कोई भी श्रावक या मुनि दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं को भाते हुए केवली भगवान या श्रुतकेवली के पादमूल में तीर्थंकर नामक कर्म प्रकृति के बंध कर लेते हैं। आयु पूर्ण होने पर मरकर स्वर्ग में देव हो जाते हैं। यदि किसी ने नरक की आयु बाँध ली है, फिर सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थंकर प्रकृति बाँधी है तो वे मरकर नरक में भी जाते हैं, जैसे राजा श्रेणिक।
वे तीर्थंकर प्रकृति वाले जीव जब माता के गर्भ में आने वाले होते हैं, उससे छह महीने पहले ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर, स्वर्ग से आकर नगरी को सजाकर माता के आँगन में प्रतिदिन रत्नों की वर्षा करता है। किसी समय रात्रि के पिछले भाग में माता को सोलह स्वप्न होते हैं। वे प्रात: अपने पति से स्वप्नों का फल पूछती है। राजा कहते हैं, कि हे देवी! तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर का जीव आ गया है। उसी समय स्वर्ग से इन्द्र आदि देव आकर भगवान के माता-पिता की पूजा करके उत्तम वस्त्राभूषण भेंट देकर चले जाते हैं। श्री, ह्री आदि देवियाँ माता की सेवा करते हुये खूब तत्त्व- चर्चायें और गूढ़ प्रश्न करते हुये माता का मनोरंजन करके पुण्य बंध करती रहती हैं। बालक के गर्भ में रहने से माता को या बालक को कचित् कष्ट नहीं होता है।
जब भगवान का जन्म होता है, उसी समय चारों प्रकार के देवों के यहां घण्टे, सिंहनाद, शंख और नगाड़े बिना बजाये ही बजने लगते हैं। इन्द्र का आसन कम्पायमान हो जाता है। उनके मुकुट झुक जाते हैं और कल्पवृक्षों से पुष्पों की वर्षा होने लगती है। तब अवधिज्ञान द्वारा भगवान के जन्म को जानकर सौधर्म इन्द्र अपनी इन्द्राणी और चारों प्रकार के असंख्यातों देवों सहित ऐरावत हाथी पर बैठकर आते हैंं। नगरी की तीन प्रदक्षिणा देकर इन्द्राणी द्वारा प्रसूतिगृह में लाये गये भगवान शिशु को लेकर हाथी पर बैठकर सुमेरु पर्वत पर जाते हैं। वहाँ पांडुक शिला के सिंहासन पर भगवान को पूर्वमुख करके बिठाते हैं। क्षीर समुद्र से देवों द्वारा भर-भरकर लाये १००८ रत्नमयी कलशों से सौधर्म इन्द्र आदि देवगण भगवान का अभिषेक करते हैं। उन्हें वस्त्र आभूषणों से सजाकर उनका नाम रखकर वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर बहुत ही उत्सव करते हुए सभी देव अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं। भगवान की सेवा के लिये देवों को नियुक्त कर जाते हैं। गृहस्थाश्रम में तीर्थंकर के लिये भोजन-वस्त्र आदि सम्पूर्ण सामग्री स्वर्ग से आती है।
जब तीर्थंकर भगवान को किसी निमित्त से वैराग्य हो जाता है उसी समय लौकांतिक देव आकर वैराग्य की अत्यधिक प्रशंसा करते हुए भगवान की स्तुति करते हैं। चारों प्रकार के देव आकर भक्ति करते हैं। भगवान अपने बन्धु वर्गों से अनुमति लेकर देवों द्वारा लाई गई पालकी पर बैठ जाते हैं। पालकी को पहले भूमिगोचरी राजा उठाते हैं पुन: विद्याधर राजा उठाते हैं पुन: देव लेकर वन में पहुँचते हैंं। वहाँ रत्नशिला पर पूर्व या उत्तर दिशा में मुँह करके ‘‘नम: सिद्धेभ्य:’’ मंत्रोच्चारणपूर्वक सम्पूर्ण वस्त्राभूषणों को उतारकर वे केशलोंच करते हैं और दिगम्बर दीक्षा लेकर ध्यान मे लीन हो जाते हैं। इन्द्र उन केशों को रत्न पिटारे में ले जाकर क्षीरसमुद्र में क्षेपण कर देता है।
तपश्चरण करते हुए भगवान शुक्लध्यान में स्थिर होकर घातिया कर्मों का नाश कर देते हैंं। तब लोकालोक को एक साथ जानने वाला केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। उस समय इन्द्र की आज्ञा से कुबेर आकर आकाश में अधर बहुत ही सुन्दर समवसरण की रचना करता है। उसमें चारों तरफ चार मानस्तम्भ रहते हैं जिनके दर्शन करते ही मिथ्यादृष्टियो का मान गल जाता है। समवसरण में अगणित विभूतियाँ रहती हैं। बारह सभाओं में मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, असंख्यातों देव, देवियाँ और तिर्यंचगण बैठकर उपदेश सुनते हैं। भगवान सिंहासन पर ऊपर चार अंगुल अधर विराजमान रहते हैं। भगवान का उपदेश ७१८ भाषाओं में होता है। भगवान के विहार के समय देवगण भगवान के चरणों के नीचे स्वर्णमय कमलों की रचना करते जाते हैं। केवलज्ञान होने के पश्चात् भगवान का पृथ्वी से ऊध्र्वगमन होता है।
जब भगवान की आयु समाप्त होने को होती है, तब समवसरण विघटित हो जाता है। भगवान ध्यान में लीन हो जाते हैं, बचे हुए शेष अघातिया कर्मों का नाश होते ही उनकी आत्मा एक समय में सीधे सिद्धशिला के ऊपर लोक के अग्रभाग में विराजमान हो जाती है। उसी समय ही चारों प्रकार के देव आकर बड़ी भक्ति से शरीर का अग्नि संस्कार करते हैं और भस्म को ललाट में लगाकर अपना जन्म सफल मानते हैं।