==एवं भेदब्भासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं। पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदुं सो संजदो णियमा।।१०६।।इस प्रकार से जो नित्य ही जीव और कर्म में भेद का अभ्यास करता है, वह संयत-महामुनि नियम से प्रत्याख्यान को धारण करने में समर्थ होता है। इस गाथा का ‘संजदो’ पद ध्यान देने योग्य है। इस पद से यह स्पष्ट हो रहा है कि श्री कुंदकुंददेव स्वयं कह रहे हैं कि यह प्रत्याख्यानरूप आवश्यक क्रिया मुनियों के लिए ही है न कि श्रावकों के लिए। क्योंकि श्रावक जब तक व्यवहार प्रत्याख्यानरूप क्रिया में नहीं आया है तब तक वह निश्चय प्रत्याख्यान को वैâसे प्राप्त कर सकता है ? टीकाकार ने भी ‘स परमसंयमी’ पद रखकर स्पष्ट कर दिया है कि इस प्रत्याख्यान के अधिकारी असंयमी अथवा देशसंयमी नहीं हो सकते हैं। ‘पुन: अपना क्या कर्तव्य है ?’ अपना कत्र्तव्य यही है कि इस निश्चय प्रत्याख्यान के अभिलाषी जो मुनिगण व्यवहार प्रत्याख्यान का अवलंबन लेकर आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की परम्परा को अक्षुण्ण चला रहे हैं, उन मुनिराजों की परमभक्ति करते हुए सदैव यह भावना भाते रहें कि हमें भी इस जीवन में वह दिन प्राप्त होवे कि जिस दिन मुनिमुद्रा में विचरण करते हुए इस प्रत्याख्यान आवश्यक क्रिया को प्राप्त करने का अधिकारी बनूं और जब तक उस अवस्था को नहीं प्राप्त कर सवेंâ तब तक उन मुनियों के संसर्ग को न छोड़ें। निश्चय आलोचना-जो नोकर्म, (औदारिक, वैक्रियक, आहारकशरीर और छह पर्याप्ति) कर्म (ज्ञानावरण आदि) से रहित तथा विभाव गुण पर्यायों से भिन्न ऐसी श्ुाद्ध आत्मा का ध्यान करता है उस श्रमण के यह (निश्चय) आलोचना होती है। टीकाकार कहते हैं कि ‘‘……..त्रिकालनिरावरणनिरंजनपरमात्मानं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिना य: परमश्रमणो नित्यमनुष्ठानसमये वचनरचनाप्रपंचपराङ्मुख: सन् ध्यायति, तस्य भावश्रमणस्य सततं निश्चयालोचना भवतीति।’’ जो परम श्रमण वचन रचना के विस्तार से पराङ्मुख होकर नित्य ही अनुष्ठान के समय तीन गुप्तियों से सहित ऐसी परम समाधि में स्थित होकर त्रिकाल निरावरण निरंजन परमात्मा का ध्यान करते हैं उस भाव श्रमण के हमेशा ही निश्चय आलोचना होती है। इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि निश्चय आलोचना के अधिकारी निग्र्रन्थ मुनि ही होते हैं और उसमें भी तीन गुप्ति के पालन करने वाले ही होते हैं। अब आगे कहते हैं कि जैन आगम में आलोचना के स्वरूप के चार भेद किए हैं-आलोचन, आलुन्छन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि। (१) जो समभाव में अपने परिणाम को स्थापित करके अपनी आत्मा का अनुभव करते हैं उसे तुम आलोचना समझो ऐसा परम जिनेन्द्रदेव का उपदेश है। टीकाकार स्पष्ट कर रहे हैं कि ‘‘पूर्व निजपरिणामं समतावलंबनं कृत्वा परमसंयमीभूत्वा तिष्ठति तदेवालोचनास्वरूपं’’ जो साधु पूर्व में अपने परिणाम को सुख-दु:ख, जीवित-मरण आदि में समरूप करके परम संयमी होकर स्थित होते हैं, वही आलोचना का स्वरूप है। इस कथन से भी यह स्पष्ट हो रहा है कि इस नियमसार ग्रंथ में कही गई आलोचना को प्राप्त करने के अधिकारी श्रावक कथमपि नहीं हो सकते। अब आलुन्छन का स्वरूप देखिए- (२) कर्मरूपी वृक्ष के मूल को छेदन करने में समर्थ ऐसा जो समभावरूप अपनी आत्मा के आश्रित अपना परिणाम है उसे आलुन्छन कहा है। यहां पर भी अपनी आत्मा के आश्रित जो निज परिणाम है वह शुद्धोपयोग में ही घटित होता है। (३) जो मध्यस्थ-राग द्वेष रहित वीतराग भावना में स्थित होकर विमल गुणों के स्थान स्वरूप तथा कर्मों से भिन्न ऐसी आत्मा का अनुभव करता है उस जीव को अविकृतिकरण जानना। ==यहां पर टीकाकार कहते हैं कि == ‘‘इह हि शुद्धोपयोगिनो जीवस्य परिणतिविशेष: प्रोक्त:’’ अर्थात यहां पर शुद्धोपयोगी महामुनि की परिणति विशेष कही गई है। इस कथन से भी स्पष्ट है कि यह अविकृतिकरण नाम की आलोचना वीतरागी महामुनि के ही होती है। इसी टीका के अंतिम कलश में टीकाकार कहते हैं कि-‘जिसने अपनी आत्मा के स्वाभाविक तेज से रागरूपी अंधकार को नष्ट कर दिया है, जो मुनिवरों के मन के गोचर है, शुद्ध-बुद्ध है, विषयसुख का अनुभव करने वालों के लिए सर्वदा दुर्लभ है, परमसुख का समुद्र है और जिसने निद्रा को समाप्त कर दिया है ऐसा यह शुद्धबोध जयशील होवे।’ इस कलश में भी यह स्पष्ट है कि यह निश्चय आलोचना मुनिवरों को ही प्राप्त हो सकती है। विषयों के आधीन हुए श्रावकों को नहीं प्राप्त हो सकती। (४) जो मद, मान, माया और लोभ रहित भाव है वही भाव शुद्धि है। ऐसा भव्यों को श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। टीकाकार एक कलश काव्य में कहते हैं कि-आलोचना सतत्शुद्धनयात्मिका या। निर्मुक्तमार्गफलदा यमिनामजस्रम्।। शुद्धात्मतत्त्वनियता चरणानुरूपा। स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनु:।।१७२।।संयमियों को सदा मोक्षमार्ग का फल देने वाली तथा शुद्ध आत्मतत्त्व में नियत तन्मय रूप जो आचरण है उसके अनुरूप ऐसी निरंजन शुद्धनय के अवलंबनरूप जो आलोचना है वह मुझ संयमी पद्मप्रभमलधारी मुनि को कामधेनु सदृश होवे। निश्चय प्रायश्चित-पांच महाव्रत, पांच समिति, शील और संयमरूप जो परिणाम है तथा पांच इन्द्रियों के निग्रहरूप जो भाव है सो ही प्रायश्चित है। ऐसे प्रायश्चित को निरंतर करना चाहिए। प्राय: अर्थात् प्रचुरता से निर्विकाररूप चित्त का होना प्रायश्चित है। यह प्रायश्चित महामुनियों के ही होता है। जो मुनि महाव्रत आदि रूप से अपने चारित्र में पूर्ण प्रवृत्ति कर रहे हैं ऐसे महामुनि के जो इन व्रतों की परिणतिरूप से विशुद्ध परिणाम होते हैं वे ही परिणाम पापों के क्षालन में अथवा कर्मों की निर्जरा में निमित्त होते हैं अत: उन परिणामों को ही यहां प्रायश्चित नाम दिया है। क्रोध, मान, माया आदि रूप जो अपने भाव हैं, उनको क्षय करने की या उपशम करने की भावना को करना सो प्रायश्चित है तथा अपने आत्मगुणों का चिंतन करना सो यह निश्चय प्रायश्चित है। ==किस कषाय का कैसे निग्रह करना ? सो ही बताते हैं- == महायोगी क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से और लोभ को संतोष से इस प्रकार चारों ही कषायों को जीत लेते हैं। उसी अर्थात् कषायरहित आत्मा का जो उत्कृष्ट बोध है, ज्ञान है, जो मुनी उसी ज्ञान में ही अपने चित्त को धरते हैं-एकाग्र करते हैं उन मुनि के ही यह निश्चय प्रायश्चित होता है अर्थात् जो पर संयमी नित्य ही अपने उपयोग को ज्ञानरूप रखते हैं, एकाग्र होकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाते हैं उन्हीं के ही यह निश्चय प्रायश्चित होता है। श्री कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि- अधिक कहने से क्या ? महर्षियों का जो श्रेष्ठ तपश्चरण है वह सभी प्रायश्चित है क्योंकि वह तपश्चरण ही उन मुनि के अनेक विध कर्मों के क्षय का हेतु है अर्थात् महामुनिगण जो भी उत्तम-उत्तम तपश्चरण करते हैं उसके द्वारा वे अपने अनंत कर्मों का नाश कर देते हैं इसलिए वह तपश्चरण ही प्रायश्चित है। इस गाथा की टीका में टीकाकार ने एक बहुत ही सुन्दर कलश लिखा है-अध्यात्मशास्त्रामृत-वारिराशेर्मयोद्धृता संयमरत्नमाला। बभूव या तत्त्वविदां सुकण्ठे, सालंकृतिर्मुक्तिवधूधवानाम्।।१८७।।अध्यात्मशास्त्ररूपी अमृत समुद्र से मैंने जो संयमरूपी रत्नमाला निकाली है वह संयम रत्नमाला मुक्तिरूपी स्त्री के वल्लभ ऐसे तत्त्वज्ञानियों के सुकण्ठ का आभूषण है। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि अध्यात्मशास्त्र के अभ्यासीजन संयम को ग्रहण करके मुक्ति के अधिकारी बनते हैं न कि संयम और संयमियों की उपेक्षा करके। आगे श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं- अनंत-अनंत भवों में संचित किया गया जो शुभ-अशुभ कर्मों का समूह है वह सब तपश्चरण के द्वारा नष्ट हो जाता है इसलिए तपश्चरण ही प्रायश्चित है। यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि मुनि या श्रावक के द्वारा उनके व्रतों में जो भी दोष लग जाते हैं तब वे उस दोष के दूर करने के लिए गुरु से प्रायश्चित की याचना करते हैं। उस समय गुरुदेव दोष के विशोधन हेतु उन शिष्यों को उपवास, रस परित्याग आदि रूप से तपश्चरण का ही आदेश देते हैं अत: यह विदित होता है कि वह तपश्चरण ही प्रायश्चित है। ==आगे कहते हैं- == कोई भी महामुनि आत्मस्वरूप के अवलंबनरूप भाव से ही सर्व भावों का (शुभ-अशुभ विकल्पों का) परिहार करने में समर्थ होते हैं अत: वह शुद्धात्मतत्त्व का ध्यान ही सब कुछ है। जो मुनि शुभ-अशुभरूप वचनों के विस्तार का तथा रागद्वेष आदि भावों का निवारण करके अपनी आत्मा को ध्याते हैं उन मुनि के ही नियम से नियम होता है अर्थात् जो मुनि अंतर्बाह्य विकल्प से रहित होकर निर्विकल्प रूप शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं उन मुनि के ही निश्चय से प्रायश्चित होता है। जो मुनि शरीर आदि परद्रव्य में ‘यह स्थिर है’ ऐसी बुद्धि को छोड़कर निर्विकल्परूप से अपनी आत्मा को ध्याता है उस मुनि के ही कायोत्सर्ग होता है अर्थात् प्रायश्चित में १०८, ३००, ५०० आदि श्वासोच्छ्वास- रूप से कायोत्सर्ग करने का विधान है वह व्यवहार प्रायश्चित कहलाता है। इसीलिए यहां ध्यान को निश्चय कायोत्सर्गरूप निश्चय प्रायश्चित कहा है। विशेष-नियमसार में श्री कुन्दकुन्ददेव ने साधुओं के निश्चय प्रायश्चित का वर्णन किया है। यह निश्चय प्रायश्चित वे ही करने में समर्थ होते हैं कि जो व्यवहार प्रायश्चित के ग्रहण करने में सावधान हैं। मूलाचार में श्री कुन्दकुन्द देव ने स्वयं ही इस प्रायश्चित को अंतरंग तप का एक भेद मानते हुए उसके दश भेद बताये हैं। यथा- आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये प्रायश्चित तप के दश भेद हैं। आचार्य अथवा भगवान् के पास जाकर चारित्राचारपूर्वक उत्पन्न हुए अपने दोषों को कहना आलोचना है। रात्रिभोजन त्याग सहित पांच महाव्रतों का उनकी भावना के साथ उच्चारण करना या दैवसिक अथवा पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमण है। आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों ही करना तदुभय प्रायश्चित है। गणविवेक और स्थानविवेक ऐसे विवेक के दो भेद हैं। कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग है। अनशन आदि करना तप है। पक्ष, मास, वर्ष इत्यादि काल के प्रमाण से दीक्षा कम करना छेद है, फिर प्रारम्भ से दीक्षा देना मूल है। संघ से पृथव्â करना परिहार प्रायश्चित है और तत्त्व में रुचि करना अथवा क्रोधादिक का परित्याग श्रद्धान प्रायश्चित है। आचार्य शिष्य के दोषों के अनुसार इनमें से यथायोग्य प्रायश्चित उन्हें देते हैं। ==श्रावकों के लिए भी प्रायश्चित का विधान है। == उनके आठ मूलगुण, बारह उत्तरगुण, ग्यारह प्रतिमा में या किसी भी लिए गए नियम, व्रत आदि में यत्किंचित् दोष लग जाने पर या व्रतों के भंग हो जाने पर प्रायश्चित का विधान है। श्रावक या श्राविका विनयपूर्वक दिगम्बर जैनाचार्य के पास में जाकर एकांत में बैठकर उनके निकट में दोषों के अनुसार शास्त्रविहित प्रायश्चित देकर उसको दोषों से मुक्त कर देते हैं। परमसमाधि-परमभक्ति-वचन उच्चारण की क्रिया को छोड़कर वीतराग भाव से जो साधु आत्मा को ध्याता है उसके परम समाधि होती है। जो साधु संयम, नियम और तप से तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान से आत्मा को ध्याता है उसी साधु के परमसमाधि होती है। यहां मूल गाथा में यद्यपि साधु शब्द नहीं है फिर भी वचनोच्चारण क्रियारहित वीतरागभाव और संयम तथा शुक्लध्यान साधु के ही हो सकते हैं, गृहस्थ के नहीं। तथा आगे गाथा में श्रमण शब्द भी दे रहे हैं- जिस श्रमण के समता भाव नहीं है उसके लिए वनवास-वन में रहना, कायक्लेश करना, नाना प्रकार के उपवास करना, ग्रन्थों का अध्ययन करना और मौन से रहना आदि क्या करते हैं ? वीतराग भावरहित साधु के ये वनवास आदि मोक्ष को प्राप्त नहीं करा सकते हैं। आगे कहते हैं यह समताभावरूप सामायिक किनके होता है ? जो सर्व सावद्य से विरत हैं, तीन गुप्ति से सहित हैं, इंद्रियों के व्यापार को समाप्त कर दिया है, उन्हीं के सामायिक स्थायी होती है ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। जो त्रस और स्थावर सभी जीवों के प्रति समभाव रखते हैं उन्हीं के सामायिक स्थायी है, ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा गया है। जिनकी आत्मा संयम, नियम और तप में सन्निहित है उनके सामायिक स्थायी है ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। जिनके हृदय में राग या द्वेष विकृति को उत्पन्न नहीं कर सकते हैं उनके ही सामायिक स्थाई होता है ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। जो मुनि नियम से आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़ देते हैं उनके ही सामायिक स्थाई है ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। जो मुनि नियम से पुण्य और पाप इन दोनों भावों को छोड़ देते हैं अर्थात इन भावों से ऊपर उठकर शुद्धोपयोग में पहुंच चुके हैं, उन्हीं के स्थायी सामायिक है ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। जो मुनि हास्य, रति, शोक और अरति को नियम से छोड़ देते हैं उन्हीं के स्थाई सामायिक होता है ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा गया है। उसी प्रकार से जो मुनि जुगुप्सा, भय और वेद (स्त्री, पुरुष, नपुंसक) नियम से इन सभी को छोड़ देते हैं अर्थात् अपने उपयोग में इन्हें नहीं आने देते हैं उन्ही के स्थाई सामायिक होता है। पुन: करते क्या हैं ? सो ही बताते हैं कि- ==जो मुनि नियम से धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्याते हैं == उन्हीं के सामायिक स्थायी है ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा है। यहां पर जो सामायिक का वर्णन किया है उस सामायिक को ही परम साम्यभाव, उपेक्षा संयम वीतराग चारित्र, निर्विकल्प समाधि और परमसमाधि कहते हैं। यह परमसमाधि उत्तम संहननधारी महामुनियों के ही होती है जो कि प्राय: तीन गुप्ति से परिणत होने में समर्थ हैं। हां, इस युग में जो मुनि हैं वे पापभाव और आर्त, रौद्र ध्यानरूप अशुभोपयोग से तो अपने को बचा सकते हैं किन्तु पुण्यभाव और धर्मध्यान को नहीं छोड़ सकते हैं क्योंकि आज शुक्लध्यान हो नहीं सकता है और शुक्लध्यान के बिना पुण्यास्रव का निरोध संभव नहीं है अत: यह परमसमाधि वीतराग अवस्था में ही संभव है। जो कि सप्तम गुणस्थान से प्रारम्भ हो जाती है। आगे आचार्य परमभक्ति का वर्णन करते हैं- जो श्रावक या श्रमण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में भक्ति करता है उसी के निवृत्ति भक्ति (निर्वाण भक्ति) होती है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। यहां पर एक महत्त्वपूर्ण बात यह समझने की है कि इस नियमसार में प्रारम्भ से लेकर १३१ गाथा तक कहीं पर भी ‘श्रावक’ शब्द का प्रयोग नहीं आया है किन्तु इसी गाथा में ‘सावगो समणो’ ऐसा शब्द आया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व की सारी क्रियायें मुनि से ही संबंधित हैं तथा टीकाकार ने भी ‘परमश्रावकाणां परमतपोधनानां’ आदि पदों से श्रावक और मुनि दोनों के लिए है१, ऐसा कहा है। ==पुन: आगे श्री कुंदकुंददेव कहते हैं- == जो जीव मोक्ष को प्राप्त हुए पुरुषों के गुण भेदों को जानकर उनकी भी भक्ति करता है वह जीव व्यवहारनय से निर्वाण भक्ति करने वाला है। जो जीव मोक्षमार्ग में सम्यक् प्रकार से अपनी आत्मा को स्थापित करके निर्वाण की भक्ति करता है, उस भक्ति के प्रसाद से जीव असहाय गुण वाले निज आत्मा को प्राप्त कर लेता है। जो साधु रागादि के परिहार में आत्मा को लगाता है। वह योग की भक्ति करने से योगभक्तियुक्त है। इससे अतिरिक्त दूसरे को योग वैâसे हो सकता है ? जो साधु सर्व विकल्पों के अभाव में आत्मा को लगाता है वह योगभक्ति वाला है। इसके अतिरिक्त दूसरे को योग वैâसे हो सकता है ? विपरीत अभिनिवेश को छोड़कर जो जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित तत्त्वों में अपनी आत्मा को लगाता है उस आत्मा का वह निजभाव ही योग कहलाता है। वृषभ, अजित आदि जिनवरेन्द्र तीर्थंकर भी इसी प्रकार से योग की उत्तम भक्ति करके निर्वाण सुख को प्राप्त हुए हैं। इसलिए हे मुने! योग की उत्तम भक्ति को धारण करो। इस प्रकार की परमनिर्वाण भक्ति और परम योगभक्ति कब और किनके होती है सो ही टीकाकार दिखाते हैं-रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना, शुद्धध्यान समाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थित:। धर्मं निर्मलशर्मकारिणमहं लब्ध्वा गुरो: सन्निधौ, ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि।।२३४।।==गुरु के सान्निध्य में निर्मल सुखकारी == धर्म को प्राप्त करके, ज्ञान के द्वारा जिसने समस्त मोह की महिमा को समाप्त कर दिया है, ऐसा मैं, अब रागद्वेष की संतति से परिणत हुए चित्त को छोड़कर शुद्ध ध्यान के द्वारा एकाग्र हुए मन से आनंदस्वरूप तत्त्व में स्थित होता हुआ परमब्रह्मस्वरूप निज परमात्मा में लीन होता हूँ। इस प्रकार से ये उपर्युक्त भक्तियां महामुनियों के शुद्धोपयोगरूप ध्यान में ही घटित होती हैं। वास्तव में बात यह है कि मूलाचार, आचारसार आदि ग्रन्थों में मुनियों के लिए नित्य नैमित्तिक क्रियाओं में भक्तियों के करने का आदेश है, उसमें दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण में सिद्ध, प्रतिक्रमण, वीर और चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति ऐसी चार भक्तियों का विधान है। देववंदना में चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्तिरूप से दो भक्ति का विधान है। ऐसे ही नैमित्तिक क्रियाओं में ‘वीर निर्वाण’ के समय सिद्धभक्ति, निर्वाणभक्ति को करते हुए निर्वाणक्षेत्र या जिनप्रतिमा की प्रदक्षिणा का विधान है। ऐसे ही ध्यान में लीन हुए या आतापन आदि योग में प्रवीण हुए योगियों की वंदना करते समय योगभक्ति करने का विधान है। ये सब भक्ति पाठ आदि क्रियायें व्यवहार चारित्र के अन्तर्गत हैं। इन व्यवहार क्रियाओं में कुशल हुए बगैर कोई भी मुनि निश्चय क्रिया को प्राप्त भी नहीं कर सकते हैं इसलिए आज के युग में मुनि और आर्यिकायें इन आवश्यक क्रियाओं में ही अपना समय यापन करते रहते हैं क्योंकि आज इस निर्विकल्प ध्यान में स्थिर होना और निश्चयरूप निर्वाणभक्ति तथा योगभक्ति को प्राप्त कर सकना बहुत ही कठिन है। हां, इतना अवश्य है कि जो साधु इन व्यवहार क्रियाओं को करते हुए अप्रमादी रहते हैं और निश्चय क्रिया को प्राप्त करने की भावना भाते रहते हैं वे ही सच्चे साधु हैं क्योंकि यदि आगम में कथित नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं में से एक भी क्रिया समय पर नहीं होती है तो आगम में प्रायश्चित का विधान किया गया है, इसलिए जब तक निश्चय क्रियारूप निर्विकल्प समाधि और परम भक्ति को न प्राप्त कर लें तब तक व्यवहार क्रियाओं में सावधान रहते हुए आगम के अनुसार उनको यथासमय करते ही रहना चाहिए। निश्चय परमावश्यक-जो मुनि अन्य के वश में नहीं है वह अवश है और उस अवश का कर्म आवश्यक कहलाता है अर्थात् जो मुनि विषय और कषायों के वश में नहीं है वह अवश है, उसकी क्रिया का नाम आवश्यक है क्योंकि कर्म को नष्ट करने वाला जो योग-ध्यान है वह मोक्ष का मार्ग है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। पुन: कहते हैं- ==‘णवसो अवसो’ जो वश नहीं है == वह अवश है और अवश का कर्म-क्रिया है वह आवश्यक है। वह युक्ति है, अवयव रहित अर्थात् शरीर रहित होने का उपाय है ऐसा निर्युक्ति अर्थ है। जो श्रमण अशुभभाव से वर्तन करता है वह अन्य के वश में हुआ कहलाता है इसलिए उसकी क्रिया आवश्यक लक्षणरूप नहीं है। जो संयत शुभ भाव में आचरण करता है, वह भी अन्य के वश में हुआ कहलाता है इसलिए उसकी क्रिया भी आवश्यक लक्षण वाली नहीं है। जो मुनि द्रव्य-गुण और पर्यायों में मन को लगाता है वह भी अन्यवश है। मोहान्धकार से रहित श्रमण अर्थात् सर्वज्ञ या गणधर देव ऐसा कहते हैं। तो पुन: आत्मवश कौन होता है ? जो मुनि परभाव को छोड़कर निर्मल स्वभाव आत्मा का ध्यान करते हैं वे आत्मवश होते हैं और उनकी क्रिया ही आवश्यक कही जाती है। अब यहां पर समझने की बात यह है कि श्री कुंदकुंददेव के अनुसार पहले तो अशुभ क्रिया से परिणत हुए साधु अन्यवश हैं तो वहां अर्थापत्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे साधु शुभ में प्रवृत्ति कर रहे हैं। वास्तव में ये साधु सरागचर्या वाले हैं पुन: वीतरागचर्या में शुभ भावों में प्रवृत्ति करना भी अन्यवश होना है अत: शुभ-अशुभ से रहित शुद्धोपयोगी मुनि ही अन्यवश हैं ऐसा कहा है। इससे स्पष्ट हो रहा है कि श्रावक को तो यहां पर अधिकार ही नहीं है। आगे कहते हैं- ==यदि तुम आवश्यक की इच्छा करते हो तो == आत्मस्वभाव में स्थिरता को प्राप्त होवो क्योंकि इस आवश्यक से ही जीव के श्रामण्य गुणों की पूर्णता होती है। जो श्रमण आवश्यक क्रिया से हीन-रहित है वह चारित्र से भ्रष्ट है, इसलिए पूर्वाेक्त क्रम से तुम्हें आवश्यक क्रिया करनी चाहिए। यहां पर टीकाकार कहते हैं-‘अत्र व्यवहारनयेनापि समतास्तुतिवंदनाप्रत्याख्यानादिषडावश्यकपरिहीण: श्रमणश्चारित्रपरिभ्रष्ट इति यावत्’ यहां व्यवहारनय से भी समता, स्तुति, वंदना, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग इन छ: आवश्यक क्रिया से रहित है वह श्रमण चारित्र से भ्रष्ट है। जो आवश्यक क्रिया से युक्त है वह श्रमण अंतरात्मा है और जो आवश्यक क्रिया से हीन है वह श्रमण बहिरात्मा है। यहां पर टीकाकार बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह मुनि को उत्तम अंतरात्मा, असंयत सम्यग्दृष्टि को जघन्य अंतरात्मा और पांचवे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती तक को मध्यम अंतरात्मा कहते हैं। यहां पर छठे गुणस्थान से लेकर ऊपर तक को अंतरात्मा मानने से व्यवहारनय की आवश्यक क्रिया में छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती आते हैं, निश्चयनय की आवश्यक क्रिया में आठवें से बारहवें गुणस्थान तक जीव अंतरात्मा हैं। पुन: आचार्यदेव कहते हैं-जो मुनि अंतर्जल्प और बाह्यजल्प में वर्तन करते हैं वे बहिरात्मा हैं और जो इन उभय जल्प में प्रवर्तमान नहीं हैं वे अंतरात्मा हैं। जो धर्म या शुक्लध्यान से परिणत हो रहे हैं वे अंतरात्मा हैं और जो इन ध्यान से रहित हैं वे श्रमण बहिरात्मा हैं ऐसा समझो। ==यहां पर भी अन्तर्बाह्य जल्प के == अभाव वाले निर्विकल्प ध्यान में स्थित महामुनि ही अन्तरात्मा हैं किन्तु शुभ जल्प में भी वर्तन करने वाले बहिरात्मा हैं अथवा शुभ अन्तर्बाह्य जल्प में वर्तन करने वाले छठे, सातवें गुणस्थानवर्ती भी अन्तरात्मा हैं किन्तु अशुभ अन्तर्बाह्य जल्प में वर्तन करते समय मुनि बहिरात्म अवस्था में माने जाते हैं। यहां सर्वथा मिथ्यात्व की विवक्षा से ही बहिरात्मा नहीं कहा है। वैसे ही धर्मध्यानी मुनि छठे, सातवें गुणस्थानवर्ती हैं इससे ऊपर मुनि शुक्लध्यानी हैं। प्रतिक्रमण आदि क्रिया को करते हुए मुनि के निश्चयनय का चारित्र होता है इसलिए श्रमण विराग चारित्र में अपने आपको स्थित करते हैं। पुन: आचार्य कहते हैं- वचनरूप प्रतिक्रमण, वचनरूप प्रत्याख्यान, वचनरूप नियम-क्रियायें और वचनरूप आलोचना ये सब स्वाध्यायरूप हैं, ऐसा समझो। यहां पर सूत्ररूप प्रतिक्रमण पाठ का उच्चारण आदि जितनी भी वाचनिक क्रियायें हैं वे सब श्री कुन्दकुन्द देव के शब्दों में स्वाध्यायरूप ही हैं। जिनमें आवश्यक क्रिया को करने की क्षमता नहीं है उनके लिए श्रीकुन्दकुन्द देव कहते हैं- ‘हे मुने! यदि करना शक्य है तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करो, यदि शक्ति नहीं है तो श्रद्धान ही करना चाहिए।’१ टीकाकार कहते हैं-‘संहननशक्तिप्रादुर्भावे सति हंहो मुनिशार्दूल!……शक्तिहीनो यदि दग्धकालेऽकाले केवलं त्वया निजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानमेव कर्तव्यमिति। संहननशक्ति अर्थात् उत्तम संहनन की शक्ति के अभाव में हे मुनिसिंह! यदि तुम इस दग्धकालरूप अकाल में पंचमकाल में शक्तिहीन हो तो तुम्हें केवलमात्र निज परमात्म तत्त्व का श्रद्धान ही करना चाहिए। इसीपर कलशकाव्य देखिए-असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले। न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति।। अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां। निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्।।२६४।।== इस असार संसार में पाप से भरपूर == ऐसे कलिकाल का विलास होने पर, निर्दोष श्रीजिनदेव के शासन में मुक्ति नहीं होती है अत: इस काल में अध्यात्मध्यान वैâसे हो सकता है ? अत: नहीं हो सकता है इसलिए निर्मल बुद्धि वाले साधुओं को भव भय को नाश कराने वाला ऐसा निज आत्मा का श्रद्धान ही स्वीकार करते हैं। इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में उत्तम संहनन के अभाव में शुद्ध निज आत्मा का ध्यान संभव नहीं है। हां, पंचपरमेष्ठी के अवलंबनरूप पिंडस्थ, पदस्थ आदि ध्यान का अभ्यास अवश्य संभव है अत: जो आत्मा के ध्यान की चर्चा करते हैं वे जिनशासन की आज्ञा से बहिर्भूत होने से केवल अपनी आत्मा की वंचना ही कर लेते हैं। पुन: आगे आचार्य महोदय कहते हैं- जिनदेव कथित परमसूत्र में प्रतिक्रमण आदि की स्पष्टतया परीक्षा करके-समझ करके योगी को मौनव्रत सहित होकर नित्य ही निजकार्य की साधना करनी चाहिए। नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं और नाना प्रकार की लब्धियाँ हैं, ऐसा समझकर बुद्धिमानों को स्वसमय-परसमय के साथ वचन विवाद नहीं करना चाहिए अर्थात् वीतरागी बनना चाहिए। अध्यात्म योगी का कत्र्तव्य है- जैसे कोई एक दरिद्र मनुष्य निधि को पाकर गुप्त स्थान में रहकर उसके फल को भोगता है, उसी प्रकार से ज्ञानी मुनि परजनों के समूह को छोड़कर अपनी ज्ञाननिधि का अनुभव करते हैं। ==अब इस परमावश्यक अधिकार का उपसंहार करते हुए कहते हैं- == सभी पुराण पुरुष-तीर्थंकर आदि महापुरुष इसी प्रकार से आवश्यकों का पालन कर अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों को प्राप्त करके केवली अवस्था को प्राप्त हुए हैं। यहाँ पर तात्पर्य यही है कि सभी तीर्थंकर, गणधर आदि महापुरुष व्यवहार आवश्यक क्रियाओं के बल से ही निश्चय आवश्यक क्रिया को प्राप्त करते हैं क्योंकि ये निश्चय क्रियायें पूर्णतया निर्विकल्प ध्यानरूप ही होती हैं। पुन: वे महामुनि छठे-सातवें गुणस्थान से ऊपर उठकर आठवें, नवमें, दशवें गुणस्थान तक पहुँचकर मोहनीय कर्म का सर्वथा-जड़मूल से विनाश कर बारहवें गुणस्थान में पहुँचकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय का भी सर्वनाश करके तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर केवली अर्हंत हो जाते हैं। अत: आज के युग में मुनि-आर्यिकाओं को व्यवहार क्रिया को निरतिचार करते रहना चाहिए और निश्चयध्यान की शक्ति के होने से निज आत्मा के ध्यान का श्रद्धान करते रहना चाहिए तथा श्रावकों को तो मुनिपद की भावना करते हुए सर्वथा दान, पूजन आदि क्रियाओं में ही अपना उपयोग लगाना चाहिए। यही क्रम एक दिन निर्वाण को प्राप्त कराने वाला है। मार्ग का फल-श्री कुन्दकुन्ददेव ने इस नियमसार में मार्ग और मार्ग का फल इन दो बातों को कहने की प्रतिज्ञा की थी सो उसमें प्रथम और द्वितीय अधिकार में मार्ग के अन्तर्गत सम्यग्दर्शन का वर्णन किया है, पुन: तृतीय अधिकार में सम्यग्ज्ञान का वर्णन है। चतुर्थ अधिकार में मुनियों के सकल चारित्र का वर्णन है क्योंकि यहां मार्गस्वरूप रत्नत्रय में सकल चारित्र की ही अपेक्षा थी। आगे पंचम अधिकार से लेकर ग्यारहवें अधिकार तक निश्चय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि रूप से निश्चय रत्नत्रय का वर्णन किया है। अब बारहवें अधिकार में उस व्यवहार निश्चय रत्नत्रय के फलस्वरूप जो अर्हन्त और सिद्ध हैं उनका वर्णन है- व्यवहारनय से केवली भगवान सर्व को जानते हैं और देखते हैं और निश्चयनय से केवली भगवान अपनी आत्मा को ही जानते देखते हैं। केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन एक साथ वैसे ही होते हैं जैसे कि सूर्य का प्रकाश और प्रताप एक साथ होता है ऐसा समझना चाहिए। ज्ञान परप्रकाशक है और दर्शन आत्मा का प्रकाशक है तथा आत्मा स्वपर प्रकाशक है यदि कोई ऐसा मानता है तो क्या दूषण आता है सो ही अगली गाथा में दिखाते हैं- यदि ज्ञान परप्रकाशक है तो ज्ञान से दर्शन भिन्न ही रहा क्योंकि वह दर्शन परद्रव्यों का प्रकाशक नहीं है ऐसा आप कह रहे हैं। और यदि आत्मा परप्रकाशक है तो आत्मा से दर्शन भिन्न रहा क्योंकि इस स्थिति में तो वह दर्शन परद्रव्यों का प्रकाशक नहीं है ऐसा आप कह रहे हैं। ==आचार्य दूषण दिखलाकर अब अपना अभिप्राय प्रगट कर रहे हैं- == व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशक है इसलिए दर्शन भी परप्रकाशक है। उसी तरह व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशक है, वैसे ही दर्शन भी परप्रकाशक है। इसी तरह निश्चयनय की अपेक्षा ज्ञान अपनी आत्मा का प्रकाशक है इसलिए दर्शन भी आत्मा का प्रकाशक है। ऐसे ही निश्चयनय से आत्मा भी अपनी आत्मा का प्रकाशक है। यहां तक दर्शन के बारे में शंका-समाधान हुआ है। अब आगे केवली भगवान के बारे में शंका होती है- केवली भगवान् केवल अपनी आत्मा के स्वरूप को ही देखते हैं, लोक-अलोक को नहीं देखते हैं। यदि कोई ऐसा कहते हैं तो उनके लिए क्या दूषण आता है ? सो ही आगे बताते हैं- मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन द्रव्यों को, अपने को और अन्य समस्त वस्तु को देखने वाले का ज्ञान प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय होता है। ऐसे नाना गुण, पर्यायों से युक्त पूर्वोक्त संपूर्ण द्रव्यों को जो सम्यव्â प्रकार से नहीं देखता है उसका दर्शन परोक्ष दर्शन ही कहलाता है। पुन: प्रश्न उठता है- केवली भगवान् लोकालोक को जानते हंै किन्तु अपनी आत्मा को नहीं जानते हैं। यदि कोई ऐसा कहता है तो उसके लिए क्या दूषण आता है ? अगली गाथा में समाधान करते हैं- ज्ञान आत्मा का स्वरूप है इसलिए आत्मा अपनी आत्मा को जानता है। यदि आत्मा अपनी आत्मा को नहीं जानेगा तो वह अपनी आत्मा से ही व्यतिरिक्त-भिन्न हो जायेगा इसलिए आत्मा को ही ज्ञान समझो और ज्ञान को ही आत्मा समझो इसमें संदेह मत करो। इस कारण जैसे ज्ञान स्वपर प्रकाशक है वैसे ही दर्शन भी स्वपर प्रकाशक होता है। ==अब आचार्यदेव कहते हैं कि- == केवली भगवान का जानना और देखना ईहापूर्वक (इच्छापूर्वक) नहीं होता है। यही कारण है कि उन केवली भगवान् के कर्मों का बंध नहीं होता है। ऐसा क्यों ? सो ही समाधान करते हैं- परिणामपूर्वक (मन के अभिप्रायपूर्वक) वचन जीव के लिए बंध के कारण होते हैं और केवली भगवान् के वचन परिणामपूर्वक नहीं होते हैं इसलिए उनके कर्मों का बंध नहीं होता है। ईहापूर्वक (इच्छापूर्वक) वचन जीव के बंध के लिए कारण होते हैं और केवली भगवान् के वचन इच्छारहित हैं इसलिए उनके कर्मों का बंध नहीं होता है। तब यह प्रश्न हो जाता है कि बिना इच्छा के केवली भगवान विहार, उपदेश वगैरह कैसे करते हैं ? इसी पर आचार्य उत्तर दे रहे हैं- खड़े होना, बैठना और विहार करना, ये सब क्रियायें केवली भगवान की इच्छापूर्वक नहीं होती है, इसीलिए उनके कर्मों का बंध नहीं होता है। बंध तो मोहनीय कर्म के वश हुए और इंद्रिय विषयों में प्रवृत्ति करने वाले जीवों के ही होता है। यहां तक ज्ञान-दर्शन आत्मा के गुण हैं आत्मा से पृथक् नहीं हैं, इसका वर्णन करके आचार्यश्री ने केवली भगवान् के केवलज्ञान-केवलदर्शन गुण का वर्णन किया है और यह भी बतलाया है कि मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय इन चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से केवली भगवान यद्यपि समवशरण में बैठते हैं, विहार करते हैं, खड़े होते हैं, उनकी दिव्यध्वनि खिरती है फिर भी मोहनीय के अभाव में उनकी कोई भी क्रिया इच्छापूर्वक नहीं है, नैसर्गिक ही होती है अत: उनके कर्मों का बंध नहीं होता है। पुन: आयु कर्म के क्षय हो जाने से शेष प्रकृतियों का भी संपूर्ण नाश हो जाता है, पश्चात् वे केवली भगवान् शीघ्र ही एक समय मात्र में लोक के अग्रभाग पर पहुंच जाते हैं। तब वे सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। वे परमात्मा जन्म-जरा-मरण से रहित, परम, आठों कर्मों से वर्जित, शुद्ध अनंत-ज्ञान, अनंत-दर्शन, अनंत सुख और अनंतवीर्य इन चार स्वाभाविक गुणों से सहित, अक्षय, अविनाशी और अच्छेद्य-भेदन रहित हो जाते हैं। अव्याबाध, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्य-पाप से निर्मुक्त, पुनरागमन से रहित, नित्य, अचल और अवलंबन रहित हो जाते हैं। ==आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव सिद्ध परमात्मा का स्वरूप बताकर अब निर्वाण का स्वरूप बतलाते हैं- == जहां पर न दु:ख है, न सुख (इन्द्रियजन्य) है, न पीड़ा है, न बाधा है, न मरण है और न जन्म ही है वहीं पर निर्वाण है। जहाँ पर न इन्द्रियां हैं, न उपसर्ग हैं, न मोह है, न आश्चर्य है, न निद्रा है, न तृषा है और न क्षुधा ही है वहीं पर निर्वाण होता है। जहां पर न कर्म हैं न नोकर्म-शरीर आदि हैं, न चिंता है न आर्त-रौद्रध्यान है और न धर्म-शुक्लध्यान ही है वहीं पर निर्वाण होता है अर्थात् धर्म-शुक्लध्यान भी तो कर्म निर्जरा के लिए कारण है और जब पूर्णतया निर्जरा होकर मोक्ष हो चुका है तब इन ध्यानों की भी सिद्ध अवस्था में कोई आवश्यकता नहीं रहती है। पुन: प्रश्न होता है कि जब दु:ख-सुख आदि नहीं हैं तब फिर वहां पर है क्या ? सो ही आचार्य बताते हैं- वहां पर केवलज्ञान है, केवलदर्शन है, केवलसुख है और केवलवीर्य है। अमूर्तत्त्व, अस्तित्त्व और सप्रदेशत्त्व गुण भी विद्यमान है। पुनरपि आचार्य निर्वाण और सिद्ध में अभेद सिद्ध कर रहे हैं- निर्वाण ही सिद्ध भगवान हैं और सिद्ध भगवान ही निर्वाण हैं, ऐसा आगम में कहा गया है क्योंकि कर्मों से विनिर्मुक्त आत्मा लोक के अग्रभाग पर्यन्त चला जाता है, तभी उसे निर्वाण हुआ कहते हैं। यहाँ प्रश्न यह भी हो सकता है कि यह आत्मा कर्मों से मुक्त होने के बाद लोक के ऊपर अलोकाकाश में क्यों नहीं चला जाता है ? इसी के उत्तर में आचार्यदेव कहते हैं- ‘जीवों और पुद्गलों का गमन वहां तक जानो कि जहां तक धर्मास्तिकाय पाया जाता है। आगे अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय का अभाव होने से ये जीव और पुद्गल इस लोकाकाश के परे नहीं जा सकते हैं।’ ==आजकल कुछ लोगों का कहना है == कि सिद्ध भगवान में आगे जाने की योग्यता नहीं है इसलिए वे लोकाग्र से परे नहीं जा पाते हैं। उन्हें इन कुंदकुंददेव के वचनों पर लक्ष्य देना चाहिए कि१ धर्मास्तिकाय के अभाव में वे उसके परे नहीं जा सकते हैं। यदि योग्यता के अभाव की बात होती तो श्री कुंदकुंददेव भी यह कह सकते थे कि ‘योग्यताया अभावात् तस्मात् परतो न गच्छंति’ किन्तु ऐसा कथन आगम में कहीं पर भी नहीं आया है अत: धर्मास्तिकाय ऐसा निमित्त है कि जिसके बिना किसी भी जीव और पुद्गल का गमन नहीं हो सकता है। इस निमित्त को मानने से सिद्धों को सर्वशक्तिमान कैसे माना जाए ? यह कोई आपत्तिजनक बात भी नहीं प्रतीत होती है। आगे आचार्य अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए कहते हैं- नियम और नियम के फल का जो हमने कथन किया है वह केवल प्रवचन की भक्ति से ही किया है। इसमें यदि कहीं पर कुछ पूर्वापर विरोध होवे तो आगम के ज्ञाता पुरुष उसे दूर कर इसे पूरा कर दें। अभिप्राय यह है कि नियम का अर्थ प्रारम्भ में ही तीसरी गाथा में किया था कि ‘ज्ञान, दर्शन और चारित्र’ का नाम नियम है तथा उसके फल को निर्वाण कहा है। सो इस ग्रंथ में आचार्य महोदय ने जिनागम की भक्ति के निमित्त से इन दोनों का वर्णन किया है। जो यहां पर कहना है कि यदि पूर्वापर विरोध हो तो उसे दूर कर पूरा कर दो, सो ‘समयण्हा’ अर्थात् आगम के पूर्ण ज्ञाता श्रुतकेवली जैसों के लिए है न कि हम और आप जैसे साधारण अल्पज्ञानी मनुष्यों के लिए क्योंकि उन श्रीकुंदकुंददेव की अपेक्षा आज के युग के किसी भी साधु का ज्ञान अधिक तो कहा ही नहीं जा सकता है बल्कि आज के युग में कोई भी महापुरुष उनके चरण की धूलि भी नहीं हो सकते हैं पुन: आज के किसी व्यक्ति को श्री कुंदकुंददेव के आगम को संशोधित करने का अधिकार नहीं है। यदि कोई करते भी हैं तो यह उनका अतिसाहस ही है। ==आगे आचार्य कहते हैं- == यद्यपि यह जैनमार्ग सर्वथा हितकर ही है तो भी ईष्र्याभाव से कोई लोग इस सुन्दर मार्ग-जैनशासन की निंदा करते रहते हैं, उनके वचनों को सुनकर हे भव्यजीवों! तुम लोग इस जैनधर्म मेें अभक्ति-अरुचि मत करो। पुन: अंत में कहते हैं- मैंने जो यह ‘नियमसार’ नाम का शास्त्र बनाया है सो केवल अपनी स्वात्म भावना के लिए ही बनाया है। सो मैंने पूर्वापर दोष से रहित ऐसे जिनेन्द्रदेव के उपदेश को प्राप्त कर बनाया है अर्थात् इस ग्रन्थ में मैंने अपने मन से कुछ नहीं लिखा है। हमें जिनेन्द्रदेव के उपदेश के अनुसार आगम में जो भी उपलब्ध हुआ है उसी के अनुसार ही मैंने यह ग्रन्थ बनाया है। नियमसार का सार-‘इस ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय क्या है ?’ ‘मार्ग और मार्ग का फल।’ ‘मार्ग क्या है ? और मार्ग का फल क्या है ?’ ‘मोक्ष का उपाय और निर्वाण।’ ‘मोक्ष का उपाय क्या है ?’ ‘णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं।’ नियम से जो करने योग्य है वह नियम है, वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। उसमें विपरीत-मिथ्यात्व का परिहार करने के लिए ‘सार’ शब्द लगाया है। ‘विपरीत का अर्थ आपने मिथ्यात्व कैसे किया क्योंकि इसमें तो निर्विकल्प रूप निश्चयरत्नत्रय का वर्णन है अत: विपरीत का अर्थ विकल्प अर्थात् भेद रत्नत्रय करना चाहिए ?’ ‘यहीं पर अर्थ का अनर्थ हो रहा है। यदि विपरीत से भगवान कुन्दकुन्द देव का भेद रत्नत्रय का परिहार करना इष्ट होता तो वे स्वयं चार अधिकार तक इस व्यवहार रत्नत्रय का प्रतिपादन क्यों करते ? देखिए! चतुर्थ गाथा में वे ही कहते हैं कि एदेसिं तिण्हं पिय पत्तेयपरूवणा होइ।’ इन तीनों में भी प्रत्येक की प्ररूपणा करते हैं। पुन: सम्यक्त्व का लक्षण करते हुए कहते हैं- ==‘आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। == पुन: आप्त, आगम और तत्त्वों का लक्षण स्वयं बताते हैं। पहले अधिकार में गाथा १६ तक जीव तत्त्व का वर्णन है।’ द्वितीय अध्याय में गाथा ३७ तक पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इनका वर्णन करते हैं। यहां तक व्यवहार सम्यक्त्व के लिए श्रद्धान के विषयभूत छह द्रव्यों का वर्णन हो चुका है। आगे शुद्ध जीवतत्त्व का वर्णन करके नय विवक्षा खोलते हैं।जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होंति। जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण।।४७।। असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा। जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया।।४८।। एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु। सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा।।४९।।जैसे सिद्धात्मा हैं वैसे ही भव में रहने वाले संसारी जीव हैं और इसी कारण से वे जरा, मरण, जन्म से रहित हैं और आठ गुणों से अलंकृत हैं। जिस प्रकार से अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल, विशुद्धात्मा सिद्धलोक के अग्रभाग पर स्थित हैं, वैसे ही जीव संसार में है ऐसा जानना। पुन: तत्क्षण ही नय विवक्षा को स्पष्ट कर देते हैं। पूर्वोक्त सभी भाव (स्थिति, अनुभाग, बंध, स्थान आदि) व्यवहारनय का आश्रय करके कहे गए हैं। किन्तु शुद्धनय से संसार में सभी जीव सिद्ध स्वभाव वाले हैं। यहां पर आचार्यदेव का अभिप्राय व्यवहारनय से असत्य का नहीं है अन्यथा वे व्यवहार, निश्चय, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के द्वारा आत्मा को शुद्ध, सिद्ध बनाने का उपाय क्यों प्रदर्शित करते। वे कह सकते थे कि ‘वास्तव में मार्ग का फल निर्वाण है और मार्ग-जो मोक्ष का उपाय है वह असत्य है।’ क्योंकि मोक्ष का उपाय तो व्यवहारनय के आश्रित ही है किन्तु ऐसा न कहकर व्यवहार का उपदेश दिया है। आगे पुन: चतुर्थ अधिकार में पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति का कथन किया है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने महाव्रत और समिति में निश्चयनय को न घटाकर गुप्ति में अवश्य घटाया है, पुन: पंचपरमेष्ठी का लक्षण बताकर अन्तिम गाथा में कहते हैं-एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं। णिच्छयणयस्स चरणं एत्तो उड्ढं पवक्खामि।।७६।।==इस पूर्वाेक्त भावना में == (गाथा ७५ तक की भावना में) व्यवहारनय के अभिप्राय से चारित्र होता है, अब इसके आगे निश्चयनय के चारित्र को कहूँगा। इसके आगे पांचवे अधिकार से लेकर ग्यारहवें अधिकार तक निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान, निश्चय आलोचना, शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति और निश्चय परम आवश्यक इन सातों का वर्णन किया है जो ध्यान के आश्रित ही है। आगे ग्यारहवें अधिकार के अन्त में कहते हैं-सव्वे पुराणपुरिसा, एवं आवासयं य काऊण। अपमत्तपहुदिठाणं, पडिवज्ज य केवली जादा।।१५८।।सभी पुराण पुरुष इसी प्रकार से आवश्यक क्रियाओं को करके अप्रमत्त आदि (अपूर्वकरण, अनिवृत्ति- करण आदि) गुणस्थानों को प्राप्त करके केवली हो गए हैं। इसके आगे अन्तिम बारहवें अधिकार में केवली भगवान का वर्णन करके अंत में निर्वाण को प्राप्त सिद्धों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार से आचार्य महोदय ने अपने कहे अनुसार ग्यारह अधिकार में मार्ग और बारहवें अधिकार में मार्ग के फल को कहा है। उस मार्ग के व्यवहार-निश्चय दो भेद करके चार अधिकार तक व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग को कहकर पुन: आगे ग्यारहवें तक निश्चय मोक्षमार्ग को कहा है। इस तरह से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार रत्नत्रय निश्चय रत्नत्रय के लिए साधन है। निश्चय रत्नत्रय साध्य भी है और मोक्ष के लिए साधन भी है। इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रंथ मुनियों के चारित्र का ही वर्णन करता है। इसमें श्रावकों के चारित्र का कोई लेश नहीं है। इन्हीं कुन्दकुन्द आचार्य ने चारित्रपाहुड़ में तथा रयणसार में पृथक् से श्रावकों के सम्यक्त्व और चारित्र का वर्णन किया है, सो उन ग्रन्थों का भी स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।