सुगंधबाला-जीजी! शल्य किसे कहते हैं?
मालती-‘‘शल्यमिव शल्य’’ जो शल्य-कांटे के समान चुभती रहे-दु:ख देवे, वह शल्य है। महाशास्त्र तत्त्वार्थ सूत्र में ‘‘नि:शल्यो व्रती’’ यह सूत्र कहा है। इसका विशेष स्पष्टीकरण सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि ग्रंथों में किया गया है।
सर्वार्थसिद्धि में कहते हैं-‘‘शृणाति हिनस्तीति शल्यम्। शरीरानुप्रवेशिकांडादि-प्रहरणं शल्यमिव शल्यं यथा तत्प्राणिनोबाधाकारं तथा शारीरमानसबाधा-हेतुत्वात्कर्मोदयविकार: शल्यमित्युपचर्यते। तत्त्रिविधं मायाशल्यं, निदानशल्यं, मिथ्यादर्शनशल्यमिति। मायानिकृतिर्वचना। निदानं विषयभोगाकांक्षा। मिथ्यादर्शन-मतत्वश्रद्धानं। एतस्मात्त्रिविधा-च्छल्यान्निष्क्रांतो निश्शल्यो व्रती इत्युच्यते।’’
जो शृणाति अर्थात् पीड़ा देती है, वह शल्य है। जिस प्रकार शरीर में चुभा हुआ कांटा आदि प्राणियों को बाधाकर होता है, उसी प्रकार शरीर और मन संंबंधी बाधा का कारण होने से कर्मोेदयजनित विकार में भी शल्य का उपचार किया जाता है। वह शल्य तीन प्रकार की है-मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्याशल्य। माया-निकृति और वंचना अर्थात् ठगने की वृत्ति यह मायाशल्य है। भोगों की लालसा यह निदान शल्य है और अतत्त्वों का श्रद्धान यह मिथ्या शल्य है। इन तीनों शल्यों से जो रहित हैं, वही नि:शल्यव्रती कहा जाता है। इसी प्रकार से तत्त्वार्थराजवार्तिक में श्री अकलंक देव ने भी कहा है-
‘‘अनेकधा प्राणिगणशरणाच्छल्यम्। विविधवेदनाशलाकाभि: प्राणिगणं शृणाति हिनस्ति इति शल्यम्।’’
अनेक प्रकार की वेदनारूपी सुईयों से जो प्राणिगणों को छेदे, वह शल्य है। इत्यादिरूप से यहाँ भी श्री अकलंकदेव ने तीन भेद करके उनके उपर्युक्त प्रकार से ही लक्षण किये हैं। अर्थात् ये माया, निदान और मिथ्यात्वस्वरूप परिणाम ही जीव को दु:ख देने वाले हैं अत: इन्हें शल्य कहा गया है।
सुगंधबाला-एक बार एक विद्वान् ने त्यागी की सभा में भाषण करते हुए इस सूत्र के अर्थ पर विशद प्रकाश डाला था और कहा था कि यदि कोई व्रती सोचता है कि मुझे यह कार्य करना है, वह कार्य करना है तो उसके वह शल्य है। वह नि:शल्य न होकर व्रती नहीं है। ‘पुन: यह कार्य करना है इसके बाद यह कार्य करना है।’ इत्यादि भावनाएँ किस शल्य में गर्भित होंगी?
मालती-उन विद्वानों का उस समय का भाषण वहाँ पर उपस्थित व्रतीजनों पर आक्षेपपूर्ण था, जो व्रती-त्यागीजन धार्मिक निर्माण आदि कार्यों में, निर्दोष ग्रंथों के प्रकाशन आदि कार्यों में श्रावकों को प्रेरणा देते हैं, उपदेश में आचार्यों के द्वारा प्रणीत आगम को पढ़ने, स्वाध्याय करने की प्रेरणा देते हैं, उन्हीं को वे शल्यसहित सिद्ध कर रहे थे। त्यागीजन भी उनके कटाक्ष को अच्छी तरह समझ रहे थे। चूँकि वे धर्मात्माओं के विषय में अवहेलना करना, निंदा करना आदि इन विद्वान् के स्वभाव से परिचित थे।
सुगंधबाला-पुन: उन व्रतियों ने शल्य के लक्षण का स्पष्टीकरण नहीं किया!
मालती-नहीं, उन्हें अवकाश ही नहीं दिया गया, चूँकि ये विद्वान् अपनी ही सुनाते रहते हैं दूसरों की नहीं सुनते हैं। परन्तु इस प्रसंग से मुझे यह अवश्य प्रतीत हुआ है कि आचार्यों द्वारा कथित लक्षण के अनुसार ये विद्वान् स्वयं माया और मिथ्यात्व शल्य से ग्रसित हैं। देखिए! त्यागी-व्रतियों से जो कुछ कहना है उनके सामने बैठकर स्पष्ट कहना चाहिए। पहले उन्हें नमस्कार करके भक्ति प्रदर्शित करके पुन: सभा में उन्हें आक्षेपपूर्ण शब्दों से संबोधित करना यह स्पष्ट मायाचार है। दूसरी बात वे जिन पर आरोप कर रहे थे, वे साधु आगम के अनुकूल अपनी प्रवृत्ति रखने वाले, अपने गुरुओं की परम्परा और आज्ञानुसार चलने वाले थे, पुन: उन्हें शल्यवान् या अव्रती सिद्ध करना तो मिथ्यात्व ही है तथा राजवार्तिक आदि ग्रंथों के विपरीत सूत्र का अर्थ करना भी मिथ्यात्व है चूँकि ‘केवलि श्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादोदर्शनमोहस्य’ सूत्र के अनुसार वे श्रुत के विपरीत बोलकर तथा संघ आदि पर आरोप लगाकर अवर्णवाद करते हुए मिथ्यात्व का ही आस्रव कर रहे थे। एक बार की घटना और मजेदार है कि एक मंदिर में एक अहंमन्य विद्वान् रोज प्रात: भगवान के समक्ष दो-तीन घंटे स्तोत्र पाठ किया करते थे। एक बार वहाँ पर कुछ त्यागीगण पहुँचे। वे भी प्राय: प्रात:काल दर्शन के लिए मंदिर में आते थे। उन्हें देखकर स्तोत्र पाठ करते हुए ये सज्जन रोज-रोज ही भगवान को देखते हुए चिल्लाने लगते-
ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपो वपु:।
अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मया:।।
परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।
माया तैर्यग्योनस्य, ‘‘नि:शल्यो व्रती’’, विघ्नकरणमंतरायस्य।।
इन श्लोक व सूत्रों को वे बार-बार तब-तक बोलते ही रहते थे कि जब तक वे व्रतीजन मंदिर से बाहर निकल नहीं जाते। यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा, किन्तु एक दिन वे विद्वान् बहुत ही भक्ति से स्वयंभूस्तोत्र का पाठ कर रहे थे, उसमें ‘‘द्व्यक्ष: शक्र: सहस्राक्षो बभूव: बहुविस्मय:।’’ जिसका अर्थ यह है कि हे भगवन्! दो नेत्र वाला इन्द्र आपके रूप को देखकर तृप्त न होते हुए एक हजार नेत्र वाला होकर अतीव विस्मयकर हो गया। यह श्लोक बोलते-बोलते वे सज्जन देखते हैं कि यहाँ त्यागी खड़े होकर दर्शन कर रहे हैं पुन: वे उस स्तोत्र को छोड़कर स्वयं आश्चर्यकारी स्थिति को प्राप्त हो गये अर्थात् वे पूर्वोक्त ‘‘ज्ञानं पूजां’’ आदि श्लोक और सूत्रों को बार-बार बोलने लगे, यहाँ तक कि वे इतने आवेश में आ गये कि ऐसा मालूम हुआ मानो वे अभी इन त्यागियों-व्रतियों को पीट ही डालेंगे। जब कि वे हमेशा साधुओं की निंदा ही करते रहते हैं। उन्हें सत्य-असत्य यद्वा-तद्वा आरोप ही लगाया करते हैं। उनकी इस स्थिति को देखकर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि सचमुच में ये स्वयं अपने ज्ञान आदि के गर्व में उन्मत्त हो रहे हैं। ये भी पूर्ववक्ता के समान ही मायाचारपूर्वक साधुओं को सम्बोधन करते हुए आगमानुकूल प्रवृत्ति वाले त्यागियों के प्रति निंदा, अवर्णवाद आदि का प्रयोग करते हुए मिथ्यात्व से भी अपनी आत्मा को ग्रसित कर रहे हैं। निदान शल्य उनमें है या नहीं उनको वो जाने, किन्तु माया और मिथ्यात्व को तो स्पष्ट झलका रहे हैं। पर की निंदा और आत्म प्रशंसा करके तथा अपने में अविद्यमान गुणों को प्रकट कर और दूसरों के विद्यमान गुणों को ढकते हुए वे नीच गोत्र के आस्रवों के कारण में भी लिप्त हैं। भगवान के स्तोत्र के समय दूसरों को उपदेश देने का उनका यह व्यापार सर्वथा निंदनीय ही है। अस्तु! ऐसा प्रतीत होता है कि शायद पूज्यपाद स्वामी ने ऐसे ही व्यक्तियों के ऊपर करुणा करके यह श्लोक बनाया होगा-
परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव। उपकुर्वन्परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत्।।
हे भव्यात्मन्! परोपकार को छोड़कर तू अपने उपकार में तत्पर हो, अरे! पर के उपकार को करते हुए अज्ञानीजन इस दृश्यमान दिखते हुए लोगों के समान ही हैं। वास्तव में जो इस युग में अपने को ही सब कुछ समझकर त्यागी-व्रतियों को मूर्ख, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, शल्यवान आदि दोषों से युक्त समझते हैं और उन्हें इस प्रकार भाषण के बहाने या भगवान के पास स्तोत्र पाठ करने के बहाने आक्षेपपूर्ण शब्दों से सम्बोधित करते हैं, वे बेचारे परोपकार की बुद्धि के अभाव से स्वयं अपनी आत्मा को अनेक प्रकार के कर्मों से लिप्त कर लेते हैं, जिसका कि उन्हें भान भी नहीं हो रहा है। कहने का मतलब यह रहा कि ‘‘किसी र्धािमक कार्य को करने या कराने की भावना शल्य नहीं है।’ आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने भी मुनियों की चर्या को बतलाते हुए प्रवचनसार में कहा है-
दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोषणं तेसिं। चरिया हि सरागाणां, जिणिंदपूजोवदेसो य।।२४८।।
गाथा में मुनियों के लिए आदेश दिया है कि वे दर्शन और ज्ञान का उपदेश देते हैं, शिष्यों का संग्रह करते हैं और उनका पोषण करते हैं तथा जिनेन्द्र भगवान की पूजन का उपदेश देते हैं। यह सब सरागी अर्थात् छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों की चर्या मानी गई है। प्रभावना अंग के लक्षण को बतलाते हुए श्री कुन्दकुन्द ने मूलाचार में भी कहा है कि ‘‘धर्मकथाओं के उपदेश से, बाह्य योगों से, जीवों में दया करने से और भी कारणों से धर्म की प्रभावना करना चाहिए।’’ पुन: टीका में वसुनंदि आचार्य ने कहा कि ‘‘परवादिजसयाष्टांगनिमित्तदानपूजादिभिश्च धर्म: प्रभावयितव्य: इति।’’ परवादियों से शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त करना, अष्टांग निमित्तज्ञान के द्वारा और दान-पूजा आदि के द्वारा धर्म की प्रभावना करना चाहिए। श्री अकलंक देव ने जिनधर्म की रक्षा हेतु ही छह महीने तक शास्त्रार्थ किया था। श्री वङ्काकुमार महामुनि ने धर्म की प्रभावना हेतु विद्याधरों को आदेश देकर उर्विला रानी के द्वारा आयोजित जिनेन्द्र देव की रथयात्रा पहले निकलवाई थी। वर्तमान में आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की प्रेरणा से कुंथलगिरि में देशभूषण-कुलभूषण केवली मुनियों की मूर्ति और कुंभोज में बाहुबलि की प्रतिमा विराजमान हुई एवं धवला आदि ग्रंथों का प्रकाशन ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराना आदि महान-महान कार्य हुए हैं। जैन मंदिर में हरिजन प्रवेश कानून लगाने पर आचार्यश्री ने लगभग ढाई वर्ष तक अन्न का त्याग करके अथक पुरुषार्थ के बल से धर्मायतनों की पवित्रता की रक्षा की है। इन विद्वानों के द्वारा किये गये शल्य के लक्षण के अनुसार तो ये सभी आचार्य शल्य अव्रती हो जावेंगे, किन्तु ऐसी बात नहीं है। हमें आचार्यों के द्वारा कथित लक्षणों पर ध्यान देना चाहिए।
सुगंधबाला-जीजी, आपने अच्छा समाधान किया, अब मैं आचार्यों के द्वारा रचित ग्रंथों का ही स्वाध्याय करूँगी।